इस पोस्ट में कुछ लोगों का मत है कि विवाह संस्था मूलत: स्त्री विरोधी है और इसकी शुरुआत नारी के खिलाफ़ पुरुष का मास्टर स्ट्रोक है। कुछ लोगों का मानना है कि तमाम खामियों के बावजूद इस संस्था का फ़िलहाल कोई विकल्प नहीं है। एक विचार यह भी आया कि विवाह संस्था समाप्त हो जाने के बाद बच्चों का हिसाब-किताब पालन-पोषण करने के लिये ट्र्स्ट बना दिये जायें जिनको चलाने के लिये कुछ पैसा समाज के लोगों से लिया जाये। जब यह विचार मैं पढ़ रहा था तब मुझे आजकल चल रहे अनाथालयों की व्यवस्थायें/अव्यवस्थायें याद आयीं। जिन बच्चों के मां-बाप का पता नहीं होता वे अनाथालय में ही तो पलेंगे।
विवाह संस्था की समाप्ति पर हुई इस रोचक बहस को पढ़ते हुये मुझे ओ.हेनरी की एक कहानी याद रही है। इसमें एक बुजुर्ग दंपति अपनी किचपिच से ऊबकर तलाक ले लेते हैं। तलाक ले लेने के बाद उनको लगता है कि वे एक-दूसरे के बिना रह नहीं पायेंगे। वे फ़िर जज के पास जाते हैं कि वह उनकी शादी करा दे। लेकिन जज की फ़ीस के लिये उनके पास पैसे नहीं होते हैं। शाम को जब जज घर वापस जा रहा होता है तब उसको वे बुजुर्ग दम्पति लूट लेते हैं और अगले दिन फ़िर से शादी कराने की अर्जी दाखिल कर देते हैं। जज देखता है कि नोट उसका ही लुटा हुआ नोट है लेकिन वह उनकी शादी करा देता है।
मेरी समझ में हर संस्था में खूबियां-खामियां होती हैं। विवाह संस्था में भी हैं। इसमें किसी का शोषण होता है और कोई मजे करता है। लेकिन सब मामले एक जैसे नहीं होते। संस्था में कुछ खामियां हैं तो उसको खतम करके जो नयी व्यवस्था बनाने की बात होगी वह एकदम त्रुटिहीन होगी इसकी क्या गारंटी? फ़िर अभी भी विवाह कोई जबरदस्ती तो नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दे ही दिया। रहा जाये मौज से और उसके परिणाम देखे जायें। अगर अनुकरणीय और आदर्श होगा तो लोग आयेंगे और संख्या बढ़ायेंगे। बच्चों का ट्र्स्ट बनने तक कोई न कोई इंतजाम हो ही जायेगा।
लेकिन ट्र्स्ट बनने और चलने के बाद शायद हिन्दी फ़िल्मों के भाई ,जुड़वां भाई जो मेले में खो जाते थे और बीस साल बाद मिलते थे और गले मिलकर रोने लगते थे वे शायद खतम हो जायें।
विवाह संस्था के आसपास आजके मानव समाज की धुरी घूमती है। नाम कोई दे लें लेकिन तमाम प्रेम,प्यार, राग,अनुराग, आदर्श की पाठशाला है यह संस्था। इसको खतम करके प्रस्तावित संस्था का माडल पेश किया जाये , कुछ दशक, सदी इसका परीक्षण हो तब कुछ सोचा जाये आगे।
एक और जानकारी परक च विचारोत्तेजक लेख में कृष्ण मुरारी प्रसाद ने धर्म का लब्बो और लुआब पेश करने के पहले बताया :
जीसस जन्म से क्रिश्चन नहीं ...यहूदी थे. ....पैगम्बर मोहम्मद जन्म से मुसलमान नहीं थे....भगवान बुद्ध जन्म से बौद्ध नहीं थे.....भगवान महावीर जन्म से जैन नहीं थे......गुरू नानक जन्म से सिक्ख नहीं थे....हिंदू धर्म में भी बहुत सी धाराएं हैं......कई वेद...कई पुराण....कई उपनिषद.....कई ग्रन्थ हैं......
अगर आपको कुछ बिन्दास लेखन पढ़ने का मन करता है तो आइए मनीषा पाण्डेय के ब्लॉग में। मनीषा एक बोहेमियन की डायरी लिखना चाहती हैं। वे कहती हैं-
मैंने नहीं देखी है आज तक कोई बोहेमियन औरत, लेकिन हमेशा से सोचती रही हूं कि काश कि जीवन ऐसा हो कि कल को अपनी आत्मकथा लिखूं तो उसका नाम रख सकूं – एक बोहेमियन औरत की डायरी। लेकिन चूंकि मैं जिस देश और जिस समाज में पैदा हुई, वहां ऐसे बेजा ख्यालों तक की आमद पर बंदिशें हैं तो मैं बोहेमियन की जगह बेदखल की डायरी से ही काम चला रही हूं।
अब इसके बाद के उनके किस्से देखिये। स्पीड वाले किस्से। हवा में उड़ता जाये मेरा लाल टुपट्टा मलमल का से आगे के किस्से हैं ये।
कमीने, हरामी की औलाद सब के सब। मैंने खुले दिल से गालियों की बौछार की। साले, खुद टी शर्ट उतारकर भी चलाएंगे तो किसी की नानी नहीं मरेगी। जरा कुर्ता उड़ गया तो उनकी आंतें उतरने लगीं। मैंने कहा, मरने दे उन्हें। तू आराम से बैठ। पीठ को हाइवे की हवा लग रही है न। लगने दे। पसीने में हवाओं की ठंडी छुअन। मस्त है यार। टेंशन मत ले। ससुरों के दिमागों तक को हवा नहीं लगने पाती। हमारी तो पीठ तक को लग रही है। पता नहीं क्या था कि हम किसी बात की परवाह करने को तैयार नहीं थे। हमने सचमुच किसी बात की परवाह नहीं की।
आप पूरा किस्सा पढिये और देखिये कि मीडिया और अंग्रेजी का गठबंधन कित्ता तो ताकतवर होता है।
पोस्ट में आयी टिप्पणियां भी मजेदार हैं। मनीषा, शायदा और प्रमोदजी के बहाने कई बार ससुर शब्द का प्रयोग है। संजीत की मनीषा का पीए बनने की अर्जी है। यह दो कमेंट भी हैं:
सिद्धार्थ जोशी का कहना है:
भय का एक नमूना यह भी है...
इंसान कहीं से भी अपने बचाव के लिए पर्याप्त ऑथिरिटी निकाल लेता है.. चाहे अंग्रेजी भाषा हो या लाल रंग का प्रेस का निशान..
अपूर्व कहते हैं:
बोहेमियन स्त्री..एक विरोधाभास!!..ऐसी प्रजाति कही होती है क्या इस मुल्क मे..अगर ऐसा कुछ है तो किसी धर्मस्थल के पीछे आराम फ़रमाते उस श्वान को पता नही चला क्या..जिसे समाज कहते हैं..कि ऐसा कुछ सूँघते ही जिसके बदन पर तमाम आँखें उग आती हैं..दरअस्ल ऐसी स्त्री हमारे मर्दवादी समाज के लिये एक चुनौती होती है..अपनी मर्दानगी साबित करने का एक आमंत्रण..और स्त्रियाँ भी कितनी भोली होती हैं..सिर्फ़ सांची फ़तेह कर के खुश होने वाली..मगर इतना कर के भी वह दूसरे ग्रह की प्राणी बन जाती है..अलग जुबान बोलने वाली..अलग गानों को गाने वाली..मगर इतनी सी आजादी की कीमत कितनी बड़ी है..कि आधी आबादी के अस्सी प्रतिशत को सपनों मे भी किसी राजकुमार के घोड़े पर ही जाना होता है ऐसी ट्रिप पर..
इसके पहले अनीताजी कह ही चुकीं:
मनिषा जी मेरी सीटी की आवाज सु्नाई दे रही है न? बहुत मजा आया आप की पोस्ट पढ़ के। वो गाने जो आप ने गाये वो चीप नहीं थे वो उस एनर्जाइसिंग थे उस समय के लिए एक दम फ़िट्।
लेकिन एक राज की बात बतायें…बम्बई में भी नयी नयी सीखी हुई लड़की को मर्दों की छेड़ाखानी का शिकार बनना पड़ता है, सब कुछ आत्मविश्वास पर निर्भर करता है। खास कर बेस्ट बस वाले(पब्लिक ट्रांस्पोर्ट) और ट्रक वाले नौसिखिया महिला को रोड से उतारने के लिए पूरी लगन से हूल देते निकलते हैं। और जब महिला डर जाती है तो खीसे निपोरते नजर आते हैं। हां जब वही महिला ड्राविंग में परांगत हो जाती है तो फ़िर बेफ़ि्क्री…।वैसे आप जब बम्बई-पूना के हाइवे का आनंद उठाने जाएं तो हम भी साथ हो लेगें अगर आप की इजाजत हो तो। आप कहें तो चीपो गानों का पिटारा साथ ले आयेगें…।:)
अब आपौ कुछ कह डालिये। मनीषा इसके बाद दो पोस्टें और लगा चुकी हैं। हम तो अभी बांच न पाये आप बांच लीजिये बेदखल की डायरी।
अब देखिये एक भले लड़के की क्या गत हुई। पीडी को आईडिया चोर बता दिया पूजा ने:
ढेर फिलोसफी बतिया रहे हो...सब ठीक है न? अच्छा लगता है जब भाग दौड की जिंदगी में कुछ पल अपने लिए मिल जाते हैं. उसमें सोचो, किताबें पढ़ो, दोस्तों से गप्पें मारो...ये कुछ पल सोच कर बड़ा अच्छा लगता है बाद में.
तुमने भी लगता है काफी कुछ जुटा लिया है अपने लिए इन दिनों.
और किताब की फोटो लगाने का आईडिया मेरे ब्लॉग से उठाया...चोर!
लेकिन भैया भले आदमी की हर जगह मरन है। देखिये शिवकुमार मिश्र ने यही तो पूछा था:
देखने की कोशिश करते हैं.
वैसे आपने कमीने और माय नेम इज खान के बारे में नहीं लिखा. दिल बोले हडीप्पा के बारे में भी नहीं लिखा. ऐसा क्यों?
इस पर ऊ कहते हैं:
@बाबू सी कुमार,
मैंने राखी सावंत के बारे में भी कहां लिखा. कभी-कभी तो सोचता हूं आपही के बोहेमियनपने के बारे में तीन लाइन लिखूं, मगर फिर यही होता है कि तीन शब्द के बाद नज़र लड़खड़ाने लगती है, और घरबराकर कंप्यूटर बंद करके एक ओर हट जाता हूं, तो त्रासदियां तो बहुत सारी हैं, ऐसे ही थोड़ी है कि खुद की बजाय दूसरों को दु:स्साहसी बुलाने की मजबूरी बनती हो, आं?
जब मैंने यह देखा तब मन किया कि पूछें कि अच्छा छोड़िये राखी सावंत जी को। आपने मल्लिका जी पर भी तो कुछ नहीं लिखा। मन तो यह भी किया कि वहां समीरलाल जी का कमेंट दिख जाये:
आपके लिए विशेष संदेश:
हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.
अनेक शुभकामनाएँ.
लेकिन नहीं दिखा। मन दुखी हुआ। यह सोचकर कि क्या प्रमोदजी का लेखन विशिष्ट लेखन नहीं है। जब ई लेखन विशिष्ट नहीं है त बाकियों से काहे मौज ली जा रही है। हम ही सीधे मिलें हैं!
फ़िलहाल इतना ही। बकिया फ़िर। आपका सबकुछ झकास हो। जीवन में हास हो/परिहास और उल्लास हो।
प्रमोद जी बहुत बडे वाले लिक्खाड है... एकदम अब्स्ट्रैक्ट राईटिग.. कई लोग जो उनके ब्लाग पर ऐसे ही पहुचते है थोडी देर सोच मे पड जाते है कि बाबू ई बतिया किससे रहे है :)
जवाब देंहटाएंलग रहा है ये वाली पोस्ट आपने नही देखी है?
http://azdak.blogspot.com/2010/03/blog-post_27.html
और उनकी लेखन शैली तो जबरदस्त..ऊपर से उनके टैग्स.. पहले कही नही देखे थे ऐसे विचार.. हम तो उनके पन्खे बन चुके है..
"आदमी का सवाल बेमतलब बाजू गिरता है, जैसे पड़ोस के आंगन पका कटहल धप्प से गिरा है ज़मीन पर, और गिरा पड़ा है, बेमतलब."
मनीषा ने एक अच्छा मुद्दा उठाया है अपनी बाद की पोस्टस मे.. अनूप जी आप स्लो जा रहे है :) पुराने माल उठा रहे है..
और पीडी तो है ही भले मानस.. अपनी करम-फ़ूटर लाईन से ही है न..
बकिया सब ठीक है लेकिन समीर लाल जी को आप ने ऐसे कोट किया जैसे कि आप कह रहे हों कि उनके प्रमोद जी को इग्नोर करने के पीछे कोई चाल हो। मुझे लगता है कि मामला उलटा है।
जवाब देंहटाएंसमीर जी मेरे यहाँ भी टिप्पणी करना त्याग चुके हैं। आजकल वे एक मिशन पर हैं- 'प्रतिभाओं के प्रोत्साहन' के लिए 'विशिष्ट लेखन' का पदक बाँटने के मिशन पर। मुझे और प्रमोद जी को उन्होने इस मिशन से बाहर रखा है, इस बात का मतलब मैं यह निकालता हूँ कि हम पहले ही अति विशिष्ट होकर प्रोत्साहन की परिधि से बाहर हो चुके हैं। यह शुभ संकेत है। समीर जी की टिप्पणी जिस दिन मिलने लगेगी चिंतित हो जाऊँगा।
@ पंकज उपाध्याय, प्रमोदजी को गर्मी में एक और पंखा मिला इससे भली बात और क्या हो सकती है उनके लिये! मनीषा की अगली पोस्टें कहीं भागी थोड़ी जा रही हैं एक्टिवा पर बईठकर! फ़िर चर्चा होगी। पीडी के बारे में और का कहें?
जवाब देंहटाएं@ अभय तिवारी, हमारा कहने का मतलब सिर्फ़ यही है कि प्रमोदजी का लेखन विषिष्ट है जैसा बहुत लोग कहते हैं लेकिन अभी तक समीरलाल जी ने ऐसा नहीं कहा। या कहा होगा तो मुझे दिखा नहीं। बाकी टिप्पणी करने का क्या कहा जाये। हम बहुत पहले कह चुके हैं-
टिप्पणी_ करी करी न करी
विवाह के बारे में आपके विचार बिलकुल वही निकले जो मेरे मन में थे.. चलिए कोई तो हमख्याल निकला. वर्ना यहाँ तो हर कोई पंक्चर साईकिल को फेंक नई लेने में लगा है.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कार्चा....धन्यबाद.....
जवाब देंहटाएंअपूर्व की टिप्पणी महत्वपूर्ण है .गर इसके पीछे के संदर्भो को देखा जाये तो .....
जवाब देंहटाएंवैसे इस देश ने ये सवैधानिक अधिकार बहुत पहले से इस देश के नागरिको को दे रखा है के को भी दो व्यस्क यदि अविवाहित अथवा तलाकशुदा है अपनी मर्जी से सम्बन्ध बना सकते है .....उसी बात को कोर्ट ने सिर्फ दोहराया है .....
आजकल अनामी-बेनामी भी इतनी प्रसिद्धि पा लेते हैं कि जिसे मैं पढने लयक़ नहीं समझता उसे मेरे प्रिय मंच पर चर्चा करने लायक़ मना जाता है।
जवाब देंहटाएंइसे क्या आप रेलेशन कहते हैं, मानते हैं?
यदि हां तो ऐसे संबंध तो प्राचीन काल से चले आ रहे हैं हां उसे संबोधन कुछ और दिया जाता था। ऐसे अपवाद स्वरूप लोग हर युग में, हर समाज में, रहेंगे ही। उनके बारे में चर्चा कर के हम अपना समय और ऊर्जा खर्च करना नहीं चाहते। इन्हें न परंपरा में विश्वास है न संस्था में।
उनके बारे में चर्चा कर के हम अपना समय और ऊर्जा खर्च करना नहीं चाहते। इन्हें न परंपरा में विश्वास है न संस्था में।
जवाब देंहटाएंthis is the basic problem because according to you all such relationships need not be discussed because they are not "worth it " that is why the court now wants to make all relationships "worth while "
lets leave the "judgement" part to court rather then passing "judgement" our selfs
बेनामीजी की पोस्ट ऐसी ही तो पढके आनी ही पड़ेगी. बाकी भी मजेदार पोस्ट हैं आज की चर्चा में देख के आते हैं.
जवाब देंहटाएंआज भी बढियां रहा.
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंहाज़िरी लगाय के....
हाज़िरी लगाय के..खिसक ले भैया
के ई चर्चा मा बड़ी आग है.. ढूँण ढूँण ढूँ ढूँ, ढूँण ढूँण ढूँ ढूँ, ढूँण ढूँण ढूँ ढूँ !
" आपका सबकुछ झकास हो। जीवन में हास हो/परिहास और उल्लास हो। "
हुक्म की तामील हुई अनूप सरकार,
फ़िलहाल इतना ही । बकिया फ़िर ।
अरे दोस्त दोस्ती में गरिया भी दे तो हम बुरा नहीं मानते हैं.. पूजा ने तो सर्फ चोर कहा है.. उसको तो हमें धन्यवाद देना चाहिए कि सिर्फ चोर बोल कर छोड़ दी, नहीं तो ब्लॉग और केस-मुकदमा का चोली-दामन का साथ लगने लगा है हमें.. :)
जवाब देंहटाएंबकिया तो हम पहले ही पढ़ चुके हैं.. समीर जी का कमेन्ट भी और आपका पोस्ट भी, जिसे लोक-लाज के भय से आप खुद्दे चर्चा नहीं किये हैं.. :)
ढूँण ढूँण ढूँ ढूँ, ढूँण ढूँण ढूँ ढूँ, ढूँण ढूँण ढूँ ढूँ !
जवाब देंहटाएंसुन्दर चर्चा।
जवाब देंहटाएंमस्त चर्चा... अभय तिवारी द्वारा की गयी हार्मोनिअम की चर्चा भी बेहतरीन रही... बांकी पंखा गर्मी कम क्या करेगा ?
जवाब देंहटाएंaji ab ka bolein, udhar bohemian madam ji ne to hamri arji pe kaundo dhyaan hi na diya na
जवाब देंहटाएं;)