इस चिट्ठाचर्चा के लिखे जाने तक की शनिवार को प्रकाशित कुल पोस्ट यहॉं हैं।
विश्व कप में भारतीय टीम के प्रदर्शन से आहत चिट्ठाकारों की भावनाएं बरसाती नदी सी उमड पडी लगता है खेल प्रेमियों को क्रेजी करने वाली अपनी इस टीम के भूत भविष्य का संगीतात्मक चित्रण निठल्ला चिंतन में तरुण ने किया है। कोकप्रिय पेप्सीप्रेमी हमारे इन खिलाडियों की बाजार द्वारा बनाई गई गत का जायजा लेते हुए पते की बातें प्रियदर्शन ने की हैं, जबकि इस पूरे प्रकरण से मर्माहत वर्षा का मानना है कि अपना गम लेकर कहीं और जाने के बजाय नारद पर ब्लॉगियाना बेहतर है, इस बहाने एक ही दिन में चार -चार पोस्टें ही हो जाएंगी... और नहीं तो :) इस समस्या की जड़ में जाकर भारत की हार के दो वास्तविक दोषियों को खोद निकाला है समीरजी ने- वाह क्या सोचा, खूब सोचा।
रजनी अपनी लघु कविता के जरिए प्रभुता के बरक्स लघुता की अहमियत को कहती हैं-
मेरा जीवन,
विभाजित, उद्वेलित और सीमित है,
अथाह से अनन्त तक.
मैं जीवित हूँ,
स्रिष्टी से संचार तक,
बर्फ़ के कण से
पिघलती हुई बूँद तक.
जबकि एक अन्य अति लघु कविता में कवि जी द्वन्द्वग्रस्त दिखाई दे रहे हैं, कि निशान कहां लगाएं क्योंकि दीवारें सब एक सी हैं(निनाद गाथा)
अब तो डर भी नहीं में एक निडर प्रेमी के मनोभावों को पढा जा सकता है।
चूमकर चखा जो तेरे नूर को
जितना तैरा मैं उतना समाता गया
काव्यशास्त्र में प्रेम की नौ दशाएं बताई गई हैं ( अभिलाषा ,चिंता ,उन्माद, जडता ,मूर्छा ,मरण...), यहां भी शायद कोई एक दशा है :) डा. सुभाष भदौरिया की गजलें देखें रचनाकार पर जबकि फैज की शायरी का मजा लें मनीष के चिट्ठे पर।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने निबंध ‘देशप्रेम” में आज से अस्सी साल पहले लिखा था—“हे मोटे आदमियों ! तुम जरा से दुबले हो जाते, अंदेशे से ही सही- तो न जाने कितनी ठठरियों पर मांस चढ जाता” आज अनुराग का लेख पढकर लगा देश तो वहीं है जहां था-
प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से घर और बाहर, हमारे माध्यम से होने वाले भोजन के अनादर के प्रति हमें सजग हो जाना चाहिए।
शायद हमारे चिट्ठाकार एक भारतीय आत्मा की तलाश में इसीलिए निरंतर जुटे हैं। वे खोज रहे हैं कि आज का हिंदुस्तानी किन-किन चीजों से बनता है और किन-किन चीजों में मसरूफ है और कैसे भारतीय लोकतंत्र व्यापार -तंत्र में बदल गया है -
ये लोकतन्त्र नहीं
व्यापार तन्त्र है और
जिस पार्षद की जेब भारी होगी
उसके पास हीपार्षद बनने का मन्त्र है
जिन्दगी और मेरे अनुभव की कहानी में मुंबई महानगर में मशक्कत के बीच सार्थकता की तलाश करते युवा की बयानी है। अच्छी बातों के ब्लॉग में मनीषा शहरों और कस्बों के नामों के पीछे वाले लॉजिक+दर्शन की शिनाख्त कर रही हैं। एक अन्य प्रेमी मन अपनी एक अधूरी दास्तान सुनाते हुए अपनी प्रेयसी की खामोशी को शब्द देना चाह रहे हैं। उधर गौरी पालीवाल ब्लॉग की दुनिया का पहला विज्ञापन जारी करते हुए , हिंदी ब्लॉगिंग के इतिहास से जुडते हुए , सभी व्यंग्यकारों का अपने चिट्ठे पर स्वागत करते हुए करारे व्यंग्यों और टिप्पणियों की प्रतीक्षा में लीन हैं। वैसे यही पोस्ट प्रतीक के चिट्ठे पर भी है कोई तो बताए कि इस विज्ञापन की वजह क्या है?
फुरसतिया अंदाज में अनूपजी ने कानपुर शहर और उसके नामकरण के ऎतिहासिक परिदृश्य पर बडी फुरसत और मनोयोग से एक अच्छा लेख लिखा है।
बहुत पहले गांव में हम कानपुर के लिये ‘कम्पू’ सुना करते थे। ‘कान्हैपुर’ के हैं,
अभी भी यदा-कदा सुनाई दे जाता है। आज से उन्नीस साल पहले जब हमने अपनी फैक्ट्री में पहली बार कदम रखा तो सोचते थे कि OFC का मतलब क्या है। बाद में पता चला कि यह Ordnance Factory, Cawnpore है।
हमें भी नहीं पता था, बताने के लिए शुक्रिया।
अगर आप लोकतंत्र , शहर , क्रिकेट , बाजार , प्रेम , सबसे ऊब चुके हों तो मेरी कलम से के जरिए नियंडरथल मानव से विशुद्ध मानव की मानव वैज्ञानिक गाथा भी पढी जा सकती है। जूता बचाकर रखने की प्रगतिशीलता छोड़कर उसका सार्थक उपयोग करने का आह्वान प्रमोदसिंह ने किया है। और हॉं अभी अभी मोहल्ले में एक बेहद अहम साक्षात्कार अनूपजी का आया है जरूर देखें और टिप्पणी दें।
.......लेखन में ताज़गी का एहसास, जो मेरे ख्याल में ब्लॉग लेखन का प्राणतत्व है,
के मामले में मेरा मानना हैं कि भारतीय भाषाऒं के ब्लॉग लेखन में बेहतर अभिवयक्ति की संभावनाएं हैं, क्योंकि अपने देश के बहुसंख्यक लोगों की सहज बोलचाल और अभिव्यक्ति की भाषा उनकी मातृभाषा है। अंग्रेज़ी नहीं है।
मैनें नहीं बताया कि इस चर्चा को लिखने की प्रक्रिया में कितनी बार कालबेल बजी या बच्चों ने क्या क्या तोड़ा फोड़ा। चलो जाने दो- इस सब के बाद भी लिख ही डाला, नजर मत लगाओ, डिठौना स्वरूप अजदक से ये जूते।
पुनश्च: -शुक्रवार के चिट्ठों की चर्चा नहीं हो सकी है, जिन भी चिट्ठाचर्चाकार बंधु की यह जिम्मेदारी रही हो वे देख लें, मैंने यहॉं शनिवार के चिट्ठे निर्देशानुसार लिए हैं।
जीवन्त चिट्ठाचर्चा शुरु करने पर खैरम-कदम । जारी रखिएगा।बधाई।
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षात्मक चर्चा रही ..साधुवाद .
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो बधाई पहली बार सफल चर्चाकर के लिये। आपके आने से चिट्ठाचर्चा में महिलाऒं की नुमाइन्दगी हुयी। आगे आशा है और जुड़ेंगी। बहुत अच्छी तरह से चर्चा की। बधाई। अब इतवार के लिये हम निशाखातिर हो गये।:)
जवाब देंहटाएंएक और रोग पाल लिया आपने? :)
जवाब देंहटाएंचर्चा भी लत है, जब लिख नहीं पाओ तो छटपटाहट होती है. कोई यह मुझ से पूछे :(
आपको बधाई. खुब रही चर्चा.
पहली महिला चर्चाकार बनने पर बधाई नीलिमा जी। उम्मीद है इससे आपके शोध में भी मदद मिलेगी और हमें भी अच्छी चर्चा पढ़ने को मिलेगी।
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया!
जवाब देंहटाएंअर्ज़ है
"यू तो है नारद पर चिट्ठाचर्चाकार बहुत अच्छे
नीलिमा जी का है लेकिन
अन्दाज़े बयां और!!"
बच्चो ने आप को लिख लेने दिया इसके लिए उन्हे पुचकारिएगा!
अच्छी शुरुआत रही, बधाई!
जवाब देंहटाएंवाह-२, बहुत बढ़िया। :)
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत बहती हुई चर्चा की गई. लगा ही नहीं कि यह आपकी प्रथम चिट्ठाचर्चा है. बहुत खूब, चर्चा करते रहें. बधाईयाँ.
जवाब देंहटाएंपहली महिला चिट्ठा-चर्चाकार को पहली सफ़ल चर्चा पर बहुत बहुत बधाई। ( अब बताइए, कोई मुश्किल काम था क्या?) इतनी अच्छी चर्चा के लिए बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंअन्य महिला चिट्ठाकारों से भी निवेदन है कि वे आगें आएं, देखते है कितनी महिलाएं आगे आती है।
अच्छी चर्चा की आपने नीलिमा जी। ये एहसास हुआ ही नहीं कि चर्चाकार की यह पहली चर्चा है।
जवाब देंहटाएंनीलिमा, पारी की शुरूआत करने की बधाई। कुशलता पूर्वक चर्चा करने के लिये बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई सुन्दर तरीके से चर्चा करने के लिये, वाकई यह नहीं लगता कि यह आपकी पहली बार लिखी गई चर्चा है।
जवाब देंहटाएंपुन: बधाई