रविवार, जुलाई 11, 2010

बे मौसम की होली : कोई नहीं है प्रियतम, पर कई हैं सहेली, क्या यह साल लाएगा जीवन में प्यार?

यदा कदा बे-मौसम होली भी खेलना चाहिए. जैसे कि अर्पिता खेल रही हैं. कुछ दिनों पहले उन्होंने होली खेली -

साल का यह दिन, जब आती है होली,
ऐसा कभी नहीं हुआ जब मैंने होली नहीं खेली.
मुझे पसंद है चेहरे रंगबिरंगी,
और गाते झूमते मस्ती करती टोली.

 

और यह भी -

इस साल की होली पर मैं हूँ अकेली,
कोई नहीं है प्रियतम, पर कई हैं सहेली.
रंगों का यह हरा भरा त्यौहार,
क्या इस साल लाएगा जीवन में प्यार?

 

खुदा करे, भले ही अभी होली नहीं है, मगर इनके जीवन में जल्द से जल्द प्यार आए.

और, कमाल है, रवि रावत होलिया राग मिलाते हुए फाग गा रहे हैं -

ईसुरी की एक और फाग:-

चलतीं कर खालें खों मुइयां,
रजऊ बैस लरकइयां,
हेरत जात उंगरियन में हो, तकती हो परछइयां,
लचकें तीन परें करिहा में, फरके डेरी बइयां,
हर तन मुख झरें पतर फूल से, जे बागन में नइयां,
धन्न भाग वे सइयां ईसुर, जिनकी आएं मुनइयां...

(तुम नीचे को मुंह करके चलती हो। अभी लड़कपन है तुम्हारा। घंूघट की कोर पर उंगली लगाकर किसे देखती हो या अपनी परछाई ही ताकती हो? तुम्हारी कोमल कमर में तीन- तीन लचक पड़ती हैं और हमारी डेरी (बायें) बांह फड़कती है। हंसती हो तो ऐसे, जैसे फूल खिलते हैं, जो हमने कभी बागों में नहीं देखे। अरे ईसुरी, उन सइयां (पति या प्रेमी) के धन्य भाग्य हैं, जिनकी तुम प्रेमिका या पत्नी हो।)

 

इधर भरत मिश्र अपने अनोखे तीर चला रहे हैं -


वे लेते हैं तो देते भी ,
इसलिए पकड़ें नहीं जाते ।
वे लेते हैं तो देते नहीं ,
इसलिए पकड़ लिए जाते।
वे न लेते हैं न देते हैं,
इसलिए परेशां किये जाते हैं।

सदियों से गड़ा शिलान्यास का पत्थर ,
बन गया वही अब रास्ते का पत्थर ।
फाइलों के पर अब झरने लगे हैं,
रास्ते में है अभी बहुत से दफ्तर ।

अंधे को आँख क्या मिली ,
सूरज से बातें करने लगा ,
परिणाम यह हुआ ,
वह फिर से अंधा हो गया ।

पान खाने का अर्थ नहीं ,
कि आसमां पर थूको ,
पीकदान तुम्हारे पास है,
अपनी हैसियत मत भूलो ।

कल थोड़ी सी जगह मांगी ,
सिर छुपाने के लिए ।
आज वे अन्दर ,
मैं बाहर ।

 

और भी अनोखे तीर हैं, जिनको खाने के लिए आपको यहाँ जाना पड़ेगा.

इधर आलोक रंजन अपने दोस्त मोहित मिश्रा के हवाले से बता रहे हैं – कमीनेपन की हद नहीं होती!

आज फिर बोलने का मन किया लेकिन सोचा इस बार किसी और की ज़बान से बोलता हूं... मोहित मिश्रा टेलीविजन पत्रकार हैं... मेरे बड़े ही अच्छे दोस्त हैं... अक्सर हम अड्डेबाज़ी करते रहते हैं... उन्होंने अपने ब्लॉग http://mohitmishra.wordpress.com पर एक जबरदस्त पोस्ट लिख दी.. मुझे पसंद आयी तो मैंने सोचा कि चलो आप लोगों के लिए भी हाज़िर कर दूं...
कमीनेपन की हद नहीं होती
क्योंकि अगर उसे हदों में बांधा जाए तो कमीनापन सिर्फ छिछोरापन बनकर रह जाता है। अक्सर आपने मीडिया समेत तमाम क्षेत्रों में सीनियर द्वारा जूनियरों को सताने के किस्से सुने होंगे। दोस्तों की महफिलों में ये चर्चा ज़रूर हुई होगी कि आखिर कैसे बॉस ने उसे या उसके साथ के एक बंदे को परेशान किया। कैसे सबके सामने उसको बेइज्ज़त किया। सीनियर जूनियर की ये मुहब्बत हज़ारों साल से बेतरतीब चली आ रही है। लेकिन शास्त्रों की मानें तो कलयुग आ गया और कलयुग में वो सब होगा जो पहले नहीं हुआ। ऐसे में सीनियर जूनियर का रिश्ता कलयुग से कैसे अछूता रहे। सो अब कुछ लोगों ने कलयुग की सत्यता साबित करने के लिए छिछोरेपन और कमीनेपन के बीच डोलते रहते हैं। बहरहाल बात कमीनेपन से निकलकर कलयुग तक आ गई तो यूं ही नहीं… बल्कि इन दिनों ये भी हो रहा है कि हमेशा सताई जाने वाली कौम जूनियर ने ठान ही है कि हज़ारों साल का बदला वो लेकर रहेंगे। और इसके लिए उन्होंने साम दाम दंड भेद जैसे पुराने पड़ चुके हथियारों के साथ ब्लैकमेल, बकैती औऱ असहयोग जैसे तुलनात्मक नए तरीकों को भी शालीनता से स्वीकार कर लिया है।….

 

आगे टारजन पीछे टारजन बोलो कितने टारजन? आवाज में सुजॉय चटर्जी ने नए-पुराने तमाम टारजन फ़िल्मों का रोचक ब्यौरा दिया है -

एक दौर ऐसा था जब टारज़न की कहानियाँ बेहद लोकप्रिय हुआ करती थी। आजकल टारज़न के चर्चे ना के बराबर हो गए हैं, लेकिन उस ज़माने में बच्चों के लिए टारज़न एक सुपर हीरो हुआ करता था। इसलिए उस ज़माने के स्टण्ट फ़िल्मकारों ने टारज़न पर बहुत सारी फ़िल्में बनाईं। चलिए हम आपको एक पूरी सूची ही दे देते हैं टारज़न वाली फ़िल्मों की। ये फ़िल्में हैं - तूफ़ानी टारज़न (१९३७- मास्टर मोहम्मद), टारज़न की बेटी (१९३८- अनुपम घटक), तूफ़ानी टारज़न (१९६२), टारज़न गोज़ टू इंडिया (१९६२), रॊकेट टारज़न (१९६३- रॊबिन बनर्जी), टारज़न और गोरिला (१९६३- जिम्मी), टारज़न और जादूगर (१९६३- सुरेश तलवार), टारज़न ऐण्ड कैप्टन किशोर (१९६४- मनोहर, एस. कृष्णन), टारज़न ऐण्ड डेलिला (१९६४- रॊबिन बनर्जी), टारज़न और जलपरी ९१९६४- सुरेश कुमार), टारज़न ऐण्ड क्लिओपैट्रा ९१९६५), टारज़न ऐण्ड दि सर्कस (१९६५- हुस्नलाल भगतराम), टारज़न ऐण्ड किंग कॊंग् (१९६५- रॊबिन बनर्जी), टारज़न कम्स टू डेल्हि (१९६५- दत्ताराम), टारज़न की महबूबा (१९६६- सुरेश कुमार), टारज़न ऐण्ड हरक्युलिस (१९६६- मोमिन), टारज़न और जादूई चिराग़ (१९६६- शफ़ी, शौकत), टारज़न इन फ़ेयरी लैण्ड (१९६८- जिम्मी), टारज़न ऐण्ड कोब्रा, टारज़न ३०३ (१९७०- हरीश धवन), टारज़न मेरा साथी (१९७४- शंकर जयकिशन), ऐडवेन्चर्स ऒफ़ टारज़न (१९८५), टारज़न (१९८५- बप्पी लाहिड़ी), टारज़न ऐण्ड कोब्रा (१९८८- सोनिक ओमी), टारज़न की बेटी (१९८८- सपन जगमोहन), लेडी टारज़न (१९९०), जंगली टारज़न (२००१)।

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और, अंत में मनीष की उपन्यासिका – 2 जुलाई 2010 अवश्य पढ़ें. मनोरंजक, हास्य-व्यंग्य और मानवीय संवेदनाओं से भरपूर. और, यदि समय हो तो अपन बैलेन्स शीट को चुस्त दुरूस्त करने लिए हर्ष छाया की पोस्ट – बैलेन्स शीट तो चुस्त है ना… पर भी नजर मार सकते हैं.

(कड़ियाँ चिट्ठाजगत के सौजन्य से)

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4 टिप्‍पणियां:

  1. अलग तरह की पोस्टों के चुनाव के लिए धन्यवाद.

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  2. बहुत सुन्दर चर्चा सर... कुछ बहुत ही बेहतरीन और अलग तरीके की पोस्ट्स का समाकलन.. थैन्क्स...

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  3. वे न लेते हैं न देते हैं,
    इसलिए परेशां किये जाते हैं।

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