आज 25 जुलाई हो गयी। आज प्रणब बाबू महामहिम बनेंगे। वे राष्ट्रपति पद की शपथ लेंगे। पहले राजघाट जायेंगे। टीम अन्ना अपना अनशन शुरु करेगी। वे भी शायद राजघाट जायें। टीवी पर फ़िर से भ्रष्टाचार पर बहस शुरु होगी। उधर लंका में पहले मैच जब भारत ने कुछ रनों से श्रीलंका को हराया था तो भर दिन गाना बजता रहा है ऐसे हराया वैसे पटका। अब जब कल नौ विकेट से श्रीलंका मैच जीता तो उसकी खबर गोल। बहरहाल!
कुछ दिन नियमित चर्चा करने के बाद हम छुट्टी पर चले गये। कुछ लोगों ने इधर-उधर से कहा भी कि चर्चा काहे नहीं करते जी। कायदे से हमको सिद्धेश्वर जी की तरह चर्चा-छुट्टी लेकर जाना चाहिये। जैसे सिद्धेश्वरजी ने ब्लॉग से छुट्टी के लिये अर्जी दी है:
इसी बहाने मुझे याद आ गयी प्रियंकर जी की एक कविता जिसमें यह कल्पना की गयी थी कि अगर कभी सूरज ने अपनी रोशनी का बिल भेज दिया चुकाने के लिये तब क्या हाल होंगे दुनिया के। दुनिया का सबसे बुरा दिन होगा वह:
इससे यह अंदाजा लगता है कि सीखने की हमारी प्रक्रिया एक ही होती है। वे आगे लिखती हैं:
ज्ञानजी जब भी किसी के बारे में लिखते हैं तो उनमें एक इच्छा यह जरूर जाहिर करते हैं कि उसके जैसा जीवन वे भी जीना चाहते हैं। बीस-पचीस तरह के जीवन जीने की इच्छा तो वे जाहिर कर ही चुके होंगे अब तक अपने ब्लॉग पर। सबसे ताजी जीवन शैली उनके अपने समधी जी की है जो उनको ललचाती नजर आई! कुछ दिन पहले रतलाम की सड़कों पर टहल चुके ज्ञानदत्त जी आजकल फ़ेसबुक/ट्विटर पर ज्यादा टहलते पाये जाते हैं।
बहुत हो गया आज चलें वर्ना रतीराम पान वाले की तरह कोई कहेगा:
ब्लोग से छुट्टी कुछ दिन और अभीसिद्धेश्वरजी की ब्लॉग-छुट्टी बढ़ने की सूचना मिली तो लगा शायद उन्होंने छुट्टी पर जाने के पहले भी अप्लाई किया होगा। लेकिन वहां जाकर देखा तो लैंगस्टन ह्यूज की यह कविता दिखी:
मौज - मस्ती कुछ दिन और अभी
हुक्का और हम , हम और हुक्का
कुछ दिन और कुछ दिन और अभी
आए बारिश और सहसा चूम ले तुम्हेंअब देखिये क्या मामला है। कवि को बारिश से प्यार है और कवि चाहता है कि बारिश आये और किसी और को चूम ले। इसे क्या कहा जायेगा? कवि के मन का उदात्त भाव, या कुछ और? कवितायें देखते हुये पढ़ते-पढ़ते ब्लॉग तक गये। यहां मनोज पटेल एर्नेस्तो कार्देनाल की कविता पेश करते हैं:
आए बारिश और तुम्हारे शीश पर
दस्तक दें चाँदी की तरल बूँदें।
आए बारिश और गाए तुम्हारे लिए लोरी
आए बारिश और रास्तों पर निर्मित कर दे
ठहरे हुए जलकुंड
आए बारिश और नाबदानों में बहा दे
सतत प्रवहमान सरोवर
आए बारिश और हमारी छत पर
गाए निद्रा का अविरल गान।
और क्या कहूँ !
प्यार है मुझे बारिश से।
समय में है दूरी,और उड़ता जाता है समय,यह कविता पढ़ते हुये एक बार फ़िर से लगा कि दुनिया बड़ी डम्प्लाट है। लाखों-करोड़ों प्रकाश वर्ष की दूरी ऐसी लगती है जैसे चवन्नी-अठन्नी। ब्रह्मांड के प्रसार के बारे में जानकारी देते हुये अपने एक लेख में लाल्टू जानकारी देते हैं:
२० करोड़ मील प्रतिघंटे की रफ़्तार से
बढ़ता जा रहा है ब्रह्माण्ड शून्य की ओर
और तुम जैसे लाखों वर्ष दूर हो मुझसे।
ब्रह्मांड के प्रसार में त्वरण का कारण डार्क एनर्जी या अँधेरी ऊर्जा को माना जाता है। ब्रह्मांड का तीन चौथाई हिस्सा इसी तमसीय ऊर्जा से भरा है। करीब पाँचवाँ हिस्सा अँधेरा पदार्थ कहलाता है। बाकी हिस्से का अधिकांश नक्षत्रमंडलों के बीच की गैसों का है। आधे प्रतिशत से भी कम मात्रा नक्षत्रों आदि की है। यह जानकारी इंसान को अपनी क्षुद्रता जानने के लिए काफी होनी चाहिए बशर्ते कि वह अपनी खासियत को भी समझता हो, जो उसे हर दूसरे इंसान के बराबर खड़ा करती है - एक ही जैसी वैज्ञानिक जिज्ञासा से संपन्न प्राणी मात्र।वैज्ञानिक खोजों को किस नजरिये से लिया जाना चाहिये इस पर अपनी बात कहते हुये लाल्टू लिखते हैं:
आज न केवल दकियानूसी ताकतें विज्ञान के खिलाफ सक्रिय हैं, कई बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने हितों के लिए वैज्ञानिक तथ्यों को सामने ला रहे वैज्ञानिकों के खिलाफ आक्रामक रूप से सरगर्म हैं। इसलिए ज़रूरी है कि हम विज्ञान-कर्म को सतही तौर पर नहीं, जहाँ तक बन पड़े, गहराई तक जाकर जानने की कोशिश करें। जैसा आइंस्टाइन ने कहा था - वास्तव जगत को जानने में विज्ञान महज बचकानी हरकत सा लगता है, पर यही हमारी सबसे मूल्यवान पूँजी है।
इसी बहाने मुझे याद आ गयी प्रियंकर जी की एक कविता जिसमें यह कल्पना की गयी थी कि अगर कभी सूरज ने अपनी रोशनी का बिल भेज दिया चुकाने के लिये तब क्या हाल होंगे दुनिया के। दुनिया का सबसे बुरा दिन होगा वह:
सबसे बुरा दिन वह होगाबहरहाल अभी तो सूरज इतना खफ़ा नहीं दिखता इसलिये इसकी चिंता छोड़ी जाये। अभी तो देखिये कि हितेन्द्र अनंत की चिंता विविधता मर रही है:
जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
सूरज भेज देगा
‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा
जीवन से विविधता के अदृश्य होना एक त्रासदी है। विविधता का मिटना केवल इसलिये दुःख़दायी नहीं कि इससे सौंदर्य नष्ट हो रहा है, बल्कि यह भी कि यह सब प्राकृतिक न होकर कृत्रिम है। एक संस्कृति विशेष के लिये रास्ता बनाते हुए संसार की बाकी सारी संस्कृतियों को खत्म किया जा रहा है। विडंबना यह कि जो इस आक्रमण का शिकार हैं वे स्वयं नहीं जानते कि उन पर आक्रमण हुआ है। ऐसे आक्रमण से अवश्य लड़ना होगा।इस विविधता की दुनिया से अलग चलते हैं घर की दुनिया में और देखें कि बच्चे भाषा कैसे सीखते हैं। क्योंकि पैरों में पहिए हैं और घुमन्तुओं की सोहबत है... की पंचलाइन वाले ब्लॉग घुमन्तू लिखने वाली अनु की पोस्ट से अंदाजा लगता है कि बच्चे कैसे भाषा सीखते हैं। मां जब बच्ची को बताती हैं कि वे जो लोग उल्लू जैसे नहीं दिखते उनको उल्लू/उल्लू का बच्चा नहीं कहना चाहिये तो बच्ची का सवाल होता है-
"लेकिन आप भी तो हमको कहते हो मम्मा... सोनचिरैया, तोता, कोयल, बिलोरी..."
इससे यह अंदाजा लगता है कि सीखने की हमारी प्रक्रिया एक ही होती है। वे आगे लिखती हैं:
ये भी सच है कि बच्चों को कहां-कहां बचाएंगे? पार्क में साथ खेलनेवाला कबीर 'अबे ओय' कहकर आदित को बुलाता है तो मुझे अपने गुस्से पर नियंत्रण के लिए दस तक की गिनती गिननी होती है। छोटा भीम बच्चों को 'बुली बच्चों' को धराशायी कर देने के गुर सिखाता है और तरह-तरह के स्टंट्स दिखाता है तो मैं टीवी बंद कर देना चाहती हूं। स्कूल बस पर उन्हें चढ़ाते हुए बस में गूंजती जलेबी बाई की मटकती-झटकती आवाज़ सुनाई देती है तो मैं ड्राईवर से चैनल बदल देने की गुज़ारिश ही कर सकती हूं। सुबह के अख़बार को लेकर बैठने के क्रम में 'प्लेबॉय' के कवर शूट से लौटी शर्लीन चोपड़ा बत्तीसी के साथ और सबकुछ निपोड़ती दिखाई देती है तो मेरे साथ-साथ मेरे बच्चे भी देख रहे होते हैं।अगर आपके मन में सवाल उठता है कि (बावजूद तमाम विपरीत हालातों के) लड़कियां इतनी खुश कैसे रह लेती !! तो आइये वाणीगीत पर और जानिये इस बारे में। वे लिखती हैं:
....वह जितनी अपने करीब आती गयी वैसी ही होती गयी , जैसे कि ईश्वर ने उसे किसी के लिए बनाया . उस लड़की ने कहानी में सब कहा , जोड़ा और स्वयं भी वैसी हो गयी . जब वह लड़की बड़ी हुई , माँ हुई तब उसने अपनी बेटी को सुनायी यही कहानी ... पीढ़ी दर पीढ़ी सब कहते सुनते गये , खुशहाल होते गये .... वरना ऐसा कैसे हो सकता था कि लड़कियां इतनी खुश रह लेती !!!!इसी बहाने देखते चलिये कि शबाना आजमी कैसे अपने अब्बा से जुड़ी यादें बयान करती हैं। कैफ़ी साहब के लिखने के तरीके के बारे में जानिये :
कैफी साहब का लिखने का अपना अंदाज था. जब डेडलाइन आती थी, तब वे लिखना शुरू करते थे. वो रात को गाने लिखने बैठते थे. उनका एक खास तरह का राइटिंग पैड होता था. वे सिर्फ मॉन्ट ब्लॉक पेन से लिखते थे. बाकी उनकी कोई जरूरत नहीं होती थी. ऐसा नहीं होता था कि बच्चों शोर मत करो, अब्बा लिखना शुरू कर रहे हैं. उनका अपना स्टडी का कमरा था, उसको वो हमेशा खुला रखते थे. हम लोग कूदम-कादी करते रहते थे. रेडियो चलता रहता था, ताश खेला जा रहा होता था. मैं हमेशा अब्बा से यह सवाल पूछती थी कि क्या गाने हकीकत की जिंदगी से प्रेरित होते हैं? अब्बा कहते थे कि शायर के लिए, राइटर के लिए, यह बहुत जरूरी है कि जो घटना घटी है, वह उससे थोड़ा सा अलग हो जाए, तब वह लिख सकता है. फिल्म की जो लिरिक राइटिंग है, वह महदूद होती है. वो सिचुएशन पर डिपेंड होती है. शायर जिंदगी को परखता है. जब आप जिंदगी के दर्द को महसूस करते हैं, जिंदगी से मुहब्बत महसूस करते हैं तब आप अपने अंदर के इमोशन से इन टच रहते हैं.उनके लिखने से ही जुड़ा एक रोचक तथ्य यह भी बताया गया देखिये:
-कैफी आजमी केवल मॉन्ट ब्लॉक पेन से लिखते थे. उनकी पेन की सर्विसिंग न्यूयॉर्क के फाउंटेन हॉस्पिटल में होती थी. जब उनकी मौत हुई, तो उनके पास अट्ठारह मॉन्ट ब्लॉक पेन थे.बहुत दिन बाद ब्लॉग की दुनिया में लौटीं डा.आराधना ने अपने बचपन की कुछ यादें साझा कीं। इन यादों को साझा करने के साथ वे कुछ शब्दों चलन से बाहर हो जाने की बात भी साझा की है! वे लिखती हैं:
आज की पीढ़ी ने स्टीम इंजन चलते नहीं देखा। उसके शोर को नहीं सुना। उसके धुएँ से काले हो जाते आसमान को नहीं देखा। बहुत सी और यादें हैं, और भूले हुए शब्द। अनेक लोहे के औजार बाऊ अपने हाथों से बनाते थे और उस पर ‘टेम्पर’ भी खुद ही देते थे। संडसी, बंसुली, खुरपी, कुदाल, फावड़ा, नहन्न्नी, पेंचकस, कतरनी, गँड़ासी, आरी, रेती ... इनके नाम सुने हैं क्या? या सुने भी हैं तो याद हैं क्या?आज की पीढ़ी जब पढ़ा तो लगा कि ई डा.आराधना कौन पीढ़ी की हैं भाई! :)
ज्ञानजी जब भी किसी के बारे में लिखते हैं तो उनमें एक इच्छा यह जरूर जाहिर करते हैं कि उसके जैसा जीवन वे भी जीना चाहते हैं। बीस-पचीस तरह के जीवन जीने की इच्छा तो वे जाहिर कर ही चुके होंगे अब तक अपने ब्लॉग पर। सबसे ताजी जीवन शैली उनके अपने समधी जी की है जो उनको ललचाती नजर आई! कुछ दिन पहले रतलाम की सड़कों पर टहल चुके ज्ञानदत्त जी आजकल फ़ेसबुक/ट्विटर पर ज्यादा टहलते पाये जाते हैं।
बहुत हो गया आज चलें वर्ना रतीराम पान वाले की तरह कोई कहेगा:
"...ई शुरू हो गए. पूरा इतिहास बांच दिए हियें. पहिला कच्छा में केतना नंबर मिला था. दूसरा में केतना मिला. कौन-कौन मास्टर कब-क़ब का बोला लड़िका के बारे में. आ शुरू हुए तो शेस होने का नाम ही नहीं. हम कहते हैं की ससुर एगो बात शुरू हुआ त कहीं ख़तम भी होना चाहिए की नहीं? बाकी इनको कहाँ खियाल है ई सब चीज का? आ पूरा आधा घंटा चाट के गए हैं."आज के लिये इत्ता ही। बाकी फ़िर कभी। नीचे का फोटो देवेन्द्र पाण्डेय की पोस्ट से:
Bahut dinon baad is blog pe aayee hun.....ab diye gaye links padhana shuru karungi.
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा में तो बड़े आर्टिस्टिक टाइप लिंक थे.. :)
जवाब देंहटाएंमूड फिलोसफियाना हो गया...
घुमंतू और अराधना को पढकर आयें हैं अभी.हमेशा की तरह मजा आ गया पढकर. बाकियों पर अब जाते हैं.
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिंक्स हैं.
कवितामयी चर्चा में फोटो ग़ज़ब के हैं .
जवाब देंहटाएंकवि किसी और को चूमेगा तो बारिश को चूमेगा। प्यार पर शक काहे को करते हैं?:)
जवाब देंहटाएंप्रिंयकर जी की कविता और आपके कमेंट में उनका उत्तर बहुत अच्छा लगा।
वाणी जी का व्यंग्य भी अच्छा लगा।
कैफी आज़मी पर आलेख शानदार है।
अपना चित्र फिर से बहुत अच्छा लगा।:)
..तजबीज कर, छांट-छांट कर पढ़ा।.. और नहीं पढ़ पाया। पढ़ पाता तो शायद वो भी अच्छा लगता। :)धन्यवाद।
जय हो जय - जय
जवाब देंहटाएंbahut badiya andaj mein photo sahit kavitamayee prastuti padhna ruchikar laga..
जवाब देंहटाएं