नमस्कार मित्रों!
पिछ्ले हफ़्ते की ब्रेक के बाद फिर से हाज़िर हूँ चर्चा के साथ।
वैदिक संस्कृति का पुराण साहित्य पर आख्यान हो रहा है बाबा गुरुघंटाल आश्रम में कृष्णा द्वारा। १८ पुराणों के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी गई है। एक संग्रहणीय पोस्ट।
वैदिक वाङ्मय में सदाचार के ज्ञान-दान का श्रेय महामुनि व्यास जी के वचनों को ही सर्वाधिक जाता है। अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्। |
संस्कृति की बात चली तो बरबस यह ध्यान में आता है कि हमारी संस्कृति में प्रार्थना को विशेष महत्व दिया गया है। पर कभी आपने सोचा है कि हमारी प्रार्थना का वास्तविक स्वरूप क्या हो? यदि नहीं तो आइए संगीता पुरी जी के पास चलते हैं। वो बता रहीं हैं…
ऐसा माना जाता है कि प्रार्थना में अद्भुत शक्ति होती है और इसके जरिए हम प्रभु या प्रकृति से संबंध बना लेते हैं। जहां धार्मिक और आध्यात्मिक रूचि रखने वाले व्यक्ति प्रतिदिन प्रार्थना करते हैं , वहीं सांसारिक या व्यस्त रहने वाले व्यक्ति विपत्ति के उपस्थित होने पर अवश्य ईश्वर की प्रार्थना किया करते हैं। अधिकांश जगहों पर विपत्ति आते ही नास्तिकों को भी ईश्वर याद आ जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के समक्ष ईश्वर का अलग अलग रूप होता है , पर प्रार्थना के सफल होने के लिए ईश्वर के प्रति समर्पित होने के साथ साथ अपने अहंकार का त्याग और मन की निश्छलता की आवश्यकता होती है।
संगीता जी के लेख में प्रस्तुत विचार अनुकरणीय है। कहती हैं
प्रार्थना करते वक्त सांसारिक सुख और सफलता न मांगते हुए मानसिक सुख और शांति की इच्छा रखनी चाहिए।
यह आलेख पढ़ते वक़्त निम्न दोहे बरबस याद आ गये …
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
कभी-कभी मुझे लगता है कि हम बहुत बड़े भिखारी हैं। अब देखिए न, जहां कहीं हम मंदिर या अन्य पूजा स्थल पर पहुंचते हैं, बस हाथ फैला कर भगवान से मांगने लगते हैं। ’भगवान ये दे दो, भगवान वो दे दो। लेकिन आजकल भिखारी भी बड़े हाई -टेक्क हो गए हैं। कई बार तो पता ही नही चलता कि भिखारी कौन और दाता कौन है। डा. टी.एस. दराल हमें यह बात एक कविता के मध्यम से समझा रहे हैं। एक चौराहे पर जब मैं रुका और नजर घुमाई ,
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याचक और दाता की इस बात पर मेरे मन में यह प्रश्न उठ रहा है कि ये पूजा पाठ, आराधना, प्रार्थना हम क्यों करते हैं? अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिए। जीवन अनमोल होता है, जीवन भगवान के द्वारा हमें दिया गया सबसे बेहतरीन तोहफा है। मगर समाज में एक वर्ग ऐसा है जिसे आप और हम, हर कोई किसी न किसी रोड या मोड़ पर देखते हैं, देख कर नजरअंदाज कर देते हैं, लेकिन बहुत कम होते हैं जो उनके बारे में गंभीरता से सोचते हैं। यह वर्ग है स्ट्रीट चाइल्ड और रोड पर रहने वाले लोगों की, जिन्हें न तो समाज ने मान्यता दी है न सरकार ने। अगर यही जिन्दगी है तो क्या जिन्दगी है…(इसे नजरअंदाज न करें)। सड़को पर भीख मांगना इन लोगों का पेशा है मगर यह इनकी मजबूरी भी है। कभी अपनी मर्जी से तो कभी पारिवारिक कलह की वजह से तो कभी अगवा होकर यह बच्चे इस गंदे दलदल में पहुंच जाते हैं। अगली बार जब आप किसी भिखारी को देखें तो एक बार जरुर सोचें. हो सकता है उस समय आपके द्वारा उठाया गया कोई कदम किसी की जिंदगी बदल दे। इस पोस्ट में मनोज कुमार साह ने बहुत ही नाजुक विषय को उजागर किया है। सच का आईना दिखाती ये पोस्ट एक बेहतरीन प्रयास है। हम उम्मीद करें कि देश की जनता की आँखें इस ओर खुल जाएँ। और लोग और सरकार कुछ सार्थक कोशिश करें जिससे कि कोई ठोस कदम इस दिशा में उठाकर एक सशक्त उदहारण प्रस्तुत करें। |
बच्चे तो महानगर में भी हैं और उनकी अलग समस्या है। महानगरों में बच्चों के खेलने की जगहें लगातार कम हो रही हैं। खेलना बच्चों के लिए ठीक वैसे ही ज़रूरी और नैसर्गिक क्रिया है जैसे कि भूख लगने पर भोजन करना।
सुजाता जी बच्चे हमारे खेत की मूली नहीं शीर्षक पोस्ट के ज़रिए बता रही हैं कि शिक्षा के अधिकार से भी ज़रूरी बाल- अधिकार 'खेलने का अधिकार' है जिसे हम बच्चों से छीन रहे हैं। राजेश जोशी की कविता 'बच्चे काम पर जा रहे हैं 'एक और दर्दनाक पक्ष दिखाती है। यहाँ वे बच्चे हैं जो किसी भी अधिकार से वंचित हैं , दर असल वे बचपन से ही वंचित हैं। वे असमय प्रौढ हो जाने को अभिशप्त हैं। खेल -कूद की उम्र मे काम पे जाना और पढने की बजाए गाहक को रिझाना सीखना उनके साथ वह अमानवीय अत्याचार है जिसे रोकने मे राज्य और समाज दोनों ही नाकाबिल साबित हुए हैं।
यह देश और सामाजिक स्थिति का सजीव चित्रण करता हुआ एक विचारणीय रचना है। खेलों से वंचित नई पीढ़ी सामाजिक और मानसिक रूप से कितनी स्वस्थ्य होगी? जब नीव ही खोखली हो तो ईमारत कमज़ोर होनी ही है. ऐसे बच्चे बीमार शरीर और मानसिकता के साथ जीने को मजबूर होंगे।
ये तो बात थी कि खेलने के लिए पार्क ही नहीं है, पर कुछ ऐसे भी पार्क होते हैं जो खेलने लायक़ ही नहीं रह जाते। उसे किसी लायक़ बनाने में कितनी मशक्कत का सामना करना पड़ता है बता रहे हैं गिरिजेश राव जी। कहते हैं जागरूक व्यक्तियों के अपने अपने कुरुक्षेत्र होते हैं । घर के सामने का पार्क मेरे लिए कुरुक्षेत्र जैसा है। लगभग चार एकड़ में फैला यह पार्क प्रशासन की दरियादिली और उपेक्षा दोनों का उदाहरण है। 600 पौधों का रोपण चहारदीवारी के साथ, पानी के लिए बोरवेल अगर दरियादिली के उदाहरण हैं तो इस घोर गर्मी में पानी देने के लिए स्थायी व्यक्तियों का न होना उपेक्षा का। इस विशाल पार्क में गाजर घास का बोलबाला था। एक दिन अकेले ही इस घास के पौधों को उखाड़ने लगे। उनकी श्रीमती जी कहती रहती हैं - एक अकेला क्या कर लेगा? एकड़ों में पसरी गाजर घास ने पहले तो उनकी हिम्मत पस्त कर दी लेकिन वे अकेले उखाड़ रहे हैं । आशा कर रहे हैं कि एक सप्ताह में पार्क गाजर घास से मुक्त हो जाएगा। गिरिजेश जी एक प्रश्न करते हैं – “क्या आप भी कहीं उखाड़ते हैं ? यदि हाँ, तो यहाँ अपने अनुभव बताइए। यदि नहीं तो nice, सुन्दर प्रयास, लगे रहो जैसी फालतू टिप्पणियों के बजाय कहीं उखाड़ना शुरू कीजिए।”
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महानगरों की एक और विशेषता है। कार्नर शॉप का होना। ऐसी दुकानें हर शहर की खासियत होती हैं। एक ऐसी जगह होती हैं जहां आपकी पहचान सबसे ज्यादा सुरक्षित होती है। कोई नहीं देख सकता और वहां कोई नहीं आ सकता। ये वो जगह होती हैं जहां आप वर्जनाओं को तोड़ने जाते हैं। सिगरेट पी लेते हैं। पान खा लेते हैं और कहीं कोने में निवृत्त भी हो लेते हैं। |
हम बातें कर रहे हैं महनगरों में रहने वाले लोगों के बारे में, उनकी समस्या के बारे में। पर वो दिन याद कीजिए जब मनुष्य जंगलों में, गुफाओं में रहता था। आपने इतिहास की पुस्तकों में पढ़ा होगा कि आदि मानव गुफाओं में रहते थे और जंगल के कंद मूल खाकर अपना जीवन बिताया करते थे। लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि आज भी एक ऐसी जनजाति है, जो भी गुफाओं में ही रहती है।
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ये आदिवासी हैं, इन्हें हमारे इलाक़े में रहना पसंद नहीं है, इसलिए रहते हैं गुफा में। पर देश में ऐसे कितने भूखे ग़रीब हैं जिनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। अपना देश जब आजाद हुआ तो एक उम्मीद जगी थी, कि अब नया भारत बनेगा। हम स्वतन्त्र हो कर अपना विकास कर सकेंगे। हमारा 'शासन' होगा। 'लोक' का ही 'तंत्र' होगा। हमारे जनप्रतिनिधि ईमानदारी से काम करेंगे और देश कहाँ से कहाँ पहुँच जाएगा! लेकिन आज हालत क्या हैं?
बता रहे हैं गिरीश पंकज जी कि ग़रीबो पर बात होगी, मगर पांच सितारा होटलों में। कोई गरीब आ जाये तो लात मार कर भगा देंगे, मगर चर्चा करेंगे गरीबी कैसे हटे, बदहाली कैसे दूर हो! भकोसकर खायेगे-''पीयेंगे'' और वातानुकूलित कार में बैठ कर चल देंगे। इन लोगो में नेता, अफसर, तथाकथित बुद्धिजीवी सभी शामिल हैं। अपनी इन भावनाओं को वो ग़ज़ल में व्यक्त कर रहे हैं।
भूख-गरीबी पर चर्चा है पाँच सितारा होटल में
ये मजाक कितना अच्छा है पाँच सितारा होटल में
''भारत'' के हिस्से में आँसू झूठे वादे औ सपने
''इंडिया' क्या वो तो रहता है पाँच सितारा होटल में
अरे शहीदों लहू तुम्हारा लगता है बेकार गया
लोकतंत्र सिसकी भरता है पाँच सितारा होटल में
सच कहने वाला है बागी पंकज मारा जाएगा
शातिर तो खुलकर हंसता है पाँच सितारा होटल में
ज़रूर पढ़ें, एक अच्छी ग़ज़ल, जो दिल के साथ-साथ दिमाग़ में भी जगह बनाती है।
शब्दों की करामात कभी कभी करतूत बन नजर आती है जो कारतूस बन जाती है वो गाली कहलाती है लाती है सिर्फ द्वेष, हिंसा, क्रोध शब्दों को मत बनने दो कारतूस उन्हें जासूस भी मत बनने दो
प्रेम में पगने दो समस्त अक्षरों को शब्दों को और उनसे निर्मित वाक्यों को एड़ी से चोटी तक हो सिर्फ प्यार ही प्यार जिसमें डूबा हो हिन्दी ब्लॉगिंग का सारा संसार। | हम परेशान रहते हैं कभी अपने हालातों को लेकर, कभी सामने वाले के हालातों को लेकर। और पड़ जाते हैं एक द्वन्द्व के चक्कर में। इस द्वन्द्व को बहुत बार शब्द देने का प्रयास किया और दिया भी डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने। वही शब्द जिन्हें हम कविता कह देते हैं, ग़ज़ल कह देते हैं आपके सामने हैं--- इस बार उनकी कविता के रूप में। शाश्वत मौन तोड़ने की कोशिश में।
एक मौन, |
हमारे देश में हर कोई डाक्टर है। आपको कुछ हुआ नहीं कि मुफ़्त के एडवाइस मिलने लगेंगे। आपने कहा आंख मे जलन है। फिर देखिए तरह-तरह के एडवाइस। पानी से धो लो। आंख में छींटा मारो। रुमाल से साफ कर लो। आदि-आदि। मतलब बीमारी एक – बीसियों ईलाज-बीसियों सुझाव। अब आप मुझ पर यक़ीन करें न करें मीडिया डाक्टर, डा. प्रवीण चोपड़ा की बात पर तो विश्वास करेंगे ना। कहते हैं
“वैसे जब किसी को कोई शारीरिक तकलीफ़ हो जाती है तो बीमारी से हालत पतली होने के साथ साथ उस की एवं उस के परिवार की यह सोच कर हालत और भी दयानीय हो जाती है कि अब इस का इलाज किस पद्धति से करवाएं, या थोड़ा इंतज़ार ही कर लें।”
डाक्टर साहब यह भी जानकारी दे रहे हैं कि यह स्थिति केवल हमारे देश में ही नहीं है, सारे विश्व में यह समस्या है कि शारीरिक रूप से अस्वस्थ होने पर असमंजस की स्थिति तो हो ही जाती है। उनका यह सब बात करने का एक उद्देश्य है कि एक बात हम तक पहुंचाई जा सके ---- Evidence-based medicine. इस से अभिप्रायः है कि किसी बीमारी का ऐसा उपचार जो पूर्ण रूप से वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हो, प्रामाणिक हो। एक ऐसी ही साइट --- www.cochrane.org का हवाला देते हुए बताते हैं कि इस में विभिन्न तरह की शारीरिक व्याधियों के उपचार हेतु cochrane reviews तैयार हैं, बस किसी मरीज़ को सर्च करने की ज़रूरत है। आप भी इस साइट को देखिये और इस के बारे में सोचिये। .... और कुछ न सही, आप इन्हें सैकेंड ओपिनियन के रूप में देख सकते हैं। इतना तो मान ही लें कि उपचार के विभिन्न विकल्पों की इफैक्टिवनैस के बारे में इस से ज़्यादा प्रामाणिक एवं विश्वसनीय जानकारी शायद ही कहीं मिलती हो।
स्वनिल कुमार ’आतिश’ कि ग़ज़लें मुझे बहुत अच्छी लगती हैं। इस बार लेकर आए हैं दुबली पतली पीली रात। सिमटी सी शर्मीली रात | एक बहुत अच्छी ग़ज़ल पढ़ने को मिली युग-विमर्श पर। सोचा आपको इसके कुछ शेर और लिंक देता चलूँ। आपको भी पसंद आयेगी, मुझे तो यक़ीनन पसंद आई। इसके रचयिता का नाम नहीं है वहां अतः बता नहीं पा रहा हूँ।
गीतों ने किया रात ये संवाद ग़ज़ल से। हुशियार हमें रहना है इतिहास के छल से॥ मुम्ताज़ के ही रूप की आभा है जो अब भी, आती है छलकती सी नज़र ताज महल से॥ ये सब है मेरे गाँव की मिटटी का ही जादू, रखता है मुझे दूर जो शहरों की चुहल से॥
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यह लघु है ..
कथा है ...
समय हो तो पढ़ें कुत्ते की मौत!
गंगा के पवित्र पावनी जल में डुबकी लगाकर लोग अपने पापों को जल धारा में प्रवाहित हुआ सा मान लेते हैं। हो भी क्यों न राजा भगीरथ ने लोगों को उनके पापों से मुक्ति दिलाने के लिए तो घोर तपस्या करके भगवान शिव की जटा का सहारा लेते हुए मां गंगे को धरती की रगों में बहने के लिए आमंत्रित किया था। मगर आज उसी गंगा की स्थिति को देख दिल फट सा जाता है। देखिए इस चित्र को |
HCL में एक कंप्यूटर इंजिनियर के तौर पर पांच साल काम कर चुके नीलाभ वर्मा का उद्देश्य उन लोगों की मदद करना है जो अपनी मातृभाषा में तकनीकी ज्ञान प्राप्त करना चाहते है. वे एक बहुत ही सरस एवं सरल भाषा में डिजिटल सर्किट के बारे में जानकारी दे रहे हैं। बताते हैं कि डिजिटल इलेक्ट्रॉनिक, ऐसी प्रणाली है जो संकेतों को, एक निरंतर रेंज के बजाए एक असतत स्तर के रूप में दर्शाती है. डिजिटल सर्किट की तुलना एनालॉग सर्किट से करने से इसका एक लाभ है शोर के कारण बिना विघटन के सिग्नल को डिजिटली दर्शाया जा सकता है. कंप्यूटर नियंत्रित डिजिटल सिस्टम को सॉफ्टवेयर द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है जो कि हार्डवेयर को बदले बिना नए फंक्शन को जोड़ने की अनुमति देता है. और अक्सर इसे अद्यतन उत्पाद के सॉफ्टवेयर के द्वारा कारखाने के बाहर किया जा सकता है. सूचना का भंडारण एनालॉग की तुलना में डिजिटल प्रणाली में आसानी से कर सकते हैं. और भी ऐसी कई महत्वपूर्ण तकनीकी जानकारी से भरी इस पोस्ट को पढ़कर मुझ जैसे नौन टेकनिकल आदमी को भी लगा कि यह एक संग्रहणीय पोस्ट है, आप भी पढकर देखिए और इस ब्लॉगर की हौसला आफ़ज़ाई कीजिए जो तकनीकी ज्ञान हिंदी में दे रहा है। |
हिमांशु जी कहते हैं कि रामजियावन दास ’बावला’ को पहली बार सुना था एक मंच पर गाते हुए ! ठेठ भोजपुरी में रचा-पगा ठेठ व्यक्तित्व ! सहजता तो जैसे निछावर हो गई थी इस सरल व्यक्तित्व पर ! ’बावला’ भोजपुरी गीतों के शुद्ध देशज रूप के सिद्धहस्त गवैये हैं ! सोच कर नहीं लिखा कभी, मुक्त-स्रोत धारा फूट पड़ी ! गीत निकल पडे ! भोजपुरी के तुलसीदास हैं बावला ! ’बावला’ बावले-से अपने में मग्न अपनी रोज की दिनचर्या के उपक्रम में भोजपुरी का श्रेष्ठतम रचते रहे..प्रसिद्धि से अनजान, अप्रकाशित, अलिखित ! स्व० विद्यानिवास मिश्र का ध्यान औचक ही खींचा इन गीतों ने..कुछ बात बनती दिखी ...वाचिक परम्परा के साहित्य में जुड़ते-से लगे ’बावला’ ! ’ विद्यानिवास जी’ की पारखी दृष्टि ने गँवई विभूति की फक्कड़, निस्पृह साधना को पहचान लिया ! उनके प्रयास से बावला के गीतों का एक संकलन ’गीतलोक’ प्रकाशित हो चुका है,जिसकी भूमिका स्वयं विद्यानिवास मिश्र जी ने लिखी है ! एक बहुत खोज पूर्ण आलेख जो अतिसामान्य लौहकार परिवार में जन्मे अति प्रतिभा वाले व्यक्तित्व से हमें परिचित कराता है। |
पंकज सुबीर जी की कहानी महुआ घटवारिन प्रस्तुत की गई है। रेणु की इस महत्वपूर्ण कहानी के उल्लेख के पीछे एक सार्थक प्रसंग है। महुआ घटवाररिन का संदर्भ छोटा है, लेकिन इस कहानी के पाठक को हिलाने वाला। एक अद्भुत प्रतिरोध और प्रेम की कथा। पंकज सुबीर जी ने इस कहानी को वहीं से उठाया है, जहां रेणु ने छोड़ा था। लेकिन उनकी कहानी कौशल का यह कमाल है कि उन्होंने आज के समकालीन परिवेश, परिस्थिति और बेबसी के द्वंद्व के बीच से उठाते हुए परिणति तक पहुंचा दिया है। भाषिक संवेदना के धरातल पर। और कुसुम सच थी। महुआ घटवारिन की कथा को पूरा किया प्रो. शर्मा ने। आपको यह देखकर हैरानी के साथ प्रसन्नता होगी कि पंकज सुबीर ने महुआ घटवारिन की पुनर्ररचना करते हुए उस रहस्य से पूरा पर्दा उठा दिया है। |
मेरी पसंदऔघट घाट पर नवीन रांगियाल द्वारा प्रस्तुत कमलेश्वर रचित
कितनी सच है तुम्हारी मृत्यु |
चलते चलतेरहिमन एक दिन वे रहे, बीच न सोहत हारवायु जु ऐसी बह गई, बीचन परे पहारदिन के फेर के ऊपर रहीम की यह सबसे तीखी उक्ति है। कभी ऐसा था कि हार का भी व्यवधान असह्य था। और कुछ ऐसी हवा चली कि हार हार छाती पर पहाड़ हो गए हैं। और ऐसी स्थिति में चुपचाप सहना ही एकमात्र विकल्प रह गया है। |
nice
जवाब देंहटाएंZabardast sangeeta ji. Dhoondh-dhoondh ke khoje aapne lekh, Vadhaai.
जवाब देंहटाएंआपने बहुत बढ़िया चर्चा की है.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रविष्टियों का संकलन किया है आपने ! बेहतर चर्चा ।
जवाब देंहटाएंआभार ।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत ही विस्तृत और बेहतरीन चर्चा रही मनोज भाई । आभार
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया चर्चा है ... एक से एक बेहतरीन ब्लॉग पोस्ट तलाश कर आपने यहाँ लगाया है ... ढेरों अच्छी रचनाएँ पढवाने के लिए शुक्रिया !
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंइ्नमें आधे से अधिक लिंक पर तो हम गये ही नहीं हैं,
बिना पढ़े ही यह कहना क्या उचित रहेगा कि
बेहतरीन प्रस्तुति या उत्तम चर्चा ?
टिप्पणी के नाम पर
बस इतना ही कि
देख रहा हूँ, या देखा
कि उतरी उड़नतश्तरी
पर फौरन हुई फुर्र
फ़ॉन्ट साइज़ जो
उनसे ज़्यादा मोटे हैं
असभ्य भाषा व व्यक्तिगत आक्षेप करने वाली टिप्पणियाँ हटा दी जायेंगी।
जवाब देंहटाएंYour comment will be visible after approval.
डबल सेफ़्टी हेलमेट ?
लगता है, चर्चा में कोई विवादित लिंक हैं,
हुआ करे !
औघट घाट पर कमलेश्वर की ये कविता हमने भी पढी थी और बज़ पर शेयर भी की थी..
जवाब देंहटाएंसच मे बहुत प्यारी कविता है ये.. एक तल्ख सच्चाई..
बेहतरीन चर्चा !
जवाब देंहटाएंअच्छा चयन ...
जवाब देंहटाएंbahut badhiya charcha rahi.........aur kamleshwar ji ki rachana to lajawaab hai.
जवाब देंहटाएंमनोज जी ,
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चा रही....
manoj ji sabhi links par jana to sambhav bnahi ho paya han par kuch behad achhi rachnayen padhi maine... meri rachna ko is charcha me shamil karne ka bahut bahut shuqriya apka...
जवाब देंहटाएंचर्चा सम्बन्धित शिकायत अथवा सुझाव हेतु चिठ्ठा मित्र से चर्चा करे..
जवाब देंहटाएंthanks for this suvidha on the right side of the blog
ब्लॉग चर्चा का यह अंदाज़ सार्थक लगा।
जवाब देंहटाएंआपने विस्तार से तर्कसंगत लेखों /रचनाओं का सही रूप में उल्लेख किया है ।
भिखारी एक बार तो दया भावना को जाग्रत करते हैं लेकिन यह भी सच है की भेख माँगना अब एक ओर्गनाइज्द धंधा बन गया है। दूसरी बात यह की एक भिखारी के ६ बच्चों को देखकर आप क्या सोचेंगे ?
अब अगले हफ्ते का इंतज़ार रहेगा :)
जवाब देंहटाएं\
क्यों रहेगा आप तो समझ ही गये होंगे
कहिये तो मेल से समझा दें
इसके लिए आपको अपनी मेल आईडी देनी होगी :)