शनिवार, मार्च 06, 2010

निज कवित केहि लाग न नीका

निज कवित केहि लाग न नीका
नमस्कार मित्रों! मैं मनोज कुमार एक बार फिर शनिवार की चिट्ठा चर्चा के साथ हाज़िर हूँ। इसमें शुक्रवार की सुबह ०० बजे से रात २४ बजे तक के प्रकाशित हुए कुछ चिट्ठों की चर्चा की गई है।

पिछ्ले एक सप्ताह से आप से दूर रहा। हां इस बीच कुंभ स्नान और मां वैष्णो देवी के दरबार में मत्था टेक आया। सारे ब्लॉगजगत में शांति सौहार्द्र हो और सभी ब्लॉगर्स को खुशहाली, समृद्धि हो यह कामना भी कर आया! इसी मंशे के साथ आज की चिट्ठा चर्चा शुरु करते हैं। काफ़ी मुश्किलों से इसे तैयार कर पाया हूँ। इसके लिये जम्मु से कोलकता की हीमगिरी एक्सप्रेस से यात्रा के दौरान बॉगी के सहयत्रियों का शुक्रगुज़ार हूँ जिन्होंने इस एक मात्र काम करते प्लग प्वाएंट को मेरे लैपटॉप के लिये छोड़ रखा। वर्ना धीमी गति से चल रहे इंटर्नेट ने मेरा मनोबल तोड़ने का पूरा प्रयास किया।
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प्रमोद ताम्बट बता रहे हैं मुम्बई का डॉन कौन ? अपून ! एक एक को बोल के रखता है भंकस नई करने का। अख्खा शाइर लोग, पोएट अउर रायटर लोग मुंबई में अड्डा जमाके, मराठी का खाके, मराठी का पीके, मराठी हवा में श्वास लेके हलकट, हिन्दी में लिखता है। अभी हम बोलता है सब साला मराठी में लिखना शुरु करने का। हिन्दी पोयट्री, कहानी, कादम्बरी सब मराठी में लिखने का। गझल मराठी में बोलने का। इधर राजभाषा का अख्खा कारीक्रम हिन्दी में कर-करके तुम लोग दिमाग का दही करके रखेला है। अभी अइसा नहीं चलने कू मँगता है। हिन्दी डे का पखवाड़ा का सब प्रोग्राम मराठी में करने को मँगता है, नई तो मराठी में मार खाने कू तैयार रहने कू मँगता है।
एक प्रदेश में राजनीतिक स्वार्थ से पीड़ित कुछ लोग मराठी-गैरमराठी का बीजारोपण कर अपनी फसल उगा रहे हैं ऐसे में अंत तक पठनीयता से भरपूर होना ही इस व्यंगात्मक रचना की सार्थकता है जिसके जरिये ..... विषय को समझने का ईमानदारी से प्रयास किया गया है और यही इसका निहितार्थ भी है।
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देशनामा में खुशदीप सहगल बता रहे हैं कि हमारे देश में कभी कहा जाता था कि दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ...अब तो दाल रोटी भी पहुंच से बाहर होती जा रही है...फिर प्रभु के गुण कैसे गाए...भूखे पेट तो भजन भी न होए गोपाला। इक्कीसवीं सदी में हर बीतते दिन के साथ हमारे जीवन से सब कुछ लेस (कम या गायब) होता जा रहा है.मतलब एवरीथिंग इज़ लेस मेकिंग अस सेंसलेस! यह एक ऐसी विडंबना है जो हर एक बीतते दिन क्रे साथ हम झेलते जा रहे हैं। मंहगाई बढती जा रही है और तदनुरुप हम अपनी आय के अनुसार अपनी आवश्यकताएं लेस करते जा रहे हैं।..इस पोस्ट में प्रतीकों का सहज एवं सफल प्रयोग किया गया है।
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अशोक पांडे जी कबाड़खाने में आर्किटेक्ट के बारे में एक महत्वपूर्ण जानकारी दे रहे हैं। आर्कीटैक्ट शब्द सुनते ही लगता है कि इस आदमी को किसी रईस ने अपने सपनों के घर का नक्शा बनाने को मोटी रकम चुकाई होगी। आमतौर पर हमारे देश में मध्यवर्ग का आदमी आर्कीटैक्ट महोदय की सेवाएं जुटा पाने की हैसियत नहीं रखता क्योंकि जितनी फ़ीस इन साहब को देनी पड़ेगी उस से सारे घर की पुताई हो सकती है या बिजली-पानी की पूरी फ़िटिंग। पर इस देश में विदेश से आया एक ऐसा शख्स जिसके जीवन का मुहिम ही था भारत की ग़रीब जनता एवं आम आदमी को सस्ते घर मुहैया कराना और उन्हें ऐसे सस्ते घर बनाने को प्रेरित करना जो अपने आसपास के परिवेश को कम से कम तबाह करते हुए आसपास ही उपलब्ध संसाधनों की मदद से आसानी से बनाए जा सकें। कौन था यह शख्स और कैसे उसने ये सब संभव किया जानने के लिये यहां पढ़ें!
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अनिल जी एक्सपायरी डेट वाले हो गये इश्क़ लड़ाने के चक्कर में और इतने धक्के खाये कि रिक्शा तक चलाना पड़ा। किसी ज़रूरतमंद को पसंद आ गये तो ठीक वर्ना ऐसे ही लटके रहने वाली नौबत आ चुकी है। यार-दोस्त आ गये हैं इस पचास बट लुक्स थर्टी की मदद को। देखते हैं आगे क्या होता है?! अब जाल में फंसे शेर को देख कर चूहे की मानिन्द खुश ही मत होते रहिये, आगे का और भी लुत्फ़ उठाना है तो पूरा किस्सा पढ़ डालिये और देखिए इनके दोस्तों और सलाह्कारों ने क्या-क्या जुगाड़ भिड़ाए और क्या-क्या नसीहतें दी। तभी तो अनिल भाई शुक्रिया अदा करते हुए कहना नहीं भूले कि तुम जैसा दोस्त हो तो दुश्मनों की क्या ज़रूरत है?!!! अद्भुत परिहास बोध आपकी रचना में एक ताक़त भरता है। वैसे अनिल भाई एक शे’र अर्ज़ है –
खट्टी इमली है या करैला है
एक मेला है या झमेला है
प्यार क्या है वे बतायें कैसे
जिसने ये खेल नहीं खेला है।
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बिहार के बारे में पहले, मतलब बिहार विभाजन के पहले, यानी झारखंड अलग होने के पहले कहा जाता था यहां प्रचुरता में दरिद्रता है। अब तो प्रचुरता भी नहीं रही, सारे खनिज बहुल क्षेत्र झारखंड के पास चले गये, और बिहार में रह गई सिर्फ़ दरिद्रता! उसमें भी आधा से ज़्यादा का भाग साल के छह महीने सूखा से ग्रस्त रहता है तो बाक़ी के छ्ह महीने बाढ में डूबा रहता है। इस दर्द को सुलभ जी सतरंगी बता रहे हैं कुछ इन शब्दों में बहादुर जवानों पर आस है
ठोकरें खाती सांस है
जिंदगी बदहवास है
मंजिल को ढूंढ़ रहा
सफ़र थका उदास है
बाढ़ ने बेघर किया
अब परदेस में वास है
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नारी ब्लॉग पर एक बेहद गंभीर मसले को उठाते हुए रचना जी कह रही हैं हम सब अपने बच्चो को रैगिंग से बचना और उसको झेलना सीखाते हैं लेकिन हमे उनको "रैगिंग " ना करने का दिशा निर्देश भी देना होगा। हमारा ध्यान मात्र अपना ही बच्चा नहीं अपितु समाज का हर बच्चा होना चाहिये क्यूंकी समाज के प्रति हमारी एक नैतिक ज़िम्मेदारी बनती हैं। हम चिट्ठाचर्चा के मंच से हर अभिभावक से अपील करते हैं कि वे इस ज़िम्मेदारी को समझें और अपने बच्चों को रैगिंग न करने को प्रेरित करें।
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रचनाकार के अन्दर धधकती संवेदना को पाठक के पास और पाठक की अनुभूति की गरमी को रचनाकार के पास पहुँचाना आँच का उद्धेश्य है। ब्लॉग मनोज के उद्देश्य के रास्ते आप तक पहुँच रहे हैं। इसी ब्लॉग पर प्रकाशित श्री हरीश प्रकाश गुप्त की लघुकथा 'रो मत मिक्की' को पहले समीक्षा की आंच पर चढ़ाया आचार्य परशुराम राय ने। अब आंच पहुँच चुकी है, श्रीमती मल्लीका द्विवेदी तक। उन्होंने बहुत अच्छी समीक्षा प्रस्तुत की है! बल्कि यह समीक्षा पर समीक्षा है!! वैसे बात दृष्टिकोण की है !!!
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कौन किसी का है दुनिया में. आना-जाना खाली हाथ.इस दरवाजे पर मय्यत है उस दरवाजे पर बारात.सुख-दुःख धूप-छाँव दोनों में साज और सुर मौन न हो-दिल से दिल तक जो जा पाये 'सलिल' वही सच्चे नगमात.
आचार्य संजीव वर्मा “सलिल”जी की लजवाब कुछ और मुक्तक और चौपदे पढिए यहां
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बबली जी के कई ब्लॉग हैं। कविताएं पर वो आज बहुत ही गंभीर विषय पर चिंतन करती बदलता ज़माना शीर्षक बहुत सुंदर कविता में आज के समय की सच्चाई, आम आदमी के आक्रोश, भावनाओं एवं इस स्थिति को बदलने की प्रेरणा सभी को आपने कविता में पिरो दिया है.
जिस देश पर लाखों हुए कुर्बान,नज़र आता है टूटे हुए मंदिर मकान,मासूम लोग देते हैं बलिदान,क्या यही है मेरा भारत महान !आओ सब मिलकर वतन को बचायें,गरीबी और लाचारी को मिटायें,ले आये हर आंगन में खुशियाँ,बदल दे इस नए ज़माने की रीतियाँ !
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निर्मला दीदी कुछ छुब्ध हैं ढ़ोंगी साधू-संतो और उनकी करतूतों से। ग़ज़ल की शैली में कह रही हैं
धर्म कैसी आस्था है जो लड़ाए आदमी को
तू बुरा है और अच्छा मैं बताए आदमी को
आज कल यह आम बात हो गई है धर्म की आड़ में निजी हितों की पूर्ती होने लगी है। धर्म के ठेकेदार लोगों के सुख-चैन लूटने में लगे हैं। इसी भाव को दर्शाती उनकी रचना बहुत सटीक बातें प्रस्तुत करती है।
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कई बार विकसित देश यह दर्शाते हैं कि उनके यहाँ महिलाओं की स्थिति बेहतर है, पर तथ्य तो कुछ और ही कहते हैं। विस्तृत जानकारी पढिए आकांक्षा यादव की पोस्ट चोखेर बाली पर।
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रिश्ते वही सफल होते है जो प्रेम की कसौटी पर खरा उतरे खून के वो रिश्ते जिसमें प्यार नही बस नाम का ही रिश्ता बन कर रह जाता है... कुछ इसी तरह की बकवास कर रहे हैं श्यामल सुमन जी।
शासन के जो भी प्रकार हैं, लोकतंत्र है खास।जनहित की बातों को लेकिन कहते हैं बकवास।पैर के नीचे की जमीन भी खिसकायी जाती है,ऐसी चालाकी भाषण में बढ़ जाती है प्यास।।
इस पर गोदियाल जी का कहना है यह लोकतंत्र ही बकवास है।
एक तरफ हम समानता की बात करते हैं तो दूसरी तरफ इतना भी निर्धारित करना भूल जाते कि एक नेता के लिए क्या क्वालिफिकेशन होनी चाहिए !
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संगीता पुरी जी वैसे तो गत्यात्मक ज्योतिष के विभिन्न पहलुओं पर विस्तृत चर्चा करती हैं पर आज वो सुना रही हैं एक पागल बाबा की कहानी! ये कलियुग के पागल बाबा हैं। यह कहानी उन्होंने तब लिखी थी जब उनका ज्योतिष में पदार्पण नहीं हुआ था। जब संगीता जी कहानी लिख रही हैं तो पुरोहिताई क ज़िक्र तो होगा ही। एक पढा-लिखा विज्ञान का विद्यार्थी बेरोज़गारी की मार झेलता इस पेशे से जुड़ जाता है। वह विधि-विधान को विज्ञान की नज़रों से देखता है। कर्मकांड के अंधविश्वासों से लोगों को जागरूक कर्ने का बीड़ा उठाए घर से निकल पड़्ता है शहर की ओर। जब लोगों कॊ संदेश देता है तो उल्टे लोग उसकी खिल्ली उड़ाते हैं और पागल बाबा कह कर पुकारते हैं। कहानी का अंत बहुत ही रोचक है, अवश्य पढ़ें।
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उच्चारण पर डा. रूपचंद्र शास्त्री मयंक प्रस्तुत कर रहे हैं देवदत्त “प्रसून” का सरस और सुंदर गीत छ्ल की गागर छलकी रे! सच्चाई की रोशनी दिखाती “प्रसून” जी की बात हक़ीक़त बयान करती है।
अरे ततैया सुन्दर लगती, नस में डसे तो आग सुलगती, धोखा नजर न खाये देखो, खबर रखो पल-पल की रे। छल की गागर छलकी रे।।
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मुकेश कुमार तिवारी एक संवेदनशील कविता प्रस्तुत कर रहे हैं। आग के साथ रहते हुए कविता उनकी आत्माभिव्यक्ति लगती है। कहते हैं
आग,जब छटपटा रही थी पत्त्थरों में कैद तब आदमी अपने तलुओं में महसूस करता थाजलन / खुजली और मान लेता था आग को आग होने के लियेजिस दिन,आग ने दहलीज लांघी हवा से आवारापन सीखा उतर आयी आदमी की जिन्दगी में
इस कविता में कवि की यथार्थबोध के साथ कलात्मक जागरूकता भी स्पष्ट है। इस कविता को मस्तिस्क से न पढ़कर बोध के स्तर पर पढ़ना जरूरी है – तभी यह कविता खुलेगी।
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ताऊ के दरवार में कवि हिमांशु जी का काव्य पाठ हो रह है। बाँच रहे हैं
जो लिखा सो कमाल है ताऊ।पर गधों को मलाल है ताऊ ।एक दो पोस्ट पढ़ के जान गये-"ब्लॉगिया बेमिसाल है ताऊ"
काव्य तो गजब का है ही ...क्या खूब लिखा है!!
ऊपर से गदर्भराज प्रोफेसर रामप्यारे जी की क्लास चल रही है सफल ब्लॉगर बनने-बनाने के लिए! आप भी जाइए और एडमीशन करवा लीजिए ताकि आप भी सफल ब्लागर बनने के कुछ नुस्खे सीखकर अपने ब्लागिंग जीवन में कुछ सुधार कर सकें।
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गगन शर्मा जी कुछ अलग सा पर एक कथा के ज़रिए यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि हमें मन को क़ाबू में रखना चाहिए। अगर मन पर काबू नहीं है तो कुछ नहीं हो सकता। एक साधु जो दूसरों को चैलेंज देता था कि मन तो क्या कामदेव को भी वश में कर सकता है। जब परिक्षा की घड़ी आई तो क्या वह पास किया या फेल ... जानने के लिये यहां पढ़ें।
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आज तो ब्लॉग्जगत में एक-से-बढकर-एक कहानी मिल रही है पढने को। भाई श्याम कोरी ’उदय’ भी एक कड़वे सच को कथा के माध्यम से पेश कर रहे हैं। एक सेठ जी को महान बनने का विचार मन में "गुलांटी" मार रहा था वे हर समय चिंता मे रहते थे कि कैसे "महान" बना जाये, इसी चिंता में उनका सोना-जगना , खाना-पीना अस्त-व्यस्त हो गया था। कंजूसी के कारण दान-दया का विचार भी ठीक से नहीं बन पा रहा था बैठे-बैठे उनकी नजर घर के एक हिस्से मे पडे कबाडखाने पर पड गई खबाडखाने के सामने घंटों बैठे रहे और वहीं से उन्हे "महान" बनने का "आईडिया" मिल गया। क्या वो महान बने? खुद ही पढ़ लीजिए।
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योग क्या है ? योग तंत्र से किस प्रकार भिन्न है ? योग और ताओ में क्या फर्क है ? योग और झेन में परस्पर क्या संबंध है ? लाओत्से पतंजलि से किस प्रकार भिन्न हैं ? योग की यात्रा किन लोगों के लिए है ? इन तमाम प्रश्नों का जवाब आपको ओशो की पुस्तक पतंजलि योग सूत्र में मिलेगा । इस विषय पर विस्तृत और महत्वपूर्ण जानकारी दे रहे हैं गूंजअनूगूंज पर मनोज भारती।
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महफ़ूज़ अली इस क़दर टूटे हैं कि रोना चाहते हैं। चौंक गये ना! मैं भी चौंका था शीर्षक देख कर.. उससे भी ज़्यादा सुखद आश्चर्य हुआ उनकी क़लम से निकली कविता पढकर। दर असल ज़िन्दगी में कभी-कभी मन बहुत उदास होता है। कारण ख़ुद को भी नहीं पता होता। हम रोना तो चाहते हैं, लेकिन आंसू नहीं निकलते, मंज़िल सामने तो होती है लेकिन रास्तों का पता नहीं होता. विचारों का द्वंद्व दिल-ओ-दिमाग़ में चलता रहता है लेकिन विचारों में ठहराव नहीं होता। ऐसे क्षणों में रचनाकारों के मन को रहत और सुकुन कविता की पंक्तियों में अत्माभिव्यक्ति देकर ही मिलती है। महफ़ूज़ जी भी इन पंक्तियों के द्वारा अत्माभिव्यक्ति करते प्रतीत हो रहे हैं।
जाने कैसे गढ़ता कुम्हार
मिटटी के लोंदे को
जहाँ सांस भी थिरकती है
चाक पर..
दोहराता ख़ुद को
स्वार्थ खोजते कुछ
करता अपने को सार्थक
अपलक, मृत्यु से पहले
करके पापों का अपहरण
भिड़ता कहीं,
अतीत और आगत से
अपने काम को अंजाम देते हुए
और
निकल पड़ता हूँ किसी अनंत
यात्रा पर....
इन पंक्तियों पर शिखा वार्षणेय जी का कहना है इन पंक्तियों ने रचना को एक अलग ही ऊँचाइयों पर पहुंचा दिया है शब्द नहीं हैं इनकी तारीफ के लिए मेरे पास!!!!
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प्रभात गोपाल झा ने एक प्रश्न रखा है –
क्या ब्लागवाणी या चिट्ठाजगत में हमारी रैंकिंग क्या है, इसी से हम अच्छे या बुरे लिक्खाड़ माने जाएंगे।
उनका कहना है “हमें लगता है कि हम एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास क्यों करें? विचारों का सम्मान होना चाहिए, व्यक्ति का नहीं। व्यक्ति बेहतर विचार से महान होता है।”
वैसे इस विषय पर आपकी राय क्या है?”
रतन सिंह शेखावत जी का कहना है चिट्टाजगत की रेंकिंग में किसी ने अच्छा लिखा या बुरा लिखा इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और न ही ये ब्लॉग पर ट्राफिक के आधार पर रेंकिंग करते है चिट्टाजगत की रेंकिंग महज सक्रियता रेंकिंग है कि हिंदी ब्लॉग जगत में कोई कितना सक्रीय है अच्छे बुरे लेखन की कोई भी सिस्टम रेंकिंग कैसे कर सकता ?जहाँ तक विचारों के सम्मान की बात है - हमेशा अच्छे विचारों का ही सम्मान होता आया है और आगे भी होता रहेगा इतिहास गवाह है कि अच्छे विचारों वाले व्यक्ति ही महानता की श्रेणी को प्राप्त हुए है
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सरकारी बाबुओं के क्रियाकलापों पर कटाक्ष करती रचना प्रस्तुत कर रहे हैं किशोर आजवाणी खामख्वाह पर। सरकारी दफ़्तरों के बाबुजी का जिन्न जब बाहर निकलता है तो कोई न कोई गुल खिलाता ही है। इस मज़ेदार व्यंग्य के लिये किशोर जी निश्चित रूप से बधाई के पत्र हैं।
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स्वागतम ... नए चिट्ठे
आज जो भी नये चिट्ठे जुड़े हैं चिट्ठाजगत के साथ उनका स्वागत कीजिए।
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आज का सबसे ज़्यादा पसंदीदा
चिट्ठा जगत पर दिख रहे सबसे अधिक टिप्पणियों के आधार पर ...
आज दो पोस्टें बराबर की टिप्पणियां पा रही हैं। और वे हैं अदा जी एवं रानी विशाल की पोस्टें।
एक गंभीर समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करती है रानी विशाल की हृदय स्पर्शी कविता आज भी बचपन भूखा नंगा। देश चाहे कितनी भी तऱक़्की कर ले बालगोपाल को मेहनत मज़दूरी कर अपना तथा अपने परिवार का पेट भरने पर विवश देख हमारा सर शर्म से झुकता क्यों नहीं? इस रचना में रानी जी ने न सिर्फ़ शब्दों से बल्कि चित्रों से भी बाल श्रम के विभिन्न पहलुओं की दशा को समेट कर जिस तरह से प्रस्तुत किया है, वह काफ़ी मर्मस्पर्शी है। चित्रों ने शब्‍दों की अभिव्‍यक्ति कई गुना बढ़ा दी है। प्रश्न है कि इस समस्‍या से कैसे हो छुटकारा? कहती हैं
उन्नति का गीत गाते हुए हमखुद प्रश्नचिन्ह बन जाते हैजब कभी ऐसे दृश्यों कोसमक्ष अपने पाते है !!!
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इससे पहले कि आप अदा जी की यह ग़ज़ल नही हैं पढ़ें उन्होने अपने पुत्र मयंक की बनाई कुछ तस्वीरें पोस्ट की हैं और पूछ रही है इन चित्रों को देख कर आप क्या सोचते हैं? मैं तो ये सोचता और कहता हूँ कि इन चित्रों में ईश्वर और प्रकृति के सौंदर्य में छिपे जादुई आकर्षण को समेट कर मयंक आपने जिस तरह से प्रस्तुत किया है, उसके लिए आप बधाई के पात्र है।
और अदा जी की ग़ज़ल हमेशा की तरह बहुत ही अच्छी है!! इस ग़ज़ल पर गिरिजेश जी का कहना है निष्कपट प्रेम का बिकना और कोई खरीददार नहीं होना - प्रभाव चमत्कार के अलावा भी बहुत कुछ है जिसे समझते हुए भी बयाँ नहीं कर पा रहा। दीवार विहीन दौर में बदनाम होना, इतनी शर्म का बचे रहना कि मुँह छिपाने के लिए उस दीवार को ढूँढ़ना जो है ही नहीं ! - तेज़रफ्तारी में फँस चुके 'पुरानी सोच' के आदमी की व्यथा अभिव्यक्त हुई है- बेचारा झोंक में कुछ कर बैठा जो अनुचित था अब पछता रहा है लेकिन निर्मम दौर में रोने को कन्धा कहाँ
महरूमियों की धूप थी सपने ही जल गए 'अदा' तो चल रही है और बीमार भी नहीं
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हमारी पसंद
आज की हमारी पसंद है संगीता स्वरूप जी जी की पोस्ट।
मुझे संगीता स्वरूप जी के ब्लॉग बिखरे मोती विज़िट करना हमेशा सुखद एहसास देता है। बेहद ख़ूबसूरत तस्वीरों से सजी इनकी रचनाएँ मंद-मंद बहती बयार का आनंद देती प्रतीत होती हैं। ब्लॉग क्या है बस बिखरे मोती ही है .. चुनते जाईए। इस बार वो एक लघुकविता शबनम पेश कर रही हैं। इस कविता के एक-एक शब्द मखमली घास पर बिछी शबनम की बूंदों की तरह हैं। और तस्वीर एक आंख और उससे ढलकती बूँद ... मन करता है लपक कर उसे थाम लें ... बहने ना दें...!
समंदर छलका
जो आंखों का
तो,
बह आई एक लहर
मन के साहिल की
तपती रेत पर
पड़ गई हो
जैसे शबनम...!
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चलते-चलते
गोस्वामी तुलसी दास जी की कुछ पंक्तियां
निज कवित केहि लाग न नीका ।
सरस होई अथवा अति फीका ।
जे पर भनिति सुनत हरषाही ।
ते बर पुरूष बहुत जग नाहीं ।
रसीली हो या अत्‍यंत फीकी, अपनी कविता किसे अच्‍छी नहीं लगती ? किन्‍तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम जगत में बहुत नहीं है ।
*** *** ***
भूल-चूक माफ़! नमस्ते! अगले हफ़्ते फिर मिलेंगे।

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24 टिप्‍पणियां:

  1. एक बेहतर विश्लेषण के साथ खूबसूरत चिट्ठा चर्चा। कई चिट्ठों को एकत्रित करकर एक साथ आपने पढ़ने का मौका दिया। आभार।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  2. एक बेहतर विश्लेषण के साथ खूबसूरत चिट्ठा चर्चा। कई चिट्ठों को एकत्रित करकर एक साथ आपने पढ़ने का मौका दिया। आभार।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  3. विस्तृत सुन्दर चर्चा । आभार ।

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  4. शुभकामनाये अच्छी चर्चा के लिए !

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  5. चिट्ठा चर्चा अच्छी लगी.

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  6. चर्चा हमेशा की तरह बढ़िया है....मेरी रचना पसंद करने के लिए विशेष आभार

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  7. बहुत विस्तार से चर्चा किया है आपने.
    धन्यवाद !

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  8. बहुत अच्‍छी चर्चा रही .. मेरी कहानी आपको पसंद आयी .. शुक्रिया !!

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  9. achcha vishleshan badhiya charcha....aapki pasand sangeeta ji ki ye kavita vakai bahut hi achchi hai

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  10. अच्छा लगा,शुभकामनाएं.

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  11. ....सहज व प्रभावशाली ढंग से चर्चा की गई है,बधाई!!!

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  12. बहुत ही सुन्दरता से आपने विस्तारित रूप से चर्चा किया है! मेरी कविता शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद! बहुत बढ़िया लगा चर्चा!

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  13. पता ही नहीं था कि कोई ये काम भी कर रहा है। और मेरे बारे में लिखने के लिए थैंक यू।

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  14. सुन्दर, संतुलित, स्वस्थ्य और समीचीन चर्चा ! यात्रा के ताजगीपन से आलेख जीवंत बन उठा है !! हमारे ब्लॉग पर प्रकाशित 'मत रो मिक्की पर समीक्षा' को भी आपने चर्चा में स्थान दिया, आपका बहुत-बहुत आभार !!!! आपकी चर्चा का प्रवाह आद्योपांत पढने पर मजबूर कर देत है और और चर्चा में शामिल विषय-वस्तु के सम्यक वर्णन से अंत में पढने का श्रम सार्थक जान पड़ता है !!!!! धन्यवाद !!!!!

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  15. रोचक और सटीक चर्चा.

    अभिनंदन.

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  16. अच्छी चर्चा एवं विश्लेश्ण . धन्यवाद

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  17. इस चर्चा में गूंजअनुगूंज को स्थान देने के लिए धन्यवाद । आपकी चर्चा की विशेषता है कि आप बहुत से चिट्ठों को इसमें स्थान देते हैं और विशेषकर नए चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करते हैं ।

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  18. मनोज जी,

    चर्चा का यूँ होना और फिर चर्चा का चर्चा होना, बहुत खूब अंदाज से की है चर्चा आपने।

    मुझे भी शामिल कर मान बढ़ाया..... धन्यवाद!

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

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