एक सहचर्चाकार आजकल गायब हैं उनसे पूछा कि ऐसा कयों ? उन्होंने कहा कि यार कुछ बोर होने लगे हैं कुछ नया दिखता ही नहीं ब्लॉग पर.. हमें हैरानी हुई इतने ब्लॉगर इतने पुरस्कार, इतने विवाद, कुत्तों से लेकर चॉंद तक हर विषय पर तो लिखा जा रहा है फिर दिक्कत क्या है। इस पर उनहोंने खुलासा किया कि हॉं लिखा जा रहा है पर एक एक साफ साफ पैटर्न है जैसे तितली का जीवन चक्र होता है वैसे- अंडा-इल्ली-प्यूपा- तितली वैसे ही ब्लॉगर आता है यानि ब्लॉगर के रूप में जन्म पाता है या कहें ब्लाूगर गति को प्राप्त होता है--- आह ब्लॉग वाह ब्लॉग करता है... टिप्पणियों की महिमा लेता देता है... फिर 5-7 पोस्अ होते न होते एक पोस्ट हिट पोस्ट कैसे लिखें पर लिखता है.... दो चार महीने होते न होते ..ये ब्लॉग जगत में क्या हो रहा है की पोस्ट लिख बैठता है... एकाध बार टंकी आरोहण करता है... साल भर होते न होते उसका ब्लॉग चक्र पूरा हो जाता है अब वह या तो गुटबाजी का रोना रोता है या वह स्थितप्रज्ञ नए ब्लॉग शिशुओं का ब्लॉगचक्र देखने लगता है...ऐसे में हे विक्रम ये बताओं कि ब्लॉगसंसार पर नजर डालकर क्या होगा (इस सवाल का उत्तर जानते हुए भी न दोगे तो तुम्हारे सिर के सहस्त्र टुकड़े हो जाएंगे..;)
हमारी दिक्कत ये है कि हमें इस दुविधा नाम की चीज से ही परेशानी होती है। अब ब्लॉग लिखे जा रहे हैं तो पढ़े भी जाएंगे। नहीं लिखे जाएंगे तो याद किए जाएंगे। एक ब्लॉगर थे पंगेबाज पंगे लेते थे पढ़े जाते थे..लोग आहत होते थे...कोर्ट शोर्ट की धमकी। लिखना बंद किया तो याद किए गए और लो अब सुना है कि वे पंगे लेने वापस आ रहे हैं।
आखिरकार मेरी जिद्द काम कर गई और अरूण जी ने मेरी बात मान ली और इसी के साथ चिट्ठकारी मे अरूण अरोड़ा जी पुन: पदार्पण कर रहे है। मेरी पुरानी पोस्ट के बाद अरूण जी ने मुझे फोन किया, और लम्बी बातचीत हुई। मेरी और उनके बीच यह बातचीत उनके चिट्ठकारी छोड़ने के बाद पहली बातचीत थी। मेरे निवेदन पर वह चिट्ठाकारी मे पुन: आ रहे है और अपना नियमित लेखन महाशक्ति पर करेगे
हम वैसे भी खुश थे ऐसे भी खुश... किस में ज्यादा खुश ये न पूछो दुविधा से हमें डर लगता है। ख्ौर सूचना ये है कि अरुण अरोरा उर्फ पंगेबाज की पहली वापसी पोस्ट महाशक्ति पर आ गई है जिसमें उन्होंने सीधे सरकार से पंगा लिया है-
देश के सैनिक देश मे मर रहे है लेकिन मारने वालो से सरकार की सहानुभूति है, छत्ती सगढ मे काग्रेस की सरकार का ना होना ही सबसे बडा कसूर बन गया है छत्तीसगढ का . लिहाजा वहा का आतंकवाद काग्रेस समर्थित होने के कारण न्योचित है ,वहा किसी कार्यवाही के बजाय सैनिक मारने पर केन्द्र सरकार अपराधियो से हाथ जोड कर गुजारिश करती दिखती है . सारे देश का हाल कशमीरी पंडितो जैसा दिखता है, न्याय और अन्याय मे वोट बैंक का पलडा अन्याय को न्याय से ज्यादा बडा बना देता है ।
कुछ और दुविधाओं पर नजर डालें- अगर आप किसी विवाह समारोह में जाने वाले हैं तो दुविधा ये है कि रबड़ी-जलेबी खाएं कि चाट-सलाद उत्तर बेहद दुखदाई है न ये खाएं न वो खाएं। डाक्टर का दोस्त होना बेहद दुखदायी काम है- है कि नहीं:
उधर तरफ़ से जलेबियों और अमरतियों की बहुत जबरदस्त खुशबू आ रही है। तो, चलिये एक एक हो जाये लेकिन रबड़ी के साथ तो बिलुकल नहीं, क्योंकि पता नहीं क्यों हम भूल जाते हैं कि इतनी रबड़ी के लिये कहां से आ गया इतना दूध -----लेकिन जलेबी-अमरती भी तभी अगर उस में नकली रंग नहीं डाले गये हैं।
डाक्साब ने केवल दाल चावल को निरापद पाया है -
आप मुझ से पूछना चाहते हैं कि फिऱ खाएं क्या--- चुपचाप थोड़े चावल और दाल लेकर लगे रहें।
इतने सख्तजान डाक्टर है कि जब अविनाश ने चुपके से इसमें दही जोड़ना चाहा- वैसे सबको चावल दाल और दही इन पार्टियों में बनवाने शुरू कर देने चाहिए तो डाक्टर ने झट डपट दिया-
@ अविनाश जी, इस पार्टी में आप दही कैसे ले आए? क्या हम बाहर इस के इस्तेमाल से बच सकते हैं? सही बात है, इन पार्टियों में तो दाल चावल ही ठीक है।
न जी हम नही जाते फिर ऐसी शादी में - किस लिए जाएं कार्टून बने दूल्हे को देखने जो पैंतालीस डिग्री तापमान में शेरवानी पहले है या दुल्हन को जो ग्यारह एमएम के मेकअप में दबी है, मेहमानों को मच्छरदानी जैसी साडि़यों में लिपटी हैं जिनपर चमकीले सितारे उन्हें अभ्रक की बदसूरत प्रतिमा बनाए हैं। नहीं जी हम नहीं जाते घर पर ही ठीक हैं।
हम जैसे सरकारी कर्मचारियों तिस पर भी मास्टरों की नए वेतनमान विषयक दुविधा पर शेफाली पांडे का व्यंग्य दमदार है जरूर पढ़ें-
विभिन्न लोगों की इस विषय में विभिन्न धारणाएं हैं| एक पक्ष यह मानता है कि मास्टरों को सिर्फ़ वेतन मिलना चाहिए,मान नहीं| दूसरा पक्ष मानता है कि मास्टरों को सिर्फ़ मान मिलना चाहिए, वेतन नहीं| तीसरे वे लोग हैं जो ये मानते हैं कि मास्टरों को न मान मिलना चाहिए और न ही वेतन| चूँकि इनके बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते इसीलिये ये मानते हैं कि मास्टर बच्चों को विद्या का दान करे और खुद घर-घर से दान मांग कर अपना जीवनयापन करे| वह ज़िंदगी भर दरिद्र रहे और उसके शिष्य अमीर बनकर उसका नाम रौशन करते रहें|
ज्ञानदत्तजी 3जी की छपपरफाड़ नीलामी से इतने पुलकित च किलकित हैं कि बिजली विभाग को भी नीलामक रने पर उतारू हैं फिर मुश्किल सवाल खुद उठाते हैं और झट पलान कर बैठते हैं कि आखिर रेवले क्यों न नीलाम होनी चाहिए। उनका माना है कि दुर्झाअना छोडि़ए हर साल दिल्ली के प्लेटफार्म की भगदड़ में ही कुचलकर न जाने कितनोंको मार देने वाली रेलवे 'अच्छा' काम कर रही है। दिल्ली में मैट्रो का परिचालन देख लेने के बात शहर के बाशिंदों का प्लेटफार्म पर बेवजह मारा जाना सहने वालों को इनकी ये बात कितनी आहत करेगी..इसका उन्हें अनुमान नहीं-
आपके पास यह विकल्प नहीं है कि राज्य बिजली बोर्ड अगर ठीक से बिजली नहीं दे रहा तो टाटा या भारती या अ.ब.स. से बिजली ले पायें। लिहाजा आप सड़ल्ली सेवा पाने को अभिशप्त हैं। मैने पढ़ा नहीं है कि इलेक्ट्रिसिटी एक्ट एक मुक्त स्पर्धा की दशा का विजन रखता है या नहीं। पर अगर विद्युत सेवा में भी सरकार को कमाई करनी है और सेवायें बेहतर करनी हैं तो संचार क्षेत्र जैसा कुछ होना होगा।
आप कह सकते हैं कि वैसा रेल के बारे में भी होना चाहिये। शायद वह कहना सही हो – यद्यपि मेरा आकलन है कि रेल सेवा, बिजली की सेवा से कहीं बेहतर दशा में है फिलहाल!
एक दुविधा ये भी कि अपने लिए लिखे या अलेक्सा या पेजरेंक के लिए। साफ राय सबको भाड़ में जाने दो मन की लिखो-
चित्र काव्यमंजुषा से-
हम भी दुविधा में हैं कि टिप्पणी दें कि न दें :-)
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा...बधाई.
जवाब देंहटाएंउत्तम चर्चा जी
जवाब देंहटाएंआभार
जवाब देंहटाएंई-मेल सदस्यता विकल्प !
अच्छी चर्चा।
जवाब देंहटाएंbehad achhi charcha...blog takraar se lekar sarkar tak... :)
जवाब देंहटाएंउन्होंने कहा कि यार कुछ बोर होने लगे हैं कुछ नया दिखता ही नहीं ब्लॉग पर..
जवाब देंहटाएं---------------
यह भी है कि लोग पढ़ते ही नहीं, मात्र ब्राउज करते हैं।
बढ़िया चर्चा, हम ब्लॉगर के जीवनचक्र के किस पड़ाव में हैं जी? बस पढ़कर टिप्पणी किये जाते हैं ब्लॉग लिखना चाहते हुये भी लिख नहीं पाते।
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