हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर
नमस्कार मित्रों! मैं मनोज कुमार एक बार फिर चिट्ठा चर्चा के साथ हाज़िर हूँ।
अधिकतर यह आवश्यक नहीं होता कि हम गद्य या पद्य पर कुछ कहें ही। इस मंच से जब मैं जुड़ा तो मुझे लगा कि मेरा काम है कुछ चिट्ठॊं को आप तक इस तरह पहुँचाऊँ ताकि आप उसे पढने को प्रेरित हो जाएं। पोस्टों में प्रस्तुत विचार, अभिव्यक्ति और शिल्प हमें अभिप्रेरित कर दे कुछ लिखने या कहने के लिए, यह अलग बात है। और अगर ऐसा होगा तो मैं सीधे उस ब्लॉग पर जाकर करूँगा। इस मंच से नहीं।
आजकल ब्लॉग रचनाएं ह्रासमान मानवीय मूल्यों का चित्र ही नहीं उकेरती बल्कि उन मूल्यों की रक्षक पीढ़ी की वेदना को भी समानान्तर चित्रित करती चलती है। प्रेम के बदले उपेक्षा और उपकार के बदले तिरस्कार से आहत वर्ग अपने अन्तर्द्वद्व, दुःख और कष्ट को आशा, स्नेह और उपकार के आवरण से ढके रहता है। इन सबके मूल में है वह सुख जो दूसरों की आँखों में देखने की चाह में बहुत कुछ सहने के लिए प्रेरित करता है और दूसरों की आँखों में दिखने पर वह अपार हो जाता है।
भौतिकवाद की गणित में हर चीज को तौलने वाले अभिमानी-अहंकारी वर्ग की न तो उन मूल्यों तक पहुँच है और ना ही उसके पीछे छिपी संवेदना की समझ। क्योंकि उसने विविध प्रकार के आग्रहों की ऊँची-ऊँची दीवारों से स्वयं को घेर रखा है। इसीलिए उसे संवेदना की उस भाषा की अनुभूति ही नहीं होती। समाज में व्याप्त संकुलित संवेदनहीनता से रचनाकार आहत तो है लेकिन निराश नहीं है और उसे सत्य से साक्षात्कार के लिए हृदय से निकली भाषा अधिक प्रभावशाली जान पड़ती है।
हम सर्वसाधारण जन सीधे तौर पर विभिन्न विधाओं में रचित साहित्य का आनन्दम लेना चाहते हैं। ‘सीधी लकीर खींचना एक टेढ़ा काम होता है!’ शायद चर्चाकार के लिए भी यही मानदण्ड होता है।
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तो चलिए चर्चा शुरु करते हैं।
एक सतत युद्धक ज्ञान जी के मनसिक हलचल का कारण बना हुआ है। वह हतप्रभ हैं इस गांधीवादी साइट के अटैक करने से! ये सज्जन उनके कम्प्यूटर पर हमला करते हैं, वह भी छिप कर, उन्हें शर्म नहीं आती! अरे, हमला करना ही है तो बाकायदे लिंक दे कर पोस्ट लिख कर करें, तब वे बतायेंगे कि कौन योद्धा है और कौन कायर! यह बगल में छुरी; माने बैक स्टैबिंग; हाईली अन-एथिकल है! शायद ज्ञान जी को नहीं पता कि सज्जन लोग कहीं लिंक नहीं देते। न उधर न इधर! लिंक देने से ब्लॉग का विकास जो ठहर जायेगा!
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हिन्दी अकादमी, दिल्ली के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब केदारनाथ सिंह सहित कुल सात साहित्यकारों ने पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया। हिन्दी अकादमी की ओर से कृष्ण बलदेव वैद को शलाका सम्मान से वंचित रखने के मामले को लेकर हिन्दी साहित्य जगत में ऐसी स्थिति पैदा हो गई है। साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने भी केदारनाथ सिंह के निर्णय का समर्थन करते हुए कहा कि शलाका सम्मान की परंपरा को ही खत्म करना चाहिए। इस विषय पर जानकारी देते हुए अमित कुमार जी प्रश्न करते हैं कि यह हिंदी का उद्धार है या हिंदी का मजाक?
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एक विचारोत्तेजक आलेख प्रस्तुत करते हुए आकांक्षा जी बताती हैं कि लगता है हिंदी के अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं। अभी तक हम हिंदी अकादमियों का खुला तमाशा देख रहे थे, जहाँ कभी पदों की लड़ाई है तो कभी सम्मानों की लड़ाई। अब तो सम्मानों को ठुकराना भी चर्चा में आने का बहाना बन गया है। साहित्य कभी समाज को रास्ता दिखाती थी, पर अब तो खुद ही यह इतने गुटों में बँट चुकी है कि हर कोई इसे निगलने के दावे करने लगा है। आगे कहती हैं हिन्दी की तलाश अभी जारी है, यदि आपको दिखे तो अवश्य बताईयेगा !!
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शेफाली जी पूछ रही हैं पता नहीं सोने को आदिकाल से लोगों ने अपने सर पर क्यूँ चढ़ा रखा है? अब सोना तो सोना है! कनक कनक ते सौ गुना मादकता अधिकाई । उहि खाए बौरात जन इतिं पाए बौराई ॥ जिसको पाने से ही लोग बौरा जाते हैं तो ज़ाहिर है कि सोना पीढ़ियों से लोगों को तोड़ने का काम करता आया है। इसके कारण कभी तिजोरियां टूटतीं हैं, तो कभी ताले! सास अपने जेवरों को तुड़वा - तुड़वा कर बहुओं और बेटियों के लिए जेवर बनवाती है। कमर के साथ-साथ वह खुद भी टूट जाती है, और जब जेवर बांटती है, तो क्या बेटी क्या बहू , दोनों के दिल टूट जाते हैं । हर कोई यही समझता है कि दूसरे को ज्यादा मिला है। साथ ही एक और राजनीति चल रही है, नोटों के माला पहनने और पहनाने की। इस आलेख के साथ साथ उन्होंने एक बहुत ही ख़ूबसूरत नोट ग़ज़ल भी प्रस्तुत की है
बात है या बारात नोटों की.
नोट के हार, नोट के गजरे
शाम नोटों की, रात नोटों की.
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गौरैया हमारे जीवन का एक अंग है मनुष्य जहाँ भी मकान बनता है वहां गौरैया स्वतः जाकर छत में घोसला बना कर रहना शुरू कर देती है। विश्व गौरैया दिवस पर सुमन जी एक सूचनाप्रद आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही यह संदेश भी दे रहे हैं कि मनुष्य जाति को इससे सबक लेना चाहिए कि पक्षी अपने बच्चो की निस्वार्थ सेवा कर योग्य बनते ही मुक्त कर देते हैं और हम पीढ़ी दर पीढ़ी दूसरों का हक़ मार कर बच्चो को बड़े हो जाने के बाद भी आने वाली पीढ़ियों के लिए व्यवस्था करने में लगे रहते हैं जिससे अव्यस्था ही फैलती है और असमानता भी ।
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संगीता पुरी जी एक सार्थक आलेख के द्वारा समझा रही हैं कि केमद्रुम योग कोई योग ही नहीं , जिससे कोई अनिष्ट होता है। ज्योतिष के इन्हीं कपोल कल्पित सिद्धांतों या हमारे पूर्वजों द्वारा ग्रंथों की सही व्याख्या न किए जाने से से ज्योतिष के अध्येताओं को ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पाती है और वे ज्योतिष को मानने तक से इंकार करते हैं। आज भी सभी ज्योतिषियों को परंपरागत सिद्धांतों को गंभीर प्रयोग और परीक्षण के दौर से गुजारकर सटीक ढंग से व्याख्या किए जाने हेतु एकजुट होने की आवश्यकता है , ताकि ज्योतिष की विवादास्पदता समाप्त की जा सके और हम सटीक भविष्यवाणियां करने में सफल हो पाएं !!
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जी.के. अवधिया जी ने एक सार्थक बहस के ज़रिए यह कहा है कि परतन्त्रता में तो हिन्दी का विकास होता रहा किन्तु जब से देश स्वतन्त्र हुआ, हिन्दी का विकास तो रुक ही गया उल्टे उसकी दुर्गति होनी शुरू हो गई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद शासन की नीति तुष्टिकरण होने के कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा के स्थान पर "राजभाषा" बना दिया गया। विदेश से प्रभावित शिक्षानीति ने हिन्दी को गौण बना कर अग्रेजी के महत्व को ही बढ़ाया। हिन्दी की शिक्षा धीरे-धीरे मात्र औपचारिकता बनते चली गई। दिनों-दिन अंग्रेजी माध्यम वाले कान्वेंट स्कूलों के प्रति मोह बढ़ते चला गया और आज हालत यह है कि अधिकांशतः लोग हिन्दी की शिक्षा से ही वंचित हैं। हिन्दी के साथ जो कुछ भी हुआ या हो रहा है वह "जिस थाली में खाना उसी में छेद करना" नहीं है तो और क्या है? इस आलेख में विषय को गहराई में जाकर देखा गया है और इसकी गंभीरता और चिंता को आगे बढ़या गया है।
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आखर कलश पर पढिए एक-से-बढकर एक दिनेश कुमार की पांच ताज़ा ग़ज़लें। कुछ शे’र देखिए
शहर डूबा है कैसी ख़ुशी में
हादसे हो रहे हैं गली में.
इस क़दर सीधा लगा कि दिल का आँगन हिल गया
किसके हाथों के निशाँ हैं देखना इस तीर में.
मेरे दिल की सूनी हवेली में अकसर
उतरती हैं परियाँ ग़ज़ल गुनगुनाने.
कभी क़हक़हे रख दिए रू-ब-रू
हँसी ही हँसी में रुलाया गया.
फस्ले-गुल में ये उदासी कैसी
इन दरख्तों को हिलाकर देखो.
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जिनमे जज्बा हो, लगन हो, ईमानदारी हो, और जो परिश्रमी हों, उन्हें थोड़ी सी अच्छी किस्मत का साथ मिले तो , सफलता उनसे दामन नहीं छुड़ा पाती। रश्मि रविजा जी एक अच्छा और प्रेरक प्रसंग प्रस्तुत कर रही हैं देवा की। पढ़कर आपको भी यक़ीं नहीं होगा कि आज के युग में भी ऐसे ईमानदार लोग होते हैं। इस प्रसंग पर अविनाश जी का कहना है “रश्मि जी आपकी पारखी नजर को सलाम है। अब सतयुग आने ही वाला है। चाहे कितने ही नोटों की मालाएं नेताओं को पहनाई जाएं पर वे हार ही पहनेंगे और ईमानदार सदा ही जीतेंगे जीवन के प्रत्येक मोर्चे पर नेकता के साथ।”
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थोड़े महँ जानिहहिं सयाने।
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देखना हो यदि आपको बर्फ़ और बर्फ़बारी ।
तो चले जाएं पराया देश बिना किसी तैयारी॥
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अमीर धरती ग़रीब लोग पर आपको मिलावा दें।
सीजन परीक्षा का, गैस पेपर और ख़ूबसूरत यादें॥
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सरस पायस पर रवि जी की सजी हुई फुलवारी है।
हर कलियां मुस्का कर कह्ती मेरी शोभा प्यारी है॥
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“सुखदा” कथा का अंत भला तो सब भला
वीर बहुटी पर लेकर आई दीदी निर्मला॥
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“कांधे मेरे तेरी बंदूक के लिये नहीं है।”
कह रही वाणी जी, जहां प्रेम है शांति वहीं है॥
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बच्चे अपने स्वाभाविक बाल सुलभ बचपन से हो गये हैं दूर
अजय कुमार झा का यह विचारोत्तेजक अलेख पढिए ज़रूर॥
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वंदना कर रही वंदना, जिससे दूर हो ब्लॉगरों की परेशानी।
जो कोई मनसे गाए मन वांछित फल पाए ॐ जय ब्लोग्वानी॥
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शायद ही कोई विषय बचा हो शास्त्री जी की कलम से
श्यामपट पर कविता लेकर हैं मुखातिब आज वो हम से॥
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ज़माने की हक़ीक़त अलग सा यहां है।
माँ का हाल पूछ्ने की फ़ुर्सत कहाँ है?
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आज का सबसे ज़्यादा पसंदीदा
चिट्ठा जगत पर दिख रहे सबसे अधिक टिप्पणियों के आधार पर ...
भजलकार ताऊ एण्ड पार्टी की दूर हुई उदासी रे।
टिप्पणी दीजो पाठकनाथ उनकी पोस्टवा प्यासी रे।।
भजल कीर्तन भी सब कर रहे लेकर प्रभु का नाम।
रघुपति राघब राजाराम ब्लाग नगरिया पावन धाम॥
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हमारी पसंद
आज की हमारी पसंद है हिमांशु जी की पोस्ट।
हिमांशु जी अपनी पोस्ट कह दिया मैंने द्वारा अत्यंत सारगर्भित विचार पेश कर रहे है। विचारों का जीवन में विशेष महत्व है। उच्च, सद्विचारों से मनुष्य संघर्षों से जूझ सकता है। इस असाधारण शक्ति के पद्य की बुनावट जटिल तो है पर विषय को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करती है। उनकी इस काव्यात्मक अभिव्यक्ति में सत्य की तलाश स्पष्ट है। इस कविता में अज्ञात की जिज्ञासा, चित्रण की सूक्ष्मता और रूढ़ियों से मुक्ति की अकांक्षा परिलक्षित होती है।
मेरी अपनी एक ज़िद है
रहने की, कहने की
और उस ज़िद का एक फलसफ़ा ।
यूँ तो दर्पण टूट ही जाता है
पर आकृति तो नहीं टूटती न !
उसने मेज पर बैठी मक्खी को
मार डाला कलम की नोंक से
क्या मानूँ इसे ?
विगत अतीत में
दलित हिंसा की जीर्ण वासना का
आकस्मिक विस्फोट ?
पुरुषार्थ क्या इक्के का टट्टू है
असहाय, संकल्पहीन ?
बरज नहीं तो गति कैसी,
विरोध नहीं तो उत्कर्ष कैसा !
प्राण में प्राण भरना
आदत हो गयी है मेरी
इसके मूल में परिवर्तन है,
वही परिवर्तन
जो प्रकृति में न घटे
तो प्रकृति प्राणहीन हो जाय
साधन कितने बढ़ गये हैं आजकल
रावण के मुख की तरह,
पर मन तो
एक ही था न रावण का !
विविधता का मतलब आत्मघात तो नहीं ?
जिस असंगति पर
उसका खयाल नहीं
मुझे पता है उसका,
यांत्रिक संगति से
काम नहीं होता मेरा,
प्राण-संगीत की लय पर
झूमता है मेरा कंकाल,
जानता हूँ श्रेष्ठतर मार्ग
पर
हेयतर मार्ग पर चलता हूँ ..
क्योंकि
जानता हूँ
कर्म और सिद्धांत की असंगति ।
बस मेरे खयाल में न्याय है
हर किस्म का,
हर मौके,
हर तलछट का न्याय
क्योंकि
न्याय
सामाजिक व्यवस्था से
कुछ ऊपर की चीज है मेरे लिये,
भोग है एक आन्तरिक,
रसानुभूति है !
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चलते-चलते
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
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भूल-चूक माफ़! नमस्ते! अगले हफ़्ते फिर मिलेंगे।
nice....................nice........................nice...........
जवाब देंहटाएंछा गए गुरु !
जवाब देंहटाएंबढिया चर्चा और विश्लेशण . मैं भी आज कहूंगा- नाइस.
जवाब देंहटाएंकुछ खंडों मे विभाजित यह चर्चा अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंनये चिट्ठाकारों से परिचय कराना अच्छा लगा.
शुभकामनायें.....
नपी तुली बढ़िया चर्चा....बधाई
जवाब देंहटाएंब्लॉग जगत में कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें इत्मीनान से पढने का सोचा है, इनकी पिछली पोस्ट को भी पढना है. हिमांशु जी इनमें से एक हैं, मुझे अफ़सोस है की मैं इन्हें पढने का समय नहीं निकल पाता और जल्दबाजी में खासकर इनकी पोस्ट पढ़ी भी नहीं जा सकती... बहरहाल यहाँ उनकी कविता शानदार लगी... कल यह पढ़ी थी ... शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंहाँ चर्चा की अपडेट ब्लॉग लिस्ट में नहीं दिखाती.
wah vyavsthit or saarthak charcha.
जवाब देंहटाएंचर्चा में चर्चा के लिए आभार ....!!
जवाब देंहटाएंअच्छी और विस्तृत चर्चा.....
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मनोज जी
बहुत समय बाद देखी आपकी चर्चा। और जबरदस्त निखार है!
जवाब देंहटाएंसतरंगी इन्द्रधनुष सी हो गई है!
bahut achchee lagee charcha....jab apna chittha dekha to aur bhi achchhee lagee...
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जवाब देंहटाएंमैं इस चरचा पर जबरजस्त नेखार वाली अमूल्य टेप्पनी का मखणी अनुमोदन करता हूँ ।
जवाब देंहटाएंनोट :
अमूल्य अउर अमूल में साम्य तलासने वालों को बरजास्त नहीं किया जाएगा ।
मनोज कुमार जी आपकी चर्चा पढ़कर आनन्द आता है,
जवाब देंहटाएंक्योकि आप पूर्वाग्रह से परे हैं!
AcHHA LAGA
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