दो दिन पहले हिन्दी ब्लॉगिंग के दस साल पूरे हुये। कुछ अखबारों में देखा लोगों ने बयान जारी किया है। हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में बताया है। अगले दिनों में कुछ और बयान आयेंगे। लेख भी और वार्तायें भी। चलिये हम भी आपको कुछ झलकियां दिखाते हैं।
हिन्दी ब्लॉगिंग की पहली पोस्ट आलोक कुमार ने लिखी 21 अप्रैल, 2003 को। पहली पोस्ट में कुछ ये लिखा गया:
हिन्दी के प्रथम चिट्ठाकार आलोक कुमार से एक बातचीत आप यहां पढ़ सकते हैं।।
आलोक के पहले विनय रोमन हिन्दी में हिन्दी से जुड़ी गतिविधियों के बारे में जानकारी अपने चिट्ठे पर लिखते रहते थे। हिन्दी भाषा में उस समय जो भी काम हो रहे थे उनके बारे में जानकारी वे अपने ब्लॉग पर लिखते रहते थे। उनके ब्लॉग के मत्थे पर केदारनाथ सिंह की यह कविता मौजूद है:
यह वह समय था जब हिन्दी के सभी अखबार अलग-अलग देवनागरी मुद्रलिपियों में अखबार निकाल रहे थे। नेट पर अखबार पढ़ने के लिये बहुत दिनों तक उनके फ़ांट भी उतारने पड़ते थे। शुरुआती ब्लॉगरों के लिये हिन्दी में लिखने का औजार तख्ती था। तख्ती की सहायता से। इसीलिये हम अपने को तख्ती के जमाने का ब्लॉगर कहते हैं।
शुरुआती दौर के कुछ ब्लॉगरों के नाम यहां दिये हैं। इसमें हिन्दी की पहली महिला चिट्ठाकार पद्मजाका भी नाम जुड़ना है। पद्मजा ने ब्लॉग बनाया सितम्बर 2003 में। लेकिन पहली पोस्टिंग की हुई जून 2004 में। जब उन्होंने लिखा:
पंकज नरुला मार्च 2004 में और रविरतलामी 20 जून 2004 में ब्लॉग अखाड़े में आये। ब्लॉगजगत के शुरुआती दिनों के खलीफ़ा रहे देबाशीष, पंकज और रविरतलामी। हिन्दी के शुरुआती दौर के ब्लॉग अभिव्यक्ति में छपे रविरतलामी के लेख अभिव्यक्ति का नया माध्यम ब्लॉग को पढ़कर कई लोगों ने अपना ब्लॉग बनाया। इसी को पढ़कर और देबाशीष के ब्लॉग पर मौजूद की बोर्ड सहायता से मैंने भी अपना ब्लॉग बनाया और पहली पोस्ट में बमुश्किल सिर्फ़ इत्ता लिख पाया:
शुरुआती अनाड़ीपन के चलते हमने अपने यहां आयी तीन टिप्पणियां भी मिटा दीं। बाद में पता जीतेन्द्र, इंद्र अवस्थी, अतुल अरोरा, रमण कौण, अनुनाद सिंह के बारे में पता चला।
उस समय अतुल अरोरा हम सभी के सबसे पसंदीदा ब्लॉगर थे। अतुल अरोरा रोजनामचा के अलावा अपने अमेरिकी जीवन के किस्से लाइफ़ इन एच.ओ.वी. लेन में लिख रहे थे।
शुरुआती समय में हिन्दी ब्लॉगिंग को बढ़ावा देने में अक्षरग्राम का सबसे अहम योगदान रहा। सारे एजेंडे यहां तय होते। बाद में ई-पण्डित ने इसके ज्ञानकोश की जिम्मेदारी संभाली। हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में सबसे शुरुआती समय की गतिविधियां अक्षरग्राम में मौजूद हैं। पंकज नरुला से फ़िर से अनुरोध करेंगे कि वे जनहित में एक जगह कहीं इसे वापस रखें ताकि लोग हिन्दी ब्लॉगिंग की शुरुआती हलचल को महसूस कर सकें।
आज संकलक गायब हैं। नारद , ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत कोई नहीं जिससे हिन्दी ब्लॉगपोस्टों के बारे में पता चल सके। तमाम लोग हिन्दी ब्लॉगिंग में कमी आने का कारण हिन्दी ब्लॉगिंग में संकलक का न रहना बताते हैं। हिन्दी विश्व, जिसकी परिकल्पना देबाशीष ने की थी, में भारत की सभी भारतीय भाषाओं के चिट्ठों की जानकारी देने की योजना थी। उसका उद्धेश्य था:
चिट्ठाविश्व में पोस्टें बहुत धीमी गति से अपडेट होतीं थीं। आज पोस्ट करो अपने ब्लॉग पर तो कल दिखतीं थीं। जीतेन्द्र धड़ाधड़ पोस्ट करते तो उनकी ही दो तीन पोस्टें छायीं रहतीं। उनको हडकाया गया तब वे माने लेकिन करते अपने ही मन की थे। चिट्ठाविश्व में ही उन दिनों चिट्ठाचर्चा की पोस्ट भी दिखती थी। यह भी देबाशीष का सुझाव था।
चिट्ठाविश्व के बारे में रवीन्द्र प्रभात ने अपनी किताब हिन्दी ब्लॉगिंग का इतिहास में लिखा है:
शुरुआती समय में सबसे बड़ी समस्या टिप्पणी करने की थी। शुरु में कट-पेस्ट तकनीक से टिप्पणियां करते थे लोग। जब ई-स्वामी आये तो उन्होंने हग टूल बनाया जिसे सीधे ब्लॉग में लगाया जा सके और सीधे टिप्पणी की जा सके। यह अपने समय की बड़ी उपलब्धि थी।
चिट्ठाचर्चा की शुरुआती पोस्टों में नये ब्लॉग की जानकारी दी जाती थी। 21 अप्रैल’2003 को शुरु करके सौ चिट्ठे 25 अगस्त'2005 में पूरे हुये। सौंवां चिट्ठा रायबरेली के मूलनिवासी राहुल तिवारी का था। दो महीना कम ढाई साल लगे एक से सौ तक आंकड़ा पहुंचने में। इसकी जानकारी देते हुये देबाशीष ने लिखा:
शुरुआती समय में ब्लॉग को अपनी भड़ास निकालने का माध्यम मानने वाले साहित्यकार अब हिन्दी ब्लॉगिंग से जुड़ रहे हैं। आज नेट पर जो भी हिन्दी दिखती है उसका श्रेय हिन्दी में अपने को व्यक्त करने की झटपटाहट रखने वाले हिन्दी ब्लॉगरों को जाता है। कोई पहले जुड़ा कोई बाद में। किसी को कहीं से पता चला किसी को कहीं और से। लेकिन यह बात निर्विवाद है कि इंटरनेट पर हिन्दी के प्रचार-प्रसार का बहुत कुछ श्रेय हिन्दी ब्लॉगरों को जाता है।
इस पर अपनी टिप्पणी करते हुये प्रियंकर जी ने लिखा:
हिन्दी ब्लॉगरों के बारे में सबसे अच्छी शुरुआती टिप्पणी अनूप सेठी जी ने फ़रवरी’2005 में वागर्थ में लिखे अपने लेख में की थी:
हिन्दी ब्लॉगजगत के दस वर्ष पूरा होने के मौके पर सभी ब्लॉगर साथियों को शुभकामनायें। आपका मस्त मौला, निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कुराता, हंसता, खिलखिलाता जीवन से सराबोर लेखन चलता रहे।
हिन्दी ब्लॉगिंग पर लिखे जितने भी लेख मैंने देखे उनकी जब मैं याद करना शुरू करता हूं तो मुझे सबसे पहले याद आता है अनूप सेठी जी के लेख का यह अंश:
पांच साल से ऊपर हो गये इस लेख को पढ़े हुये लेकिन यह गतिमान गद्य वाली बात अक्सर याद आती है। मस्तमौला, निर्बंध। इतने दिनों में अनूप सेठी की बात कभी गलत नहीं लगी। यह जरूर हुआ कि ब्लॉगर आये, लिखा और लिखना कम करते रहे। जितने लोगों ने लिखना कम किया उससे अधिक नये लोग आ गये मैदान में। लोगों का लिखना बन्द हुआ लेकिन गद्य गतिमान बना रहा। बात अनूप सेठीजी ने गद्य की कही थी लेकिन यह बात ब्लॉग जगत की समग्र अभिव्यक्ति पर लागू होती है।
यह बात कल अजित गुप्ता जी के लेख क्या ब्लॉग जगत चुक गया है के संदर्भ में याद आई। मेरी समझ में ब्लॉग जगत में लोगों ने एक से एक बेहतरीन लेख और अन्य चीजें लिखीं हैं। लेकिन हमारा बांचने का संकलक निर्भर अंदाज ऐसा होता जाता है कि कई बार हम लोगों के बेहतरीन लिखा पढ़ नहीं पाते। उन तक पहुंच नहीं पाते।
अभी
ज्यादातर लोग फ़ीड रीडर या संकलक से देखकर पढ़ते हैं। मैं भी चर्चा के लिये
संकलक से ही सामग्री का चयन करता हूं लेकिन पढ़ने के लिये अपने जो पसंदीदा
लिखने वाले हैं उनका लिखा हुआ सारा कुछ पढ़ने का प्रयास करता हूं। आलम यह है
कि पसंदीदा लिखने वाले बढ़ते जा रहे हैं और बांचने के लिये समय की कमी होती
जा रही है।
इसी क्रम में मैंने इस इतवार को डॉ.मनोज मिश्र के ब्लॉग की शुरुआत से लेकर आजतक की सारी सामग्री पढ़ डाली। बीच में कहीं छोड़ने का मन नहीं हुआ। मनोज का ब्लॉग पढ़ना मेरे मन में तब से उधार था जब से मैंने उनके ब्लॉग पर जौनपुर के किस्से देखे थे। उनके ब्लॉग पर जौनपुर की यह फोटो मेरे मन में बसी हुई है।
सोचकर मुझे खुद ताज्जुब होता है कि ब्लॉगजगत में जहां पोस्टों की उम्र एक-दो दिन, हफ़्ते-दो हफ़्ते मानी जाती है वहां कोई पोस्ट ऐसी बस जाये मन में कि साल भर बाद उसके लेखक की सारी पोस्टें पढते हुये उसको खोजा और मिलने पर टिपियाया जाये:
इसी तरह पिछले पांच सालों में ब्लॉग जगत के पढ़े न जाने कितने लेख/कवितायें अक्सर याद आते हैं। हर किसी में को याद करने का कोई न कोई सूत्र वाक्य है जिससे मैं उनको खोजकर दुबारा/तिबारा और फ़िर दुबारा/तिबारा पढ़ता हूं।
ऐसे ही कुछ लेख/कवितायें/चर्चायें और अन्य भी बहुत कुछ जो मुझे याद आते हैं वो उन सूत्र वाक्यों के साथ आपको बताता हूं देखियेगा?
ओह बड़ा मुश्किल है सारी पसंदीदा पोस्टों को एक ही पोस्ट में बताना। न जाने कितने लेख/कवितायें और न जाने क्या-क्या हैं। सुबह से इनको ही पढ़ते दिन हो गया। चर्चा तो रह ही गयी। खैर वह फ़िर कभी सही।
तीस सेन्टीमीटर था बम का व्यास
और इसका प्रभाव पड़ता था सात मीटर तक
चार लोग मारे गए, ग्यारह घायल हुए
इनके चारों तरफ़ एक और बड़ा घेरा है - दर्द और समय का
दो हस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए
लेकिन वह जवान औरत जिसे दफ़नाया गया शहर में
वह रहनेवाली थी सौ किलोमीटर से आगे कहीं की
वह बना देती है घेरे को और बड़ा
और वह अकेला शख़्स जो समुन्दर पार किसी
देश के सुदूर किनारों पर
उसकी मृत्यु का शोक कर रहा था -
समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में
और अनाथ बच्चों के उस रुदन का तो मैं
ज़िक्र तक नहीं करूंगा
जो पहुंचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक
और उससे भी आगे
और जो एक घेरा बनाता है बिना अन्त
और बिना ईश्वर का.
येहूदा आमीखाई
फ़िलहाल इतना ही। और बहुत सारी सामग्री है हिन्दी ब्लॉग जगत में जिसको मैं बार-बार पढ़ना चाहता हूं। उसके बारे में चर्चा करना चाहता हूं। यहां जो मैंने बताई वह तो हिमखंड की नोक भी नहीं है। बहुत कूड़ा है यहां लेकिन बहुत सारा कंचन भी तो है यहां जो बांचना है। अभी तो शुरुआत है जी।
हिन्दी ब्लॉगिंग की पहली पोस्ट आलोक कुमार ने लिखी 21 अप्रैल, 2003 को। पहली पोस्ट में कुछ ये लिखा गया:
सोमवार, अप्रैल 21, 2003 22:21
चलिये अब ब्लॉग बना लिया है तो कुछ लिखा भी जाए इसमें।
वैसे ब्लॉग की हिन्दी क्या होगी? पता नहीं। पर जब तक पता नहीं है तब तक ब्लॉग ही रखते हैं, पैदा होने के कुछ समय बाद ही नामकरण होता है न। पिछले ३ दिनों से इंस्क्रिप्ट में लिख रहा हूँ, अच्छी खासी हालत हो गई है उँगलियों की और उससे भी ज़्यादा दिमाग की। अपने बच्चों को तो पैदा होते ही इंस्क्रिप्ट पर लगा दूँगा, वैसे पता नहीं उस समय किस चीज़ का चलन होगा।
काम करने को बहुत हैं, क्या करें क्या नहीं, समझ नहीं आता। बस रोज कुछ न कुछ करते रहना है, देखते हैं कहाँ पहुँचते हैं।
अब होते हैं ९ २ ११, दस बज गए।
आलोक दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ पà¥à¤°à¤à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤à¥¤ टिप्पणी(0)
जम गया
आलोक दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ पà¥à¤°à¤à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤à¥¤ टिप्पणी(0)
यू टी ऍफ़ ८ ठीक नहीं है।
आलोक दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ पà¥à¤°à¤à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤à¥¤ टिप्पणी(0)
अब कैसा है?
आलोक दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ पà¥à¤°à¤à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤à¥¤ टिप्पणी(0) बड़ा कैसे करें?
आलोक दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ पà¥à¤°à¤à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤à¥¤ टिप्पणी(0) लगता है यह अक्षर छोटे हैं।
आलोक दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ पà¥à¤°à¤à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤à¥¤ टिप्पणी(0) नमस्ते।
क्या आप हिन्दी देख पा रहे हैं?
यदि नहीं, तो यहाँ देखें।
आलोक दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ पà¥à¤°à¤à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤à¥¤ टिप्पणी(0)
हिन्दी के प्रथम चिट्ठाकार आलोक कुमार से एक बातचीत आप यहां पढ़ सकते हैं।।
आलोक के पहले विनय रोमन हिन्दी में हिन्दी से जुड़ी गतिविधियों के बारे में जानकारी अपने चिट्ठे पर लिखते रहते थे। हिन्दी भाषा में उस समय जो भी काम हो रहे थे उनके बारे में जानकारी वे अपने ब्लॉग पर लिखते रहते थे। उनके ब्लॉग के मत्थे पर केदारनाथ सिंह की यह कविता मौजूद है:
जैसे चींटियाँ लौटती हैं बिलों में कठफोड़वा लौटता है काठ के पास ओ मेरी भाषा! मैं लौटता हूँ तुम में जब चुप रहते-रहते अकड़ जाती है मेरी जीभ दुखने लगती है मेरी आत्मा -केदारनाथ सिंह
यह वह समय था जब हिन्दी के सभी अखबार अलग-अलग देवनागरी मुद्रलिपियों में अखबार निकाल रहे थे। नेट पर अखबार पढ़ने के लिये बहुत दिनों तक उनके फ़ांट भी उतारने पड़ते थे। शुरुआती ब्लॉगरों के लिये हिन्दी में लिखने का औजार तख्ती था। तख्ती की सहायता से। इसीलिये हम अपने को तख्ती के जमाने का ब्लॉगर कहते हैं।
शुरुआती दौर के कुछ ब्लॉगरों के नाम यहां दिये हैं। इसमें हिन्दी की पहली महिला चिट्ठाकार पद्मजाका भी नाम जुड़ना है। पद्मजा ने ब्लॉग बनाया सितम्बर 2003 में। लेकिन पहली पोस्टिंग की हुई जून 2004 में। जब उन्होंने लिखा:
चिट्ठा विश्व . . . इस हफ्ते चिट्ठा विश्व में कुछ योगदान दिया। अभी तो यह बीटा वर्जन में है, देबाशीष अभी लेखन सामग्री जुटाने मे लगे हैं। आपके सुझाव भी आमंत्रित हैं। पर ये क्या? मेरा ही चिट्ठा इस सूची से गायब है? पता चला कि जब तक अपना चिट्ठा अपडेट नही करो ये दिखायेंगे नहीं। तो लो भाई, ये हो गया हमारा चिट्ठा भी अपडेट।देबाशीष नवंबर 10 नवंबर, 2003 में ब्लॉग जगत में आ गये थे। पहली पोस्टिंग में उन्होंने लिखा:
Monday, November 10, 2003 गांववालों, मैं आ गया हूँ आलोक और पद्मजा के बाद अब मेरी बारी हिंदी चिठ्ठों की दुनिया में प्रवेश की। पर भारत पाक की बातचीत की तरह ज्यादा उम्मीदें न रखें। रफ्तार तो नल प्वाईंटर वाली ही रहेगी, बदलेगा तो बस अंदाज़े बयां।पद्मजा के चिट्ठे की एक पोस्ट से जानकारी मिली कि नीरव ने भी ब्लॉग लिखना शुरु किया है। नीरव ने पहली पोस्ट जून 2004 में लिखी। देबाशीष, पद्मजा और नीरव सहकर्मी थे। उन दिनों इंदौर में। सो हिन्दी ब्लॉग की शुरुआती गतिविधियों का केन्द्र इंदौर ही रहा। शुरुआती गतिविधियां मतलब चिट्ठाविश्व, चिट्ठाकार समूह, अनुगूंज और बुनो कहानी का आयोजन और अक्षरग्राम पर जो सुझावबाजी देबाशीष कर रहे थे। बुनो कहानी में तो कुल जमा छह कहानी लिखी गयीं। लेकिन अनुगूंज बहुत दिनों तक चली। हिन्दी ब्लॉगिंग के सबसे बेहतरीन लेख में से कुछ लेख अनुगुंज के बहाने लिखे ब्लॉगरों ने। बुनो कहानी की पहली कहानी का तीसरा भाग मुझे लिखना था लेकिन मैंने अपने सहकर्मी गोविन्द उपाध्याय को इसे पूरा करने का जिम्मा दिया। उनका लिखना सालों से स्थगित था। उन्होंने यह कहानी पूरी की और फ़िर दुबारा लिखना शुरु कर दिया। उसके बाद से वे धड़ाधड़ लिखने लगे और हाल ही में उनका चौथा कहानी संग्रह आया है। ये होते हैं ब्लॉगिंग के साइड इफ़ेक्ट।
पंकज नरुला मार्च 2004 में और रविरतलामी 20 जून 2004 में ब्लॉग अखाड़े में आये। ब्लॉगजगत के शुरुआती दिनों के खलीफ़ा रहे देबाशीष, पंकज और रविरतलामी। हिन्दी के शुरुआती दौर के ब्लॉग अभिव्यक्ति में छपे रविरतलामी के लेख अभिव्यक्ति का नया माध्यम ब्लॉग को पढ़कर कई लोगों ने अपना ब्लॉग बनाया। इसी को पढ़कर और देबाशीष के ब्लॉग पर मौजूद की बोर्ड सहायता से मैंने भी अपना ब्लॉग बनाया और पहली पोस्ट में बमुश्किल सिर्फ़ इत्ता लिख पाया:
अब कबतक ई होगा ई कौन जानता है
शुरुआती अनाड़ीपन के चलते हमने अपने यहां आयी तीन टिप्पणियां भी मिटा दीं। बाद में पता जीतेन्द्र, इंद्र अवस्थी, अतुल अरोरा, रमण कौण, अनुनाद सिंह के बारे में पता चला।
उस समय अतुल अरोरा हम सभी के सबसे पसंदीदा ब्लॉगर थे। अतुल अरोरा रोजनामचा के अलावा अपने अमेरिकी जीवन के किस्से लाइफ़ इन एच.ओ.वी. लेन में लिख रहे थे।
शुरुआती समय में हिन्दी ब्लॉगिंग को बढ़ावा देने में अक्षरग्राम का सबसे अहम योगदान रहा। सारे एजेंडे यहां तय होते। बाद में ई-पण्डित ने इसके ज्ञानकोश की जिम्मेदारी संभाली। हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में सबसे शुरुआती समय की गतिविधियां अक्षरग्राम में मौजूद हैं। पंकज नरुला से फ़िर से अनुरोध करेंगे कि वे जनहित में एक जगह कहीं इसे वापस रखें ताकि लोग हिन्दी ब्लॉगिंग की शुरुआती हलचल को महसूस कर सकें।
आज संकलक गायब हैं। नारद , ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत कोई नहीं जिससे हिन्दी ब्लॉगपोस्टों के बारे में पता चल सके। तमाम लोग हिन्दी ब्लॉगिंग में कमी आने का कारण हिन्दी ब्लॉगिंग में संकलक का न रहना बताते हैं। हिन्दी विश्व, जिसकी परिकल्पना देबाशीष ने की थी, में भारत की सभी भारतीय भाषाओं के चिट्ठों की जानकारी देने की योजना थी। उसका उद्धेश्य था:
चिट्ठा विश्व, यानि हिन्दी चिट्ठों (ब्लॉग) के संसार में आपका स्वागत है। मूल रूप से चिट्ठा विश्व हालांकि एक ब्लॉग अन्वेशक (एग्रीगेटर) या न्यूज़ रीडर ही है पर हमारा प्रयास है कि यह निज भाषा के प्रयोग में गौरव महसूस करने वाले हिन्दी चिट्ठाकारों (ब्लॉगर्स) की समग्र छवि प्रस्तुत कर सके।
चिट्ठाविश्व में पोस्टें बहुत धीमी गति से अपडेट होतीं थीं। आज पोस्ट करो अपने ब्लॉग पर तो कल दिखतीं थीं। जीतेन्द्र धड़ाधड़ पोस्ट करते तो उनकी ही दो तीन पोस्टें छायीं रहतीं। उनको हडकाया गया तब वे माने लेकिन करते अपने ही मन की थे। चिट्ठाविश्व में ही उन दिनों चिट्ठाचर्चा की पोस्ट भी दिखती थी। यह भी देबाशीष का सुझाव था।
चिट्ठाविश्व के बारे में रवीन्द्र प्रभात ने अपनी किताब हिन्दी ब्लॉगिंग का इतिहास में लिखा है:
’चिट्ठाविश्व’देबाशीष द्वारा जावा पर बना ,बहुत ही अच्छा प्रोग्राम था, जिसमें ब्लॉग झट से अपग्रेड हो जाया करते थे।ये झट से अपग्रेड होने वाली बात सही नहीं है। चिट्ठाविश्व ब्लॉग पोस्ट अपडेट होने में घंटो लगते थे।
शुरुआती समय में सबसे बड़ी समस्या टिप्पणी करने की थी। शुरु में कट-पेस्ट तकनीक से टिप्पणियां करते थे लोग। जब ई-स्वामी आये तो उन्होंने हग टूल बनाया जिसे सीधे ब्लॉग में लगाया जा सके और सीधे टिप्पणी की जा सके। यह अपने समय की बड़ी उपलब्धि थी।
चिट्ठाचर्चा की शुरुआती पोस्टों में नये ब्लॉग की जानकारी दी जाती थी। 21 अप्रैल’2003 को शुरु करके सौ चिट्ठे 25 अगस्त'2005 में पूरे हुये। सौंवां चिट्ठा रायबरेली के मूलनिवासी राहुल तिवारी का था। दो महीना कम ढाई साल लगे एक से सौ तक आंकड़ा पहुंचने में। इसकी जानकारी देते हुये देबाशीष ने लिखा:
हिन्दी ब्लॉगमंडल में हार्दिक स्वागत इन ६ नये चिट्ठों काः IIFM, भोपाल के छात्र भास्कर लक्षकर का संवदिया; लखनउ के निशांत शर्मा, समूह ब्लॉग कहकशां, यूवीआर का हिन्दी, मासीजीवी का शब्दशिल्प और रायबरैली के राहुल तिवारी का जी हाँ! और खुशी के बात यह भी है कि हिन्दी ब्लॉग संसार की संख्या आखिरकार प्रतीक्षित १०० की संख्या तक पहुँच ही गई। शत शत अभिनन्दन सभी चिट्ठाकारों का!इसके बाद की हिन्दी के ब्लॉग तेजी से बढ़े। चिट्ठाचर्चा भी गतिशील हुई। जो कि अब तक जारी है।
शुरुआती समय में ब्लॉग को अपनी भड़ास निकालने का माध्यम मानने वाले साहित्यकार अब हिन्दी ब्लॉगिंग से जुड़ रहे हैं। आज नेट पर जो भी हिन्दी दिखती है उसका श्रेय हिन्दी में अपने को व्यक्त करने की झटपटाहट रखने वाले हिन्दी ब्लॉगरों को जाता है। कोई पहले जुड़ा कोई बाद में। किसी को कहीं से पता चला किसी को कहीं और से। लेकिन यह बात निर्विवाद है कि इंटरनेट पर हिन्दी के प्रचार-प्रसार का बहुत कुछ श्रेय हिन्दी ब्लॉगरों को जाता है।
इस पर अपनी टिप्पणी करते हुये प्रियंकर जी ने लिखा:
इसका एक प्रतीकात्मक अभिप्राय यह भी है कि अब हिंदी पर हिंदी पट्टी के चुटियाधारियों का एकाधिकार खत्म होने को हैं . आंकड़े कहते हैं कि अगले दस-बीस वर्षों में दूसरी भाषा के रूप में हिंदी सीखने वाले विभाषियों की संख्या मूल हिंदीभाषियों से ज्यादा होगी . और तब एक नये किस्म की हिंदी अपने नये रूपाकार और तेवर के साथ आपके सामने होगी
हिन्दी ब्लॉगरों के बारे में सबसे अच्छी शुरुआती टिप्पणी अनूप सेठी जी ने फ़रवरी’2005 में वागर्थ में लिखे अपने लेख में की थी:
यहां गद्य गतिमान है। गैर लेखकों का गद्य। यह हिन्दी के लिए कम गर्व की बात नहीं है। जहां साहित्य के पाठक काफूर की तरह हो गए हैं, लेखक ही लेखक को और संपादक ही संपादक की फिरकी लेने में लगा है, वहां इन पढ़े-लिखे नौजवानों का गद्य लिखने में हाथ आजमाना कम आह्लादकारी नहीं है। वह भी मस्त मौला, निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कुराता, हंसता, खिलखिलाता जीवन से सराबोर गद्य। देशज और अंतर्राष्ट्रीय। लोकल और ग्लोबल। यह गद्य खुद ही खुद का विकास कर रहा है, प्रौद्योगिकी को भी संवार रहा है। यह हिन्दी का नया चैप्टर है।बाद में अक्तूबर 2007 के कादम्बिनी में बालेन्दु दाधीच का लेख आया-ब्लॉगिंग: ऑनलाइन विश्व की आज़ाद अभिव्यक्ति!इसको पढ़कर भी बहुत से लोग ब्लॉगजगत से जुड़े।
हिन्दी ब्लॉगजगत के दस वर्ष पूरा होने के मौके पर सभी ब्लॉगर साथियों को शुभकामनायें। आपका मस्त मौला, निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कुराता, हंसता, खिलखिलाता जीवन से सराबोर लेखन चलता रहे।
मेरी पसन्द
आज मेरी पसन्द में एक पुरानी चर्चा ब्लॉगजगत की कुछ पोस्टें इधर-उधर से जस की तस यहां पेश है:
ब्लॉगजगत की कुछ पोस्टें इधर-उधर से
यहां गद्य गतिमान है। गैर लेखकों का गद्य। यह हिन्दी के लिए कम गर्व की बात नहीं है। जहां साहित्य के पाठक काफूर की तरह हो गए हैं, लेखक ही लेखक को और संपादक ही संपादक की फिरकी लेने में लगा है, वहां इन पढ़े-लिखे नौजवानों का गद्य लिखने में हाथ आजमाना कम आह्लादकारी नहीं है। वह भी मस्त मौला, निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कुराता, हंसता, खिलखिलाता जीवन से सराबोर गद्य। देशज और अंतर्राष्ट्रीय। लोकल और ग्लोबल। यह गद्य खुद ही खुद का विकास कर रहा है, प्रौद्योगिकी को भी संवार रहा है। यह हिन्दी का नया चैप्टर है।
पांच साल से ऊपर हो गये इस लेख को पढ़े हुये लेकिन यह गतिमान गद्य वाली बात अक्सर याद आती है। मस्तमौला, निर्बंध। इतने दिनों में अनूप सेठी की बात कभी गलत नहीं लगी। यह जरूर हुआ कि ब्लॉगर आये, लिखा और लिखना कम करते रहे। जितने लोगों ने लिखना कम किया उससे अधिक नये लोग आ गये मैदान में। लोगों का लिखना बन्द हुआ लेकिन गद्य गतिमान बना रहा। बात अनूप सेठीजी ने गद्य की कही थी लेकिन यह बात ब्लॉग जगत की समग्र अभिव्यक्ति पर लागू होती है।
यह बात कल अजित गुप्ता जी के लेख क्या ब्लॉग जगत चुक गया है के संदर्भ में याद आई। मेरी समझ में ब्लॉग जगत में लोगों ने एक से एक बेहतरीन लेख और अन्य चीजें लिखीं हैं। लेकिन हमारा बांचने का संकलक निर्भर अंदाज ऐसा होता जाता है कि कई बार हम लोगों के बेहतरीन लिखा पढ़ नहीं पाते। उन तक पहुंच नहीं पाते।
इसी क्रम में मैंने इस इतवार को डॉ.मनोज मिश्र के ब्लॉग की शुरुआत से लेकर आजतक की सारी सामग्री पढ़ डाली। बीच में कहीं छोड़ने का मन नहीं हुआ। मनोज का ब्लॉग पढ़ना मेरे मन में तब से उधार था जब से मैंने उनके ब्लॉग पर जौनपुर के किस्से देखे थे। उनके ब्लॉग पर जौनपुर की यह फोटो मेरे मन में बसी हुई है।
सोचकर मुझे खुद ताज्जुब होता है कि ब्लॉगजगत में जहां पोस्टों की उम्र एक-दो दिन, हफ़्ते-दो हफ़्ते मानी जाती है वहां कोई पोस्ट ऐसी बस जाये मन में कि साल भर बाद उसके लेखक की सारी पोस्टें पढते हुये उसको खोजा और मिलने पर टिपियाया जाये:
ये वाला फोटो ही मेरे मन में बसा है। नदी बीच पुल और शीर्षक’ए पार जौनपुर ओ पार जौनपुर’!
मैं अगर आपके ब्लॉग का पता भूल जाऊं तो याद करने के लिये गूगल से यही लिंक खोजूंगा-
एपार जौनपुर - ओपार जौनपुर ......
इसी तरह पिछले पांच सालों में ब्लॉग जगत के पढ़े न जाने कितने लेख/कवितायें अक्सर याद आते हैं। हर किसी में को याद करने का कोई न कोई सूत्र वाक्य है जिससे मैं उनको खोजकर दुबारा/तिबारा और फ़िर दुबारा/तिबारा पढ़ता हूं।
ऐसे ही कुछ लेख/कवितायें/चर्चायें और अन्य भी बहुत कुछ जो मुझे याद आते हैं वो उन सूत्र वाक्यों के साथ आपको बताता हूं देखियेगा?
- कुछ लोग मौसम की तरह चिपचिपे होते हैं: निधि
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- दीवाली के दिन मां मेरे लिए दीयाबरनी खरीदती। मिट्टी की बनी बहुत ही सुंदर लड़की जिसके सिर पर तीन दीए होते। रात में तेल भरकर उन दीयों को जलाते। मां उसे अपनी बहू की तरह ट्रीट करती,ऐसे में कोई उसे छू भी देता तो मार हो जाती। लड़कियों से प्यार करने की आदत वहीं से पड़ी। :विनीत कुमार
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- हमारे वीर बालक ने अभी तक हमको बाई-बाई करना नहीं छोड़ा था सो हम भी फिर से बाई कर ही रहे थे कि अवतरण एक धड़ाम की आवाज के साथ हो गया. हमें पीछे से आदर्श तरीके से शास्त्र- सम्मत विधि से ठोंक दिया गया था. :इंद्र अवस्थी
- बचपन का अधकटा पेंसिल सबसे कीमती था । :प्रेम पीयूष
- कुछ गीत बन रहे हैं, मेरे मन की उलझनों में।
कुछ साज़ बज रहे हैं, मेरे मन की सरगमों मे॥:सारिका सक्सेना - सबसे बुरा दिन वह होगा
जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
सूरज भेज देगा
‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा : प्रियंकर - लड़कियाँ
आँसूओं की तरह होती हैं
बसी रहती हैं पलकों में
जरा सा कुछ हुआ नही की छलक पड़ती हैं
सड़कों पर दौड़ती जिन्दगी होती हैं
वो शायद घर से बाहर नही निकले तो
बेरंगी हो जाये हैं दुनियाँ
या रंग ही गुम हो जाये
लड़कियाँ,
अपने आप में
एक मुक्कमिल जहाँ होती हैं :मुकेश कुमार तिवारी
ओह बड़ा मुश्किल है सारी पसंदीदा पोस्टों को एक ही पोस्ट में बताना। न जाने कितने लेख/कवितायें और न जाने क्या-क्या हैं। सुबह से इनको ही पढ़ते दिन हो गया। चर्चा तो रह ही गयी। खैर वह फ़िर कभी सही।
मेरी पसंद
और इसका प्रभाव पड़ता था सात मीटर तक
चार लोग मारे गए, ग्यारह घायल हुए
इनके चारों तरफ़ एक और बड़ा घेरा है - दर्द और समय का
दो हस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए
लेकिन वह जवान औरत जिसे दफ़नाया गया शहर में
वह रहनेवाली थी सौ किलोमीटर से आगे कहीं की
वह बना देती है घेरे को और बड़ा
और वह अकेला शख़्स जो समुन्दर पार किसी
देश के सुदूर किनारों पर
उसकी मृत्यु का शोक कर रहा था -
समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में
और अनाथ बच्चों के उस रुदन का तो मैं
ज़िक्र तक नहीं करूंगा
जो पहुंचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक
और उससे भी आगे
और जो एक घेरा बनाता है बिना अन्त
और बिना ईश्वर का.
येहूदा आमीखाई
और अंत में
फ़िलहाल इतना ही। और बहुत सारी सामग्री है हिन्दी ब्लॉग जगत में जिसको मैं बार-बार पढ़ना चाहता हूं। उसके बारे में चर्चा करना चाहता हूं। यहां जो मैंने बताई वह तो हिमखंड की नोक भी नहीं है। बहुत कूड़ा है यहां लेकिन बहुत सारा कंचन भी तो है यहां जो बांचना है। अभी तो शुरुआत है जी।
हिंदी ब्लागिंग के शुरुआती दौर के बारे में आपने काफी रोचक चर्चा की है ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद! :)
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
हटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (24-04-2013) के
http://charchamanch.blogspot.inपर भी होगी! आपके अनमोल विचार दीजिये , मंच पर आपकी प्रतीक्षा है .
सूचनार्थ...सादर!
आपने ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर को प्रेम से याद किया है. मेरा भी जिक्र किया है. आभारी हूं.
जवाब देंहटाएंआपने आज से आठ साल पहले हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में जो लिखा था वह मुझे हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में आज तक की सबसे अधिक उत्साहवर्धक,आत्मीय टिप्पणी लगी थी। इसीलिये मैं हमेशा इसका जिक्र करता हूं।
हटाएंआपका बहुत-बहुत धन्यवाद!
Yadi aap anumati den to isaka prayog kar loon ek khas rapat ke liye
जवाब देंहटाएंहां एकदम रपट बनाओ। फ़ुल अनुमति है।
हटाएंवह टिप्पणी याद करें जिसमें मैंने कहा था कि हिंदी ब्लॉगिंग के इतिहासलेखन में आपका वही दर्जा होगा जो हिंदी साहित्य के इतिहासलेखन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है . और यह टिप्पणी सिर्फ शुक्ल-शुक्ल का युग्म बनाने के लिए नहीं बल्कि ब्लॉगजगत के इतिहासलेखन के शुरुआती और दस्तावेजी महत्व के कार्य को मान देते हुए की थी . याद रखने के लिए शुक्रिया !
जवाब देंहटाएंइस तरह की खुशनुमा बातें अच्छी लगती हैं। लेकिन मेरा हिन्दी ब्लॉग जगत से जुड़ाव सिर्फ़ एक लगातार जुड़े रहने चिट्ठाकार का ही है। पुरानी यादे हैं उनको यहां साझा किया। शुरुआती दौर में लोग कम थे लेकिन सहकारिता की भावना अद्भुत थी।
हटाएंप्रियंकर जी की कही बात को ’लाईक’ किया... :)
हटाएंवो भी क्या दिन थे! लोगो को पकड़ पकड़ के हिन्दी टाइप करना सिखाना! हर ब्लॉग पर हिन्दी कैसे लिखे, कैसे पढ़े का लिंक लगा होता था|नए हिन्दी ब्लॉगर बनवाने की एक होड़ सी हुआ करती थी |
जवाब देंहटाएंसही। अद्भुत समय था। जिससे मिलते थे थोड़ी देर में इशारे-इशारे में बता देते थे कि हम हिन्दी के ब्लॉगर हैं। आप भी लिखिये न ब्लॉग। जीतेन्द्र तो लोगों से बस एक ईमेल की दूरी पर रहते थे। देबू के पास न जाने कितने लोगों के ब्लॉग के ई-मेल और पासवर्ड थे। कोई समस्या हुई सेवा हाजिर थी। :)
हटाएंपोस्ट बड़ी है, काफी कुछ समेटे हुए लेकिन अधुरी सी है, पता नहीं कितना कुछ छूट गया है, सब कुछ समेटा भी नहीं जा सकता .... खैर यहाँ तो चिठ्ठा चर्चा है, हिन्दी ब्लॉग्गिंग का समग्र इतिहास नहीं :-)
जवाब देंहटाएंहिन्दी ब्लॉगिंग का इतिहास लिखने के लिये जो धैर्य चाहिये वह लिखने वालों में नहीं था। जितना लिखा उससे ज्यादा छोड़ दिया। बेतरतीब। लेकिन किसको कौन समझाये? इतिहासकार हड़बड़ी में था।
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
हटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (24-04-2013) के
पर भी होगी! आपके अनमोल विचार दीजिये , मंच पर आपकी प्रतीक्षा है .
सूचनार्थ...सादर!
इतिहासकार हड़बड़ी में था :)
हटाएंहिन्दी ब्लॉग़ जगत यूँ ही फलता फूलता रहे... इतनी खूबसूरत चर्चा कितने इत्मीनान से की है... समय को कैसे अपने काबू मे रख पाते हैं.... ?
जवाब देंहटाएंआज छुट्टी थी इसलिये मौका मिल गया इत्मिनान से अपनी मर्जा की चर्चा करने का। आपकी प्रतिक्रिया के लिये धन्यवाद!
हटाएंइनमें से बहुतों ने लिखना बंद (सा ही) क्यों कर दिया जी
जवाब देंहटाएंकाजल जी, अधिकतर शुरुवाती हिन्दी ब्लागर आई टी प्रोफेशनल है(मैं भी), जो हिन्दी के पीछे पागल थे. एक बार हिन्दी नेट पर स्थापित हो गयी, उन्हें लगा की काम ख़त्म, और वे अपने रास्ते लग लिए . और वे लोग ब्लॉग जगत की लड़ाइयों और राजनीती, खेमेबाजी से भी आजीज आ गए थे.
हटाएंआप सब वे मित्र, जिन्होंने हिंदी को कंप्यूटर पर सर्वसंभव बनाया, उनके धन्यवाद के लिए वास्तव में ही मेरे पास शब्द नहीं हैं. इन्टरनेट पर जब पहली बार मैं हिंदी लिख पाया तो उस समय जो प्रसन्नता मुझे हुई थी उतनी तो मुझे तब भी नहीं हुई थी जब मैंने अपना पहला 40 MB हार्डडिस्क वाला कंप्यूटर ख़रीदा था.
हटाएंआपका कहना सही है कि शायद हमें घी हजम होता ही नहीं (आदतन). सहमत हूं आपसे...वाक़ई, आए दिन की ये उठा-पटक पढ़़ कर अच्छा तो कतई नहीं लगता.
मुझे तो लगता है कि ब्लॉगिंग जैसी नई विधा शुरु में वाव! फ़ैक्टर लिए हुए होती है - जो भी इससे जुड़ता है या शुरु करता है, तो पूरे दम खम से इससे जुड़ा रहता है. धीरे धीरे ये वाव! फ़ैक्टर हवा में गुम हो जाता है, तो उसकी ब्लॉग जगत में उपस्थिति भी कम होने लगती है, और कई मामलों में शून्य भी हो जाती है.
हटाएंआप देखेंगे कि जो भी गंभीर सृजनकर्मी हैं, जैसे काजल जी या आशीष जी, और जो ब्लॉग की ताक़त को समझते हैं, वो एक बार इससे जुड़कर यहीं के रह जाते हैं. कई लोग भले ही अस्थाई रूप से इससे दूर हो गए हों या लिखना बंद सा कर दिया हो, परंतु वे भटकते आसपास ही रहते हैं :)
रवि जी, आपकी बात को आगे बढ़ाते हुए...
हटाएंमुझे यह कहने में रत्ती भर भी संकोच नहीं कि जो outreach मैं आज ब्लाॅगिग जैसे प्लेटफ़ाॅर्म में देखता हूं वैसी तो लोटपोट जैसी साप्ताहिक पत्रिका के लिए निरंतर 25 साल तक हर हफ़्ते 4 पेज बनाने के बाद भी मुझे महसूस नहीं हुई. पत्र-पत्रिकाआें में छपना तो सार्वजनिक-बस में यात्रा करने सा लगने लगा है जबकि ब्लाॅगिंग अपनी लग्ज़री कार है, जब चाहो अपने हिसाब से चलाआे, जहां चाहो जाआे, किसी की पद्दी नहीं चढ़ना :) ... पूरी ख़ुदमुख़्तारी है यहां, थियेटर की तरह सीधा संवाद है आपका अपने पाठक से... I indeed feel liberated. आैर, आप जैसे कर्मठ मित्रों के अथक प्रयासों से, आज मैं आपनी ज़ुबान में अपनी बात कह पा रहा हूं इससे सुखद आैर क्या हो सकता है. पर हां, कुछ बच्वे जो अमीरी में पैदा होते हैं उन्हें इस बात का अनुभव कभी नहीं होता कि उनके बड़ों ने उन्हें वहां तक पहुंचाने में कितने कष्ट उठााए होंगे. कभी कभी सालता है यह सोचना :)
बड़ी सार्थक सी चर्चा रही. आज जो हम बड़ी आसानी से देवनागरी में ब्लॉग लिख कर इतराते हैं उसमें इन पुराने ब्लोगरों का असीम योगदान हैं.उनके प्रति हमें कृतज्ञ रहना चाहिए.
जवाब देंहटाएंसारे लिंक अभी नहीं पढ़े हैं, सहेज लिए हैं पढेंगे आराम से .
कृतज्ञ तो हम भी हैं जो हमारे लिखने का काम आसान करते रहे हिन्दी ब्लॉगिंग की शुरुआती दौर के हीरो। :)
हटाएंकाफी सारी सामग्री समेटी है | काफी कुछ तो पंकज और प्रशांत से बातचीत करते समय पता चला था | पर यहाँ पर टाइम लाइन के साथ है | बढ़िया चर्चा !!!!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद! :)
हटाएंआराम से बांचिये। पंकज और प्रशांत को भी साथ लेकर। :)
बेहतरीन में से एक चिट्ठा चर्चा ....एक संकलन ...
जवाब देंहटाएंपुरानी पुरानी यादों में डूबे हो प्रभु!! :)
जवाब देंहटाएंमौका है सो दस्तूर निभा रहे हैं। यादें होती हैं डूबने के लिये। :)
हटाएंपुरानी यादें ताजा कर दी आपने। क्या दिन थे, रात-दिन सोचते रहते थे कैसे हिन्दी ब्लॉगर बढ़ें। एक नया ब्लॉगर जुड़ने पर पूरे गाँव में ढिंढोरा पीटा जाता था कि बिरादरी में एक बन्दा बढ़ गया। आज हजारों ब्लॉग हैं, हाँ हमारे जैसे छोटे शहरों में अब भी स्थिति में विशेष परिवर्तन नहीं आया।
जवाब देंहटाएंहिन्दी चिट्ठाजगत फलता-फूलता रहे यही कामना है।
एकदम सही हाल बयान किये।
हटाएंहिन्दी चिट्ठाजगत इंसाअल्लाह फ़लता-फ़ूलता रहेगा। :)
न जाने कितने आए और चले गए। लेकिन शुरुआती दौर की बढ़िया जानकारी दी है आपने। आभार।
जवाब देंहटाएंलोग तो आते-जाते रहेंगे। लेकिन ब्लॉगिंग बदस्तूर जारी रहेगी। :)
हटाएंधन्यवाद!
आपने मेरे ब्लॉग का जिक्र किया,बहुत आभारी हूँ .मुझे इस बात की बहुत खुशी है की आप नें एक दो बार नही अपितु कई बार मेरे "एपार जौनपुर-ओपार जौनपुर" श्रृंखला की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है .शुरूआती दिनों में जब मैंने इसकी पहली कड़ी लिखी थी तभी आपनें मुझे आगे के लेखन के लिए उत्साहित भी किया था .आप को जान कर आज खुशी होगी की यह श्रृंखला आज जौनपुर के प्राचीन इतिहास लेखन के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित हो रही है वही विश्वविद्यालय में शोधरत विद्यार्थी भी सन्दर्भ के रूप में इसका उल्लेख कर रहे है .अभी इतिहास लेखन के लिए जौनपुर में लिखने को बहुत कुछ है .आप सब का स्नेह मिला तो निकट भविष्य में लेखनी फिर चलेगी .
जवाब देंहटाएंपुनः आपको बहुत धन्यवाद .
आपके ब्लॉग पर जौनपुर के बारे में इतना सहज ढंग से जानकारी प्रदान की गयी है कि पढ़ते ही मैं उसका मुरीद हो गया। जौनपर के पुल का फोटो मेरी याद में छा गया है। जौनपुर की कोई भी बात करता है आनलाइन तो मैं फ़ौरन ही उसको आपकी पोस्ट का लिंक थमा देता हूं। अभी आईआईटी कानपुर के @Rahul Bind से मित्रता हुई मैंने फ़ौरन उनको आपके ब्लॉग का लिंक थमाया। आज उन्होंने भी जौनपुर की तारीफ़ में फ़ेसबुक में लिखा है।
हटाएंआपके काम को नाम/महत्व मिला यह खुशी की बात है। और काम करिये। आप जौनपुर का इतिहास और विस्तार से लिखिये। आपने जो लोकगीत अपनी आवाज में पोस्ट किये थे उनको भी समय मिलने पर करिये।
बाकी मुक्त कंठ प्रशंसा का करने की बात तो जो हमें जो पसंद आता है हम उसकी तारीफ़ करने में किसी से डरते नहीं । :)
पुरानी यादों को साझा करके नये लोगों का ज्ञान बढ़ाया आपने। मनोज जी ने पुराने लोगों की तरह अब लिखना
जवाब देंहटाएंबंद सा कर दिया है..। यहाँ उन्हें देखकर लगा कि वे अब भी पढ़ते तो रहते हैं। :)
अब फ़िर से लिखने लगें शायद मनोज जी।
हटाएंधन्यवाद!
hindi bloging kaa itihaas padh kar achchha lagaa
जवाब देंहटाएंthanks
इतिहास क्या ये तो शुरुआत के दिनों की कुछ बेतरतीब यादें हैं।
हटाएंबहुत घूमी हूं आज की चिट्ठा चर्चा से होते हुए ...सब बहुत अच्छा लगा ....कुछ नहीं बहुत से ब्लॉग पर पुराने लोगों ने लिखना बन्द कर दिया ...रचना बजाज से सुना करती थी पहले इनके बारे में ...
जवाब देंहटाएंजीतेन्द्र चौधरी जी का नाम स्कूल की लाईब्रेरी की एक किताब के छोटे से हिस्से में पढ़ा था जिसमें उनके ब्लॉग का नाम लिखा था "मेरा पन्ना" शायद दो साल पहले ..
...और घूमते हुए आपकी ही पसन्द की कविता तक पहुंची --
मेरी पसन्द
एक अरब से भी ज्यादा आबादी के इस देश में
यूं ही मर जाते हैं हजारों लोग रोज
यूं ही
एक नियम की तरह
ऐसे नियम की तरह
जिसका कभी कोई अपवाद नही होता
ऐसे नियम की तरह
जिसकी घूस देकर या ऊपर से दबाव डलवा कर
या भाई चारे का हवाल देकर अवहेलना नहीं की जा सकती
जिसे न संसद बदलना चाहती है, न विधानसभा कोई
यूं ही मर जाते हैं हजारों लोग
यूं ही
जैसे अभी एक तड़्पता हुआ कीड़ा मरा।
विष्णु नागर
तद्भव अंक १२ से साभार
सचमुच बहुत अच्छा लगा ये सब जानना....
आभार आपका ...
धन्यवाद। मैं भी दिन भर टहलता रहा आज ब्लॉगजगत में। :)
हटाएंहिंदी ब्लागिंग का इतिहास मालूम हुआ, आभार.
जवाब देंहटाएंरामराम.
इतिहास क्या ये तो शुरुआत के दिनों की कुछ बेतरतीब यादें हैं। धन्यवाद!
हटाएंफिर से एक बार इतिहास यात्रा से गुजर कर बहुत कुछ याद आया। शुक्रिया सब याद दिलाने के लिए।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
हटाएंAAP TO SENTIYA DIYE..........BHAIJI....
जवाब देंहटाएंPRANAM.
हम हुये तो आपको कैसे छोड़ दें?
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
हटाएंबढियां सिंहावलोकन
जवाब देंहटाएंगजब याददाश्त है.. हर युग की अपनी ही कहानी होती है.. ये हिन्दी ब्लॉगिंग का युग है ।
जवाब देंहटाएंयाददाश्त क्या? बस याद आता गया एक के बाद एक। आभार!
हटाएंब्लागिंग के इतिहास के बारे में जब तक कुछ भी पढ़ने को मिलता है नया सा लगता है। अपुन ने 2006 में कम्प्यूटर खरीदा था, 2007 में इंटरनेट से जुड़े। फिर ब्लागिंग की जानकारी हुई। साल के आखिर में अनूप शुक्ल के उकसावे में आ कर ब्लागर हो गए। अब फँसे पड़े हैं।
जवाब देंहटाएं(:(:(:
हटाएंpranam.
सही है आपकी याददाश्त, मज़ा आ गया ये हिन्दी ब्लॉग यात्रा पढ़ कर|
जवाब देंहटाएंसम्पूर्ण सागर की झलक दिख रही है साफ
जवाब देंहटाएंजहाँ का एक मोती ला कर हमें दिखाये हैं आप !
ये पोस्ट हिंदी ब्लॉगिंग का दुर्लभ और संग्रहणीय दस्तावेज़ बन गई है...
जवाब देंहटाएंजय हिंद...
हमें भी बहुत अच्छा लगा पुरानी यादों में डूबकर ... सुन्दर सार्थक संग्रहणीय प्रस्तुति ..
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ! आपकी उर्जा ओर लगन कमाल की है कभी कभी इससे ईष्या भी होती है .सच कहूँ आपने एक सूत्र में जोड़ रखा है
जवाब देंहटाएंशानदार जानकारी | शुक्रिया
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं