सोमवार, अप्रैल 02, 2007

ब्लॉग की बंजर धरती पर चंपा के फूल


कोई अगर कहे कि ब्लॉग की धरती बंजर है तो उसका क्या अर्थ लिया जाना चाहिए? चलिए, मान लेते हैं कि यह हिन्दी ब्लॉगों के संबंध में कहा गया होगा जहाँ बमुश्किल आधा-हजार चिट्ठे हैं. परंतु वहाँ भी, शायद कहने वालों की नज़रें यहाँ या यहाँ या यहाँ शायद कभी भी नहीं पहुँचीं, अन्यथा ये बात संभवतः नहीं कही जाती. और अगर ये भी उनकी नजरों में बंजर किस्म के कूड़ा-करकट हैं तो राहत की बात ये है कि 1 अप्रैल के दिन उनके लिए हिन्दी ब्लॉग जगत में चंपा का फ़ूल खिल ही गया. ब्लॉग की बंजर जमीन पर अब तो पंगेबाजों के पदार्पण भी हो चुके हैं और उम्मीद है, कुछ दिनों में जमीन लहलहाती दिखाई देगी. तब शायद लगे कि ब्लॉग की जमीन उपजाऊ है!

1 अप्रैल को और भी बहुत से फूल खिले. नुक्ताचीनी पर तो हद हो गई और एक नहीं दो-दो मर्तबा फूल खिल गए और बहुतों को इन फूलों के काग़ज़ी होने का अंदाज़ा भी नहीं हुआ. नुक्ताचीनी का मसाला इतना परफ़ेक्ट था कि कइयों के मन की पुरानी, जमी हुई संकल्पनाएँ भी ढहती प्रतीत हुईं. हिन्दी में फ़िशिंग साइट बनाने वाले नुक्ताचीनी की ओर रूख कर ही रहे होंगे. 1 अप्रैल को जितने भी हिन्दी में चिट्ठे लिखे गए उन्हें पढ़ने पर मूर्ख बनने का खतरा तो रहता ही है. मगर, विश्वास कीजिए, इस चिट्ठा-पोस्ट पर आपको हरगिज़ मूर्ख नहीं बनाया गया है - इसे आप आराम से, फ़ुरसत से पढ़ें और अवश्य पढ़ें.

1 अप्रैल को ही दलालों के शहर दिल्ली पर कुछ क़सीदे पढ़े गए हैं. पर, वे क़सीदे तो मेरे अपने शहर के लिए भी बिलकुल फ़िट हैं, और शायद आपके अपने शहर के लिए भी बिलकुल फ़िट हों -

एक

ये दलालों का शहर है

सब कहते हैं, ख़ुद दलाल भी

बात में वज़न है

क्योंकि जो कह रहा है

वो बाइज़्ज़त शहरी है.


दो

साँप-सीढ़ी का खेल है

समझदार पूँछ से चढ़ते हैं

कुछेक सीढ़ियाँ उतरते हैं.


तीन

नए लोग

नई गाड़ियाँ

दोनों भागते हैं

अलग-अलग रास्ते.


चार

कहीं से आए थे

यहीं आना था

सबको कहीं पहुँचना है

कुछ फ्लाईओवर पर हैं

ज़्यादातर लाल बत्ती पर.


पाँच

....

(आगे यहाँ पढ़ें)


चलते चलते - सेक्स और सेंसेक्स की भूख के बीच जूतों की कौन सुनता है वह भी जब हिन्दी युग्म में कविता पुरस्कार की घोषणा हो गई हो!


व्यंज़ल

**-**

जो कहते हैं बंजर दूसरों की जमीन

जाँचा है उनने क्या खुद की जमीन


अट्टालिकाओं के मेरे महानगर में

बची नहीं अब कोई काम की जमीन


अतिक्रमणों से तो कब की लुट गई

मेरे अपने नाम के कब्र की जमीन


रहा होगा वो कोई और दौर अब तो

हर जमीन है कुछ दाम की जमीन


वो किस्से लाएँ तो लाएँ कहाँ से रवि

न मिली जिन्हें कभी दर्द की जमीन

*--*

चित्र - हिन्दी से

Post Comment

Post Comment

6 टिप्‍पणियां:

  1. चिट्ठा चर्चा हमेशा की तरह अच्छी थी ..लेकिन जगह जगह यहां ,यहां लिखने की बजाय यदि थोड़ा वर्णन होता तो पहले पढ़े चिट्ठे दोबारा नहीं पढ़ने पढ़ते .

    जवाब देंहटाएं
  2. हिंदी ब्‍लॉग अभी शुरूआत चरण में हैं। कई लोग बेहतर कोशिश कर रहे हैं और उम्‍मीद है कि जल्‍दी ही यह भूमि लहलहाती हुई दिखेगी।

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहतरीन!!

    व्यंजल बहुत बढ़िया रहा.. :)

    जवाब देंहटाएं
  4. हमारी तो आपने चर्चा ही नही की !

    जवाब देंहटाएं
  5. ऐसा है सबने बेवकूफ बनाया केवल सच्ची खबर हम लाए थे लेकिन लोगों ने फूल्स डे के चक्कर में विश्वास ही नहीं किया। :(

    शायद इसीलिए यहाँ भी उसका उल्लेख नहीं हुआ।

    जवाब देंहटाएं

चिट्ठा चर्चा हिन्दी चिट्ठामंडल का अपना मंच है। कृपया अपनी प्रतिक्रिया देते समय इसका मान रखें। असभ्य भाषा व व्यक्तिगत आक्षेप करने वाली टिप्पणियाँ हटा दी जायेंगी।

नोट- चर्चा में अक्सर स्पैम टिप्पणियों की अधिकता से मोडरेशन लगाया जा सकता है और टिपण्णी प्रकशित होने में विलम्ब भी हो सकता है।

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.

Google Analytics Alternative