महिलाओं का जब भी जिक्र आता है तो उनके बारे में सबसे अधिक कविता पंक्ति का जिक्र आता है:
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध और आंखों में पानी।
मजे की बात जब ये पंक्तियां लिखी गयीं होंगी तब भी भारतीय समाज में नारियां समाज के हर क्षेत्र में आगे आ रही होंगी लेकिन चाहे कविता की लय हो या कुछ और ये कविता पंक्तियां बहुत दिन तक भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति का साइन बोर्ड सी बनी रहीं। शायद आज भी जब स्कूलों में नारी पर निबंध लिखे जाते हों तो उनकी नींव इन्हीं दो लाइनों से भरी जाती हो।
लेकिन आज सच्चाई यह है कि महिलाओं की स्थिति और उनकी छवि में गुणात्मक परिवर्तन आये हैं। रश्मि रविजा ने एक संस्मरण का जिक्र करते हुये लिखा:
तो ये हैं, आज की आधुनिक और सम्पूर्ण नारियाँ, जिनेक दम पर भारतीय संस्कृति फल-फूल रही है और ये उस पर एक खरोंच भी नहीं आने देंगी.एक, दिन भर घर घर में बर्तन मांजती है, शाम को मच्छी बेचती है पर चेहरे पर मुस्कान सजाये हमेशा सबकी सेवा को तत्पर रहती है. और दूसरी, फाइव स्टार में पार्टी अटेंड करती है, जींस-स्कर्ट पहनती है, अक्सर प्लेन से ही सफ़र करती है पर जरूरत पड़ने पर नंगे फर्श पर बैठ एक मछुआरिन के दुःख दर्द में शामिल होने से गुरेज़ नहीं करती
दीपक शर्मा ने इस मौके पर लिखे लेख में लिखा:
अगर प्रबंधन की दुनिया में देखा जाए तो महिला ही इस कायनात की पहली प्रबंधक है जिसने घर से लेकर समाज तक को एक दायरे में बाँधा हुआ है।घर की रसोई से लेकर शादी -बारात या किसी भी अवसर या रिश्तों के प्रबंधन का सबक महिलाओं ने ही इस विश्व को दिया है। और तो और अगर हम कहें कि पुरुष का भी सही प्रबंधन नारी ने ही किया हुआ है वरना पुरुष से ज़्यादा कोई भी अस्त-व्यस्त प्राणी इस धरती पर नहीं। पर आज हमें ज़रुरत है कि हम इस ज़रुरत को खुल कर स्वीकार करेँ और महिलाओं को अपने साथ गर्व से सहभागिता दें, उनका सम्मान करेँ, उनका आशीर्वाद लें।
इस मौके पर में औरत शब्द की विवेचना करते हुये अजित वडनेरकर ने लिखा:
औरत शब्द में कहीं भी ओछापन, सस्तापन या पुरुषवादी अहंकार वाली बात कम से कम उर्दू-हिन्दी की सरज़मीं इस हिन्दुस्तान में तो नज़र नहीं आती। यह शब्द भी उतनी ही मर्यादा अथवा शालीनता रखता है जितनी कि महिला या स्त्री शब्द। स्त्री, महिला, नारी, औरत जैसे शब्दों में सिर्फ परिपक्वता, वयस्कता ही नज़र आती है। इससे पहले की अवस्था को लड़की, कन्या वगैरह कहा जा सकता है। विवाह या शारीरिक सम्पर्क के आधार पर स्त्री, नारी, औरत जैसे शब्दों के अर्थ नहीं निकाले जाने चाहिए। औरत शब्द का इस्तेमाल यह सोचकर नहीं किया जाता कि उसे मर्द की तुलना में कमतर साबित करना है।
घुघुतीजी एक वाकया बताते हुये औरत-मर्द की सहज छवि की बात करते हुये संस्मरण का जिक्र करती हैं जिसमें एक फ़ल वाला उनके पति को समझाइश देता है:
मर्द होकर मदाम की बात मानता है। अब तो हर हाल में दो दर्जन केले ही लो। चाहे तो खरीदकर फेंक दो। ऐसे तो मदाम की हिम्मत बढ़ जाएगी। आज केले खरीदने से रोकती है, कल हर बात पर रोकेगी
नवीन तिवारी को महिला दिवस महिलाओं को दिया एक झुनझुना प्रतीत होता है।
जब महिला दिवस पर और लोग बहुत-बहुत कुछ कह रहे हैं तब अदाजी कह रही हैं-
अब रोके तुम्हें कौन, कुछ भी कहो
मेरी चुप्पी रहेगी तुम्हारा जवाब
इसी पोस्ट में उनकी ही मधुर आवाज में एक गाना भी मौजूद है। सुनियेगा। लेकिन भैया इस पोस्ट की शुरुआत में फ़ोटू बड़ी भयंकर है और एक कमेंट के जबाब में अदाजी का कमेंट तो औरै भयंकर-
वाणी की बच्ची,
तेरा कमेन्ट छाप तो दिया, लेकिन दिल किया तेरा गला दबा दूँ ...बस..
हा हा हा हा हा ...
बताओ भला गरदन दबाने की तमन्ना के साथ हा हा हा हा! लगता ही नहीं कि ये हां नहीं तो वाली अदाजी हैं।
विश्व ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में नारी मुक्ति का प्रश्न और समकालीन नारी मुक्ति आन्दोलन की दिशा एक लेख है जिसमें विश्व परिदृश्य में नारी आंदोलनों और उनके कारण आये परिवर्तनों का जिक्र है।
सचिन मिश्रा का कहना है
महिलाएं बाहर तो मजबूत हो गई हैं, लेकिन घर में भी वह सशक्त हों, तो कुछ बात बने।
सदन में महिला आरक्षण पर पेश किये जाने वाले बिल पर अपनी राय व्यक्त करते हुये श्रुति अवस्थी ने लिखा और सवाल किया:
आरक्षण वह बैशाखी है जो सहारा तो हो सकती है लेकिन यही बैशाखी हमेशा के लिए उस वर्ग को अपाहिज भी बना देती है जो इसके सहारे चलने की कोशिश करता है. दलित और पिछड़ों को दिया गया आरक्षण इसका सबसे जीवंत उदाहरण है. आज महिला आरक्षण के सवाल पर भले ही सारे राजनीतिक दल उदारतापूर्वक व्यवहार कर रहे हैं लेकिन खुद उन प्रगतिशील महिलाओं को सोचना चाहिए कि इस बैशाखी के सहारे वे लोकतंत्र में कहां तक आगे जा पायेंगी?
संजीव तिवारी ने इस मौके पर लिखा:
नहीं कर सकती मैं तुम्हारा स्वागत
आंखों में आंसू
अंजुरी में फूल भर कर
तुम्हे मुबारक ये दिवस
और दिवस के लुभावने स्वप्न
मुझे तो बरसों जागते रहना है
स्वप्न को किसी मंजूषा में धर कर.
इस मौके पर कबाड़खाना में अकबर इलाहाबादी के स्त्री संबंधी विचार बताते हुये सिद्धेश्वर जी ने बेहतरीन पोस्ट लिखी है। अकबर इलाहाबादी का मानना है:
तालीम औरतों को भी देनी जरूर है।
लड़की जो बेपढ़ी है तो वो बेशऊर है।
इसके पहले होली के मौके पर अभय तिवारी टहलते-टहलते बनारस गये और वहां होने वाले अश्लील कवि सम्मेलन का भी मजा लिये। इसके बाद गालियों के संबंध पर अपने विचार पेश करते हुये उन्होंने लिखा:
इसी यात्रा के दौरान वे ज्ञानजी और गिरिजेश राव से भी मिले और उनको भला आदमी बता दिया। होली का मौका है कोई किसी को कुछ भी कह सकता है।संस्कृति और विकृति दोनों सामाजिक नज़रिये का फ़रक़ है। मेरा मानना यह है कि गालियाँ प्रजननांगो पर हमला नहीं बल्कि उन के प्रति सम्मोह हैं। और ये गालियां स्त्री के प्रजननांगो पर नहीं बल्कि प्रजननांगो पर हैं और गुप्तांगो पर हैं। भूला न जाय कि कितनी गालियाँ गुदा पर लक्षित है। और ये भी याद कर लिया जाय कि गालियों का एक प्रमुख हिस्सा आदमी के लिंग को बार-बार स्मरण को समर्पित है। और यह मान लेना कि यदि औरतों को मौक़ा मिला तो वे गालियाँ नहीं देंगी, भी ठीक नहीं। इस समाज में ही कितनी औरतें गाली देती हैं। वे शायद पुरुषवादी सोच के प्रभाव में देती हैं लेकिन पश्चिमी समाजों में जहाँ औरतें अपेक्षाकृत स्वतंत्र है, वहाँ औरतें गाली देती हैं और किसी पुरुषवादी सोच के तहत नहीं देतीं। औरतों द्वारा दी जाने वाली अंग्रेज़ी की प्रमुख गालियों में उल्लेखनीय हैं: अपने-आप से यौन सम्बन्ध बनाना, पुरुष के लिंग के समकक्ष होना।
इससे बेखबर ज्ञानजी अपने नाती नत्तू पांडे को खोज रहे हैं। बाकायदा कविता में:
नत्तू पांड़े नत्तू पांडे कहां गये थे?
झूले में अपने सो रहे थे
सपना खराब आया रो पड़े थे
मम्मी ने हाल पूछा हंस गये थे
पापा के कहने पे बोल पड़े थे
संजय ने हाथ पकड़ा डर गये थे
वाकर में धक्का लगा चल पड़े थे
नत्तू पांड़े नत्तू पांड़े कहां गये थे?!
समसामयिक घटनाओं पर चुटीले अंदाज में व्यंग्य लिखना शेफ़ाली पांडेय अच्छी तरह जानती हैं। हाल ही में कृपालु महाराज के आश्रम में हुई लापरवाही के चलते हुई मौतों पर लिखते हुये उन्होंने लिखा-भए प्रकट कृपालु ...... इस चुटीले व्यंग्य लेख के चुनिंदा अंश देखिये:
१.इसे तोड़ने में जो कुछ भी हुआ, उसे मीडिया वाले भगदड़ कहते है लेकिन हमारे महाराज इसे प्रभु चरणों में जल्द से जल्द पहुँचने की बेकरारी कहते हैं|
२. मासूम और पवित्र लोगों की हर जगह ज़रुरत होती है| आप लोग अभी गरीब है इसीलिये पवित्र भी हैं|
३.महाराज की दी हुई दक्षिणा को स्वर्ग में परमिट प्राप्त है|
४. कुम्भ में अभी भी प्रबल संभावनाएं है, इसलिए शान्ति और भीड़ दोनों बनाए रखें|
मेरी पसंद
तितली सी होती है
जहाँ रहती है रंग भरती हैं
चाहे चौराहे हो या गलियाँ
फ़ुदकती रहती हैं आंगन में
धमाचौकड़ी करती चिडियों सी
लड़कियाँ,
टुईयाँ सी होती है
दिन भर बस बोलती रहती हैं
पतंग सी होती हैं
जब तक डोर से बंधी होती हैं
डोलती रहती हैं इधर उधर
फ़िर उतर आती हैं हौले से
खुश्बू की तरह होती हैं
जहाँ रहती हैं महकती रहती है
उधार की तरह होती हैं
जब तक रह्ती हैं घर भरा लगता है
वरना खाली ज़ेब सा
लड़कियां,
सुबह के ख्वाब सी होती हैं
जी चाहता हैं आँखों में बसी रहे
हरदम और लुभाती रहे
मुस्कुराहट सी होती हैं
सजी रह्ती हैं होठों पर
आँसूओं की तरह होती हैं
बसी रहती हैं पलकों में
जरा सा कुछ हुआ नही की छलक पड़ती हैं
सड़कों पर दौड़ती जिन्दगी होती हैं
वो शायद घर से बाहर नही निकले तो
बेरंगी हो जाये हैं दुनियाँ
या रंग ही गुम हो जाये
लड़कियाँ,
अपने आप में
एक मुकम्मल जहाँ होती हैं
मुकेश कुमार तिवारी
और अंत में
फ़िलहाल इतना ही। आप सभी को आज का दिन मुबारक। आपका सप्ताह झकास शुरु हो। व्यस्त रहें,मस्त रहें।
कविता जी को अंतर्राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी सम्मान से सम्मानित किया गया था उसकी फोटो देखें और उनको फ़िर से बधाई दें। बगल का कार्टून काजल कुमार का (बनाया हुआ) है।
अच्छी चर्चा ...!!
जवाब देंहटाएंअंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर सभी को हार्दिक शुभकामनाएं...
जवाब देंहटाएंकुछ अच्छी पोस्ट पढ़ने को मिलीं आपके जरिये।
जवाब देंहटाएंबढ़िया रही यह चर्चा
बढ़िया चर्चा रही।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
सुन्दर , सामयिक चर्चा..
जवाब देंहटाएं@ इसी यात्रा के दौरान वे ज्ञानजी और गिरिजेश राव से भी मिले और उनको भला आदमी बता दिया। होली का मौका है कोई किसी को कुछ भी कह सकता है।
गुरुजी, तनिक दायें बायें ताक के! होली बीते जमा छः दिन हो गये, अब कोई भी मानहानि का दावा कर सकता है।
अंतर्राष्ट्रीय महिला-दिवस पर बहुत-सी प्रविष्टियों का आना जारी है !
जवाब देंहटाएंएक और चर्चा की अपेक्षा !
चर्चा सुन्दर है ! मुकेश जी की यह कविता हर बार नयी लगती है ! आभार ।
"होली का मौक़ा है कोई किसी को कुछ भी कह सकता है"
जवाब देंहटाएंबात पसन्द आई!
अभी तो कुछ पढ़ा नहीं, पर शुक्रिया...
जवाब देंहटाएंमुकेश जी की यही कविता अपने पहले भी लगायी है... लेकिन आज फिर से मौका अच्छा था.
अरे अनूप जी, जब कभी भी हम वाणी का गला दबावेंगे तो ..हाँ , नहीं, पता नहीं...का संशय थोड़े ही न होगा.....उ हो बस हा हा हा हा ..ही होगा ...
जवाब देंहटाएंबाकी चर्चा जोरदार रही है....और होली बीत गई है तो का हुआ ...फिकिर नॉट...जो होगा देखा जाएगा....हाँ नहीं तो...!!!
बढ़िया चर्चा ।
जवाब देंहटाएंबढिया चर्चा, अच्छे लिंक्स. शेफ़ाली जी सचमुच बहुत धारदार लिखती हैं.
जवाब देंहटाएंअच्छी चर्चा है...शुक्रिया
जवाब देंहटाएं.बेहतरीन चुनाव चिठ्ठों का.
जवाब देंहटाएंतुम जानती हो
जवाब देंहटाएंकि इस बदल चुके हालात में
जब कहीं-कहीं बहुत कम हो रहे हैं बादल
और कहीं-कहीं बहुत ज्यादा हो रही है बर्फ,
फसलें लील लेती हैं जमीन कों हीं
और उससे जुडा सीमान्त किसान
फंदे बाँध लेता है
तुम जानती हो
कि मांग को थाह में रखना कितना जरूरी है
चाहे वो प्यार की हीं मांग
अच्छी चर्चा ..
जवाब देंहटाएंसामयिक चर्चा..
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी चर्चा है आजकी.मेरी पसन्द लाजवाब लगी. सभी रचनाकारों और अनूप जी को बधाइयाँ.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा । बहुत सुंदर प्रयास है। जारी रखिये ।
जवाब देंहटाएंआपका लेख अच्छा लगा।
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बहुत अच्छी चर्चा।
जवाब देंहटाएंSundar Charcha...Aabhar!
जवाब देंहटाएंबढ़िया
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा है भाई ।
जवाब देंहटाएंकविता जी को बधाई, मुकेश कुमार तिवारी जी की कविता अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंआपने हमें स्मरण रख उल्लेख किया, सो अत्यंत आभारी हैं.
जवाब देंहटाएंकभी कभार यह अनुकम्पा बनाए रखें, कृपा होगी .
सारगर्भित चर्चा !आभार
जवाब देंहटाएंअच्छी और उपयोगी चर्चा। मगर ये क्या पुलिसिया अंदाज़ में धौंस दे रहे हैं आप मान, भाषा और आक्षेप के बारे में? असभ्य टीपों को हटाना आपका विशेषाधिकार ही नहीं, पुनीत कर्तव्य भी है जिसे आप सहकारिता के आधार पर निभाना चाहते हैं क्या? जनाब, तहज़ीब के खिलाफ़ न केवल टिप्पणी हटा दी जानी चाहिए बल्कि अगर कोई ऐसी हरकत दुहराए तो उस पर निषेधाज्ञा लागू करने का प्राविधान भी होना चाहिए। मैं अभी जानता नहीं मगर क्या यह सुविधा ब्लॉगर नहीं देता?
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