- बहुधा हम सब स्वतः हो जाने वाले कार्यों में कार्य करते हुये दिखते हैं और जब कार्य हो जाता है तब उसका श्रेय लेने बैठ जाते हैं। यही नहीं कभी कभी आवश्यकता से अधिक लोग कार्य में लगे होते हैं, जहाँ कम से ही कार्य हो जाता है, अधिक लोग या तो कार्य में व्यवधान उत्पन्न करते हैं या अकर्मण्यता का वातावरण बनाते हैं। अँधेरे को बाहर फेंकना है प्रवीण पाण्डेय
- पहला सवाल- अवैध कॉलोनियां या अवैध इमारतें जब बनाई जा रही होती हैं तो सारे प्रशासनिक अधिकारी, पुलिस वाले क्या भांग खा कर सो रहे होते हैं...या मोटा चढ़ावा खाकर लंबी डकार ले रहे होते हैं...दूसरा सवाल- कोई अवैध इमारत गिरने पर सरकार और नेता इतने टसुए क्यों बहाते हैं...क्या यही नेता वोटों के लालच में अवैध कॉलोनियों को नियमित करने की पैरवी में सबसे आगे नहीं होते...अवैध कॉलोनी, अवैध इमारत, अवैध आंसू...खुशदीप
- निर्भरता की सीमा के पार तकनीक पर निर्भरता । हमारे घर का, अपनों का फोन नम्बर भी हमें मशीन बताये तो समझ ही सकते हैं कि कितने अधूरे हैं हम इन गैजेट्स के बिना । तकनीक की प्रगति से भिन्न कई सारे पहलू हैं इन यांत्रिक निर्भरता के । निश्चित रूप से सब कुछ सकरात्मक तो नहीं है । इनके चमचमाते मायावी संसार में हम स्वयं ही धुँधले हुए जा रहे हैं । तकनीक की विकास यात्रा में हमारा अपना यूँ पिछड़ना अखरता है कभी कभी । फोन स्मार्ट और यूज़र स्लो डॉ.मोनिका शर्मा
- क़ाबू तो पा सके न हम, अपने वज़ूद पे जीतेंगे क़ायनात के, दावे किधर गए ? मुट्ठी में क़ैद था कभी, वो आफ़ताब था तीरगी ने मुट्ठी खोल दी, मोती बिख़र गए वो तिश्नगी मेरे दिल की, सदियों की प्यास 'था'....स्वप्न मंजूषा’अदा’
- जो शब्द ग़लत बर्ताव के शिकार हैं, उनमें ‘नस्ल’ का ‘नस्लीय’ रूप भी शामिल है। ‘नस्ल’ मूलतः अरबी शब्द है। शब्दकोशों में हिन्दी रूप ‘नसल’ होता है पर ‘अस्ल’ के ‘असल’ रूप की तरह यह आम नहीं हो पाया और इसका प्रयोग वाचिक ही बना रहा। नस्ल के मूल में अरबी क्रिया नसाला है जिसमें उपजाना, पैदा करना, जन्म देना, प्रजनन करना, बढ़ाना, दुगना करना, वंश-परम्परा जैसे भाव हैं। नस्ली सही नस्लीय गलत- अजित वडनेरकर
- समाज में सब कुछ सही नहीं है, सब कुछ सही शायद कभी न हो। लेकिन इतना तय है कि बेहतरी की ज़िम्मेदारी भी हमारी ही है। जब तक गलत करने वालों को सज़ा और सही उदाहरण रखने वालों को उत्साह नहीं मिलेगा, "ज्योतिर्गमय" की आशा बेमतलब है। बुराई के साथ कोई रियायत नहीं, लेकिन यह सदा याद रहे कि भले लोगों से मतांतर होने पर भी सदुद्देश्य के सफर में हमें उनका हमसफर बने रहना है। बल्कि सच कहूं तो मतांतर वाले सज्जनों की सहयात्रा हमारी उन्नति के लिए एक अनिवार्य शर्त है क्योंकि वे हमें सत्य का वह पक्ष दिखते हैं जिसे देखने की हमें आदत नहीं होती। अच्छाई को रियायत दीजिये। मिल-बैठकर चिंतन कीजिये। एक दूसरे के सहयोगी बनिए। आँख मूंदकर चलना मूर्खों की पहचान है। माल असबाब की सुरक्षा - हार की जीत -अनुराग शर्मा
- अहसास पुराना हो चला था कि अब प्रवाह धीमा पड़ गया है। उदासीन सी निश्चितता में दोनों मिलते थे इधर। मुलाकातें गिनती से ज्यादा हो चुकी थीं। दोनों ही जानते थे कि अब वह कुछ नहीं रह गया था जो कभी उनके बीच जादू जैसा खिलता था । एहसास पुराना हो चला था-लाल्टू
- मीडिया में सुधार मीडियाकर्मियों के प्रति अपमान-भाव रखते हुए नहीं हो सकता, जैसे कि देश की राजनीतिक व्यवस्था में सुधार आम जन के प्रति अपमान-भाव रखते हुए नहीं हो सकता। नब्बे फीसदी जनता हो सकता है कि मूर्ख हो, लेकिन वही भारत भाग्य विधाता है और तमाम सुधारों का लक्ष्य भी वही है। लोकतंत्र में आप ना तो अपनी सुविधा से अपनी अलग जनता चुन सकते हैं और ना ही जो यथार्थ है उसे झुठला सकते हैं। दुर्भाग्य से काटजू ऐसा ही करते नजर आते हैं। नतीजतन वे अपना प्रभाव खोते गए हैं। काश, वे कम बोलते! काश काटजू कम बोलते सत्येन्द्र रंजन
- आज सुबह से इतिहास की एक किताब खोज रहा था। किताब नहीं मिली। इस किताब में यात्री के द्वारा लिखे गए ब्योरों में उस काल का इतिहास दर्ज़ था। पिछले साल ही इस किताब को फिर से पढ़ा था। श्री लंका के सामाजिक जीवन में गाय के महत्व का विवरण लिखा था। गाय पूजनीय प्राणी था। इतना पूजनीय कि मनुष्य से उसका स्थान इस जगत में ऊंचा था। यात्री ने लिखा कि गोवध एक अक्षम्य अपराध था। मेरी स्मृति और ज्ञान के अनुसार रेगिस्तान के जिस हिस्से में मेरा जन्म हुआ वहाँ मनुष्य के हाथों या किसी अपरोक्ष कारण से मृत्यु हो जाना क्षमा न किए जाने लायक कृत्य था। मृत गाय की पूंछ को गले में डाल कर हरिद्वार जाने के किस्से आम थे। हम जाने क्या-क्या भूल गये हैं- हथकढ़
- रिक्शे से उतरकर, परम्पराबद्ध अन्य नायिकाओं की तरह, तिन्नी मंदिर की सीढ़ियां चढ़ सकती थी. मंदिर की जगह, मन की सीढ़ियों को पैरों से चांपती, श्रीप्रकाश की ओर खिंची आई. घबराकर श्रीप्रकाश ने साइकिल की हैंडिल से हटाकर हाथों को पैंट की जेब में छिपा लिया. सूखते कंठ में जीभ घुमाकर तेजी से खुद को सुस्थिर करने की कोशिश की. मगर अब पिंडलियां कांप रही थीं. छाती पर मानो किसी ने एकदम से बर्फ़ की सिल्ली रख दी हो. भागकर तिन्नी को छाती में भर लेने की इच्छा हुई. लगा एकदम से ऐसा नहीं किया तो उसके भीतर कोई बम फूट जाएगा और उसके चिथड़े उड़कर हवा में लहराते फिरेंगे. मगर श्रीप्रकाश ने ऐसा कुछ नहीं किया, जो करना था वह तिन्नी ही कर रही थी, श्रीप्रकाश पालतू कुत्ते की तरह बिना कूं-कूं किये और बिना दुम हिलाये अपनी जगह चुपचाप, गेंदे के मुरझाये पौधे-सा, खड़ा रहा. पपीते के पेड़ पर कौआ प्रमोद सिंह
शनिवार, अप्रैल 06, 2013
पपीते के पेड़ पर कौआ और कुछ और
चर्चाकारः
अनूप शुक्ल
आज की चर्चा करने के लिये पोस्टें पढ़ते हुये सोचते रहे कि किसके बारे में लिखें। कुछ समझ नहीं आया तो जो बांचा उनके ही अंश आप तक पहुंचा रहे हैं। देखिये। पढिये।
11 टिप्पणियां:
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11. के आगे कुछ दिख नहीं रहा ! (मेरा ब्राउज़र तो ठीक है न ?)
जवाब देंहटाएंआपका ब्राउजर एकदम ठीक है। गड़बड़ी हड़बड़ी की थी। अब ठीक कर दी है। 11 को भी निपटा दिया है। 10 बचे। :)
हटाएंआभार, अच्छे लिनक्स चुन लाये हैं .....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद! आपका भी एक लिंक है। अच्छा है। :)
हटाएंबेहतरीन पठनीय लिंकों की प्रस्तुति,सार्थक चर्चा.
जवाब देंहटाएंअच्छा संचयन
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
हटाएंआप जैसी चर्चा कोई और क्यों नहीं कर पाता ?
जवाब देंहटाएंक्योंकि...आप जैसा पोस्ट और टिप्पणी भी और कोई नहीं कर पाता! :)
हटाएंबहुत ही बढियाँ चर्चा की है आपने।
जवाब देंहटाएंकैसे कह रहे थे कि कुच्छो बुझा नहीं रहा था, अब इससे बेटर का होगा !
चर्चा से बेटर तो आपका कमैंटै होगा। सो हो गया। :)
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