कुछ दिनों से पाठकों की मांग थी - टिप्पणियों के जरिए नहीं, और न ही ई-संपर्कों से. बल्कि सिक्स्थ सेंस से. इसीलिए प्रस्तुत है फ़रमाइशी, व्यंज़लमय चिट्ठा-चर्चा.
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उनके धीर गंभीर थे फिर भी छोड़ दिए
मेरे क्षीण महीन भी लिख दिए अपराध
कव्वों को दो टुकड़ा डाल वो सोचते हैं
अब तो हमारे भी सारे मिट गए अपराध
कल कुछ और था कल होगा कुछ और
यारों आज तो हमने छोड़ दिए अपराध
लोगों ने किए होंगे तो आखिर क्योंकर
यही सोच के हमने भी कर दिए अपराध
बहुत सोच के किए थे ये कुछ सवाब
उन्होंने फिर भी करार दे दिए अपराध
मेरे हाथों का करम है या उनकी तकदीर
जब भी किए सवाब वो हो गए अपराध
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निवेदन है कि व्यंज़ल के अर्थ से लिंकित चिट्ठा-पोस्टों को न जोड़ें. व्यंज़ल पहले लिखने में आ गया(यी) और टॉस-उछाल कर उटपटांग तरीके से चिट्ठों के लिंक दे दिए गए. आपका गरियाना स्वाभाविक है. जूते चप्पल अंडे टमाटर सब चलेंगे.
चलते चलते - सृजन-गाथा के श्री जयप्रकाश मानस को हिन्दी चिट्ठाकारी के लिए हाल ही में पुरस्कृत किया गया है. अपनी बधाईयाँ व शुभकामनाएँ यहाँ दें.
चित्र - ऊपर का चित्र किस चिट्ठे के बाजू पट्टी का है?
एक नजर इधर भी - देखें बिना पलस्तर की दीवार पर टंगे चिट्ठे का अद्भुत दर्शन.
"चित्र - ऊपर का चित्र किस चिट्ठे के बाजू पट्टी का है?"
जवाब देंहटाएंमैं नही बताऊंगा :)
व्यंजल तो बढ़िया रहा भाई!!
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