नमस्कार मित्रों!
एक बार फिर, मैं मनोज कुमार चिट्ठा चर्चा के साथ हाज़िर हूँ। इसमें हमने सप्ताह की कुछ पोस्टों को शामिल किया है। हो सकता है कई पोस्ट छूट गए हों, जो अधिक महत्व के हों, या फिर कई पोस्ट अन्य चर्चाकारों द्वारा चर्चा कर लिए गए हों।
मेरे साथ दिक़्क़त यह है कि मैं अपने ब्लॉग के डैशबोर्ड से अन्य ब्लॉग के लिंक पकड़ता हूँ, उन्हें पढता हूँ। चर्चा में लगाता हूं। इसमें दो समस्याएं हैं
१. कुछ ब्लॉगर्स के ब्लॉग पर फॉलोअर वाला निशान/आइकॉन होता ही नहीं, और मैं उनका फॉलोअर बन नहीं पाता। फलतः मुझे पता ही नहीं चलता कि उनके ब्लॉग पर कब क्या पोस्ट हुआ है? इधर-उधर से पता चलता है तो शामिल कर लेता हूँ। कई बार छूट जाता है।
२. कई ब्लॉग पर ताला लगा होता है। अतः समग्री पूरा टाइप करना कई बार दुष्कर ;लगता है .. बस… आलस से उनको चर्चा में शामिल नहीं कर पाता।
बाक़ी कठिनाइयां तो अनूप जी बता ही चुके हैं।
हां फोटो लगाना मैं अनुचित नहीं मानता। इसीलिए लगाया हूँ। आपको आपत्ति हो तो दर्ज़ करें, हटा दूँगा।
पर बिना फॊटो के पोस्ट श्रृंगार विहीन लगता है।
हां, लिंक लगाने की अनुमति तो आपसे नहीं मांगी है। मुझे लगता है, जिसे आपने सर्वजनिक किया है उसकी चर्चा तो हम कर ही सकते हैं। फिर भी मैं कोशिश करता हूँ कि जहां से, जिस पोस्ट से लिंक लिया है उनके टिप्पणी बॉक्स में यह बता दूँ कि मैंने इसे चिट्ठा चर्चा में शामिल किया है। अगर आपत्ति आयेगी तो हटा दूँगा।
आज तक कोई नहीं आई।
तो आइए अब चर्चा शुरु करें!
आलेख
-***-हिन्दुस्तान का इतिहास किसी न किसी ऐसे जयचंदों के वर्णनों से भरा पडा है जिन्होंने अपनी नैतिकता सिर्फ चंद कागज़ के टुकड़ों के लिए और अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए बेचीं है। आज तक वो ही हालात है! ऐसे में यह यक्ष प्रश्न हमारे सामने उठ खड़ा होता हि कि जब रक्षक ही भक्षक हो जाए तो कोई क्या करे? देश का खुफियातंत्र..जिसपे पूरी अवाम की सुरक्षा टिकी है, जब वो ही भ्रष्टहो जाए..तो कोई किस पर भरोसा करे? नुक्कड़ पर श्री नरेन्द्र व्यास यह प्रश्न उठा रहे हैं और सच ही कह रहे हैं कि
बात सही भी है कि क्या हम अपना वर्तमान और भविष्य बे-ईमान और स्वार्थी नेताओं के हाथों में सौंपकर चुप बैठैंगे? व्यास जी सुझाते हैं
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-***-एक मई को मज़दूर दिवस पर इस सप्ताह कई पोस्ट आये। एक तो हमने खुद भी डाली थी। पर उदय प्रकाश जी कि पोस्ट मई दिवस इस बार : मोसांटो कपास बीजों की नयी फसल के दौर में कुछ अलग-सा लगी। एस.एम.एस. से मिले संदेशों का ज़िक्र करते हुए कहते हैं
जे.स्वामीनाथन ने एक बार,कहा था-'मैं समकालीन कला को थोड़ा 'असुंदर बनाना चाहता हूं!' यह 'असुंदरता'... लगता है आज किसी भी कला के लिए इसलिए ज़रूरी है, जिससे वह आज की हमारी सबसे बड़ी सामाजिक असलियत के नज़दीक हो सके। यानी इस समय की मांग बौद्धिक विमर्शों को उनकी उच्च-भ्रू पटरी से उतारने की है। उसे 'डि-इंटेलेक्चुअलाइज़' करने की है। ऐसा इसलिए भी लग रहा है कि इस बीच पत्र-पत्रिकाओं में इस नव शहरी मध्यवर्ग की एक नयी फसल 'सेल्फ़ टर्मिनेटर' (आत्म-विनाशक) मोसेंटो के कपास-बीजों की ऐसे पौधों की तरह अपनी सारी कार्पोरेट रंगीनियत में लहरा रही है, जो न तो परंपरा और अतीत का वंश-बीज है, न भविष्य के लिए वह स्वयम कोई अंकुरित हो सकने वाले बीज की संभावनाएं रखती है। उदय जी के मोबाइल पर एक मैसेज आया है :
शायद यह कोई 'चुटकी' ही है, हल्की-फुलकी ....लेकिन चोट तो ज़रूर करती है। |
-***-ऐसा नहीं कहा जा सकता कि आप फलां तरीक़े से स्वस्थ हैं और वो अमुक तरीक़े से स्वस्थ है। आप या तो स्वस्थ हैं या बीमार। बीमारियां पचास तरह की होती हैं; स्वास्थ्य एक ही प्रकार का होता है। इसी तरह के विचार लेकर स्वास्थ्य संबंधी तरह-तरह की जानकारियां स्वास्थ्य सबके लिये ब्लॉग पर प्रस्तुत की जाती हैं। कुमार राधा रमण एक खोजी रपट का हवाला देते हुए बता रहे हैं कि बच्चेदानी के कैंसर को रोकने वाले टीकों को भारत जैसे विशाल बाजार में फटाफट बेचकर मालामाल होने की दो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मंसूबे पर पानी फिर गया है। आंध्र प्रदेश और गुजरात में परीक्षण के दौरान छह बच्चियों की मौतों से परीक्षण की अनुमति देने वाली सरकारी संस्था इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च भारत में अब हम अपने तौर पर और स्वतंत्र आकलन के बाद ही परीक्षण की अनुमति देंगे। दावा है कि इन टीकों के लेने के बाद एचपीवी (ह्यूमेन पेपीलोमा वायरस) से होने वाले बच्चादानी कैंसर से बचाव करता है। |
-***-‘आने वाला समय हिंदी का है* - ऋषभदेव शर्मा की यह पुस्तक समीक्षा प्रस्तुत किया गया है डॉ.कविता वाचक्नवी द्वारा हिंदी भारत पर। एक पोज़िटिव सोच वाला यह आलेख मुझे बहुत अच्छा लगा। भारत में हजारों मातृभाषाएँ हजारों साल से बोली जाती हैं। भिन्न भाषा भाषियों के बीच परस्पर संवाद के लिए अलग-अलग स्तरों पर कोई-न-कोई भाषा संपर्क भाषा की जिम्मेदारी निभाती दिखाई देती है। पहले संस्कृत और फिर हिंदी के जनपदसुखबोध्य रूप ने यह भूमिका निभाई। भाषा के रूप में हिंदी सहजतापूर्वक व्यावहारिक स्तर पर प्रचलन में है, स्वीकृत है और नई-नई चुनौतियों का सामना करने में सक्षम है। यदि संपर्क की सुविधा को ध्यान में रखकर देवनागरी लिपि को भी स्वीकार कर लिए जाए तो अखिल भारतीय भाषिक संपर्क में अधिक घनिष्ठता आ सकती है। राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित भारतीय जनता व्यापक संपर्क की इन प्रणालियों (संपर्क भाषा और संपर्क लिपि) को सहजतापूर्वक स्वीकार कर सकती है, परंतु समय-असमय विकराल रूप में सामने आकर शुद्ध राजनैतिक स्वार्थ ऐसे तमाम प्रयासों में पलीता लगा देते हैं! भारतीय बहुभाषिकता के संदर्भ में उपस्थित होनेवाले इन सब मुद्दों पर डॉ.राजेंद्र मिश्र ने अपनी कृति ‘संपर्क भाषा और लिपि’(2008) में विस्तार से चर्चा की हैं। डॉ. राजेंद्र मिश्र ने हिंदी के कल, आज और कल से जुड़े प्रश्नों पर अपनी दो टूक राय ‘संपर्क भाषा और लिपि’ में लिपिबद्ध की है। उनका यह चिंतन मनन भारत की भाषा समस्या के रूप में फैल धुंधलके को काटने का सार्थक प्रयास है। हिंदी जगत इस कृति का स्वागत करेगा, ऐसा विश्वास किया जाना चाहिए। |
-***-जी.के. अवधिया जी ने एक कथा के माध्यम से बहुत ही रोचक तथ्य प्रस्तुत किया है धान के देश में। गधा, कुत्ता, बंदर और आदमी इस कथा के पात्र हैं। मैं पूरी कथा न देकर एक अंश दे रहा हूं, पूरा तो यहा पढिए। मनुष्य ने कहा, "प्रभु! 20 वर्ष तो बहुत कम होते हैं। कृपा करके मेरी आयु में गधे, कुत्ते और बन्दर के द्वारा छोड़े गये 30, 15 और 10 वर्षों को भी जोड़ दीजिये।" |
-***-अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी मरकस बाबा को उनके जन्म दिन पर याद करते हुए यक्कम-दुइयम्म कर रहे हैं। बताते हैं वे गाँव से कला-स्नातक होकर जे.एन.यू. आए स्नातकोत्तर करने। उनकी जानकारी का दायरा बहुत सीमित था , तब तक कालिदास-तुलसी-सूर-कबीर यहीं तक उनकी दुनिया ख़त्म हो जाती थी। ग़ालिब को भी नहीं जानते थे, मरकस बाबा की बात ही जाने दीजिये। “इस विषय पर संस्कृत के श्लोक का क्या औचित्य , क्या तुमने कार्ल मार्क्स को नहीं पढ़ा , क्या पढ़कर आये हो ?” आगे बताते हैं यह पहला परिचय था उनका बाद में मार्क्सवादियों में सिद्धांत और व्यवहार का द्वैत खूब दिखा उन्हें। कुछ प्रश्न सदैव उठता रहा कि ये अनुसरणकर्ता लोग सिद्धांतकार और सिद्धांतों का सिद्ध-अंत करने पर क्यों लग जाते हैं , व्यक्तिगत सीमाओं से ऊपर क्यों नहीं उठ पाते हैं !
वे क्षण जो विपदा के मारे व विचार की कोख बन गए वे घटनाएं जिनमें जीवन का दर्शन आकर पा गया वे जीवन, जो कोटि ऋणों के जीवन-भय से मुक्त हो गए वे सांसे जिनमें अगाध का मेल हो गया; क्या ये सब विपत्ति -घन हैं ? नहीं नहीं वह काल रात्रि पर
कला-दिवस का विजयी क्षण है..सुन्दरतम है..!!! |
-***-हिन्दी साहित्य की बहुत सी किताबें पीडीएफ फारमेट में पहले से ही उपलब्ध हैं। संजीव तिवारी की रूचि जनजातीय सांस्कृति परंपराओं में रही है जिससे संबंधित पुस्तकें क्षेत्रीय पुस्तकालयों में लगभग दुर्लभ हो गई हैं किन्तु डिजिटल लाईब्रेरी योजना नें इस आश को कायम रखने का किंचित प्रयास किया है। पिछले कुछ दिनों से पोस्ट लेखन से दूर, लोककथाओं के आदि संदर्भों की किताबों के नामों की लिस्ट मित्रों से जुगाड कर उन्होंने नेट के महासागर में उन्हें खंगालने का प्रयास किया तो जो जानकारी उन्हें उपलब्ध हुई वह वे हमारे लिये भी प्रस्तुत कर रहे हैं, आनलाइन भारतीय आदिम लोक संसार। डिजिटल लाईब्रेरी परियोजनाओं के संबंध में लोगों, साहित्यकारों व लेखकों की सोंच जैसे भी हो, हमारे जैसे नेटप्रयोक्ताओं के लिए यह बडे काम की है. शोध छात्रों के लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण साधन है, इससे शोध विषय सामाग्री के लिए अलग अलग स्थानों के विश्वविद्यालयीन व अन्य पुस्तकालयों में चुनिंदा पुस्तकों को पढने के लिए जाकर समय व धन खपाने की अब आवश्यकता नहीं रही। हांलाकि अधिकांश पुस्तकें अपने मूल अंगेजी भाषा में उपलब्ध हैं किन्तु धीरे धीरे हिन्दी में भी ये पुस्तकें उपलब्ध होंगी इस बात का अब भरोसा हो चला है। |
-***-जब तक ब्लॉग नहीं था अपना, तो मैं सोचता था ये ब्लॉग और ब्लॉगिंग क्या है? अब जब सात महीने से ब्लॉग लिख पढ रहा हूँ तो इतना ज़्यादा कनफ़ुज़िया गया हूँ कि कह नहीं सकता! आज भी वहीं हूँ और वही प्रश्न है कि ब्लॉगिंग क्या है? पर आप मते कनफ़ुज़ियाइए। छींटे और बौछारें पर रवि रतलामी जी लेकर आए हैं आपके लिए (हमारे लिए भी) बड़े काम की जानकारी “द रफ़ गाइड टू ब्लॉगिंग”।
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-***-जी.के. अवधिया जी के इतिहास कहने की कला का मैं कायल हूँ। आप भी हो जाएंगे, इस पोस्ट को पढ़ें। महाकवि भास का प्रसिद्ध नाटक स्वप्नवासवदत्ता। एक बार उदयन समुद्रगृह में विश्राम कर रहे होते हैं। वे स्वप्न में ‘हा वासवदत्ता’, ‘हा वासवदत्ता’ पुकारते रहते हैं उसी समय अवन्तिका (वासवदत्ता) वहाँ पहुँच जाती हैं। वे उनके लटकते हुये हाथ को बिस्तर पर रख कर निकल जाती हैं साथ ही उदयन की नींद खुल जाती है किन्तु वे निश्चय नहीं कर पाते कि उन्होंने वास्तव में वासवदत्ता को देखा है अथवा स्वप्न में। इसी घटना के के कारण नाटक का नाम ‘स्वप्नवासवदत्ता’ रखा गया। |
-***-संतोष कुमार सिंह का कहना है कि उन्होंने आंखों में बडे बडे सपने सहेजकर पत्रकारिता की राह थामी थी। देश की एक प्रसिद्ध हत्या, जिस पर अनेकों पोस्ट और विस्तृत चर्चा लिखी जा चुकी है, पर उनका कहना है कि देशी मछली देशी मुर्गा और विदेशी वियर के सहारे निरुपमा मामले में आँनर किलिंग प्रमाणित करने को लेकर कोडरमा के सेन्ट्रल एसक्वायर होटल में ठहरे मीडियाकर्मीयो के लिए बुरी खबर हैं। संतोष जी बताते हैं प्रियभांशु और मीडिया के टारगेट नम्बर एक निरुपमा के मामा और चाचा के विरुध कोडरमा पुलिस को कोई साक्ष्य नही मिला हैं। जांच के दौरान यह तथ्य सामने आया हैं कि निरुपमा के पिता और भाई दोनो अपने आफिस में घटना के दिन मौंजूद थे। अब सवाल यह उठता हैं कि निरुपमा के घर में सारे रिश्तेदार को जोड़े तो पाच पुरुष उसके परिवार में हैं जो सभी के सभी घटना के दिन कोडरमा में नही हैं।तो फिर किसने निरुपमा की हत्या की, क्या 55वर्ष की बिमार मां अकेले निरुपमा की हत्या कर दी।इस सवाल के सामने आने के बाद कोडरमा पुलिस की नींद हराम हैं कि अगर निरुपमा की हत्या हुई तो इसको अंजाम किसने दिया। इस मामले का जो सबसे मजबूत पहलु हैं वह हैं डाक्टरो का विरोधाभासी बयान। जब डांक्टर यहा तक कह रहे हैं कि मुझे पोस्टमार्टम करने के बारे में जानकारी नही थी और पहली बार पोस्टमार्टम कर रहा था और मामला हाई प्रोफाईल होने के कारण जल्दी से जल्दी पोस्टमार्टम रिपोर्ट देने के हरबरी में कई साक्ष्यो छुट कहे। इस पूरे प्रकरण का सबसे दुखद पहलु यह हैं कि कोडरमा में जुटे मीडिया के कर्णधार यह सब जानने के बाद भी खामोस हैं क्यो कि इन तथ्यो को दिखाने के बाद उनकी आँनर किलिंग की थियूरी फलोप कर जायेगी। |
-***-आप कैसे अपेक्षा कर लेते हैं कि अधिकारियों के कान पर जूं रेंगेगी। मेरे भी कान पर कमबख्त जूं नहीं रेंगी तो नहीं रेंगी। जब खूब घने बाल थे तब भी और अब जब चांद की ओर बढऩे की तैयारी है तब भी। जब खोपड़ी में जूं नहीं है तो कान पर रेंगने का सवाल ही नहीं उठता। लेकिन पब्लिक है कि बिना चेक किए कि किसी अधिकारी के सिर में जूं है या नही, अपेक्षा करने लगती हैं कि बात-बात पर उनके कान पर जूं रेंगे। |
-***-शिवम् मिश्रा बुरा भला पर, जब हम होंगे साठ साल के तो हमें क्या प्लानिंग करनी चाहिए, इसकी सलाह दे रहे हैं। कहते हैं हर जवानी को एक दिन बुढ़ापे में कदम रखना ही पड़ता है। बुढ़ापा कोई बीमारी नहीं है, जो गिने-चुने लोगों को ही होती है। इसके बावजूद हममें से कुछ लोग ही जिंदगी के इस पड़ाव के लिए पहले से तैयार होते हैं। ऐसा नहीं है कि केवल प्राइवेट कंपनियों में काम करने वालों को ही रिटायरमेंट की प्लानिंग करने की जरूरत है, बल्कि सरकारी कर्मचारियों को भी रिटायरमेंट के बाद गुजर-बसर के लिए पहले से पर्याप्त इंतजाम कर लेने चाहिए क्योंकि नौकरी के बाद सरकार आपकी बाकी जिंदगी का बोझ अपने कंधों पर नहीं ढोने वाली। भले ही आप अभी जवानी का लुत्फ उठा रहे हों और रिटायरमेंट में 30 साल से भी ज्यादा का वक्त हो, लेकिन इस बारे में सोचने के लिए यही सही समय है। वैसे तो रिटायरमेंट का मतलब आप बहुत अच्छी तरह समझते हैं। इस पोस्ट को अच्छी तरह पढ़ें, हो सके तो बुक मार्क कर लें। बड़े काम का पोस्ट है यह। आख़िर सेवानिवृत्ति के बाद आपको जिंदगी के करीब बीस साल और काटने होते हैं। |
-***-कुछ चिपचिपा सा ही कहने वाले मौसम में रद्दी की ठेलिया पर मौजूद कुछ फ़टी-पुरानी डायरियां ये दिल मांगे मोर वाले महौल में क्या गुल खिला रही हैं फुरसतिया जी की कलम से देखिए यहां। कहते तो हैं कि
और क्रोधित होने की कोशिश करते हैं पर उन्हें गुस्सा आ नहीं रहा। अगर कुछ करते धरते होते तो फुरसतिया कहलाते क्या? हड़बड़िया गड़बड़िया टाइप के नहीं होते। चलिए गुस्सा न होते हुए भी गुस्साके घर से निकल लिए हैं शायद गौतम की तरह बुद्धि प्राप्त हो जाए और रद्दी के ठेले वाले के पीपल वृक्ष के नीचे धूनी रमा दी है। उन्हें लगता है कि दुनिया की सबसे बेहतरीन पठन सामग्री रद्दी की दुकान पर ही मिलती है। उन्हें हाथ लगी ब्लॉगर की डायरी। अब देखिए क्या-क्या रज़ खुला है। मैं तो कट लेता हूँ। (फुरसतिया जी धीरेसे एक बात बताऊँ … आपके द्वारा प्रस्तुत विवरण पढ़कर मालूम हुआ कि उनमें से एक डायरी मेरी थी जिसे मैं कई दिनों से खोजने का अनवरत प्रयास कर रहा था। लगता है श्रीमती जी की कृपा दृष्टि उस पर पड़ गई थी और संसार की सबसे बेहतरीन पठन सामग्री की दुकान पर पहुंच गई। अब आप ही बताइए आपके क्या विचार हैं … वापस करेंगे या…! आखिर आप भी तो ब्लागर हैं न!) |
ज्ञानदत्त जी कहते हैं हम चाहें या न चाहें, सीमाओं के साथ जीना होता है। लेकिन समस्या ये है की जो 'जागरूक' है वो यह जानते है कि गलत है। वो मौको पर चुप रहते है। 'एक्शन' का काम किसी और पर छोड़ कर आत्मसंतुष्टि पा लेते है।
ज्ञान जी गंगा किनारे घूमने जाते हैं। देखते हैं कि कोई घाट पर सीधे अतिक्रमण कर रहा है। एक व्यक्ति अपने घर से पाइप बिछा घर का मैला पानी घाट की सीढ़ियों पर फैलाने का इन्तजाम करा रहा है। घाट की सीढियों के एक हिस्से को वह व्यक्तिगत कोर्टयार्ड के रूप में हड़पने का निर्माण भी कर रहा है! वे अन्दर ही अन्दर उबलते हैं। पर उनकी पत्नीजी तो वहां मन्दिर पर आश्रित रहने वालों को खरी-खोटी सुनाती हैं। वे लोग चुपचाप सुनते हैं। निश्चय ही वे मन्दिर और घाट को अपने स्वार्थ लिये दोहन करने वाले लोग हैं। उन्हें लगता है कि सामाजिक एक्टिविज्म आसान काम नहीं है। सुधार की ज्यादा उम्मीद नहीं है। फिर भी कहते हैं
अगर सारा तन्त्र भ्रष्ट मान लूं तो कुछ हो ही न पायेगा! अब भी मुझे आशा है। देखते हैं क्या होता है। हममें ही कृष्ण हैं, हममें ही अर्जुन और हममें ही हैं बर्बरीक!
प्रयास कभी बंद नहीं करना चाहिए, बहुत मुस्किल होता है सिस्टम से लड़ना पर जितना हो सकता है उतना सुधार करते रहना चाहिए।
कविताएं
-***-डा. एम.एस. परिहार ने दो सामयिक गीत पोस्ट की हैं विचार-बिगुल पर। डा. परिहार का मानना है --
एक और संग्राम बेबस का है नहीं गुजारा। वन्दे मातरम् के जनगण हम | -***-कफन बांध लो सदियोंसे सोयी जनताको आज जगाने आया हूं। मैं शांतिका नहीं क्रान्तिका बिगुल बजाने आया हूं। सब हाथों को काम मिले मैं भगत बनाने आया हूं। |
-***-उदय प्रकाश जी बता रहे हैं कि उनके द्वारा यह कविता इसी तरह लिखी जा रही है, अलग-अलग समय और मूड्स में। यह किसी सूची में शामिल होने के लिए नहीं, अपने समय की चिंता का हिस्सा बनने के लिए लिखी जा रही है। जीवन की अनिश्चितताओं और बिखरावों के बीच। असमाप्त कविता का एक और नया शुरुआती ड्राफ़्ट! यह वह पल था जब संसार की सभी अनगिन शताब्दियों के मुहानों पर लोकतंत्र के बाहर छूट गए उस जंगल में | -***-नवगीत की पाठशाला पर संगीता स्वरूप जी की प्रस्तुति क्या है बस शब्दों का कमाल है! जब आतंक का साया हो तो कैसे मन मुस्काए? घर के बाहर हुआ धमाका |
-***-मज़दूर दिवस मज़बूर ---- संवेदना को जगाने वाली पोस्ट कर आए हैं समीर भाई। चाँद कवि को महबूबा और गरीब को रोटी सा लगता है .. चाँद कवि और मजदूर | -***-तुम्हारे जाने के बाद .. कैसी है ज़िन्दगी .. अपूर्व की, इस कविता में शब्द-सौंदर्य इतना ज़बरदस्त है कि अधूरेपन के भाव को भी पाठक मंत्रमुग्ध हो पढ़ता है। कमरे मे |
-***-आर्कजेश जी कह रहे हैं यह कोई कविता नहीं है। सच! यह तो हक़ीक़त है। बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है ये रचना। आज भी, आज भी , 'आने वाली नवेली पीढियों ! ' हम आत्मघाती खतरनाक लोग हैं | -***-रश्मि प्रभा जी के दर्द का सत्य एक अद्वितीय रचना है। लगन और योग्यता एक साथ मिलें तो निश्चय ही एक अद्वितीय रचना का जन्म होता है। अगर तुम दर्द के रास्तों को नहीं पहचानते तो ज़िन्दगी तुमसे मिलेगी ही नहीं दर्द के हाईवे से ही ज़िन्दगी तक पहुंचा जाता है .. रास्ते में सत्य का टोल नहीं दिया तो आगे बढ़ना मुमकिन नहीं जिन क़दमों को तुम आगे बढ़ जाना समझते हो वह तो फिसलन है कोई सुकून नहीं वहाँ ! सत्य ही ज़िन्दगी देता है दर्द ही रिश्ते देता है ... |
-***-काव्य का आदि कारण वेदना! आदिम इच्छा के एक फल .... सांसारिक लालसा का प्रतीक है। इसके फलस्वरूप म्स्नुष्य मिथ्या मोहपास मे आबद्ध है। फल है विपरीत, वारि में नैय्या में नदिया न डूबे तो क्या हो.... ? मनोज ब्लॉग पर प्रस्तुत आचार्य परशुराम रय द्वारा रचित नदिया डूबी जाए पढ़कर बरबस कबीर याद आ गए !!! किस अचेतन की तली से चेतनाने बाँग दी कि काल का घेरा कहीं से टूटने को आ गया है। सोच तो लेते कि मुक्त शीतल मन्द पवन जब भी करवट बदलेगा महाप्रलय की बेला में हिमालय की गोद भी शरण देने से तुम्हें कतराएगी। नियति को देती चुनौतीविद्रोह करती वेदना, आदिम इच्छा के मात्र एक फल चख लेने की काट रही सजा, सृजन के कारागार से अब बाहर निकल कर आ गई है। मेरे तो सौभाग्य और दुर्भाग्य कीसारी रेखाएं कट गई, संस्कारों का विकट वन जलाने से निकले श्रम सीकर अभी तक सूखे नहीं। बन्धन मेरी सीमा नहीं, मात्र बस ठहराव था। साथ बैठकर रोया कभी तो मोहवश नहीं करुणा की धारवश। जीवन की धार देख नाव नदी में नहीं नदी नाव में डूबने को है! | -***-संगीता स्वरूप जी एक चेतावनी दे रही हैं पुरुष ! तुम सावधान रहना , पूजनीय कह नारी को इक्कीसवीं सदी में भी सामंती रूढ़ियों वाले पुरु-प्रधान समाज में नारी के लिए आत्माभिव्यक्ति में कितनी कठिनाई हो सकती है, यह सहज अनुमेय है। फिर भी आपने कविता के माध्यम से जो आवाज उठाई है वह प्रशंसनीय है। आपकी इस कविता में निराधार स्वप्नशीलता और हवाई उत्साह न होकर सामाजिक बेचैनियां और सामाजिक वर्चस्वों के प्रति गुस्सा, क्षोभ और असहमति का इज़हार बड़ी सशक्तता के साथ प्रकट होता है। |
पी.सी. गोदियाल जी हमसे, आपसे, सबसे पूछ रहे हैं कोई तो बताए मिलती कहां होगी? कुछ शर्म खरीदनी है,
| -***-म्रत्युदंड ..... दे रही हैं रोली पाठक आवाज़ पर मौत का भय... होता है कितना भयावह, अपने अंतर्म न को कचोटता, ह्रदयगति को सहेजता, कांपते पैरो पर खड़ा लडखडाता चुचुआती पसीने की बूंदों को पोंछता होंठो की थरथराहट अँगुलियों की कंपकंपाहट को काबू करने का असफल प्रयत्न करता |
ग़ज़लें
-***-समकालीन उर्दू शायरी में शहरयार एक बड़ा नाम हैं। हिंदी पाठकों में भी उनकी मुकम्मल पहचान है। वे अपनी शायरी में सामाजिक विसंगतियों को तो उभारते ही हैं, एक नये समाज का ख्वाब भी देखते हैं। सातवें दशक में उनकी गजलों ने उर्दू शायरी में नयेपन का अहसास कराया था। उनकी गजलें लोगों की जुबान पर आ गयीं थीं। उनका एक शेर तो आपको याद होगा ही- उनके जितने संग्रह उर्दू में आये हैं, उससे ज्यादा हिंदी में आ चुके हैं। वे उम्मीद और हौसले के शायर हैं। नये शायरों के लिए तो वे आदर्श की तरह हैं। डा.सुभाष राय उनकी कुछ गजलें प्रस्तुत कर रहे हैं। एक ग़ज़ल के कुछ शे’र देखिए और पूरा पढिए बात-बेबात पर। किस्सा मिरे जुनूं का बहुत याद आयेगा रातों को जागते हैं इसी वास्ते कि ख़्वाब कागज की कश्तियां भी बड़ी काम आयेंगी | गिरीश पंकज -***-जितना सुख हिस्से में आया.. काफी है मन को तूने ये समझाया.. काफी है अपनों से ज्यादा उम्मीदें मत रखना जिसने जितना साथ निभाया काफी है दौलत तेरे हाथ कभी ना आ पाई लायक बेटा एक कमाया.. काफी है सुबह खुली है आँख शाम मुंद जायेगी जिसने भी इस सच को पाया..काफी है अमन के हम पहरुए है, हमारा काम चलना है, तिमिर को गर भगाना है, हमें हर रात जलना है.. ये जीवन है बड़ा सुन्दर करें दुखियों की सेवा हम, न पालें द्वेष आपस में, करें न प्यार अपना कम. ये साँसें चल रही कब तक अरे इसमे भी छलना है. ये हिंसा क्यों हमें इतना लुभाने लग गयी भाई कभी हिंसा से ही बदलाव की आंधी कहाँ आई. जो खूनी मन है लोगों का उसे पहले बदलना है. |
-***-बहुत ही सरल शब्द और असरदार शे’र वाली श्यामल सुमन की ग़ज़ल किरदार पढिए यहां। और दाहिनी तरफ़ है मनोरमा पर प्रस्तुत उनकी ग़ज़ल। आजकल टिप्पणी काफ़ी चर्चा में थीं तो मुझे ये ग़ज़ल दिखी सोचा उसे भी आज की चर्चा में लगा दूं। बाँटी हो जिसने तीरगी उसकी है बन्दगी। देखो सुमन की खुदकुशी टूटा जो डाल से। | -***-टिप्पणीपाने केलिए टिप्पणीकरना सीख। कहता रचनाकार क्या, क्याइसके आयाम नाईस"उम्दा"कुछ लिखेंचलजाताहै काम |
-***-हिंदी की बिंदी पर प्रस्तुत यह ग़ज़ल मुझे बहुत अच्छी लगी आपको भी पसंद आएगी। अब तो मजहब कोई, ऐसा भी चलाया जाए आग बहती है यहाँ, गंगा में, झेलम में भी मेरा मकसद है के महफिल रहे रोशन यूँही मेरे दुख-दर्द का, तुझपर हो असर कुछ ऐसा जिस्म दो होके भी, दिल एक हो अपने ऐसे गीत गुमसुम है, ग़ज़ल चुप है, रूबाई है दुखी | -***-यह पहेली आप हल करेंगे। आप को सिर्फ यह बताना है कि शायर का और उसके संग्रह का नाम क्या है. आइये ग़ज़ल पढ़िए--- हमेंभी खुबसूरत ख्वाब आँखों में सजाने दो |
मेरी पसंद-***-अनामिका की सदाये......है इस बार मेरी पसंद। पहले तो एक ख़ूबसूरत चित्र ने आकर्षित किया, फिर शीर्षक ने (कुटज तरु सा मेरा मन)। कुटज तरु, एक नए शब्द से परिचित हुआ(शायद केक्टस को कहते होंगे)। एक सार्थक सोच है इस कविता में कि विपरीत परिथितियों में भी मुस्कराता रहे ये मन । परिस्तिथि से टकराता ,गिरता,सूखा नीरस मन फिर भी मुस्कराने को तैयार! मन की पावनता . सरसता और अदम्य जीवनी शक्ति की प्रतीति है ।
मरू भूमि सी ऊष्ण शिव की जटा-जूट सा कुटज तरु की भांति अलमस्त, अटखेलियाँ करता कृत्रिम आवरणों के |
चलते चलतेबड़प्पन की पहचान | जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घटि जाहिं गिरिधर मुरलीधर कहं, कछु दुख मानत नाहिं
रहीम बड़प्पन की पहचान इसको मानते हैं कि वह कितना सह सकता है। उसको कोई छोटा भी कहे तो वह कभी घटता नहीं है, गिरिधर को कोई मुरलीधर भी कहे तो वे उससे नाराज नहीं होते। |
आपकी कोशिश श्रम साध्य और सराहनीय है मनोज जी। इतने सारे महत्वपूर्ण चिट्ठों को एकत्रित कर एक साथ पढ़ने का अवसर आपने प्रदान किया। आभार।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
Sundar aur vistrit Charchaa ke liye badhai Manoj ji
जवाब देंहटाएंमनोज कुमार जी!
जवाब देंहटाएंजिन ब्लॉगर के यहाँ फॉलोवर का ऑप्सन नहीं होता है आप उनका यूआरएल अपने डैशबोर्ड पर जाकर भी फॉलो कर सकते हैं!
चर्चा विस्तृत होने के साथ-साथ रोचक भी है!
Badi mehnat ka kaam hai manoj ji..aur aap ki nishtha gajab hai.. Kai jane pahchane chitthon ki charcha ki hai aapne..aur kuch chitthe naye hain mere liye..bahut bahut shuqriya aapka
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंमनोज जी, चिटठा-चर्चा में मेरी कविता को स्थान देने हेतु धन्यवाद...
जवाब देंहटाएंइस ब्लॉग से जुड़ कर अनगिनत बेहतरीन रचनाओं को पढने का मौका मिला..
"कुछ ब्लॉगर्स के ब्लॉग पर फॉलोअर वाला निशान/आइकॉन होता ही नहीं, और मैं उनका फॉलोअर बन नहीं पाता। फलतः मुझे पता ही नहीं चलता कि उनके ब्लॉग पर कब क्या पोस्ट हुआ है? इधर-उधर से पता चलता है तो शामिल कर लेता हूँ। कई बार छूट जाता है।"
जवाब देंहटाएंअरे इस की जगह आर एस एस फीड लेकर क्यों नहीं पढ़ते। बहुत से लोग सारी सामग्री की फीड देते हैं। उसके बाद उनके चिट्ठे पर जान की जरूरत ही नहीं।
रवि रतलामी जी का लिंक देने के लिए आपका आभार !
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह विस्तृत चर्चा..और सारगर्भित भी...बहुत से अच्छे लेखों के लिंक मिले...मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंआपकी चयन-निष्ठा को धन्यवाद देता हूँ !
जवाब देंहटाएंअच्छे लिंक तक जाना हुआ !
आभार !
kutaj taru ko janne ke lie acharya hajari prasad dwivedi ko parhiye.....
जवाब देंहटाएंbahrahaal, sundar sankalan.
अच्छी और सार्थक चर्चा.
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह विस्तृत चर्चा !!
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग को चिटठा-चर्चा में स्थान देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार !! आशा है यह सहयोग बना रहेगा !!
क्या जबरदस्त मेहनत। क्या उत्कृष्ट चर्चा।
जवाब देंहटाएंबहुत समय लगा होगा इस सब में!
अभी तलक डागदर साब नाही आये का? डागदर साब को रामराम कर लेत हैं...डागदर साब रामराम पहुंचे..हमार बिटवा का इलाज करो डागदर साब तनि. भगवान आपका बहुते भला करिहै.
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा संकलन...विस्तृ्त भी!
जवाब देंहटाएंआभार्!
सच में, आज की चर्चा में आपकी मेहनत दिख रही है. इतने ढेर सारी पोस्टों को एक जगह एकत्र करना निश्चित ही एक श्रमसाध्य कार्य है. धन्यवाद अच्छे लिंक देने के लिये.
जवाब देंहटाएंvery nice...thanks
जवाब देंहटाएंबहुत लगन और मेहनत से की गई चर्चा।
जवाब देंहटाएंहमारी रचना नदिया डूबी जाए को शामिल करने के लिए आभार!
आपकी कोशिश श्रम साध्य और सराहनीय है। इतने सारे महत्वपूर्ण चिट्ठों को एक साथ पढ़ने का अवसर आपने प्रदान किया।
जवाब देंहटाएंमनोज जी माफ़ कीजियेगा...आज यहाँ टिप्पणी देने में काफी लेट हो गयी. सच्च में आज आपकी मेहनत काबिले तारीफ है. बहुत सुंदर लेखो से सुसज्जित किया है. पुरे सप्ताह का निचोड़ है ये चिटठा चर्चा. और दिल से आभारी हूँ कि मेरी रचना को आपने 'मेरी पसंद' में चयनित किया.धन्यवाद
जवाब देंहटाएंशुक्रिया । इस बार तो आपने बाकायदा सूचित भी किया हुआ था टिप्पणी में :-)
जवाब देंहटाएंविस्तृत और रोचक चर्चा है!
जवाब देंहटाएंइतनी विस्तृत चर्चा प्रस्तुत करने के श्रमसाध्य कार्य के लिये आपको बधाई..कई भूले हुए लिंक मिले..विशेषकर शहरयार सा’ब की ग़ज़लें तो हम पहले देख ही नही पाये थे..आभार!
जवाब देंहटाएंएक सार्थक चर्चा । सच में बहुत श्रम करते हैं आप आपके इस श्रम, समर्पण और निष्ठा को मेरा नमन ।।
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