अल्पना जी का नाम लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्डस में शामिल किया गया----बधाई पोस्ट का यह शीर्षक जब मैंने देखा और उत्सुकतावश देखा तो पता चला कि अल्पना देशपांडे जी का नाम ग्रीटिंग कार्ड बनाने के लिये लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड्स में शामिल किया गया।
ललितजी ने अल्पनाजी के बारे में विस्तार से लिखते हुये बताया-
जी हाँ! खवाब ही हकीकत में बदला करते हैं, ऐसा ही कुछ ख्वाब आज से 20 वर्ष पुर्व देखा था अल्पना देशपान्डे जी ने, उन्होने हस्त निर्मित ग्रीटिंग कार्ड का निर्माण प्रारंभ किया, फ़िर धीरे-धीर उन्हे सहेज कर रखना प्रारंभ किया । एक अंतराल के बाद उनके पास हस्त निर्मित ग्रीटिंग कार्ड का जखीरा खड़ा हो गया। फ़िर उनके सहयोगी मित्रों ने भी उन्हे ग्रीटिंग कार्ड बना कर दिए। मेरी जब मुलाकात हुई तब तक उनके पास 10008 ग्रीटिंग कार्ड का संग्रह हो चुका था। उनकी इच्छा थी कि लिम्बा बुक ऑफ़ रिकार्डस में उनका नाम दर्ज हो और वह हो गया।
अल्पनाजी को बधाई। ललित जी को शुक्रिया यह सूचना देने के लिये। आप अल्पना जी के बनाये ग्रीटिंग कार्डस उनके ब्लॉग पर देख सकते हैं।
शिखा वार्ष्णेय जी ने उन बच्चों के बारे में लिखा जिनका बचपना रियलिटी शो, माडलिंग और कम उम्र में शूटिंग की भेंट चढ़ जाता है। पूरी पोस्ट पठनीय है। कुछ अंश यहां दिये हैं:
कहीं कोई ५ साल की बच्ची पूरा शो होस्ट कर रही होती है..
तो कहीं ६-६ साल के बच्चे किसी शादी वाले शो में प्रतियोगियों को डेटिंग टिप्स दे रहे होते हैं.
कहीं छोटे छोटे बच्चे किसी रोमांटिक गाने पर उत्तेजक मुद्राओ और हाव भाव के साथ डांस करते हुए दीखते हैं ...और जज तालियाँ बजाते हुए कहते हैं वाह कमाल के हाव भाव थे...थोडा और काम करो इन पर.
इस तरह के शो के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुये शिखाजी कहती हैं:
मुझे बहुत दुःख होता है ये सब देख कर ,बहुत ग्लानि होती है क्यों हम इन बच्चों से इनका बचपन छीन रहे हैं? क्या एक ६ साल की बच्ची को उन व्यस्क चुटकुलों का मतलब पता होगा?
या उस ८ साल के बच्चे को पता होगा कि अवार्ड ज्यूरी किस कैटगरी में उसे अवार्ड दे रही है...? जो उसने उस कैटगरी का अवार्ड ही लेने से इंकार कर दिया
ये जो बालकलाकार इतने संभावनाशील होते हैं वे सब आगे जाकर सब बड़े कलाकार बनते हैं! इस पर वे लिखती हैं:
देखा जाये तो अब तक जितने भी बाल कलाकार हुए हैं उनमे से कोई भी सफल अभिनेता या अभिनेत्री नहीं बन पाया है ..उर्मिला मतोड़कर जैसे .कुछ अपवादों को छोड़ दे तो... सारिका, पल्लवी जोशी, जुगल हंसराज ,आफ़ताब शिवदासानी इन सब का क्या हाल है हम देख रहे हैं
इस मसले पर वे अपनी बात कहती हुयी लिखती हैं:
एक सर्वे के अनुसार हमारे देश में बाल कलाकारों का जीवन आम लोगों के अनुपात में छोटा होता है...खेलने - कूदने की उम्र में प्रेस कांफ्रेंस , ग्लेमरस पार्टी और फेशन परेड अटेंड करने वाले ये बच्चे कब अपनी उम्र से बहुत पहले ही व्यस्क होने पर मजबूर हो जाते हैं इन्हें खुद भी अहसास नहीं होता. कैमरे कि तीव्र रौशनी और दिखावटी दुनिया में कब इन नन्हें मासूमो पर एक दिखावटी आवरण चढ़ जाता है. और कब इनका व्यक्तित्व धूमिल हो जाता है ये शायद वक़्त निकल जाने पर इन्हें या इनके घरवालों को पता चलता हो . परन्तु इस नकली चूहा रेस में इनके बचपन के साथ साथ इनका भविष्य भी वयस्कों की स्वार्थपरता और लालच की भेंट चढ़ जाता है.
डा.दराल लिखते हैं-अपनेपन की मिठास का अहसास आदमी को तभी होता है जब आदमी अपनों से दूर होता है--- डा. दराल की इस आत्मीय पोस्ट को पढ़कर सत्ताइस साल पहले की वाकया याद आ गया जब केरल में ओणम के दिन एक अनजान व्यक्ति ने मुझसे कहा था तुम हमको जानते नहीं लेकिन हम तुम्हारे पिताजी के दोस्त हैं।
लछमिनिया : एक बहादुर नारी को प्रणाम में अफ़लातून जी ने बरसों अपने रूम पार्टनर रहे नत्थू के जरिये एक बहादुर नारी के बारे में जानकारी दी है। इस पोस्ट पर प्रतिक्रिया देते हुये रंजनाजी ने लिखा है:
सहज ही विस्मृत न हो पायेगा यह प्रसंग….
लछमिनिया का जीवन और जीवटता सदैव मुझे उर्जा देती रहेगी…
घुघुतीबासूती जी की प्रतिक्रिया है:
लछमिनिया के जीवन पर तो पूरा एक उपन्यास लिखा जा सकता है, जो स्त्री शक्ति का प्रेरणा स्रोत हो सकता है। उसके भाई चुन्नू के लिए तो कोई भी स्त्री लछमिनिया से ईर्ष्या कर सकती है। कितने सवर्ण भाई अपनी दीदियों का साथ दे सकते हैं?
लछमिनिया को मेरा सलाम।
ब्लॉगजगत की तमाम लन्तरानियों से अलग प्रमोदजी का गजनट गद्य पढ़ने का अलग ही आनन्द है। किसी मनभावन चीज को बार-बार उलट-पलट के देखने, धर देने और लपककर फ़िर से देखने जैसी ललक जैसा कुछ। कल उनके यहां दो लेख बांचे। एक में देखिये गफ़ूर मियां की धज:
सस्ते उपन्यासों और सरकारी कर्मचारियों के घपलों की ऊल-जुलूल क़तरनें इकट्ठा करते रहने से अलग गफ़ूर के कोई शौक था तो अपने माथे पग्गड़ बांधने का. दांतों के बीच जीभ दबाये गफ़ूर जब पग्गड़ बांधते होते तो फिर पग्गड़ ही बांधते होते, नज़र सामने की नोक में बनी रहती और पट्टे फेंटते व उसे ठोंक-बजाकर माथे पर साटते वक़्त फिर दुनिया का अन्य कोई मसला (या मसाला) गफ़ूर को उनके खुशपने की सौ फ़ीसदी केन्द्रीयता से अलग कर सकने में पूरी और बुरी तरह नाक़ाबिल होता. सिर्फ़ और एक दावं ऐसा था जिसे खेलते हुए फिर अपने पग्गड़ तक को गफ़ूर किनारे कर जाते थे! वह दावं था हमारा चूतिया काटना.
पग्गड़ बांधने का यह सीन न जाने कहां बिलाया हुआ था। प्रमोदजी ने लाकर धर दिया सामने। लेव देखो। लेकिन गफ़ूर मियां के कने एक ठो स्प्लेन्डर भी है। उसके लिये उनके मन में नेह भी है:
गफ़ूर चार कदम पीछे हटकर अपने स्प्लेन्डर सिंगार का एक नेहभरा नज़ारा लेते, ‘हां, तुम तिलकुट को दुनिया के कौनो अनोखी चीज़ का यूं भी क्या करना है. जाने हो, जदव्वा कहां-कहां घूम आया? बग़दाद, बख्शी सराय, तिफलिस, दमिश्क, इस्ताम्बुल, तेहरान, तुम कहीं गये हो, अयं?’
अगली कहानी एक बच्चे की कहानी है। बच्चे की क्या हममें से बहुतों की कहानी है। आधी या पूरी लेकिन कुछ न कुछ तो हैइऐ:
देर रात जब झिंगुर अपना हल्ला मचा-मचाकर थक गए होते, और सब तरफ़ सन्नाटा छा जाने के बाद जब जागी आंखों के सपने में कहीं दूर से उठी चली आती मेले की आवाज़ें आत्मा में गड्ढे गोड़ना शुरु करतीं, मैं चिंहुककर और जल्दी-जल्दी अम्मां के पैर दबाने लगता. अम्मां बिना पैर सिकोड़े और खींचें साड़ी से मुंह ढांपे-ढांपे शिकायत करती, ‘पैर दबाने में तेरा मन नहीं है, जा तू मेला देखे जा!’
आखिर में क्या होता है देखिये:
स्कूल में झा सर पता नहीं पुस्तक के किस हिस्से से कौन पाठ पढ़ा रहे हैं, मैं सुन नहीं रहा, सच कहूं तो मुझे झा सर से पिटने का डर भी नहीं, क्योंकि कापी में मैं अपने सपने का नक़्शा बना रहा हूं, जिसमें दूर-दूर तक फैली, उठती समुंदर की लहरें हैं, एक बड़ी डोलती नाव का मीठा, गुमसुम अंधेरा है, और मैं कप्तान साहब की नज़र बचाये औंधा पड़ा माथे पर हाथ से धूप छेंके पता नहीं किस मुलुक का विदेशी गाना है, गुनगुना रहा हूं, कि तभी पीछे कहीं अम्मां का उलाहना गूंजता है, ‘अरे, गये कहां, उजबक?’ मैं अपने में मुस्कराता हौले फुसफुसाता हूं कि अम्मां के कानों तक मेरा जवाब न पहुंचे, ‘अम्मां, मैं भाग गया हूं!’
सतीश पंचम उनकी इस पोस्ट पर टिपियाते हैं-
पोस्ट तो बढ़िया है।
बकि आप पूरा लिखिए कि - अम्मा मैं अपने आप से भाग कर मुंबई आ गया हूँ।
क्यों मेरे और मेरे जैसे कईयों के अतीत को खुलिहार रहे हैं जनाब....
चिठियाना टिपिआना वाद-विवाद .... आंखों देखा हाल .... लाईव फ़्रॉम ब्लॉगियाना मंच -- कमेंटेटर -- छदामी लाल और निर्धन दास
मजेदार किस्से लिखते हुये मनोज कुमार जी चर्चियाना किस्से दबा गये। स्वाभाविक भी है। वे दो-दो जगह चर्चा करते हैं। :)
कल दिल्ली में इंडिया हैबिटेट सेंटर में ब्लॉगिंग के बारे में जमावड़ा हुआ। दिग्गज जमा हुये और ढेर बयानबाजी हुई। इसकी विस्तार से रपट देखिये लेखक बेहतर राष्ट्रीय प्रवक्ता हो सकते हैं, पर वे सुस्त हैं-मोहल्ला लाइव, यात्रा बुक्स और जनतंत्र के साझा सेमिनार में भिड़े दिग्गज
कैलिफ़ोर्निया में हुई ब्लॉगर मीट के किस्से यहां देखिये।
अपनी अठारह मई के किस्से सुनाये सरदार द्विवेदीजी ने। सुनिये। उनको उनकी वैवाहिक वर्षगांठ फ़िर से मुबारक।
और अंत में
फ़िलहाल इतना ही। आपका दिन शुभ हो।
यहां दिया फ़ोटो अजित मिश्र जी के ब्लॉग से। इस पोस्ट में उन्होंने लिखा था-धर्म कौन बड़ा है शायद इसका उत्तर इससे बेहतर नहीं हो सकता। उसके नीचे वाला फोटो कल दिल्ली में हुई ब्लॉगिंग बहस के हाल की है।
ek hi jagah itna sab kuch ....bahut hi khoobsurat priyas hai
जवाब देंहटाएंyakinan kabil-e-daad
सुंदर चर्चा.
जवाब देंहटाएंbadiya
जवाब देंहटाएं:x)
जवाब देंहटाएंbadhiya charcha Ajeet Mishr ji ke blog wala chitr dil chhu gaya
जवाब देंहटाएंaabhaar.
अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंधर्म वाली तस्वीर तो बहुते बढ़िया है ! और चर्चा तो खैर है ही.
जवाब देंहटाएंसभी लिंक मनभावन लगे...घूम आये हम तो...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार...
अच्छी चर्चा ..!!
जवाब देंहटाएंसार्थक ब्लॉग चर्चा ।
जवाब देंहटाएंइनमे से कई लेख पढ़े हैं । अच्छी प्रस्तुति।
आज की आपकी चर्चा मुझे बहुत अच्छी लगी। इसलिए नहीं कि आपने मेरी पोस्ट को चर्चाया है बल्कि इस्लिए कि मैं प्रमोद जी के पोस्ट को पढ़ता तो ज़रूर था पर समझ में नहीं आता था। आपकी चर्चा के ज़रिए उसे समझने में सहयाता मिली।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा।
@ मनोज कुमार जी चर्चियाना किस्से दबा गये।
--- चर्चियाना नेपथ्य में है उपयुक्त मंच की तलाश में! :)