पिछली चर्चा की शुरुआत अनूप शुक्ल जी ने अनूप सेठी जी की ताज़ा पोस्ट से की थी. इत्तिफाकन मैं भी उस दिन उसी पोस्ट से चर्चा का आगाज़ करनेवाला था. किसी भी चिटठा चर्चा समूह में यदि एक से अधिक चर्चाकार हैं तो उनके सामने कभी-कभी यह स्थिति आ जाती है कि वे एक ही समय पर लगभग एक सी ही पोस्टों के बारे में लिखने का सोच रहे होते हैं.
चर्चाकारों के सामने चर्चा में विविधता लाने के लिए यह भी ज़रूरी होता है कि वे पिछली चर्चा में दी गयी लिंक्स से इतर नयी सामग्री ताज़ा चर्चा में लगाएं. ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि चर्चाओं में कुछ ब्लौगों का रिपीटीशन आमतौर पर होने लगता है और अधिकांश पाठक इसे बहुधा ही पक्षपात मान लेते हैं. यह बात इस मंच पर हमेशा कही जाती रही है कि चर्चाकार अपनी अभिरुचियों, विचारधारा, और विवेकानुसार ही चर्चा प्रस्तुत करते हैं. उनके सामने यह समस्या भी होती है कि उन्हें पोस्ट के पुराने पड़ने से पहले ही अपनी चर्चा समय के भीतर ही पोस्ट करनी है. एक-दो दिन की देरी हो जाने पर वह पोस्ट चर्चा के नियमित पाठक दीगर तरीकों से पढ़ चुके होते हैं. इसीलिए हम चर्चाकार कभी-कभी पुरानी अनदेखी पोस्टों की ओर भी लौटते हैं. इस चर्चा में कुछ नयी लिंक्स के साथ भूली-बिसरी/पुरानी/अनदेखी पोस्टों का भी जायजा लिया है.
असम और पूर्वोत्तर में बाढ़ की स्थिति बनी हुई है और हम इधर दिन में कई बार बादलों की आस में आसमान तकते हैं. दिनोंदिन बढ़ती गर्मी में पसीना बेतरह चुचुआता है. बिना एसी के जीना मुहाल है. कूलर उमस फेंक रहे हैं. पशु, पक्षी, मनुष्य - सभी व्याकुल हैं. ऐसे में ब्लौगों पर भी बारिश नहीं होने की बातें आम हुईं. घुघूती बासूती जी ने अपने ब्लॉग में एक पुरानी कविता रीपोस्ट की. कविता की शुरुआत की कुछ पंक्तियाँ है:
वर्षा तुम जल्दी आना
फिर से काले बादल छाए हैं
जल गगरी भर भर लाए हैं,
बादल गरजे,बिजली चमके
अम्बर दमके,धरती महके ।
प्यासी धरती, प्यासी नदिया
सूखे तरू, सूखी बगिया,
सब तेरी राह ही तकते हैं
सब जल बिन आज सिसकते हैं ।
और कबाड़खाना पर अशोक पाण्डे ने जापानी कवि शुन्तारो तानीकावा की कविता का अनुवाद पोस्ट किया है रवीन्द्र व्यास द्वारा बनाये चित्र के साथ.
गिरो ना बारिश
उन बिना प्यार की गई स्त्री पर
गिरो ना बारिश
अनबहे आंसुओं के बदले
गिरो ना बारिश गुपचुप
गिरो ना बारिश
दरके हुए खेतों पर
गिरो ना बारिश
सूखे कुंओं पर
गिरो ना बारिश जल्दी
रवीन्द्र व्यास बहुत बढ़िया चित्रकार हैं. लंबे अरसे से उन्होंने अपने ब्लॉग 'हरा कोना' में कुछ नया नहीं लिखा है. उनकी पुरानी पोस्ट 'उड़ते हुई रुई के फाहे' मेरी सर्वकालिक पसंदीदा पोस्टों में शुमार है. इसमें भी बारिश का ज़िक्र आता है:
"बारिश का मौसम हमारे और हमारे घर के लिए यातनादायक होता था। (यह बात मुझे बहुत बाद में बड़ा होने पर पता लगी ) बारिश में हमारी छत टपकती। घर गीला न हो इसलिए मां जहां पानी टपकता, बर्तन रख देती। कहीं तपेली, कहीं बाल्टी, कहीं गिलास। घर में तब बर्तन भी ज्यादा नहीं थे। कई बार में नमक का डिब्बा खाली कर उसे कागज की पुड़िया में बांध देती और डिब्बा टपकती बूंदों के नीचे। तेज बारिश में हम भाई-बहनों की नींद खुल जाती और हमें मां-पिताजी के प्रार्थना के शब्द सुनाई पड़ते। मां-पिताजी अगली बार छत पर नए कवेलू लगवाने की बात करते। तेज बारिश में उनकी बातों से अजीब वातावरण बन जाता। बाहर पानी की बूंदें टपकती और घर में मां-पिताजी का दुःख। इसी के साथ हम भाई -बहन घर की दीवारों के पोपड़े गिरते सुनते।"
और बारिश होने/न होने पर केन्द्रित पोस्टों की श्रृंखला में एक और गीत/कविता है जयकृष्ण राय तुषार के ब्लॉग छान्दसिक अनुगायन में. 'मानसून कब लौटेगा बंगाल से' के कुछ अंश ये रहे:
आंखें पीली
चेहरा झुलसा धान का ,
स्वाद न अच्छा लगता
मघई पान का ,
खुशबू आती नहीं
कँवल की ताल से |
नहीं पास से गुजरी कोई
मेहँदी रची हथेली ,
दरपन मन की बात न बूझे
मौसम हुआ पहेली ,
सिक्का कोई नहीं
गिरा रूमाल से |
कमाल के बिम्ब हैं भाई. बहुत कुछ पढ़ते-पढ़ते अब अच्छी-बुरी कविता की पहचान तो हो चली है. जहाँ हम कुछ समझ नहीं पाते उसे अपने काव्यबोध की सीमा और कवि को प्रदत्त पोएटिक लाइसेंस की महिमा मान लेते हैं.
अब बारिश पर केन्द्रित पोस्टों की बात समाप्त करेंगे डीहवारा पर आई नयी पोस्ट 'बरसो आषाढ़ बरसो' जिसे आप वहीं जाकर पढ़िए. पोस्ट पर ताला लगा है.
दुस्साहसी ब्लौगर नीरज जाट जी कई दिनों से अपनी पर्वतीय अंचल की यात्रा की पोस्टें पढवा रहे हैं. अपनी यात्रा के क्रम में वे संस्कृत के श्लोक "काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च ... अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणः।" का रोचक विश्लेषण भी करते हैं. नीरज से रश्क होता है. काश मुझमें भी घुमक्कड़ी का ऐसा जज्बा होता.
अनुराग शर्मा जी की नयी पोस्ट में वे स्त्री-पुरुषों में सौन्दर्यप्रियता और श्रृंगारिकता के विषय को उठा रहे हैं. व्यक्तिगत विषयों और निर्णयों की बात करते हुए वे कहते है:
"स्त्रियाँ तो फिर भी साड़ी आदि के रूप में भारतीय परिधान को बचाकर रखे हुए हैं परंतु पुरुष न जाने कब के धोती छोड़ पजामा और फिर पतलून और जींस आदि में ऐसे लिपटे हैं कि एक औसत भारतीय मर्द को अचानक धोती बांधना पड़ जाये तो शायद वह उसे लुंगी की तरह लपेट लेगा। कौन क्या पहनता है इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन जब खुद पतलून पहनने वाले साड़ी का, टाई लगाने वाले दाढी का, या ब्रेसलैट पहनने या न पहनने वाले बिछुए का आग्रह करते हैं तो अजीब ज़रूर लगता है। "
अभी इतना ही। पसीने से बनियाइन भीगी जा रही है और तबीयत भी कुछ गिरी-गिरी सी है। एक बारगी सोचा कि पोस्ट मुल्तवी कर दें पर... कुछ पुराने पसंदीदा लिंक्स आपको पढवाने के विचार के साथ यह पोस्ट लिखना तय किया था लेकिन अब उसकी चर्चा किसी और पोस्ट में. चलते-चलते जापान में काम कर रहे मुनीश के ब्लॉग में पोस्ट किये पाकिस्तानी वीडियो को देखकर कुछ हंसने और सोचने का मसाला:
डीहवारा पर रजनीकांत जी की बारिश का आवाहन करती कविता बहुत अच्छी है !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा की है। ये वीडियो तो कल ही देखा। मजा आ गया।
जवाब देंहटाएं" पसीने से बनियाइन भीगी जा रही है " , चर्चाकार के पसीने की बूंद सूखने से पहले टिप्पणी कर देनी चाहिए | तभी उसे उसके श्रम का पारिश्रमिक सही मायने में मिलता है |
जवाब देंहटाएंबहुत से लिंक देखे। अच्छे हैं। सबसे सुखद रहा डीहवारा पर रजनीकांत जी की कविता पढ़ना।
जवाब देंहटाएंभीडियो अभी देखा। आनंद आ गया। दुनियाँ एक दूसरे से बहुत कुछ सीख रही है। उसे सीखने दो, जानने दो, सही गलत का फैसला खुद करने दो। कब तक अपनी चीज को अच्छी दूसरे को गलत कहते रहोगे।
जवाब देंहटाएंये वीडियो कल ही देखा था. मजा आ गया जो असुरक्षा हम अंग्रेजी को लेकर घूमते हैं वही इनमें हिंदी को लेकर है :)
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा.
सुबह पढ़ के कुछ लिंकों पर गए और फिर आभार कहने को लौटे हैं
जवाब देंहटाएंअच्छी कवितायें शामिल की हैं आपने निशांत जी. मज़ेदार वीडियो है. शानदार चर्चा.
जवाब देंहटाएंkal kshov-vash yahan upasthi-ti darz na kar paye....
जवाब देंहटाएंabhar achhe links padhwane ke liye charchakar ko...
pranam.