सोमवार, मई 17, 2010

जेसिका, मित्रता, नास्टेलजिया, बापी , कृष्ण और पापुलर मेरठी

कल अभय ने जुझारू जेसिका के बारे में जानकारी दी! देखिये:
सात मास समुद्र में अकेले! चालीस फ़ुट ऊँची लहरों के मुक़ाबिल एक ‘अबला’ षोडशी? जिसके लिए एक आम राय ये बन रही थी कि उसके माँ-बाप ने उसे एक आत्मघाती अभियान पर जाने की अनुमति दी है, वो लड़की लौट आई, न सिर्फ़ सही सलामत बल्कि एक ऐसे अनुभव की विजेता होकर जो जीवन भर उसके भीतर चट्टान जैसा हौसला भर देगा और उसकी संतति की कोशिकाओं में ‘जीन’ बनकर जिएगा। जेसिका वाटसन – ट्रूली अमेज़िंग!

इस पर भी कुछ लोग मानते जाते हैं कि मनुष्य जाति के संवर्धन और संस्कार की सारी ज़िम्मेदारी अकेले आदमी की है और औरत का कुल योगदान सिर्फ़ उस संवर्धन को (कुछ तो संवर्धन के विचार को ही नहीं बूझते) कोख उपलब्ध कराना है? जब दकियानूसी कट्टरपंथी औरत के कामुक प्रभाव से घबरा कर उसे परदे में करने की जुगतें करते हैं तो वे औरत के कामपक्ष ही नहीं पूरी मनुष्यता की आधी समभावनाओं पर पहले परदा और फिर बेड़ी डाल रहे होते हैं।


जेसिका के बारे में पढ़कर बहुत अच्छा लगा और मन किया कि हम भी कहीं निकल चलें घुमक्कड़ अभियान में। अपना तीन महीने का साइकिल यात्रा अभियान- जिज्ञासु यायावर याद आ गया।

प्रियंकरजी बहुत दिन से शांत थे। अफ़लातूनजी के उकसावे पर आ गये मैदान में और लिख मारा मैत्री पर एक टीप और विवाद जो नहीं था अपनी बात कहते हुये उन्होंने लिखा:
कहते हैं चेले-चांटे और चमचे नेताओं को भरमा देते हैं,उनका दिमाग और चाल-चलन बिगाड़ देते हैं. अगर ऐसा हमारे साथ भी होने लगे तो या तो हमें अपने तथाकथित चेलों से किनारा कर लेना चाहिए या फिर उन्हें समझाना चाहिए कि हमारी यह आलोचना-समालोचना दो अभिन्न मित्रों के मध्य का आत्मीय संवाद है जिसमें उनके हस्तक्षेप की गुंजाइश बहुत कम है. यदि तब भी न समझें तो उन्हें अपना शत्रु मान लेना चाहिए. सबसे बड़ी दिक्कत तब होती है जब अपनी संवेगात्मक कमजोरी के चलते आप गलदश्रु भावुकता के नाटकीय प्रदर्शन के साथ उन्हें अपना शुभचिंतक मानने लगते हैं. यह रोग का चरम है .

आगे वे कहते हैं:
हिंदी समाज मूलतः हिपोक्रिसी में गले तक धंसा ढोंगी समाज है. हम मुगालते में रहने वाला समाज हैं. हम अपना मूल्यांकन करने में अक्षम , पर करने पर अपना अधिमूल्यन करने वाला समाज हैं. दूसरा मूल्यांकन करे तो उस पर हमलावर होने वाला समाज हैं. हम गरीबी और पिछड़ेपन के महासगर में घिरे रह कर भी अपनी सीमित निजी सफलता पर इतराने और इठलाने वाला समाज हैं. ऐसे में इसके लक्षण हिंदी ब्लॉग जगत में भी दिखें तो आश्चर्य कैसा. दाग अच्छे हैं की तर्ज़ पर कहूं तो विवाद भी अच्छे हैं अगर विवादों से कोई सबक मिलता हो,अगर वे हमें परिपक्व बनाते हों. पर हमारा अभिमुखीकरण उस ओर भी कम ही दिखाई देता है.


हमें तो ये लाइने जमीं बहुत जमीं:
हिंदी चिट्ठाकारी हिंदी समाज के पुराने कुएं में लगा नया रहट है. रहट की डोलचियों में पानी तो उसी समाज का है . उस बंद समाज की समस्याएं ही हिंदी चिट्ठाकारी की भी समस्याएं हैं. समाज बदलेगा,तभी चिट्ठाकारी का स्वरूप बदलेगा. तब हिंदी चिट्ठाकारी का पोखर इतना बड़ा महासागर होगा जिसे छोटे-मोटे दूषक तत्व प्रदूषित नहीं कर पाएंगे. तब तक हम सब अपने गिलहरी मार्का प्रयास जारी रखें और उस अच्छे समय की प्रतीक्षा करें .


आगे उन्होंने लिखा-मित्र बुरे दिनों की पतवार होते हैं और अच्छे दिनों का संगीत!देखिये। इसी बहाने उनका लिखना शुरू हुआ। बधाई! मसिजीवी ने प्रियंकरजी के इस लेख पर टिपियाते हुये लिखा:

बात पते की है… आलोचना/असहमति के लिए पर्याप्‍त सम्‍मान दिखा पाना कठिन काम है पर यही हमारी नजर में चरित्र का सही लिटमस टेस्‍ट है।


सतीश पंचम पिछले दिनों नास्टल्जिक मूड में रहे। लगभग दिगम्बरी मुद्रा में नहाये। गेहूं लदवायेलुंगी पहन के रंगून घुमायेछत पर सूत के आये। इस सबसे फ़ारिग हुये जरा सा तो कल पूरा डिस्कवरी चैनल का किस्सा सुनाकर उसके फ़ायदे गिनाये:
1- जहाँ तक मैं महसूस कर सकता हूँ कि अपने काम के प्रति उपेक्षा या हीनभावना अब नहीं रखता, या कम रखता हूँ। जब भी हीन भावना आने लगती है तो Bear Grylls को याद करता हूँ कि उनके काम से तो अच्छा ही है जहां जंगल-जंगल, तूफान, गर्मी, बर्फ और रेगिस्तान के बीच चलना पडता है। सांप, बिच्छू खाना पड़ता है।

2- दूसरी ओर यह लगता है कि किसी विपरीत परिस्थिति के आने पर मैं शायद अपना हौसला पहले की अपेक्षा अब शायद कुछ ज्यादा देर तक बनाए रख सकता हूँ। उमस, गर्मी, ठंडी, बारिश आदि के बीच जिस तरह Bear Grylls अपना हौसला बनाए रख जंगल से बाहर निकलने की जुगत में लगे रहते हैं वह काबिले तारीफ है।

हांलाकि Bear Grylls के साथ जंगल में उनका कैमरा क्रू होता है लेकिन जहां नदी, पर्वत या बर्फीली झील में कूदना होता है तो खुद Bear Grylls को ही कूदना होता है, कैमरा क्रू केवल संबल प्रदान कर सकता है, एक आश्वस्ति दे सकता है कि हां हम भी है यहां....ठीक हमारे अपनी सोसाईटी, समाज की तरह की आप जूझो...हम तो हैं न यहां :)

और जहां तक हौसलों को बनाए रखने की बात है तो मैं गेहूँ कि लदवाई में ही पस्त हो जाने वाला इंसान हूँ यह भी एक सच है :)

3- एक अलग किस्म का फायदा यह हुआ है कि अब मैं सब्जी लेते समय दो दिन पुरानी गोभी और पिचके टमाटर देख आगे नहीं बढ़ जाता। अब मन में यह भाव आता है कि अरे इतना तो चलता है :)

4- एक सबसे अलहदा फायदा मेरी श्रीमती जी को भी हुआ होगा कि शायद अब मेरी ओऱ से भोजन में नमक कम या ज्यादा होने जैसी शिकायतें कम से कम होती गई होगी :)

लेकिन सतीश पंचम ने एक काम बहुत गड़बड़ किया इसके पहले! उन्होंने बापी के घरवापसी के किस्से सुनाये। इस पर ज्ञानजी ने बापियाटिक पोस्ट की मांग की। और उनकी मांगपूर्ति का काम शुरू किया संजीत त्रिपाठी ने। अपने दोस्त तुषार को याद करते हुये संजीत ने शुरु किया किस्सा:
बापी स्वभाव से अलमस्त, बेपरवाह लेकिन अंदर से इमोशनल हालांकि अपने मनोभावों को दबाने में हमेशा सफल कि कोई न समझे कि वह इमोशनल है। बापी को समझ पाना वाकई मुश्किल भी रहा। किसी बात का कोई समय नहीं कभी रात को तीन बजे नहाकर बोरे-बासी खाना और फिर सो जाना तो कभी सरे शाम से ही सो जाना और फिर रात भर या तो उपन्यास पढ़ना या फिर घर से निकल कर आजाद चौक में जमी मोहल्ले के युवाओं की महफिल में दो बजे रात तक समय गुजारना।

पशु-पक्षियों प्रति प्रेम के अतिरिक्त और क्या काम की चीज सीखी संजीत ने बापी से ऊ भी सुन लीजिये:

गालियों की डिक्शनरी मैने बापी से ही समझी और पसंद की कन्या को लाइन मारने के लिए पांच किलोमीटर सायकल चलाकर उसके घर महज इसलिए जाना कि वो दिख जाए, ये बात मैने सबसे पहले बापी में ही देखी। अपनी सायकल किसी और को दी हुई हो तो किसी और दोस्त से सायकल उधार ले कर जाना है लेकिन उस लड़की के घर तक जाना है।
इसके बाद की हरकतें भी देखिये जरा संजीत की और उनके प्रति बापी के सहज उद्गार:
ये अलग बात है कि बापी ने उस लड़की से जितनी बातें न की हो, उतनी मैने उस लड़की से बाद में तब कर ली जब वह मेरे अखबार के मार्केटिंग विभाग में थी और उस लड़की को बापी के नाम से छेड़ा भी था। बापी को यह बात तब मैने चिढ़ाते हुए बताई तो उसके मुंह से फौरन मेरे लिए निकला था " कमीने"।

बापी के वर्तमान किस्से भी सुन लीजिये अब संजीत मुख से:

तो बापी साहब आजकल गांव से ही शहर अपनी नौकरी बजाने आते हैं हफ्ते में तीन-चार दिन। बाकी दिन दौरे पर अपने गांव से आगे की ओर कंपनी की वसूली के लिए। जब रायपुर आता है तो न आने का कोई समय निश्चित न ही वापसी का। कभी शाम को 4 बजे रायपुर आएगा और रात को 11 बजे गाड़ी उठा कर निकल लेगा वापस गांव की ओर। पिछले साल दिसंबर में जब रायपुर में कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। एक रात मैं प्रेस से लौट कर खाना खा रहा था। रात के बारह बज रहे थे। अचानक मोबाइल की घंटी बजी। उधर बापी पूछ रहा था कहां है तू। मैने कहा घर में हूं। उसने कहा "मै एक ढाबे में खाना खा रहा हूं, सोच रहा हूं गांव जाउं या नहीं"। मैने कहा न जा, यहां आजा घर। फिर बापी आया करीब पौन घंटे बाद। दोनो बतियाने के बाद सोए करीब तीन बजे। सुबह मेरे सोकर उठने से पहले बापी साहब फरार हो चुके थे। अपना एक मोबाइल और बेल्ट यहीं भूलकर। हफ्ते भर बाद आकर ले गया उसे।

अब लगे हाथों रायपुर के बारे में भी बापी से सुनते चलें:

"रायपुर तो एकदम कचरा हो गया है (उसके इस कथन ने निश्चित ही राजधानी का एहसास लिए मुझ जैसे कई रायपुरवासियों को तमाचा जड़ा), लं* साला पूरे शहर की मां-बहन एक हो गई है राजनीति के कारण। इससे तो गांव में रहना वाकई बढ़िया है। "

अब इत्ती किस्तें हमने पढ़वा दी। आगे की आप खुदै बांचिये

समीरलाल ने आज एक कविता में अपनी इच्छायें जाहिर की:
जब युद्ध हो कुरुक्षेत्र का
मैं कृष्ण होना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.

समीरलाल की इच्छायें पूरी हों। कहीं महाभारत हो और वे अपनी कृष्ण की ड्यूटी बजायें। वैसे इस कविता को बांचते समय मुझे पापुलर मेरठी की ये लाइनें याद आयीं:
अंधेरे को मिटाना चाहता हूँ
तुम्हारा घर जलाना चाहता हूँ

मै अब के साल कुरबानी करूँगा
कोई बकरा चुराना चाहता हूँ

नई बेगम ने ठुकराया है जब से
पुरानी को मनाना चाहता हूँ

मेरा धँधा है कब्रें खोदने का
तुम्हारे काम आना चाहता हूँ


और अंत में


फ़िलहाल इतना ही। आपका दिन अच्छी शुरू हो और शानदार बीते। हफ़्ते के बारे में भी यही कह रहे हैं। पिछले दिनों के अपने ब्लॉगिंग के सूत्र यहां पेश किये थे। मन करे तो देखियेगा।

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18 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामीमई 17, 2010 9:26 am

    khub vistrit varnan diya aapne bhai wah

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  2. बहुत ही उम्दा चर्चा ...और कमाल के लिंक्स और कमाल हैं ये पोस्टें भी जेसिका के जज़्बे को सलाम । सतीश जी को पढना हमेशा की तरह सुखद लग रहा है । आपके सूत्रवा सब को बांध कर रख लिए हैं पोटली में एक एक कर खोल के आजमाएंगे , आप कहेंगे कि उ सब आजमाए हुए हैं ..अरे आपके आजमाए होंगे न ...हम अपनी बात कर रहे हैं महाराज

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  3. फोटूएं खुल नहीं रही हैं....शरमा रही हैं शायद....और सब तो ठीक है बाकि ई प्रियंकर जी के रहट वाली बात तो कमाल की बात कह बैठी....एकदम टंच सच्चाई।

    हासिल ए महफिल मेरे हिसाब से पूरी पोस्ट ही है लेकिन रहट ने दिल मोह लिया।

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  4. प्रियंकर जी की पोस्ट खालिस सच है एक दम ...बिना पोलिश का.........शुक्रिया अफलातून जी का के उन्हें उकसाया ....क्यूंकि अच्छा लिखने वाले जब निष्क्रिय होते है....तब भी एक स्वस्थ परम्परा का नुकसान होता है ...हिंदी समाज ही नहीं ...पूरा समाज हिपोक्रिसी में गले तक धंसा ढोंगी समाज है....जाहिर है कंप्यूटर के पीछे बैठे लोग समाज का ही हिस्सा है ....हम ढेरो आंसू किसी मूवी को देखकर बहा देते है ..पर अपनी संवेदना उसी हॉल की सीट पर मूवी ख़तम होने के साथ छोड़ आते है(आहा जिंदगी से.. ) .....ऐसा क्यों है के अपने परिवार के प्रति बेहद संवेदनशील व्यक्ति तमाम दूसरी संवेदनाओं के प्रति उदासीन है ...ऐसा क्यों है सरोकार अपनी निजी लाइनों को क्रोस नहीं करते है....ये विरोधाभास शायद भारतीय चरित्र में ही है ....हम सबके पास ढेरो सूक्तिय ...ढेरो क्वोट है ...पर महत्वपूर्ण बात उन्हें संजो कर रखना .या कंप्यूटर में लिखना भर नहीं है ....उन्हें व्योवाहर में उतारना है ..
    @सतीश जी के लिए इतना ही कहूँगा के उनके भीतर ....उम्र ओर दूसरे तमाम पड़ाव पार करने के बाद भी ..मुंबई से जूझता . एक गाँव का बच्चा है ...जो गाहे बगाहे आवाज देता है
    .

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  5. पॉपुलर मेरठी और ठेले जायें।
    यह तो नहीं कह सकता कि पॉपुलर डिमाण्ड है, आफ्टर ऑल किसी और के बिहाफ पर कह नहीं सकते! :(

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  6. priyankar jee bade dino baad laute, iske liye aflatoon ji ka shukriya.
    priyankar jee ko padhna ek dhara me bahne ka anubhav deti hai chahe mudda koi bhi ho. aur is mudde par to unhone jo likha hai use kaata nahi ja sakta.

    shukriya meri post ko shamil karne ke liye

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  7. चिट्ठाकार आते-जाते रहेंगे,पर ऐसे चर्चाकार मुश्किल से मिलेंगे.

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  8. बेहतरीन चर्चा...लगभग सभी पोस्ट देख ली.

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  9. पिछले पाँच सालों से फ़ुरसतियाते हुए पापुलर मेरठी को गूगल की गलियों मे ढूँढ़ा करता हूँ..कुछ खास हासिल न हुआ अब तक..आप ही कुछ माल अपलोड करो..पापुलर डिमांड पर..खासकर उनके पैरोडी वाले अशआर तो खतरनाक हैं..एक जफ़र साब की गज़ल पर लिखा मुझे याद है..
    मुर्गे चुरा के चार हम लाये थे पापुलर
    दो आरजू मे कट गये दो इंतजार मे

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  10. हम तो पापुलर मेरठी को पढकर पेट दबाकर हसे जा रहे है.. भई कितनी मासूम सी ख्वाहिशे है :) और पढवायी जाय ;)

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  11. सभी लिंक्स बेहतरीन हैं। प्रियंकर जी की पोस्ट से एकदम सहमत हैं। जेसिका को मेरा भी सलाम, पापुलर मेरठी और ठेली जाए हमारी भी डिमाण्ड है

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  12. दो साल बाद इस चिट्ठाचर्चा को फिर से पढ़ना सुखद रहा। प्रियंकर जी की बात देखिये दो साल बाद भी एकदम टंच लग रही है।

    उन्ही की बात कापी पेस्ट कर रहा हूं - हिंदी चिट्ठाकारी हिंदी समाज के पुराने कुएं में लगा नया रहट है. रहट की डोलचियों में पानी तो उसी समाज का है . उस बंद समाज की समस्याएं ही हिंदी चिट्ठाकारी की भी समस्याएं हैं. समाज बदलेगा,तभी चिट्ठाकारी का स्वरूप बदलेगा. तब हिंदी चिट्ठाकारी का पोखर इतना बड़ा महासागर होगा जिसे छोटे-मोटे दूषक तत्व प्रदूषित नहीं कर पाएंगे.

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