"दुनिया में सबसे आसान काम होता है, अपने माता-पिता को गालियां देना। सबसे सोफ़्ट टार्गेट हैं, सबसे निकट भी, और इसलिए भी कि वे झेल भी जाते हैं। अधिकतर मां-बाप अपने पास उपलब्ध संसाधनों, परिस्थितियों और जैसी भी समझ है, उसके साथ अपने बच्चों को, उनके हिसाब से बेहतर या कहें श्रेष्ठ देने की कोशिश करते है।"
समय ने अपने ब्लॉग "समय के साए में" यह किन्हीं मानवश्रेष्ठ को लिखा है, जो अपनी कतिपय समस्याओं के समाधान के लिए उन्हें ईमेल भेजते हैं. समय कौन है, यह जानना महत्वपूर्ण नहीं है. संभव है वह हममें से ही कोई हो, या वह अपने क्षेत्र का कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति भी हो सकता है जो अपनी पहचान को सार्वजनिक नहीं करना चाहता. समय को पढ़ना परिवर्तनों की एक सतत प्रक्रिया से होते हुए गुज़रना है. इसमें आप यह भी जान लेते हैं कि आपने देखे-अनदेखे, चाहे-अनचाहे आप स्वयं को भीतर-ही-भीतर बुनते-उधेड़ते रहते हैं. आप स्वतः बदलते हों या बदलाव का शिकार बनते हों, इनके प्रति आपकी प्रतिक्रिया और आपकी व्याख्या ही समग्रता में आपको वह बना देती है जो आप शायद भूले-से भी न बनना चाहते हों. अपनी कुछ पोस्टों में समय ने कुछ व्यक्तियों द्वारा उन्हें भेजी गयी मेल्स में उनकी व्यक्तिगत समस्याओं का विश्लेषण किया है और उन्हें कुछ परामर्श दिया है. लेकिन यह पत्रिकाओं में छपनेवाला "पाठकों की समस्याएँ" या "ऐगोनी ऑंट" जैसा परामर्श नहीं है. यह उनकी समस्याओं के वर्णन का deconstruction है. समय लिखते हैं:
"एक बात तो हुई होगी, जब हम इस तरह से अपने दिमाग़ की वस्तुस्थिति को अभिव्यक्त करते हैं, और वह भी ख़ासकर लिखित रूप में, एक अनोखा सा सुकून मिलता है। दिमाग़ से एक बड़ा बोझ सा उतरता सा लगता है। आप अपनी इस कहानी या कहें संक्षिप्त सी आत्मकथा को लिखने में ही काफ़ी मज़ा सा लिए होंगे, समस्या की बात करते करते ऐसा लगा होगा कि जैसे आप किसी और की समस्या पर बात कर रहे हैं, उससे दूर सा हो रहे हैं।"
समय को भेजी गयी मेल्स पर आधारित पोस्टें उनके ब्लॉग पर "मेल के ज़रिये संवाद" लेबल में संकलित हैं. इन्हें पढ़ना एक विशेष अनुभव से होते हुए गुज़रना है. इसमें किसी की निजता के उदघाटन का वह चट्खारापन नहीं है जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया. समय के इन संवादों में "आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।"
अपने पाठक की कतिपय भ्रांतियों का निराकरण करते हुए वे कहते हैं: "काश इच्छाएं करना ही पर्याप्त होता, काश कल्पनाएं ही पेट भर दिया करतीं। क्षमा कीजिएगा, आपने अपने गुरू जी, कुछ सीखा ही नहीं, सिर्फ़ पूजा करने से, विचार और गुण प्राप्त नहीं हो जाते। काश सभी को ऐसे प्रेरणास्रोत मिले होते, आपको सभी कुछ सहज सुलभ हो रहा है, आपके पिताजी की कृपा से, इसलिए आपको इनका मूल्य मालूम नहीं।"
समय को पढ़ते हुए मेरा ध्यान इस ओर भी चला जाता है कि यह संभवतः अपनी तरह का एकमात्र ब्लॉग है जिसमें मनोविज्ञान और संबंधित विषयों पर स्तरीय सामग्री है जिसे सतही संदाज़ में नहीं परोसा गया है. और यह भी कि ब्लौगर की विशेषज्ञता मनोविज्ञान के क्षेत्र में तो है ही परंतु उसमें विपरीत विषयों और विचारों को परस्पर जोड़ने की वह अंतर्दृष्टि है जो व्यक्ति के निज दर्शन का निर्माण करती है. कुछ व्यक्तियों को समय का लेखन कठिन और दुरूह लग सकता है पर उसे अधिक सहज बनाने से विषयवस्तु के छिछले होने का डर है.
चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की प्रपौत्री माधवी शर्मा गुलेरी अपने ब्लॉग पर अपने परदादा को याद कर रहीं हैं. जहाँ तक मुझे याद उन्होंने अपने परदादा के बारे में पहले भी कुछ पोस्टें मनोयोग से लिखीं हैं.
अकबर इलाहाबादी को क्वोट करते हुए भारत भूषन जी यह भी लिखते हैं, "लीडरों के बारे में देश की राय आजकल अच्छी नहीं. कभी कोई भला ज़माना रहा होगा जब लीडर अच्छे थे. अब तो हर शाख़ पर बैठे हैं. आप ही ने बताया था-
समय ने अपने ब्लॉग "समय के साए में" यह किन्हीं मानवश्रेष्ठ को लिखा है, जो अपनी कतिपय समस्याओं के समाधान के लिए उन्हें ईमेल भेजते हैं. समय कौन है, यह जानना महत्वपूर्ण नहीं है. संभव है वह हममें से ही कोई हो, या वह अपने क्षेत्र का कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति भी हो सकता है जो अपनी पहचान को सार्वजनिक नहीं करना चाहता. समय को पढ़ना परिवर्तनों की एक सतत प्रक्रिया से होते हुए गुज़रना है. इसमें आप यह भी जान लेते हैं कि आपने देखे-अनदेखे, चाहे-अनचाहे आप स्वयं को भीतर-ही-भीतर बुनते-उधेड़ते रहते हैं. आप स्वतः बदलते हों या बदलाव का शिकार बनते हों, इनके प्रति आपकी प्रतिक्रिया और आपकी व्याख्या ही समग्रता में आपको वह बना देती है जो आप शायद भूले-से भी न बनना चाहते हों. अपनी कुछ पोस्टों में समय ने कुछ व्यक्तियों द्वारा उन्हें भेजी गयी मेल्स में उनकी व्यक्तिगत समस्याओं का विश्लेषण किया है और उन्हें कुछ परामर्श दिया है. लेकिन यह पत्रिकाओं में छपनेवाला "पाठकों की समस्याएँ" या "ऐगोनी ऑंट" जैसा परामर्श नहीं है. यह उनकी समस्याओं के वर्णन का deconstruction है. समय लिखते हैं:
"एक बात तो हुई होगी, जब हम इस तरह से अपने दिमाग़ की वस्तुस्थिति को अभिव्यक्त करते हैं, और वह भी ख़ासकर लिखित रूप में, एक अनोखा सा सुकून मिलता है। दिमाग़ से एक बड़ा बोझ सा उतरता सा लगता है। आप अपनी इस कहानी या कहें संक्षिप्त सी आत्मकथा को लिखने में ही काफ़ी मज़ा सा लिए होंगे, समस्या की बात करते करते ऐसा लगा होगा कि जैसे आप किसी और की समस्या पर बात कर रहे हैं, उससे दूर सा हो रहे हैं।"
समय को भेजी गयी मेल्स पर आधारित पोस्टें उनके ब्लॉग पर "मेल के ज़रिये संवाद" लेबल में संकलित हैं. इन्हें पढ़ना एक विशेष अनुभव से होते हुए गुज़रना है. इसमें किसी की निजता के उदघाटन का वह चट्खारापन नहीं है जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया. समय के इन संवादों में "आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।"
अपने पाठक की कतिपय भ्रांतियों का निराकरण करते हुए वे कहते हैं: "काश इच्छाएं करना ही पर्याप्त होता, काश कल्पनाएं ही पेट भर दिया करतीं। क्षमा कीजिएगा, आपने अपने गुरू जी, कुछ सीखा ही नहीं, सिर्फ़ पूजा करने से, विचार और गुण प्राप्त नहीं हो जाते। काश सभी को ऐसे प्रेरणास्रोत मिले होते, आपको सभी कुछ सहज सुलभ हो रहा है, आपके पिताजी की कृपा से, इसलिए आपको इनका मूल्य मालूम नहीं।"
समय को पढ़ते हुए मेरा ध्यान इस ओर भी चला जाता है कि यह संभवतः अपनी तरह का एकमात्र ब्लॉग है जिसमें मनोविज्ञान और संबंधित विषयों पर स्तरीय सामग्री है जिसे सतही संदाज़ में नहीं परोसा गया है. और यह भी कि ब्लौगर की विशेषज्ञता मनोविज्ञान के क्षेत्र में तो है ही परंतु उसमें विपरीत विषयों और विचारों को परस्पर जोड़ने की वह अंतर्दृष्टि है जो व्यक्ति के निज दर्शन का निर्माण करती है. कुछ व्यक्तियों को समय का लेखन कठिन और दुरूह लग सकता है पर उसे अधिक सहज बनाने से विषयवस्तु के छिछले होने का डर है.
इसी के साथ यह भी कहना उपयुक्त होगा कि अभी भी ऐसे कुछ विषय हैं जिनपर किसी ब्लॉग में समर्पणभाव से नहीं लिखा गया है. इनमें वे विषय भी शामिल हैं जिनपर लोग दबे-छिपे लिखते पढ़ते हैं, जैसे यौनता. इटली में रहनेवाले डॉ. सुनील दीपक ने अपने ब्लॉग "जो ना कह सके" में यौनता पर कुछ अच्छी पोस्टें लिखीं है पर उनका लेखन रैंडम है. कुछ विषयों पर पाठ को अश्लील और सतही बनाये बिना लिखना सरल नहीं है. इसके लिए लेखक को मेडिकल, क्लीनिकल, सोशल, और साइकोलॉजिकल लेवल्स पर जानकारियों से पुष्ट भी होना चाहिए ताकि वह तथ्यों का आकलन सही प्रकाश और दृष्टि से कर सके. ऐसा बहुतेरे जन नहीं कर पाते इसलिए इन विषयों पर कुछ लिखने के बाद उनकी धारा खंडित हो जाती है.
खैर... अब विषयांतर करते हुए हाल ही में आई कुछ पोस्टों की चर्चा की जाए. इस चर्चा को लिखने के दौरान लिंक टटोलने के लिए अंतरजाल पर भ्रमण करते समय अदा जी की एक री-पोस्ट पर निगाह गयी. इसमें उन्होंने ब्लॉग जगत में व्याप्त एक प्रवृत्ति पर अपने विचार व्यक्त किये हैं. इसी के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने यह भी लिखा है कि उनकी अनुमति के बिना उनके नाम और ब्लॉग एड्रेस लिंक आदि का उपयोग नहीं किया जाए. उन्होंने ऐसा क्यों कहा है वह आप उनकी पोस्ट पढ़कर विस्तार से समझ सकते हैं. बहरहाल, हम उनकी भावना का सम्मान करते हैं. हमें खेद है कि इस चर्चा में हम उनसे पूछे बिना उनके नाम और ब्लॉग पोस्ट का उल्लेख कर रहे हैं अन्यथा उनकी पोस्ट को चर्चा में संकलित करना कठिन होगा. अदा जी से निवेदन है कि वे चिटठा चर्चा में अपनी पोस्ट के संकलन के लिए पोस्ट-फैक्टो अप्रूवल या ब्लैंकेट परमीशन दें. अपनी पोस्ट में उन्होंने जिस प्रवृत्ति का वर्णन किया है उसके परिणामस्वरूप आयेदिन ब्लौगजगत में विवाद और छीछालेदर की स्थिति बनते देखी है अतः हम उनके विचारों का आदर और समर्थन करते हैं.
बाह्य जगत में जो कुछ भी घटित हो रहा होता है हम ब्लौगर उससे अछूते नहीं रहते बहुत से ब्लौगर उसे अपनी नयी पोस्ट का विषय बनाते हैं. कुछ दिन पहले गैंग्स ऑफ वासीपुर पर बहुत सी पोस्टें पढ़ने को मिलीं. इसी कड़ी में डॉ. अरविन्द मिश्र जी की ताज़ा पोस्ट यह रही. और दो-तीन दिन से हिग्स बोसोन की खोज पर आधारित अनेक बढ़िया पोस्टें आईं हैं. इनमें से मेरी पसंद की पोस्टों में शामिल है ललित कुमार की पोस्ट "हिग्स बोसोन: ईश्वरीय तत्व?". ललित बता रहे हैं कि " हिग्स बोसोन को गॉड पार्टीकल इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि यह कण सृष्टि के लिए उत्तरदायी है। इसी के कारण पदार्थ अस्तित्व में आया और आकाशगंगाएँ, सूरज, चांद, सितारे, धरती, पेड़, पौधे, और हम बने। हिग्स बोसोन के बारे में नतीजे आते ही ईश्वर में कट्टर आस्था रखने वाले लोगों ने प्रश्न उठाया कि यदि हिग्स बोसोन ही दूसरे कणों को भार देता है तो खुद हिग्स बोसोन में भार कहाँ से आता है? यह उसी तरह का प्रश्न है कि यदि ईश्वर ने हमें बनाया है तो ईश्वर को किसने बनाया? मेरा मानना यह है कि यदि हम ईश्वर को आदि अनंत, अजन्मा मान सकते हैं तो हिग्स बोसोन को क्यों नहीं?"
विज्ञान पर एकाग्र ब्लॉग वौयेजर पर इस खोज से जुड़ी डॉ. मीनाक्षी नटराजन के लेख का अनुवाद किया गया है. ताला लगी इस पोस्ट को आप वहीं जाकर पढ़िए. ऐसी पोस्टों पर लगे ताले को तोड़ने का उपाय हमें पता है पर इतनी फुर्सत किसे है!
मेघनेट पर भारत भूषन जी की पोस्ट से ही मुझे यह पता चला कि प्रसिद्द ग़ज़ल "हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है" के शायर और कोई नहीं बल्कि मशहूर अकबर इलाहाबादी ही हैं. इस पोस्ट में उन्होंने अकबर इलाहाबादी के बारे में बताते हुए उनके कुछ बेहतरीन चुटीले शेर भी प्रस्तुत किये हैं. मुलाहिजा फरमाइए, "कभी “हट, क्लर्क कहीं का” एक चुभने वाली गाली थी. लेकिन आज 'सरकारी क्लर्क' ख़ानदानी चीज़ है. सुरक्षित नौकरी, बिना काम वेतन और ‘ऊपर की कमाई’. एमबीए वाली हाई-फाई नौकरियाँ ही अपने इकलौते भाई 'सरकारी क्लर्क' को हेय दृष्टि से देखती हैं. आपने कहा भी है–
चार दिन की ज़िंदगी है कोफ़्त से क्या फायदा
कर क्लर्की, खा डबल रोटी, खुशी से फूल जा.
कर क्लर्की, खा डबल रोटी, खुशी से फूल जा.
अकबर इलाहाबादी को क्वोट करते हुए भारत भूषन जी यह भी लिखते हैं, "लीडरों के बारे में देश की राय आजकल अच्छी नहीं. कभी कोई भला ज़माना रहा होगा जब लीडर अच्छे थे. अब तो हर शाख़ पर बैठे हैं. आप ही ने बताया था-
कौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ
क्या बात है भाई! सुभान अल्लाह!
और बीते दो दिनों में विष्णु बैरागी जी ने अपने ब्लॉग में कई नयी पोस्टें लिख दीं. सब एक-से-बढ़कर एक. ताज़ा पोस्ट में उठावने जैसा दबा-सा विषय उठाया है. पोस्ट में कई चुटीले और तंज़ करते वाकये हैं पर बैरागी जी एक वाकये का ज़िक्र करते लिखते हैं: "एक सज्जन ने अपनी माँ का उठावना, सैलानावालों की हवेली (मोहन टॉकीज) में किया। खूब बड़ा सभागार है यहाँ। पूरा सभागार खचाखच भर गया। इन सज्जन ने व्यावहारिकता बरती और मन्दिर जाने-आने की परम्परा तोड़कर, वहीं शान्ति-पाठ करवा कर उठावने का समापन कर दिया। सबने राहत की साँस ली। समीक्षकों ने खूब तारीफ की। कहा, इनका मन्दिर दूर था, जाते तो सबको तकलीफ होती, बाजार में ट्राफिक जाम होता, जिनका उठावने से कोई लेना-देना नहीं, वे लोग भी परेशान होते। याने, कुल मिलाकर प्रशंसनीय निर्णय घोषित किया गया। किन्तु समीक्षकों में से एक ने कहा - ‘यार! बाकी सारी बातें तो ठीक हैं लेकिन कुछ भी कहो, उठावने का मजा नहीं आया।"
कुछ समय पहले Pintarest नाम से एक नयी बुकमार्किंग सुविधा शुरू हुई जिसका उपयोग करके आप विविध विषयों पर वर्चुअल बोर्ड बनाकर उसमें कई चीज़ों, जैसे फोटो, वीडियो, ब्लॉग पोस्टों को पिन-अप कर सकते हैं. अपनी पसंद की हिंदी ब्लॉग पोस्टों को भूलने से बचाने के लिए मैंने भी एक बोर्ड बनाया है जिसे आप यहाँ देख सकते हैं. अपने ब्राउज़र में लिंक सहेजना या पोस्टों को ईमेल में मंगाकर इन्बौक्स भरने से बेहतर है इस सुविधा का उपयोग.
अपने दिन भर का होमवर्क दे दिया :-)
जवाब देंहटाएंहाँ मेरी पोस्ट के उल्लेख के लिए आभार
मगर मेरे जेहन में आया शायद आपने पिंकी
प्रामाणिक की प्रामाणिकता वाले मामले को ही न उठाया हो !
अच्छी चर्चा है निशांत जी. फिलहाल तो उस ब्लॉग का ज़िक्र किया जाना चाहिये था, जहां महिलाओं के साथ अभद्रता की जा रही है. तमाम समझाइशों के बाद भी फ़ूहड़ दलीलें दी जा रही हैं. मैं, जोकि न के बराबर ब्लॉग-भ्रमण करती हूं, कि निगाह उस ब्लॉग पर पड़ गयी, तो आप चर्चाकारों की निगाह में तो होगा ही.
जवाब देंहटाएंthanks vandana ki aap ne is baat ko uthayaa
हटाएंबढ़िया चिट्ठा चर्चा
जवाब देंहटाएंमेरा कमेंट ही स्पैम में क्यों जाता है?? :( :(
जवाब देंहटाएंरोचक लिंक हैं। इतवारी चर्चा पढ़ने के अपने मजे हैं। Pintarest आजमा के देखते हैं। :)
जवाब देंहटाएंनिशांत जी,
जवाब देंहटाएंचिटठा-चर्चा पर चर्चा का स्तर बहुत ऊँचा है...मैंने पहले भी कहा है, चिट्ठों की सही चर्चा यहीं देखने को मिलती है...लेखक तो बस लिख जाता है, लेकिन पाठक ने क्या समझा, कुछ हद तक आपके यहाँ देखने-समझने को मिल जाता है...एक पाठक के रूप में आप उसकी विवेचना करते हैं, जिसे पढ़ कर लेखक की भी तीसरी आँख खुल ही जाती है...उसे अपनी कमियाँ नज़र आतीं हैं, साथ ही उसे अपने स्ट्रोंग पॉइंट्स भी देखने को मिल जाते हैं ...
मेरी पोस्ट को आपने स्थान दिया, हृदय से आभारी हूँ...
यहाँ एक खुलासा करना चाहूँगी...'चिटठा-चर्चा' जैसे सम्मानीय ब्लॉग पर ख़ुद को देखना सुखद होता है...आपके ब्लॉग पर मेरे लेखन का ज़िक्र, मेरा ज़िक्र, या मेरी पोस्ट्स का ज़िक्र कभी भी ग़लत तरीके से नहीं होगा, इतना विश्वास 'चिटठा-चर्चा' ने अर्जित कर लिया है...इसलिए आप बेधड़क इस विश्वास का उपयोग कर सकते हैं...मेरी समस्या कुछ इने-गिने लोगों से है जो समर्थन, आलोचना, प्रशंसा के नाम पर नामों और तस्वीरों का दुरूपयोग कर रहे हैं...मेरी यह पोस्ट भी इसी बात की ओर इंगित करती है...
बकिया, चर्चा की का कहें..धर्मेन्द्र पा जी की तरह 'चुन-चुन कर लाये हैं, चुन-चुन कर लाये हैं...' :)
agar bina khojne ki mehnat kiye achchhi cheeje padhni ho to chittha charcha pe aa jana chahiye
जवाब देंहटाएंआज थोड़ी फुर्सत मिली तो सबसे पहले यही आये अब यहाँ से जाने के कई रास्ते आपने सुझा दिए। शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंचलता हूँ, देखूँ कितना समेट पाता हूँ। एक से एक बढ़िया लिंक हैं। और चर्चा भी सॉलिड है।
बुकमार्किंग वाली सुविधा देखने चले हम !
जवाब देंहटाएंप्रेम कुछ अधिक ही कहलवा जाता है। चर्चाकार की सजग उपस्थिति और हस्तक्षेप यहां नज़र आता है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया निशांत।
'कुछ व्यक्तियों को समय का लेखन कठिन और दुरूह लग सकता है पर उसे अधिक सहज बनाने से विषयवस्तु के छिछले होने का डर है.'
जवाब देंहटाएंसौ फीसदी सहमत| सहजता वांछनीय रहती है लेकिन कहीं कहीं और कभी कभी सहजता छिछलेपन की और भी ले जाती है|
आनंद आ रहा है आजकल चिठाचर्चा पर, नजर न लग जाए कहीं:)
:):):)
हटाएंpranam.
निशांत जी,
जवाब देंहटाएंकृपया बताएं। "यौनता" यह शब्द और भी जगहों पर लिखा गया है। पूछना चाहता हूं यह कितना नया है? पुरानी हिन्दी में तो मिलता नहीं। यौनाचार, ऐंद्रिक, आदि सुना था। सेक्सुयालिटी का अनुवाद है क्या?
-हितेन्द्र
हितेंद्र, हिंदी शब्द-व्याकरण आदि का मेरा ज्ञान भी कुछ अच्छा नहीं है इसलिए मैं अपनी समझ से इसका उत्तर दूंगा:
हटाएंयह सही है की 'यौनता' जैसा कोई शब्द हिंदी में नहीं है. यह शब्द डॉ. दीपक की पोस्टों में दिखा इसलिए उसे ले लिया.
यह 'सेक्सुअलिटी' का सहज अल्टरनेटिव है, अनुवाद नहीं कहूँगा. 'सेक्सुअलिटी' के लिए कामुकता व् लैंगिकता का उपयोग हो सकता है.
जैसे सहज से बना सहजता, वैसे ही यौन से बना यौनता. शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर यह गलत हो सकता है जिस प्रकार यौनाचार सही है पर सहजाचार गलत है.
यदि यौनता शब्द गलत भी हो तो मुझे स्वीकार्य है. इसमें जो ध्वनि है वह हिंदी शब्द की ही है. और यह 'यौनता ' को बेहतर अभिव्यक्त भी कर रहा है.
आपको क्या लगता है?