विष्णु बैरागी जी को मैं बहुत लम्बे अरसे से पढ़ता रहा हूँ। ब्लौग जगत की नियमित उठापटक और सरोकारी झंझटों से दूर रहके वे बहुत पठनीय पोस्टों का सृजन करते रहे हैं। इन दिनों उनके लेखन में बढ़िया तेजी भी देखने को मिली। उन्होंने सुबह-शाम लम्बी और बेहतरीन पोस्टें तो लिखीं ही, उत्तम कवितायेँ भी पोस्ट कीं। इधर चिदंबरम के हालिया बयान को लेकर जो प्रतिक्रिया हुई है उसपर बैरागी जी की नवीन पोस्ट कितनी भारी है यह कहना मुश्किल होगा लेकिन मुझे यह हाल में पढ़ी गयी सबसे अधिक सरोकारी और व्यक्तिगत पोस्ट लग रही है। ब्लौगजगत में बहुतों ने अपने अतीत से जुड़ी पोस्टें रची हैं और ईमानदारी से अपने पिछले जीवन की कड़वी-मीठी यादों को पोस्टों में संजोया है पर सच कहूं तो बैरागी जी के बाकलमखुद के आगे सब प्रसंग फीके हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि बैरागी के प्रसंग में कुछ रस है। इसे पढ़ने पर आपके मन में करुणा उत्पन्न न होना कठिन है। मैं जानता हूँ कि अपनी माँ का हाथ थामे घर-घर अन्न की याचना करने के लिए जानेवाला वह बालक अब वयोवृद्ध हो चुका है पर उसका लिखा पढ़कर मेरे सामने दसियों साल पहले की उन अनदेखी घटनाओं की फिल्म चलने लगती है। इसे फिल्म कहता हूँ तो लगता है कि मैं भी मंत्री की तरह असंवेदनशील और निर्मम हो चला हूँ। मैंने भी खुद की निर्मलता को बिसरा दिया। मैं अपने से कहीं कमतर सामाजिक व आर्थिक हैसियत के लोगों को हिकारत से देखता आया हूँ। मैं भी माफी के लायक नहीं हूँ।
बैरागी जी ने अपने बाल जीवन की जो झलक बताई उसे आप उनकी नवीनतम पोस्ट पर पढ़ें। उन्होंने हृदयहीनता के लिए मंत्रीजी को माफ़ कर दिया. वे लिखते हैं:
"हाँ! एक बात याद रखिएगा। यह गरीबों का अमीर देश है। गरीब ही इसकी परिसम्पत्तियाँ और सम्पदा हैं। आपकी अमीरी और यह ‘गुस्ताख अदा’ बनी रहे, इसके लिए गरीबों का बना रहना अनिवार्य और अपरिहार्य है। इसलिए, गरीबों की चिन्ता करना सीखिए। कोशिश कीजिए कि गरीब प्रसन्नतापूर्वक जी सकें। याद रखिए - गरीब के पास खोने के लिए अपनी गरीबी के सिवाय और कुछ नहीं है। यह भी याद रखिए कि भूखा आदमी कोई भी अपराध कर सकता है - यह हमारे धर्मशास्त्र कहते भी हैं और ऐसा करने को सहज स्वाभाविक भी मानते हैं।
आपकी शिक्षा-दीक्षा विदेश में हुई है। भारतीय साहित्य-वाहित्य की जानकारी तो आपको होगी नहीं। इसलिए तुलसी का एक दोहा लिख रहा हूँ। इसे लिखवा कर अपने टेबल के काँच के नीचे लगवा लीजिएगा -
तुलसी हाय गरीब की, कबहुँ व्यर्थ न जाय।
मरी खाल की स्वाँस से, लौह भसम हुई जाय।।"
तुलसी का यह दोहा अपनी नानी को कहते कई बार सुना। लोहे को भस्म होते कभी देखा हो, याद नहीं। भूखा आदमी कोई भी अपराध कर सकता है... पर खाया-पिया-अघाया आदमी क्या-क्या कर सकता है? खैर...
वर्षा मिर्ज़ा के ब्लौग 'लिख डाला' से खबर मिली की पिंकी प्रमाणिक के लिंग जांच के मसले पर रिपोर्ट आ गयी है। पोस्ट से किसी निष्कर्ष की जानकारी नहीं मिल रही। कहीं और (शायद फेसबुक पर) यह भी पढ़ने को मिला कि रिपोर्ट के अनुसार पिंकी बलात्कार नहीं कर सकती (?). यह सब पढ़-सुन कर मुझे बहुत असमंजस होता है। कुल मिलकर ये मसले अब इतने पेचीदा हो चले हैं कि आगे चलकर किसी भी व्यक्ति से बातचीत के पहले उसका जेंडर पूछना पड़ेगा। वर्षा लिखतीं हैं:
"स्त्री और पुरुष को सीधे-सीधे अलग करना इतना आसान नहीं। स्त्री कोमल और पुरुष सख्त जैसा कोई खाका लिंग निर्धारण में मायने नहीं रखता। टॉम बॉइश लड़की और लता से नाजुक लड़के हम सबने देखें हैं। जेंडर तो वैसे ही बदला जा सकता है जैसे लीवर, किडनी या दिल। अर्जेंटीना एक ऐसा देश है जहां व्यक्ति अपना जेंडर खुद चुनते हैं फिर चाहे वे खुद जो भी हों। वहां के नागरिक को अपना जेंडर अपनी मर्जी से चुनने का हक है। वह जो कहेगा वही माना जाएगा।"
कितना गड़बड़झाला है भाई। आखिर ये दुनिया जा कहाँ रही है? सोचिये ब्लौगजगत में ऐसा होने लगे तो क्या होगा? यदि मैं कोई स्त्रीविरोधी पोस्ट लिख दूं और घोर बवाल हो तो क्या मैं कह सकता हूँ की मैंने तो 'आत्मालोचना' की है, दफा हो जाओ पुरुषों!?
अब जेंडर आइडेंटिटी का यह जो मसला है वह कहीं-न-कहीं समलैंगिकता और समकक्ष मुद्दों से भी जुदा दीखता है। इसे लन्दन में रह रहीं शिखा वार्ष्णेय ने अपनी ताज़ा पोस्ट में उठाया है। समलैंगिक युगल बेजान गुड्डे-गुड़ियों में अपने असंभव 'शिशुओं' का बिम्ब देखकर उन्हें 'पाल' रहे हैं। एक कदम आगे बढ़कर वे नवीन तकनीकों का सहारा लेकर 'अपने' बच्चों को जन्म भी दे रहे हैं। प्रगतिशील होते हुए भी मुझे तो यह सब स्वीकार करने में बड़ी हिचकिचाहट होती है। मैं दकियानूसी होने का आक्षेप सह सकता हूँ लेकिन उन बातों को स्वीकार नहीं कर सकता जिन्हें मैं प्राकृतिक नियमों के विपरीत मानता आया हूँ। मैं उसी ऊहापोह में हूँ जैसा शिखा ने लिखा है:
"कितना आसान लगता है ना सुनने में यह सब. कोई समस्या ही नहीं. बच्चा पैदा करने के लिए एक स्त्री एक पुरुष का होना जरुरी नहीं ..जैसे बस खाद लेकर आइये खेत में डालिए और आलू प्याज की तरह उगाइये. सभी को अपना जीवन अपनी तरह से जीने का और हर तरह की खुशियाँ पाने अधिकार है.पर विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण नकारने वाले को आखिर ये शिशु जन्म और पालन जैसी इच्छा हो ही क्यों ?वो भी इस हद तक कि इन सब तरीकों में मुश्किल हो तो एक बेजान गुड्डे से पूरी की जाये.? ऐसे जोड़ों की मानसिक स्थिति मेरी समझ में नहीं आती.क्या कभी वे उस बच्चे के भविष्य के बारे में सोचते हैं?"
इस पोस्ट पर आये कमेन्ट पढ़ने लायक हैं। महफूज़ अली अपने अंदाज़ में मेरे मन की बात कहते हैं:
"देखिये नेचर के खिलाफ जो भी काम होगा तो उसका रिज़ल्ट भी अच्छा नहीं होगा.. गेइज्म और लेस्बियनिज्म कुछ है नहीं.. यह एक टाईप का सेक्सुअल फ्रस्ट्रेशन है... जो चेंज के बहाने शुरू किया जाता है.. और फिर आदत में शुमार हो जाता है.. और कुछ सोशल एटमौसफेयेर का भी असर होता है.... जैसे घर में जब बच्चा छोटा होता है.. तो घर के चाचा ..मामा.. और भी ऐसे रिश्ते .. एक अलग तरह से शोषण करते हैं.. जिनके साथ होता है.. वो फिर मानसिक विकार के शिकार हो जाते हैं.. ऐसे ही बड़े होने पर जब कोई रिश्तों में खटास या रिश्ता टूटता है तो .. उसके बाद सेल्फ सैटिसफेक्शन के लिए लोग शुरू करते हैं.. और फिर उसी में धंसते चले जाते हैं.. इसीलिए तलाक /विधवा होने के बाद लेस्बियंस बहुत मिल जाती हैं.. अगर इस मानसिक विकार को दूर करना है.. तो सबसे पहले घर से ही शुरुआत करनी होगी.. और सामाजिक रूप से सुधार करना होगा.. क़ानून बनाना तो मजबूरी होती है.. जो चीज़ प्रिवेलेंट हो जाती है तो उसके लिए क़ानून ही एक ऑलटरनेटिव होता है... वैसे ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार होना ही चाहिए.. सोशल टैबू होने से भी चीज़ें सुधरतीं हैं.. "
सामाजिक बहिष्कार का उपाय मुझे ठीक नहीं लगता। समलैंगिकता के मसले पर मैंने कुछ दिन पहले समय को ईमेल भेजकर उनके विचार पूछे थे। उत्तर में समय ने अपने ब्लौग की एक लिंक का ज़िक्र किया था। उनसे मैंने यह प्रश्न किया था: "मुझे समलैंगिकता को समझने में भी समस्या है. मैं इसे अवांछित चारित्रिक विचलन (perversion) मानता हूँ जबकि मनोविज्ञान इसे स्वाभाविक व्यावहार मानने पर तुला हुआ है." समय ने अपने उत्तर में लिखा:
जैसा कि आप जानते ही हैं, कई सारे पहलू हुआ करते हैं चीज़ों के। परिघटनाओं के पीछे कई घटक काम कर रहे होते हैं, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष। इसलिए कई असामान्य सी चीज़ों की तह में जाना थोड़ा मुश्किल होता जाता है।
आप इसकी असामान्यता की वज़ह से इसे अवांछित चारित्रिक विचलन कह रहे हैं, वहीं मनोविज्ञान की एक धारा ( क्योंकि यह वास्तविकता में अपनी उपस्थिति रखता है और कई लोगों के स्वभाव का सा ही अंग बन जाता है ) इसे स्वाभाविक व्यवहार मनवाने पर तुला हुआ है। हालांकि इसके पीछे कई दूसरे कारण, मसलन साधनसंपन्नों की कई व्यक्तिवादी, भोगवादी, पाशविक प्रवृत्तियों को जस्टीफाई करना भी होता है।
कई बार बचपन के कई अनुभवों के कारण जिसमें कि साथ के किशोरों या वयस्कों के द्वारा किए गये यौन-व्यवहारों की स्मृतियां शामिल होती हैं, यौनिकता के जोर मारने पर, और जबकि सामान्य अवसर उपलब्ध नहीं हुआ करते हैं, किशोर अवस्था में यह एक सामान्य सी प्रक्रिया हो जाती है जो कुछ किशोर इधर-उधर के मौके पर प्रयोग में ले लिया करते हैं। इसके साथ सामान्य सी यौन-जिज्ञासाओं की तुष्टि की आवश्यकता जुड़ी होती है। कई बार यह गाफ़िल बच्चों के साथ संपन्न होती है, कई बार हमउम्रों के साथ करने की हिमाकत भी कर ली जाती है। हमउम्रों के साथ, क्योंकि वे अधिक गाफ़िल नहीं हुआ करते, कुछ मामलों में ये सचेतन रूप से भी संपन्न होने लगती हैं, और उस जोड़े विशेष के लिए असहज नहीं रह जाया करती। सामान्यतः अधिकतर किशोर इससे मुक्त हो लिया करते हैं, कुछैकों में यह बाकी रह जाती है, लंबी खिंचती है और उनके लिए ये समलैंगिक संबंध अधिक सहज लगने लगते हैं। बाद में, यह हो सकता है कि वे इसके पक्ष में खुलकर खड़े होने की हिम्मत जुटा लें, इसके पक्ष में तर्क-कुतर्कों का झमेला बुन लें, विपक्ष खड़ा हो तो खुलकर पक्ष बना लें, एक संप्रदाय बन जाए। यह भी एक पहलू है।
हार्मोनिक विकारों की संभावनाओं का जिक्र उक्त लिंकित पोस्ट में किया ही जा चुका है। एक और पहलू देखिए। पुरुषसत्तात्मक समाज में, पुरुषत्व का, मर्दानगी का आभामंड़ल बचाए रखना पुरुष के लिए इतना आवश्यक हो जाता है कि वह यौनिक क्रिया में परफोरमेन्स के डर से, नामर्द साबित हो जाने के डर से इतना आक्रांत रहता है कि सभी तरह के एकांतिक यौन आनंद के मामले, जहां परफोरमेन्स की अनिवार्यता नहीं जुडी हो, अपनाने को इच्छुक रहता है। हस्तमैथुन, समलैंगिकता, पशुगमन, बच्चों-किशोरों के साथ छुटपुट क्रियाएं, कई अन्य तरह की यौन तृप्तिकारक क्रियाएं, जहां सिर्फ़ आनंद के साथ सिर्फ़ एकांतिक स्खलन से मुक्त हो लिया जाए, मर्दानगी भी कायम रह जाए, लिप्त रहने को उत्सुक रहता है। यह मनोविज्ञान कई सारे असामान्य यौन-व्यवहारों को समझा सकता है।
अब इससे आप जूझिए कि इसे कहां रखना चाहेंगे। :-)
अब इससे आप जूझिए कि इसे कहां रखना चाहेंगे। :-)
आशा करता हूँ की समय उनकी मेल को सार्वजानिक करने को अन्यथा नहीं लेंगे क्योंकि यह इस पोस्ट के लिए बेहद उपयोगी है।
अपने ब्लौग में प्रवीण पांडेयजी हमारे जीवन और विश्व से पानी के सम्बन्ध को रेखांकित कर रहे हैं। पानी जीवन के लिए कितना ज़रूरी है यह बताना गैरज़रूरी सा है। 'जल ही जीवन है' यह छोटा सा जुमला ही सब कह देता है। पानी की महत्ता पर अपनी पोस्ट में प्रवीण जी कहते हैं:
"बड़ा जटिल संबंध है, तपन का सावन से, सावन का जल से, जल का जन से और जन का तपन से। त्राहि त्राहि मच उठती है जब सावन रूठता है, हम असहाय बैठ जाते हैं, अर्थव्यवस्था के मानक असहाय बैठ जाते हैं, गरीबों के चूल्हे असहाय बैठ जाते हैं। बड़ा ही गहरा संबंध है, सावन की बूँदों में और हमारे आँखों और पसीने की बूँदों में। सावन की बूँदें या तो सागर को भरती हैं या पृथ्वी के गर्भ के जल स्रोत को, एक खारा एक मीठा। एक सीधा सा सिद्धान्त तय मान कर चलिये, आप सावन की बूँदों को जितना खारापन देते हैं, सावन की बूँदें आपको उतना ही खारापन वापस करती हैं, पसीने के रूप में, आँसू के रूप में। आप सावन की बूँदों को जितना मीठापन देंगे या कहें जितना उसे पृथ्वी के गर्भ में जाने देंगे, उतनी ही मिठास आपके जीवन में भी आयेगी।"
ज़िंदगी बहुत जटिल होती जा रही है। पुराने मसले हल हुए नहीं कि नए मुद्दे सर उठा लेते हैं। बहरहाल, दुनिया का बदलना बदस्तूर जारी है। इसके साथ ही पुराने फ़ितने और नए फितूर अपनी मंजिल और अंजाम को बरक्स पाते रहेंगे। दुनिया बनी रहेगी, बची रहेगी। कुछ बिगड़ेगी, कुछ संवरेगी। पानी और रिश्तों में मिठास बनी रहे, हमारे और आपके दिल में सचाई और ईमान की प्यास बनी रहे, आत्मा की उजास बनी रहे... इसी उम्मीद के साथ... चलते-चलते...
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!
बादल, बिजली, रैन अंधियारी, दुख की मारी परजा सारी
बूढ़े, बच्चे सब दुखिया हैं, दुखिया नर हैं, दुखिया नारी
बस्ती-बस्ती लूट मची है, सब बनिये हैं सब व्यापारी बोल !
अरी, ओ धरती बोल ! !
राज सिंहासन डाँवाडोल!
कलजुग में जग के रखवाले चांदी वाले सोने वाले
देसी हों या परदेसी हों, नीले पीले गोरे काले
मक्खी भुनगे भिन-भिन करते ढूंढे हैं मकड़ी के जाले
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!
क्या अफरंगी, क्या तातारी, आँख बची और बरछी मारी
कब तक जनता की बेचैनी, कब तक जनता की बेज़ारी
कब तक सरमाए के धंधे, कब तक यह सरमायादारी
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!
नामी और मशहूर नहीं हम, लेकिन क्या मज़दूर नहीं हम
धोखा और मज़दूरों को दें, ऐसे तो मजबूर नहीं हम
मंज़िल अपने पाँव के नीचे, मंज़िल से अब दूर नहीं हम
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!
बोल कि तेरी खिदमत की है, बोल कि तेरा काम किया है
बोल कि तेरे फल खाये हैं, बोल कि तेरा दूध पिया है
बोल कि हमने हश्र उठाया, बोल कि हमसे हश्र उठा है
बोल कि हमसे जागी दुनिया
बोल कि हमसे जागी धरती
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!
उर्दू के महान शायर - मजाज़
यदि मैं कोई स्त्रीविरोधी पोस्ट लिख दूं और घोर बवाल हो तो क्या मैं कह सकता हूँ की मैंने तो 'आत्मालोचना' की है, दफा हो जाओ पुरुषों!?
जवाब देंहटाएं:) :)
क्या भरोसा निशांत जी? हो सकता है कि लोग अपने बचाव के लिए ऐसा भी लिखने लगें :) यदि समलैंगिक रिश्तों को अप्राकृतिक संतानोत्पत्ति की स्वीकृति मिल सकती है, तो कुछ भी हो सकता है.
अब कोई फोटू वोटू भी लगा दिया करिए न :-)अपने सहधर्मी से जरा भी प्रेरित नहीं हैं ?
जवाब देंहटाएंबेहतरीन आलेखों और महान शायर-मजाज़ ने इस पोस्ट को संग्रहणीय बना दिया है।
जवाब देंहटाएंभूल सुधार..
जवाब देंहटाएंमहान शायर मजाज़ की नज्म ने...
जो शिखा की पोस्ट पर कहा वही यहाँ कह रही हूँ
जवाब देंहटाएं----------
आप ने कहा आप को बच्चे की चिंता हैं , आगे आने वाले समय में समाज से उसको क्या मिलेगा
शिखा जी
वर्तमान में आप उसको स्वीकार कर ले , भविष्य खुद अपना निर्णय ले लेगा
बच्चा चाहना केवल पति पत्नी का अधिकार क्यूँ हैं ??
आप बता सकती हैं क्या की पति पत्नी बच्चा क्यूँ चाहते हैं
परिवार के सुख के लिये यानी पति पत्नी परिवार नहीं होते हैं
परिवार बच्चे के आने से बनता हैं और परिवार सब चाहते हैं चाहे वो किसी भी प्रकार के सम्बन्ध में ही क्यूँ ना हो .
बच्चा दो लोगो को जोड़ता हैं
हम सड़क पर भी अगर जाते हैं तो अनजान बच्चे की आखें अगर हमारी आँखों से टकराती हैं और वो मुस्कुराता हैं तो हम भी मुस्करा ही पडते हैं और स्वयं उस से उस पल में उस पल के लिये ही जुड़ जाते हैं
उसी प्रकार से समलैंगिक भी एक दूसरे से जुड़ जाते हैं एक बच्चे के आने से .
विदेशो में बच्चा गोद लेना एक फैशन हो गया हैं , क्युकी पैसा बहुत हैं , बच्चे कम हैं
अब समस्या ज्यादा उन बच्चो की हैं जिन्हे एक कपल { कपल का अर्थ विवाहित भारत में प्रचलित है पर विदेशो में जोड़े को कपल कहते हैं } गोद ले लेता हैं , लेकिन फिर जब कपल अलग होता हैं तो बच्चा फिर एक नये कपल के पास यानी २ कपल के बीच में बड़ा होता हैं और फिर उसको दुबारा गोद भी लिया जाता हैं { समझाना ज़रा मुश्किल हैं , पर आप समझ गयी हैं }
आज से २० साल बाद का समाज क्या होगा , ये सोच कर हम अपना वर्तमान क्यूँ ख़राब करे , ये सोच लोगो को अपनी ख़ुशी और अपनी इच्छा पूरा करने के लिये प्रेरित करती हैं
१० साल पहले तक तो हम हिंदी ब्लॉग नाम की बात को भी नहीं जानते थे , २० साल पहले समलैंगिकता की बात नहीं होती थी
अब ब्लॉग लिखा जाता हैं यूके में , टिपण्णी आती हैं गाजियाबाद से , जब ये संभव हैं तो २० साल बाद का समाज क्या होगा , व्यवस्था क्या होगी
क्युकी तब ऐसे बच्चे बहुत होंगे और व्यसक होगे , एक दूसरे के प्रति ज्यादा जुड़ाव महसूस करेगे
@"देखिये नेचर के खिलाफ जो भी काम होगा तो उसका रिज़ल्ट भी अच्छा नहीं होगा..
नेचर अपने को ठीक रखने में अपने में बदलाव लाने में और हम में बदलाव लाने में , हम से ज्यादा सक्षम हैं
अब नेचर के ना जाने कितने अर्थ हैं
किसी को किसी का नेचर अच्छा लगता हैं तो किसी को बुरा
समलैंगिक का अपना नेचर हैं और वो नेचुरल भी हो सकता हैं
कितना गड़बड़झाला है भाई। आखिर ये दुनिया जा कहाँ रही है? सोचिये ब्लौगजगत में ऐसा होने लगे तो क्या होगा? यदि मैं कोई स्त्रीविरोधी पोस्ट लिख दूं और घोर बवाल हो तो क्या मैं कह सकता हूँ की मैंने तो 'आत्मालोचना' की है, दफा हो जाओ पुरुषों!?
लो बोलो
स्त्रीविरोधी पोस्ट स्त्री लिखे तो आत्म आलोचना और
पुरुष विरोधी पोस्ट अगर पुरुष लिखे तो स्त्रीवादी
ये शब्दों के खेल हैं ना निशांत इन में आप भी अब माहिर हो ही चले है , आफ्टर ऑल ब्लॉग जगत का रंग हैं . यहाँ की परिपाटी हैं सब चीज़ को किसी ना किसी वाद से जोड़ दो और वाद विवाद करो
रचना जी,
हटाएंयदि सभी सवालों के जवाब के लिए भविष्य का मुंह ही ताकेंगे तो चल चुकी दुनिया. यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे आज पर ही हमारा कल निर्भर करता है. मैं रूढ़ियों के पक्ष में नहीं हूँलेकिन यह सच है कि रूढ़ियाँ हमेशा ही बुरी नहीं होतीं. यदि हमारे समाज का एक बड़ा तबका व्यक्तिगत स्वतंत्रता की आड़ में विपरीत आचरण करेगा तो इसका खामियाजा देरसबेर सभी को भुगतना पड़ेगा.
नेचर से यहाँ मतलब है प्राकृतिक व्यवस्था. किसी व्यक्ति के नेचर की बात नहीं हो रही है. मनुष्य प्रकृति से पहले ही बहुत बिगाड़ कर चुका है. इसके परिणाम छिपे नहीं हैं.
और मेरे लिखने का यह मतलब नहीं था कि "स्त्रीविरोधी पोस्ट स्त्री लिखे तो आत्म आलोचना और पुरुष विरोधी पोस्ट अगर पुरुष लिखे तो स्त्रीवादी". यहाँ किसी वाद की बात नहीं हुई और विवाद खड़ा हो गया?:)
जेंडर आइडेंटिटी / समस्याओं के संबंध में सुनील दीपक जी की पोस्टें बेहद ज्ञानपरक हैं. उन्हें सभी को पढ़ना चाहिए.
जवाब देंहटाएंऔर, इस विषय में किसी भी तरह की अज्ञानी (और प्रमुखतः व्यक्तिगत सोच वाली, अवैज्ञानिक किस्म की) बातें कहने से पूर्व बारबरा और एलन पीस की किताब - "व्हाई मैन लाई एंड वीमन क्राई" नामक किताब का पारायण करना चाहिए.
मैं शर्त लगा सकता हूँ कि तमाम लोगों (आपकी भी, निशांत जी,) की विचारधारा में रेडिकल चेंज आ जाएगा.
@ इसीलिए तलाक /विधवा होने के बाद लेस्बियंस बहुत मिल जाती हैं..
जवाब देंहटाएंइस प्रकार के कमेन्ट को वाह वाह की क्षेणी मै रखना और चर्चा मंच पर रखना एक विकृति हैं . मै नहीं जानती महफूज़ और निशांत { क्युकी ये कमेन्ट निशांत के मन के करीब हैं } कितनी ऐसी विधवा और तलाक शुदा को जानते हैं .
इतनी घटिया बात और उस पर विवेचना वो भी तारीफ़ की , अफ़सोस हैं
महफूज़ की सारी बातों से सहमति नहीं है. और कहीं 'वाह-वाही' नहीं की. इस तरह नुक्ताचीनी करने लगेंगे तो कोई कभी कुछ कहना ही नहीं चाहेगा. महफूज़ की बात गलत हो सकती है (मैंने तो ऐसा कभी कुछ नहीं पढ़ा-सुना-देखा). यह उसका ओब्ज़ेर्वेशन है. लेट हिम क्लैरिफाई.
हटाएंएक विमर्श ब्लॉग पर चल रहा है और एक एफ बी पर भी.सबने अपनी अपनी सोच और विचार रखे हैं. उसी तरह हर एक को अपनी जिंदगी जीने का भी हक होता है.
जवाब देंहटाएंपर हाँ निशांत जी !इस मामले में शायद मैं भी दकियानूसी हूँ. इन फेक्ट कल इसी विषय पर एक किशोरी से बात करते समय मुझे सुनने को मिला कि "यू आर बीईंग सो स्टीरियो टिपिकल ऑन दिस :):).
घोर बवाल हो तो क्या मैं कह सकता हूँ की मैंने तो 'आत्मालोचना' की है, दफा हो जाओ पुरुषों!?
जवाब देंहटाएं:):):):):)
एक शानदार विषय आधारित चर्चा...
बहुत अच्छी चर्चा ! सुबह पढ़ी थी अब टिपिया रहे हैं। सुन्दर!
जवाब देंहटाएंदुनिया हमारे बचपन से लेकर अाजतक, ही बदल गयी है। बच्चे की चाह का होना किसी भी मनुष्य के लिए सामान्य बात है. और अब जबकि जीवनसाथी, घर, परिवार, देश, माता-पिता सब एक समय के बाद छूट जाते हैं, बच्चों के साथ ही किसी भी मनुष्य का न टूटने वाला रिश्ता पनपता है. मेरे बच्चों के साथ गे या लेसबियन परिवारों के बच्चे पढतें हैं, और अपने बच्चों को मैं यही कहती हूँ कि कई तरह के परिवार संभव है., माता-पिता, अकेली माता, अकेले पिता, दो माँ या दो बाप वाले भी. अपने समाज और समय की मेरी जितनी भी समझ है, उस पर जितना संभव हो सकता है, अपनी निजी चुनावों और पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर सोचने की कोशिश करती हूँ. इतना ही कहूंगी, कि हमारे चाहे-अनचाहे हमारे बच्चे, अपने दोस्तों, स्कूलों, खेल के मैदानों और मीडिया के ज़रिये इस बात से परिचित हो रहे हैं कि परिवार का कोई एक खाका नहीं है. यही एक्सपोजर उन्हें इस तरह के परिवारों से आये बच्चों को स्वीकार करने, उनका उपहास न उड़ाने, और उनके जीवन में सामाजिक त्रास न पैदा करने में मदद करेगा.
जवाब देंहटाएंअच्छा यही है कि अपने से भिन्न लोगों के लिए, चाहे वों दूसरे धर्म/जात, रंग या फिर सेक्सअल प्रवृति के हो उदार हो जायें, किसी तरह की सामाजिक पीड़ा उन्हें न पहुंचाए और जितना सद्दाव संभव हो उसे बनाने में योगदान दें, उंगलियाँ उठेगीं तो फिर हर तरह के माँ-बाप पर उठेंगी. अभी बंगाली कपल का स्वीडन वाला केस पुराना नहीं हुआ है. और २०१० में एक भारत से आये १८-१९ साल के बच्चे की कुछ हरकतों/कोतुहल की वजह से उसके अमरीकी रूममेट ने आत्महत्या की, और वों भारतीय बच्चा दो साल से जेल में हैं, उसकी लम्बी सजा का फैसला होना अभी बाक़ी है. तो हमारी आज की नैतिकता की कीमत हर तरह के बच्चे चुकायेंगे.
अपनी समझ से इसी विषय पर तीन साल पहले भी कुछ लिखा था
http://swapandarshi.blogspot.com/2009/07/02.html