बुधवार, मार्च 17, 2010

ओ रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दुस्तां, देखते ये मुल्क सारा ये टशन में थ्रिल में है

 
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प्रेम
मेरे सबसे जिम्मेदार चोले

मुझे नाचना सिखला दे
चाह!
मुझे छुपा सत्य बतला दे
मैंने जो प्रेम बांटे हैं
उसमें कितने कांटे हैं ?
मैंने लिफाफों से कहा है;
खत,
खुलो मेरे पास
जला कर राख करना है तुम्हें
अभी
अपनी विनम्रता की आग में


    कुछ लोग  जब कम लिखते है....तो  मन करता है .....उन्हें मसरूफियत से  खींच कर  बाहर  निकाले .....महेन ऐसे ही है....पूरी कविता ...पढने के लिए ..      भाई…….पर चटका लगाये………..

तुम अगर होते
तो शायद झगड़कर घुन्ना बने बैठे होते
हम एक दूसरे से
लेकिन तुम मर चुके बरसों पहले
और मेरे लिए तुम अब बस एक विषय रह गए हो
क्या कुछ और भी संभव था
जबकि न मैं तुमसे कभी मिला
न देखा तुम्हें?
मुझे तो अट्ठारहवें जन्मदिन पर
उपहार की तरह दी गई
तुम्हारे होने और होकर मरने की ख़बर
उन अट्ठारह-बीस सालों में
किसी ने बात नहीं की तुम्हारी
 


image इतनी परछाईयाँ , किस बात की ?
काले कौव्वे अब कहीं नहीं दिखते । अब छत की मुँडेर नहीं होती । आसमान अब सिर्फ खिड़की के फ्रेम में जड़ा एक चौकोर पेंटिंग है , धूसर , फीका और उदास । काले कौव्वे सब कहाँ गये ? मैं पूछना चाहती हूँ पर मुझे उनकी भाषा नहीं आती । सपने में बूढ़ा कौव्वा कहता है गंभीरता से , एक रात और बीत गई। सुबह मैं डीकोड करती हूँ सपना , भाषा , समय ।




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ओर ऐसा ब्लोगर जो दौड़ता बहुत है ...हिंदी फिल्मो का दीवाना है ...मस्त मस्त पोस्ट लिखता है .उसके पास  कोई गंभीर  भाषा नहीं है ...बस   अंतर्ध्वनि    है ....कैसी है एक झलक देखिये ....
१) मैं हूँ जुर्म से नफ़रत करने वाला, शरीफ़ों के लिये ज्योति और तुम जैसे गुंडो के लिये ज्वाला। नाम है शंकर और हूँ मैं गुंडा नम्बर वन...प्रभुजी फ़िल्म गुंडा में.
२) तुम्हारी ये गोली लोहे के इस शरीर के पार नहीं जा सकती (वीडियो भी देखें): फ़िल्म: लोहा
३) इफ़ यू कैन गिब मी बोट, एंड आई कैन गिब यू...क्लास आन टाईम, एक्जामेनेसन आन टाईम, नीट एंड क्लीन उनिबस्टी (इसको जरूर देखें): फ़िल्म: हासिल
४) आज हमने पहली बार आपको इतने करीब से देखा है, आपको भरपूर पहरेदारी की जरूरत है। फ़िल्म: हासिल
कन्फ्यूजिया गये .....
वहां एक लिंक ओर है .....हिंदी वाले भले ही इलज़ाम दे ....पर हम इसे हिंगलिश की पोस्ट कहेगे .....बांचिये तो ......

For a long time I very clearly remembered how worried a girl can get about “how she looks” on her big day……
Then came my turn on the 6th day of February this year and i realised that my memory had failed me big time....
Before my wedding, I zeroed down on a parlor, based on same good reviews and a aankhon dekhi bride…a friend told..shes good…aunty thora pakati hain, किसी की सुनती नहीं हैं पर ठीक हैं चलो भाई..सही है, इन्ही के पास चले जाते हैं...वैसे भी I always felt, that सारी दुल्हन १ जैसे ही दिखती हैं, red कपडे, same makeup….और शादी में दुल्हन को कौन देखता है....:D -yes, I use to think that…:O…sab khane peene naachne gaane mein mast/ vyast hote hain…..I completely missed the fact, that शादी में कोई और देखे न देखे, शादी की एल्बम जीवन भर साथ रहती है, aur re-create nahi ki jaa sakti...:(
What followed was a sequence of events which would soon result in the images in my Shaadi ki Album...:)

image      आमिखाई की कविताएं
जैसे आप पिछवाड़े बरामदे की बत्ती बुझाना भूल जाएं
ऐसा होता है किसी को भूलना
सो वह जली रहती है अगले दिन भर
लेकिन फिर रौशनी ही आपको
दिलाती है याद

******************************************************************
मेरे पिता ने युद्धों में बिताए चार वर्ष
और अपने शत्रुओं से घृणा नहीं की, प्यार भी नहीं किया
और तब मैं भी जानता हूँ कि किसी तरह वहां भी
वे मेरे निर्माण में लगे हुए थे, अपनी शान्तियों में से
जो इतनी विरल और बिखरी हुई थीं, जिन्हें उन्हों ने
बम-विस्फोटों और धुंए के बावजूद चमके रखा
और अपनी माँ के दिए हुए कड़े होते केक के बीच, उन्हें
अपने झोले में रख लिया
और अपनी आँखों में उन्होंने रख लिया
बेनाम मृतकों को
उन्हों ने सम्हाल लिया उनको, ताकि किसी दिन
उनकी दृष्टि से मैं उन्हें देख सकूँ और प्यार कर सकूँ --ताकि मैं
भय से भर न जाऊं जैसे वे सारे मर गए...
उन्होंने अपनी आँखों को उनसे भर लिया, लेकिन तब भी वह बेकार रहा
अपने सारे युद्धों में न चाहकर भी मुझे जाना ही होगा
~~~~

पल्लवी बहुत दिनों बाद बदले हुए मूड में नज़र आई है………

कौन सी होगी वो आंच जो इस सर्द ख़ामोशी को पिघला देगी....क्या एक शापित की तरह मुझे जन्मों तक इंतज़ार करना होगा! दोनों हथेलियों को आपस में जोर से रगड़ता हूँ....बदले में मुझे एक चीखती हुई हंसी सुनाई देती है! ख़ामोशी हंस रही है मुझ पर!हंसी की आवाज़ तेज़ होती जा रही है....और तेज़! रेलवे स्टेशन की और भागता हूँ मैं बदहवास सा! ट्रेन ने सीटी दी है...मैं पास जाता हूँ उसे सुनने! पर सीटी में भी एक भयानक अट्टहास सुनाई देता है! मैं हार चूका हूँ! घटने के बल बैठकर मौत को बुला रहा हूँ! रोना चाहता हूँ जार जार मगर आंसू बर्फ बन कर आँखों के अन्दर ही कहीं चुभ रहे हैं!

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रास्ते……..
रास्ते अपने आप में मुकाम होते हैं। पीले पड़ते पन्नों में,कुछ जानी पहचानी नज़्म की आधी अधूरी याद में, बहुत चाव से बैठे बतियाये बरामदे के कोने में.....थोड़ी थोड़ी सी पहचान छूट जाती है। अपने हिस्से की पहचान ना जाने कब कहाँ कहाँ गिरकर पनप जाती है। बहुत दूर निकलकर पीछे मुड़कर देखो तो एक जंगल नज़र आता है। पुराने सब पड़ाव कहीं किसी पेड़ के साये के नीचे दबे पड़े मिलते हैं।
रास्ता फिर भी रास्ता ही होता है। एक उम्मीद की तरह बहुत दूर तक ओझल नहीं होता। पीछे छूटे और आगे आने वाले पड़ाव को पाटता एक और पड़ाव। कुछ बहुत आगे निकल जाने का डर और कुछ कहीं ना पहुँच पाने की झुँझलाहट.......कई बार दौड़कर गुजरे पड़ावों की गोद में सिमट जाने को जी चाहता है। छोड़ी पहचान के सुराग का पीछा करना हमेशा मुमकिन नहीं होता...पहचान पनप कर कभी पेड़ तो कभी सूख कर ठूठ बनी दिखती है।


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'अजन्मे किरदार'
गिर चुका है रंगमच का पर्दा
ख़त्म हो चुका है
मेरा और तुम्हारा
"रोल"
शुरू हो गई है 'जिंदगी'
पहने गए हैं पुराने libas
किन्तु मंच पर अब भी जीवित हैं
'अजन्मे किरदार'
जिनकी जुबा पर
स्वाद ही नहीं जीवन का
वह भी बिलख रहें हैं इनकी भूख में
यूँ स्नेह से न देखो इन्हें
त्याग दो इनका मोह तुम
करो इनकी मुक्ति का कुछ योग
कहो अलविदा
दे दो इन्हें "मुक्ति की विदाई"
ताकि फिर जन्म ले सके नया किरदार
सजता रहे यूँ ही रंगमंच
और फैलती रहे जीवन की आभा भी.





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उसने निर्वासन झेला,
विस्थापन की पीड़ा थी
उसकी आँखों में...
उसने अपने शब्दों को
उस चित्र में तलाशने की
कोशिश की...
एक हल्की सी मुस्कराहट
उसके चहरे के
विस्तार को नाप गयी...
-अलीसिया पारटोनी की कविता पर
पेंटिंग बनाने के बाद लिखी...
जुगलबंदी की दूसरी कई कवितायों को यहाँ पढ़ सकते है

image अनूप जी परिचय के मोहताज़ नहीं है .....उनकी इस कविता की कुछ पंक्तिया जैसे" घिस घिस कर पति पत्नी भी सिल बत्ता हो जाते हैं"......कविता में एक नयी भाषा को उकडू बैठाती है 
वह रोती मैं हंसता हूं
मैं उसके हिस्से में सोता
वह मेरे हिस्से में जगती है
बेटी तो बरसों से तेरी चप्पल खोंस ले जाती है
बेटे की कमीज में देख मुझे
ऐ जी क्यों आज नैन मटकाती है.




पहले सबकुछ भला दीखता था
अब सब बुरा लगता है
छोटी घंटी वाला पुराना टेलीफोन
आविष्कार की कुतूहल भरी खुशियां देने को
काफी होता था
एक आराम कुर्सी - कोई भी चीज
इतवार की सुबहों में
मैं जाता था पारसी बाजार
और लौटता था एक दीवार घड़ी के साथ
-या कह लें कि घड़ी के बक्से के साथ -
और मकड़ी के जाले सरीखा
जर्जर सा विक्तोर्ला (फोनोग्राम) लेकर
अपने छोटे से 'रानी के घरौंदे' में
जहां मेरा इंतजार करता था वह छोटा बच्चा
और उसकी वयस्क मां, वहां की
खुशियों के थे वे दिन
या कम से कम रातें बिना तकलीफ की।
श्रीकांत का अनुवाद




image वो बंद लिफ़ाफ़े दिन भर उसे घूरते हैं, चिल्लाते हैं, धमकी देते हैं तुम बेघर हो जाओगी, बिजली और गैस कट जायेगी, तुम्हें कोर्ट में घसीटा जाएगा, सामान कुडकी हो जायेगी, तुम्हारा ए टी एम् कार्ड मशीन निगल जायेगी... तुम्हें मदद चाहिए हम मदद करेंगे ... तुम्हारे सारे क़र्ज़ चुका देंगे...तुम यहाँ साइन कर दो, अपनी हर महीने की कमाई और सुख- चैन हमेशा के लिए हमारे पास गिरवी रख दो... उसे ऐसा लगता है उसके चारों ओर अविश्वास और अनिष्चितायों का मकड़- जाल डंक फैलाए बैठा है.

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हमारे दल की जीत हुई है.. हमारी शपथ पूरी हुई है.. मेरे अन्दर एक जश्न की शुरुआत हो चुकी है.. मुझे नगाडो की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही है... तालियों की गडगडाहट मेरे कानो में गूँज रही है.. आदिवासी कबीलों के स्वर सुन रहा हूँ मैं... कितने ही तरह की आवाज़े...लहरों के तट पर आने की आवाज़.. बादलो के गडगडाने  की आवाज़.. मंदिरों में बजती हुई घंटिया...वाह.!
इंसान से कुत्ता बनने की प्रक्रिया का अंत यहाँ जाकर होगा.. तुम्हारे चरणों में.. ये मैं नहीं जानता था कॉमरेड.. पर मैं इंसानियत को त्याग चुका हूँ.. और कुत्ता बन गया हूँ..
एक कुत्ते के सुनने की क्षमता 40 Hz से 60,000 Hz होती है.... और ये इंसान से लगभग दुगुनी है.... अब इतना तो तुम जानते ही हो कॉमरेड.. भौ भौ..!

इस दौर में जब  जिंदगी की कुछ भौतिक  जरूरते आत्मा पर बेताल की तरह काबिज हो गयी है ...आदमी  के कई विभाज़न  है .कुछ उससे सीधी मुठभेड़ करते है ....कुछ उसके भीतर मौजूद आदमियत को निष्क्रिय करते है ......ऐसे में कविता से कोई उम्मीद करना किसी  जटिल प्रमेय   को दोबारा" हेंस प्रूवड" करने जैसा  है  पर श्रीश की ये कविता सच मायने में एक कन्फेशन सा मालूम होती है .......जिसमे विद्रोह भी है .हताशा  भी .ओर पलायन भी....




पागल का आर्तनाद, मायने नहीं रखता और
सेकेण्ड की सुई को कोई फरक नहीं पड़ता.
नए जूतों ने कदम बाँध दिए हैं,,,सभ्यता की चाल बासी है..पालिश होते रहते हैं चमड़े..!
सांस चलती जाती है..कुहरे में नहीं दिखता ट्रेन को स्टेशन या फिर सिग्नल भी.
रीढ़ टेढी होती जा रही है, पन्नों पे बुकमार्क्स..मुद्दे कभी सुलझते नहीं.
भयानक साजिश ओढ़े सिस्टम मतवाला है, जवान देह ने सरेशाम आग लगा ली है.
इतना कुछ दिखता है...मौला.
दिखाता-सुनाता है इतना कुछ
इतनी गाड़ियां, इतने हार्न..!
चाह...गरम उच्छ्वासें, ट्रैफिक जाम है.
हांफते इंजनों को इतनी जल्दी है कि सिग्नल-मिनट्स बढ़ते जा रहे.
सिक्के चमकदार, चिकने , अंधा पशोपेश में.
गिने-समझे नही जा रहे रुपये.
स्कालर लोग लिख रहे, गन्ना जल रहा.
वैलेंटाइन पे प्रेमिका पूछना चाह रही-उमर भर चीनी खरीद पाओगे..?

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अनुलोम-विलोम, बाबा अब किंगमेकर बनेंगे.
डायबिटीज मर्ज, चर्बी का मर्ज है.
सांस गहरी-गहरी खींचनी होगी.
आँख मीचे रहना होगा..कहीं कोई क्रांति
आग बुझा रही होगी,
कहीं कोई कुत्ता पूंछ हिलाए जा रहा होगा.
मुझे तत्काल कुछ करना होगा.
नींद की दवाई नहीं खानी है मुझे...!!!

कविता भी कभी कभी किसी सार्थक बहस के रास्ते खोल देती है ....कभी कभी दो  विचारधाराओ को एक ही चीज को अलग तरीके से देखने की दृष्टि का विस्तार करती है ....सहमति ओर असहमति के कई आयाम जब अपना बिंदु तलाशते है .....तो कई बार कविता के कई अर्थ निकलकर सामने आते है .....आप भी अपनी  यहाँ राय जाहिर कीजिये ....
तुम्हारी इस पेंटिंग से मुझे संतोष मिला कि
अधर्म का मुंह देखने से
धर्म का पिछवाडा देखना बेहतर है
मेरी आस्था के लिए ये नवजीवन था
मैंने सोचा था कि
एक दिन उस अधर्म को कहूँगी
तुम अंधे कायर हो और डर के बूते
चलना चाहते हो इस खूबसूरत दुनिया को
और सुनों
ये दुनिया दो ही भागों में बंटी है
धर्म और अधर्म के...

image हुसैन  पर लम्बी बहसे होनी बाकी है ....एक बहस प्रियदर्शन जी ने भी छेड़ी है ...सहमति ....असहमति पढ़कर ही चस्पा कीजिये......

अगर समाज इन प्रयोगों से परिचित होता तो वह शायद बहस कर पाता कि ये चित्र अच्छे हैं या नहीं. हुसेन के अपने कृतित्व में सीता, सरस्वती या भारत माता जैसे चित्रों की जगह कितनी है. तब शायद उसे यह भी मालूम होता कि हुसेन ने सिर्फ ऐसे चित्र ही नहीं बनाए हैं; इनसे कई गुना ज्यादा ऐसे देवी-देवताओं को चित्रित किया है जो हमारी परंपरा का सुरुचिपूर्ण और कलात्मक विस्तार करते हैं. उन्होंने ऐसे गणेश बनाए हैं जो लुभाते हैं, ऐसी सरस्वती भी चित्रित की है जो श्रद्धा जगाती है, अपनी मां की तलाश करते-करते हुसेन मदर टेरेसा तक पहुंच गए हैं और नीली कोर वाली उजली साड़ी में उन्होंने करुणा की ऐसी मूरतें बनाई हैं जिनके सामने सिर झुकाने की इच्छा होती है.
यह सब मालूम होता तो समाज अपने कलाकार का ज्यादा सम्मान करता. जिन चित्रों को वह आपत्तिजनक मानता उनके प्रति भी क्षमाशील होता. लेकिन कलाकार और उसका समाज एक-दूसरे से अजनबी हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह सिर्फ एक कलाकार की स्थिति नहीं, हमारे पूरे सांस्कृतिक संसार की नियति है. यह स्थिति किसी मकबूल फिदा हुसेन को कतर जाने के लिए मजबूर करती है. राजनीतिक व्यवस्था बताती है कि हुसेन भारत लौटने के लिए स्वतंत्र हैं और उन्हें यहां पूरी सुरक्षा दी जाएगी. वह व्यवस्था यह नहीं समझती कि मामला किसी खास नागरिक को सुरक्षा मुहैया कराने का नहीं, स्वतंत्रता का एक ऐसा माहौल बनाने का है जिसमें कोई आदमी आजादी से घुम-फिर सके, लिख-पढ़ सके, सोच-विचार सके. जहां उसे यह डर न हो कि उसकी किताबें जलाई जाएंगी, उसकी तस्वीरें नष्ट की जाएंगी, उसकी फिल्मों के प्रदशर्न रोके जाएंगे, उसके रंगमंच के दौरान हंगामा होगा. राज्य या समाज से यह न्यूनतम अपेक्षा है जो कोई लेखक या कलाकार कर सकता है, वरना राज्य के फर्ज कहीं ज्यादा दूर तक जाते हैं; उसे कला और साहित्य को संरक्षण देने की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है.
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मुझे पसंद नहीं
सूरज का डूबना ।
न जाने कौन सी
एक आग
अन्दर हीं अन्दर
जलती रहती है ।
कण- कण
पिघलता जाता हूँ
सुबह तक
कहाँ बच पाता हूँ । 












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लथ-पथ पसीने में डूबा जिस्म, टूटते कंधों और चुभते तलवों के साथ खत्म होता हुआ दिन लेकर आता है चाँद अपने संग और उपजती है ये अटपटी पंक्तियाँ लगभग पंद्रह सौ किलोमीटर दूर बैठी एक बड़े-से शहर की एक छोटी-सी लड़की के लिये। कितना अद्‍भुत टाइम-मशीन है ये सच...! जिन कार्पा डोंगर और राला रासी की चढ़ाईयाँ चढ़ने में कभी पिट्ठु और राइफल लिये कंधे टूट जाते थे, तलवे छिल जाते थे...ये मशीन मुझे एक झटके में वहाँ ले जाता है अब। बस एक पन्ना ही तो पलटना होता है- झेंपा हुआ अटपटा-सा पन्ना :-)

माजिद मजीदी का नाम सुना है आपने ....नहीं तो बहुत कुछ मिस करे बैठे है ....एक नज़र कबाड़ख़ाने के रास्ते डालिए ..इरानियन फिल्मो की बाबत आपकी सोच बदल जायेगी ......


चलते चलते ........एक शेर  बकोल अर्श ......भी...

बात रिश्तो की हो मगर उनमे
जामुनी लडकिया नहीं आती


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पुनश्च : कंप्यूटर खंगालते  एक ओर कविता दिख गयी...इसकी विवेचना ओर अर्थ अपने आप तलाशिये ......
आकाशगंगा तुम्हारी पहुँच से
बहुत दूर है वरना... 
तुम उसे पकड़ कर
अपने नाप के कपड़े  पहना देते...


लेकिन, याद करो-
जब-जब तुमने ऐसी  संगठित ज़िद की
हर देवी ने उधेड़ कर रख दिया तुम्हें
और तुम्हारा ही लिबास बना दिया...

क्या कहा ?
कि कोई कलाकार
मेरे कपड़े उतार ले गया?
कि तूलिका की नाज़ुक नोक
तुम्हारी मोटी खाल में दर्द करती है?
और मैं सुरों की देवी होकर भी
खामोश क्यों हूँ?

मैं जानती हूँ
काम उसका भी चल जाएगा
और तुम्हारा भी...
तुम भीड़ के आदमी हो
और वो बाज़ार का!
फ़र्क इतना है कि वो अकेला है
और तुम्हारे तो बाप का ही राज है
फिर भी...
मुझे तुम दोनों से बचना है
खुद को खुद से रचना है...


और ये बिस्मिल की सरफरोशी की तम्मना का रिडीफाईन्ड वर्जन.. पियूष मिश्र द्वारा उन्ही की आवाज़ में.. फिल्म गुलाल से

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43 टिप्‍पणियां:

  1. कविता से जयादा अच्छा शीर्षक लगा

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  2. कमाल का सेलेक्शन है. इस चर्चा की हर एक पोस्ट पढने का मन है कुछ पहले ही पढ़ी जा चुकी हैं, बाकी कल.

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  3. माशाल्लाह, क्या इत्तेफ़ाक़ है ?
    दो दिन बाद नेट खोलते ही इन नाज़ुक-मिज़ाज़ नज़्मों व चँद तुर्श अशरारों से बावस्ता हूँ ।
    इससे पहले कि इनकी रवानगियों में मैं खुद ही बह जाऊँ, ज़िन्दगी से एक इसरार है.. गो कि इनमें गुज़रे ज़माने की यादें हैं ।

    अपनी मँज़िल का पता दे ज़िन्दगी ऎ ज़िन्दगी
    दूर से ही बस मुस्कुरा दे ज़िन्दगी ऎ ज़िन्दगी

    उलझनों से दूर होकर देख लें फिर कोई ख़्वाब
    एक शब को मुझे सुला दे ज़िन्दगी ऎ ज़िन्दगी

    कोई आहट, या लहज़ा, कोई ख़ुश्बू, या गीत
    कुछ हमें भी आसरा दे ज़िन्दगी ऎ ज़िन्दगी

    है हमारी खुदी से तेरी अज़मत औ तेरी शान
    हम फ़क़ीरों को दुआ दे ज़िन्दगी ऎ ज़िन्दगी

    तुझसे रूठा ही सही यह वाक़िफ़ तो है तुझे
    याद रख चाहे भुला दे ज़िन्दगी ऎ ज़िन्दगी

    ओ मेरे नौज़वान दिलकश दोस्त !
    चर्चा की शक्ल में एक बेहतरीन गुलदस्ता पेश करने का शुक्रिया तू मेरा कुबूल कर !

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  4. तुझसे रूठा ही सही = तुझसे रूठा मैं सही

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  5. बहुत अच्छी लगी यह चर्चा .
    प्रस्तुति भी सुंदर.
    चलते हैं पढ़ने un blogs ko, जो रह गये थे.
    आभार

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  6. आपकी हर चर्चा की तरह संजीदा, खूबसूरत ! अब बचे हुए लिंक्स पढ़ जाँय, इतना ही करना है ! आभार ।

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  8. श्रीश की कविता पढी थी..काफ़ी दिन बाद उसने कुछ लिखा है और पढकर लगा भी कि वो इतने दिन तक चुपचाप क्यू थे..

    इस चर्चा मे से काफ़ी कुछ नही पढा है और काफ़ी लोग तो मेरे लिये नये है..अभी सबको रीडर से जोडता हू और अपने सिमटे हुए दायरे को बढाने की कोशिश करता हू..

    जबरदस्त चर्चा अनुराग भाई...आभार..

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  9. सोलहो आने सच है कि अगर समाज इन प्रयोगों से परिचित होता तो वह शायद बहस कर पाता कि ये चित्र अच्छे हैं या नहीं, ठीक वैसे ही जैसे आप खूब परिचित हैं ब्लॉग की दुनिया से। यही वजह है कि इस चर्चे से हमें समझना चाहिए कि चर्चा में आने के लिए (वैसे तो कुछ बुरा करके भी चर्चा में आया जा सकता है, पर मैं बुरा के संदर्भ में नहीं कह रहा) और चर्चा करने के लिए आपके पास संदर्भ के नब्ज की समझ होनी चाहिए और उसपर पकड़ भी। डॉक्टर साहब, बहुत ही शानदार तरीके से आपने चर्चा की है। एक ही विषय को अलग अलग जगहों पर तलाशा है - यह तलाश सहज दिखती है इस अर्थ में कि आप वाकई अच्छे पाठक भी हैं। वर्ना टूटे-बिखरे लिंक यों न एक साथ दिखते। गंभीर विषयों पर सुरुचिपूर्ण लेखन यूं ही सामने नहीं आ जाता। वाकई गंभीर ऑपरेशन है यह (कृपया मेरी इस टिप्पणी को सर्टिफिकेट देने की कोशिश न समझें, महज प्रतिक्रिया है जो पढ़ने के बाद निकली)

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  10. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  11. मैं कहाँ से शुरू करूँ समझ नहीं आ रहा.

    अभी कई बातों पर यकीन करना होगा आपको डॉ. अनुराग, मसलन : शीर्षक पढकर ही रोंगटे खड़े हो जाना, अगर मैं चर्चा करता तो मैंने भी यही सोच रखा था, प्रियदर्शन जी के आलेख का जिक्र भी होता. आज जो चर्चा हुई है उसके लिए यही शीर्षक सूट भी कर रहा है क्योंकि ये रचनाएँ आपके दिल-ओ- दिमाग में हेजान मचा देंगी... नहीं चाहता कोई कि आपकी शांति में खलल डाली जाये लेकिन क्या हो जब पाश कह गए हों “सबसे खतरनाक है दफ्तर से १० से ५ की ड्यूटी कर घर लौट आना”

    जैसे आप पिछवाड़े बरामदे की बत्ती बुझाना भूल जाएं
    ऐसा होता है किसी को भूलना
    सो वह जली रहती है अगले दिन भर
    लेकिन फिर रौशनी ही आपको
    दिलाती है याद

    ... ऐसे बिम्ब विश्व कविताओं में ही मिलता है.

    कभी कभी मैं सोचता हूँ चर्चा करना बड़ी मुश्किल का काम है लेकिन दिल करता है जो सबकी नज़र से बच रहा है जो सबके सामने आये. उसे भी अन्य लोग पढ़ें
    “अजन्मे किरदार” का जादू गज़ब का है. शिरीष पाठक प्रखर की कविता भरी गर्मीं में अब भी सिहरा रही है. वैलेंटाइन पे प्रेमिका पूछना चाह रही-उमर भर चीनी खरीद पाओगे..?

    भोगता हुआ आदमी क्या लिख सकता है, और ऐसे में यह चीजें हमें प्रभावित जरूर करेंगी.


    ब्लॉग करवटें ले रहा है. बढ़िया अभ्विव्यक्ति और बधाई स्वीकारें जैसे शब्द गायब हो रहे हैं, कमेंट्स घट रहे हैं,
    किशोर चौधरी की शब्दों में “बारिश में खरपतवार उगने की सम्भावना ज्यादा हो जाती है” कुछ जवानों ने यहाँ आकर अपनी टांग अड़ा दी है. यह बागी हैं, आलोचना से नहीं घबराते, प्रयोग करते हैं ... हमें खुराक देते हैं.

    शुक्रिया डॉ. साहिब.

    अशोक कुमार पांडे ने सार्थक पहल की है कई ब्लोग्स एक साथ सक्रिय है, युवा दखल से लेकर जनता का पक्ष तक... शुभकामनाएं.

    यही कारण है कि अब २ दिन भी ब्लॉग से दूर रहो तो लगता है पता नहीं क्या कुछ मिस कर दिया होगा ....

    ऐसे में इम्तेहान सर पर हो तो...

    ओ रे बिस्मिल काश !!!!!!

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  12. अनुराग जी, कविता के लिये आपके अनुराग और विचार के स्तर पर आपकी परिपक्वता से मैं ख़ूब वाकिफ़ हूं…यह चर्चा उसी अजस्र स्रोत से पैदा हुई एक महत्वपूर्ण चर्चा है। प्रियदर्शन ने जिस साफ़गोई से हुसैन के बहाने समाज के पूरे सम्स्कृति विमर्श को खंगाला है वह शानदार और विचारणीय है। शलाका के मसले पर मै पहले ही उन्हें बधाई दे चुका हूं।

    जिन्हें दुनिया धर्म-अधर्म के दो खेमों में बंटी दिखती है उन्हें इसके परे देखने की ज़रूरत महसूस नहीं होती। गांधी को भी नहीं होती थी…तभी तो हिन्द स्वराज में लिखा कि 'मैं धर्म के नाम पर होने वाली हत्याओं को दूसरी हत्याओं से बेहतर समझता हूं…यहां एक बार आदमी ख़त्म हो गया तो मामला ख़त्म हो जाता है'…विवेकानंद को यह ज़रूरत लगती थी तो उन्होंने कहा कि…'जहां लाखों लोग भूखे और नंगे हैं वहां धर्म की बात ही अश्लीलता है।'देखिये न आपका कवि भी तो लिख ही रहा है -''स्कालर लोग लिख रहे, गन्ना जल रहा.
    वैलेंटाइन पे प्रेमिका पूछना चाह रही-उमर भर चीनी खरीद पाओगे..।''

    वैसे जिस तरह ब्लाग पर कविताओं की बाढ़ है वह आश्वस्त भी करती है और चिंतित भी। एक तरफ़ सागर जैसा अनगढ़ कवि है जो कई बार पागल कर देता है, अशोक पान्डे और शिरीष जैसे लोग जो दुनिया भर से क्या-क्या खंगाल कर लाते हैं, बोधि जैसे जो परंपरा से पता नहीं कितने हीरे ढूंढ रहे हैं और शरद कोकास जैसे तमाम धुरंधर तो दूसरी तरफ़ तमाम ऐसे लोग जो अभी कविता लिखना सीख रहे हैं या फिर बिल्कुल अलग मुहावरे गढ़ रहे हैं…ये सब उम्मीद जगाने वाली चीज़ें हैं…लेकिन आह-वाह वाली प्रतिक्रियायें परेशान करती हैं जहां सब नामवर सिंह की तरह सर्टिफिकेट बांटने में लगे हैं। कोई किसी को कुछ भी बना सकता है…यह पहले से ही आत्ममोही कविता संसार को और भ्रष्ट करेगा ( वैसे आत्ममोह पर एक स्वीकारोक्ति कि मैं बड़ी शिद्दत से अपनी कविता भी यहां ढूंढ़ ही रहा था :))

    कविता है तो विचार होगा ही। आज जब वामपंथ के बुरे दिन हैं तो वाम को गरियाना, उस पर 'भौंकना' सबसे प्रबल विचार है और इस विचारसरणी का एक सिरा नागपुर जाता है तो दूसरा बहुराष्ट्रीय कंपनियों तक…रहीम बहुत याद आते हैं…रहिमन विपदा हूं भली…

    चर्चा की प्रतिचर्चा जैसी तो नहीं हो गयी? ख़ैर जो भी हो आपको और सभी चर्चित बंधु-बांधवियों को शुभकामनायें

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  13. श्री अशोक पाँडेय जी की चिन्ता ज़ायज़ है,
    एक विधा के रूप में मुझे कविता से कोई बैर नहीं, पर..
    कुछ पकड़ कर कुछ भी रच देना, मुझे भी समाज के प्रति उत्तरदायित्व से विसर्जन होना मात्र लगता रहा है ..
    कुछेक जो चल निकले.. वह इसे नित्यकर्म के एक बुद्धिजीवी निवृत्ति आगे न ले जाके ।
    रहा होगा पहला कवि वियोगी.. तब बेचारे ने यह न सोचा होगा कि कभी आह से भी वाह-वाह उपजाया जा सकता है ।
    यदि यह प्रतिचर्चा आगे बढ़े ( जिसकी की उम्मीद कम ही है ) तो मैं इसमें कुछ और भी जोड़ूँ ।

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  14. श्री अशोक पाँडेय जी की चिन्ता ज़ायज़ है,
    एक विधा के रूप में मुझे कविता से कोई बैर नहीं, पर..
    कुछ पकड़ कर कुछ भी रच देना, मुझे भी समाज के प्रति उत्तरदायित्व से विसर्जन होना मात्र लगता रहा है .. कुछेक जो चल निकले.. वह इसे नित्यकर्म के एक बुद्धिजीवी निवृत्ति आगे न ले जाके ।
    रहा होगा पहला कवि वियोगी.. तब बेचारे ने यह न सोचा होगा कि कभी आह से भी वाह-वाह उपजाया जा सकता है ।
    यदि यह प्रतिचर्चा आगे बढ़े ( जिसकी की उम्मीद कम ही है ) तो मैं इसमें कुछ और भी जोड़ूँ ।

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  15. हां एक आख़िरी बात…सरफ़रोशी जैसे गीत का यह कैरीकेचर और इतनी घटिया धुन मुझे नहीं भाई…यह मेरा पूर्वाग्रह हो सकता है।

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  16. @ Ashok Sir,

    पूर्वाग्रह ही है सर, यह विरोधी भक्ति है :)

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  17. अशोक जी .शायद पूर्वाग्रह ही है . सागर ने ठीक शब्द का इस्तेमाल किया है .विरोधी भक्ति..... पियूष यहाँ सभ्य नहीं होना चाहते थे ...वे समाज के एक हिस्से का वर्ज़न दिखा रहे है ....चूंकि सबका अपने हिस्से का सच है..... प्रसून का स्टाइल अलग था ...गर आपको याद हो रंग दे बसंती में ....पियूष थोड़े अश्लील है .थोड़े बेधड़क .थोड़े तल्ख़ भी ......मसलन साहिर को देखिये उन्होंने कैसे श्रदांजली दी है ......


    ओ री दुनिया
    सुरमई आँखों के प्यालों की दुनिया
    सतरंगी रंगों गुलालों की दुनिया ..ओ दुनिया
    अलसाई सेजों के फूलों की दुनिया
    अंगडाई तोड़े कबूतर की दुनिया
    करवट ले सोयी हकीक़त की दुनिया
    दीवानी होती तबीयत की दुनिया
    ख्वाहिश में लिपटी ज़रुरत की दुनिया
    इंसान के सपनो की नीयत की दुनिया ..ओ दुनिया
    ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है …
    ममता की बिखरी कहानी की दुनिया
    बहनों की सिसकी जवानी की दुनिया
    आदम के हव्वा से रिश्ते की दुनिया
    शायर के फीके लफ़्ज़ों की दुनिया

    ग़ालिब के मोमिन के ख़्वाबों की दुनिया
    मजाजों के उन इन्कलाबो की दुनिया
    फैज़ फ़िराक और साहिर और मखदूम
    मीर की जोक की दाग़ की दुनिया

    पल छिन में बातें चली जाती हैं हैं
    पल छिन में रातें चली जाती हैं हैं
    रह जाता है जो सवेरा वो ढूंढे
    जलते मकान में बसेरा वो ढूंढे
    जैसी बची है वैसी की वैसी बचा लो ये दुनिया
    अपना समझके अपनों के जैसी उठालो ये दुनिया

    छुट पुट सी बातों में जलने लगेगी संभालो ये दुनिया …
    कट पिट के रातों में पलने लगेगी संभालो ये दुनिया .

    वो कहें हैं ki दुनिया ये इतनी नहीं है
    सितारों से आगे जहां और भी हैं
    ये हम ही नहीं हैं वहाँ और भी हैं
    हमारी हर एक बात होती वहीँ है

    हमें ऐतराज़ नहीं है कहीं भी
    वो आलिम हैं फ़ाज़िल हैं होंगे सही ही
    मगर फलसफा ये बिगड़ जाता है
    जो वो कहते हैं

    आलिम ये कहता वहाँ इश्वर है
    फ़ाज़िल ये कहता वहाँ अल्लाह है

    तुम्हारी है तुम ही सम्भालों ये दुनिया
    ये बुझते हुए चंद बासी चरागहों की
    तुम्हारे ये काले इरादों की दुनिया …

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  18. अनुराग जी…मैने पूर्वाग्रह की स्वीकारोक्ति ख़ुद की थी। लेकिन उसका सम्दर्भ दूसरा था। एक गीत जनता के मन में किसी और रूप में बैठा है। आज भी गोरखपुर में जहां बिस्मिल को फांसी दी गयी थी वहां हर साल सैकड़ों लोग जाने कहां-कहां से आ जाते हैं…वह गीत अपनी पूरी शान के साथ उसके ओजस्वी धुन में गाया जाता है…रोंगटे खड़े हो जाते हैं…आंसू निकल आते हैं…मै ख़ुद वर्षों इस मंज़र का गवाह रहा हूं। उस गीत को ऐसे पैरोडी से एक सटायर पर रिड्यूस कर देना किसी को शाक्ड तो कर सकता है पर कुछ करने की प्रेरणा नहीं दे सकता। एक अजीब सी इतिहास दृष्टि से यह तर्क निकला है कि उस वक़्त सब बड़े देशभक्त थे और अब सब भ्रष्ट हो गये हैं। यह एक पलायनवादी तर्क है। सच यह है कि तब भी लोगों का केवल एक छोटा सा हिस्सा ही आज़ादी और बेहतरी में लगा था और अब भी वह हिस्सा उस ज़द्दोज़ेहद में लगा है। उसे पीयूष नहीं देख सकते। वह नहीं जानते कि ऐसा सिम्प्लिफिकेशन और जेनेरलाईजेशन करके कैसे वह इस लड़ाई में लगे लोगों को बिल्कुल नेग्लेक्ट कर पूंजीवाद के गढ़े सच को स्थापित कर रहे हैं, सांस्कृतिक प्रतीकों को सटायर बना देना सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का हिस्सा है। यह विरोधी भक्ति नहीं अपनी परंपरा के जीवित, गतिशील और प्रेरणादायक हिस्से को बचाये रखने और बदलाव के जंग के हिस्सेदार होने की ज़िद और पूर्वाग्रह है भाई…आप इसे आउटडेटेड कह सकते हैं।

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  19. charcha shandar hai
    aur gulal film to bahut hi shandar hai

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  20. अपने कुछ प्रिय और इस समय में बेहद महत्वपूर्ण काम कर रहे रचनाकारों द्वारा रचा महत्वपूर्ण काव्य यहाँ है..बल्कि आपने इन्हें यहाँ टॉप शेल्फ में रखा है उसके लिए आभार.

    बस अभी सिर्फ देख भर पाया हूँ.कुछ को ज़रूर अपने अपने ठिकानों पर खूब पढ़ पाया हूँ.एक यात्रा के लिए बस कुछ ही देर में रवाना हो रहा हूँ.इसे पृष्ठांकित करना नहीं भूलूँगा.

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  21. बेहतरीन चर्चा..काफी सारे अच्छे लिंक्स मिले...और सबसे कमाल यह -आकाशगंगा तुम्हारी पहुँच से
    बहुत दूर है वरना.
    शुक्रिया अनुराग जी

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  22. हमेशा की तरह परिपक्व चर्चा.

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  23. पियूष मिश्रा का सरफरोशी की तम्मना.. मुझे बहुत कुछ देता है..
    दरअसल सांस्कृतिक प्रतीक होने की वजह से ही हम यहाँ इस पर बात कर रहे है.. बिस्मिल से पियूष मुखातिब है और कहते कि जिस देश की कल्पना लिए तुम शहीद हो गए वहां अब क्या हो रहा हाँ.. पूंजीवाद पे सटायर का पूर्ण समावेश है.. निसंदेह हमारी भावनाए बिस्मिल के सरफरोशी से जुडी है.. पर ये आहत नहीं होती.. ठीक उसी तरह जैसे रण फिल्म के गीत में राष्ट्रगान के शब्द लिए गए थे.. ये दरअसल श्रद्धांजली का ही एक रूप होता है.. इन्हें लिखने के पीछे भावनाए बहुत साफ़ होती है.. पर हाँ किसी भी विचार के लिए सबकी अपनी सहमतिया और असहमतिया होनी ज़रूरी है.. एक अच्छा विपक्ष सिस्टम का महत्वपूर्ण खम्बा है..

    खैर अनुराग जी की चर्चा हमेशा की तरह बढ़िया लिंक्स समेटे हुए है.. चर्चा देखकर लगता है ये छूट जाता तो पता नहीं क्या होता.. सागर की कविता से बढ़िया मुझे सोचालय पर उनकी ये पोस्ट लगी.. नेट पर इस तरह की दार्शनिकता बहुत कम मिलती है.. आकाश गंगा के लिए तो मेरे पास शब्द ही नहीं है.. कभी कभी कुछ रचनाये संकरी गलियों से निकल कर ठीक हमारे सामने इस कदर खडी हो जाते है कि हम खुद को उनके सामने बौने.. बहुत बौने पाते है..

    जो लिंक्स नहीं पढ़ पाया हूँ.. उन्हें सहेज रहा हूँ.. पहली फुर्सत अब उन्ही की है..

    अंत में कहना चाहूँगा.. ऐसी चर्चाये गर्मी की दोपहर में बौछारों सी ठंडक देती है.. पर मुझे इंतज़ार है जब कही कोई बारिश हो कही.. सागर की बात से सहमत.. बधाई और सुन्दर अभिव्यक्ति का सिस्टम जो चलाया गया था.. अब वो छंटता जा रहा है.. लोग सीरयसली ले रहे है ब्लॉग्गिंग को.. ये नया उदय है..

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  24. एक बेमिसाल चर्चा। आजकल ब्लौगिंग में कम समय दे पाता हूँ। आपकी पारखी निगाहों को सलाम...कहां-कहां से ढ़ूंढ़ लाते हो हीरे आप भी डा० साब। चर्चा जितनी बेहतरीन की है, कुछ सार्थक बहस भी उठी है इसी बहाने जो ब्लौगिंग के नाम एक नया आयाम देती है।

    कविताओं की बाढ़ जो आश्वस्ति और चिंता दे रही हैं अशोक भाई को, कमोबेश यही स्थित कविता के हर गंभीर पाठक की है। लेकिन काश कि महज चिंता व्यक्त करने सी कुछ हो जाता तो कितना बेहतर होता। ब्लौग में एक कविता पे ब्लौग-परिपाटी और रस्मो-रिवाजानुसार अगर बीस औपचारिक वाह-वाही मिलती है तो दो जेन्युइन प्रतिक्रियायें भी मिलती और मेरी समझ से हर सच्चा लिखने वाला उसी दो जेन्युइन प्रतिक्रिया के लिये लिखता है। जो भी ब्लौग पे हैं वो तो ये "स्वांतः सुखाय" वाला लेखन है नहीं ,यदि ऐसा हो तो वो स्वांतः सुखाय वाला लेखक टिप्पणी-विकल्प ही नहीं रखेगा। अशोक भाई मेरे सबसे प्रिय कवि हैं इस ब्लौग-जगत के, उनकी चिंता जहाँ प्रसन्न करती है वहीं कविताओं पे उनकी
    बेबाक टिप्पणीयों का अभाव उनके कथन में विरोधाभास भी दिखाता है। अब हम चाहे श्रीश की कविता को लें या फिर नंदिनी की ही, दोनों ही अपने अलग-अलग फार्मेट में अपने-अपने पाठकों को झिझोरते हैं, वहीं विस्तृ हिंदी-साहित्य अनजान है इन अद्‍भुत कविताओं से...

    "पाखी" का नया अंक नीलाभ जी की एक अद्‍भुत कविता लेकर आया है जो इन तमाम नये कवियों को हौसलों की नयी बुलंदी देता है तो क्रूर आलोचकों को तमाचा। इस टिप्पणी का समापन उसी कविता से करता हूँ:-

    नये कवि की कविता

    अभी समय लगेगा
    इसका स्वाद पहचानने में
    अभी तो आलाप है पहला-पहला
    आने को है सातों सुरों में
    रचा गया राग

    अभी समय लगेगा
    असली आनंद पाने में

    धैर्य से सुनें आप

    कवि का नहीं, कविता का नहीं
    प्रयत्न का करें सम्मान
    श्रीमान !

    जवाब देंहटाएं
  25. चर्चा है या मोती पिरोए हैं! मन प्रसन्न हो गया। आभार।
    घुघूती बासूती

    जवाब देंहटाएं
  26. गौतम जी…दिल कचोट के रह जाता है कसम से…पर इस बेबाकी के चलते इतना अपमान झेल चुका हूं कि हिम्मत नहीं होती। अब सागर,शरद कोकास, गीत,बहादुर पटेल जैसे लोगों में आलोचना झेलने की हिम्मत है तो उसको मेल या कमेंट दोनो पर ही साफ़-साफ़ बता देता हूं…दूसरों के केस में आलम यह है कि लोग बिल्कुल भड़क उठते हैं…व्यक्तिगत गाली-गलौज़ पर उतर आते हैं…औकात बताने लगते हैं…तो आप बताईये ऐसे में कोई क्या करे?

    जवाब देंहटाएं
  27. सच डा० साहिब पारखी नज़र रखते हो ये तो पहले से ही जानता था मगर ये क्या के इस बारी भी आपको मेरी ग़ज़ल का आखिरी शे'र ही पसंद आया ... चिठ्ठा में शामिल करने के लिए शुक्रिया ...
    वेसे तो मैं कम ही रहा हूँ मगर कविताओं पर और उसके लेखन पर जो कौतुहल हिया सच कहूँ तो सोचनिया तो है ही मगर सुधार का श्रोत क्या हो हमें इसकी नितांत आवश्यक है ...
    मीटर का मैं बहुत बड़ा समर्थक हूँ , मगर चलने से पहले थोड़ी देर
    लडखडा कर चलने दो वो खुद दौड़ना सिख जायेगा ट्रैक पर ...

    आखिर में एक शे'र और

    उंगलियाँ इसलिए खुबसूरत हुई
    प्यार का नाम लिखते मिटाते रहे ..

    अर्श

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  28. पहली बात तो ये है कि डा.साहब के दिये लिंक बड़े शानदार हैं। इतनी सारी पोस्टों जो कि बेहतरीन हैं पढ़ने से रह गयीं थीं। खासकर प्रियदर्शन की पोस्ट जो उन्होंने एम.एफ़.हुसैन के बारे में लिखी। आज तक की हुसैन जी के बारे में लिखी पोस्टों में से मेरे मन के सबसे करीब वह पोस्ट है। बाकी पोस्टें अभी तसल्ली से बांच रहे हैं। टिप्पणियां भी सरसरी तौर पर पढ़ीं उनको भी अभी फ़िर से तसल्ली से बांचना है।

    सुबह घोस्ट बस्टर को आज की चर्चा से कुछ शिकायत थी। उसी के अनुरूप उन्होंने टिप्पणी की थी लेकिन फ़िर मिटा दी। ऐसा भी क्या आपत्तिजनक लिखा था उन्होंने। उन्होंने लिखा था:
    Disappointing.

    A "cluster of links" and "clouds of quotations". Where is the "Charcha"?

    I felt to be at some clone chittha charcha blog, available aplenty in the market today. :-(

    Sheer wastage of space and opportunity.
    डिसप्वाईंटिंग तो खैर बिल्कुल नहीं बल्कि चर्चा के बहाने इत्ती शानदार पोस्टें डा.साहब हमको पढ़वाने के लिये एक जगह रख दिये वर्ना हम तो कई छोड़ ही जाते।

    हां यह बात है कि डा.साहब से अनुरोध है कि वे थोड़ा और तसल्ली से पोस्टों के बारे में अपनी राय जाहिर करते हुये अपने अंदाज में पेश किया करें ताकि और धांसू चर्चा हो।

    घोस्ट बस्टर से अनुरोध है कि वे अपनी तारीफ़ी टिप्पणियां भले मिटा दिया करें लेकिन आलोचनात्मक टिप्पणियां बनी रहने दिया करें। इससे हमको दिशा मिलती है।

    डा.अनुराग की चर्चा के लिये खास तौर से शुक्रिया। बेहतरीन लिंक प्रदान करने के लिये।

    जवाब देंहटाएं
  29. अच्छी चर्चा डाक्साब्।

    जवाब देंहटाएं
  30. बहुधा बहुत सी चीजे आपको परेशां करती है .... भाषा में विद्दता का आंतक इतना भी न हो जाये की कथ्य कही छूट जाये ...इतने भी स्पष्ट न हो जायो के सपाट हो जायो...जो पढ़ा उसे बहुतो से बांटने की जिम्मेदारी सूत्रधार को निभानी है ...इस तरह से के उसके डाइलोग लम्बे न हो जाये ....सिर्फ सीन से पहले आकर कुछ जगहों पर टोर्च फेंकनी है .......सो कोशिश सिर्फ टोर्च फेंकने की होती है.......बहुत पहले ये सोचा था किसी एक विषय पर या सिर्फ किसी एक लेखक को लेकर चर्चाया जा सकता है ....उससे चर्चा का मूल उद्देश्य पूरा होगा .....शायद आगे इस दिशा में काम हो सके ......प्रशन वाजिब है अपनी सीमा में जितना बेहतर का कर सके ऐसा . करने का प्रयास रहेगा.....
    @अशोक जी ...आपने कई महत्वपूर्ण प्रशन उठाये है .....
    दो बाते है .दोनों कंट्रास्ट है ....पर दोनों ही सच है . एक आपकी ये बात .......... के टिप्पणी में आलोचना हमें पच नहीं पाती ..सहमत हूँ.......
    पर दूसरी ये भी की कभी कभी हम असाधारण लोगो की साधारण चीजो को भी असाधारण बना देते है ....जाहिर है बड़ा लेखक भी कभी साधारण लिख सकता है ...यानि जाने अनजाने हम भी किसी बड़े लेखक के प्रति पूर्वाग्रह पाल लेते है ....हम उसे देखते है उसकी रचना को नहीं.....
    फिर भी मेरा मानना है के ब्लॉग जगत में ढेरो गंभीर पढने वाले है .......उनकी खातिर अपनी ईमानदार प्रतिक्रिया देना जारी रखिये ..यकीन मानिये .ईमानदार प्रतिक्रियाये बहुत बड़ा बूस्टर है .....

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  31. भयंकर चर्चा और खतरनाक प्रतिचर्चा!!
    मुझे हर बार लगता है कि काम के लिन्क और ब्लॉग चुग लिये हर बार और फिर आप कुछ ऐसा ले आते हैं कि दोबारा से स्कैनिंग प्रक्रिया शुरू करनी होती है..खासकर नई बात और अनूप जी को पहली बार पाया..औ्रर सारे लिंक सहेजने मे वक्त भी लगेगा अब तो..हालाँकि सच कहूँ तो इस बार आपकी सिग्नेचर डॉक-टॉक की कमी कहीं-कहीं पर खटकी..सो पोस्ट कुछ ’अल्ट्रा-माइल्ड’ सी हो गयी.
    ..पीयूष हालांकि गुलाल मे काफ़ी कुछ ऐसा रच गये हैं कि यह बंदा अगर बाकी जिंदगी मे कुछ न भी लिखे तो असर कम नही होगा..और खास कर यह लाइनें मुझे भी काफ़ी हांट करती हैं..अशोक जी की बात का सम्मान करता हूँ मगर मुझे लगता है कि अक्सर तमाम साहित्य उन आइनों की तरह होता है जिनमे बदलते हुए वक्त की शक्ल नजर आती है..और अक्स की ऐसी विद्रूपता आइने का कसूर नही वरन्‌ खासियत होती है जो समाज की बदसूरती को बिना लाग-लपेट के दिखाने की हिम्मत रखता है..और अभिव्यक्ति के तरीके अक्सर बदलते रहते हैं मगर जमाने को समझाने की कोशिश जारी रहती है...

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  32. * आज की इस पोस्ट के बहाने या यों कहूँ कि इसके ( ही) कारण कई महत्वपूर्ण पोस्ट्स को देख सका नहीं तो वे मेरे लिए देखी/अनचीन्ही ही रह जातीं। इसलिए सबसे पहले तो 'चिठ्ठा चर्चा'और विशेष रूप से डा० अनुराग जी के प्रति आभार !

    *हिन्दी में ब्लाग्स बहुत हैं .बहुत ही महत्वपूर पोस्ट्स ममय की कमी व जानकारी न होने के कारण छूट जाती हैं। ज्यादा और जरूरी पढ़ जाने लोभ में अक्सर टिप्पणी दे पाना भी नहीं हो पाता है और रस्म अदायगी वली 'आह' , 'वाह' 'अहो' ,'हहो'टाइप की टिप्पणियाँ देते बनता नहीं है फिर भी काफ़ी कुछ पढने और गुनने की कोशिश अवश्य रहती है। आज यह चर्चा बहुत ही जरूरी है यह देख भला, सचमुच भला लग रहा है कि मित्र लोग गंभीरता से चर्चा - प्रतिचर्चा कर कर रहे हैं। यह क्रम बना रहे और दुआ रहे कि मुझे कुछ अधिक अवकाश मिले ताकि मैं इसमें अपनी बत रख सकूँ/शेयर कर सकूँ।

    *मेरी समझ से कविताओं पर बात करते हुए हम (हिन्दी के) लोग संभवत: इस बात के आदी - से हो गए हैं कि हर कविता में कोई केन्द्रीय तत्व या उसका नाभिक खोज कर या तो उसे सहलायें या फिर वहीं चोट कर उसे खंडित - विखंडित करने का उपक्रम करें।इधर एकचीज और देखने को मिल रही है कविता से तात्कालिकता और तात्कालिक संदर्भों की अपेक्षा बलवती हुई है। खासकर हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में तो तो त्वरितता या तात्कालिकता का दबाव भी / ही एक ऐसा कारण है कि बेहद महत्वपूर्ण और हमारे समय का सांस्कृतिक दस्तावेज बनने की क्षमता रखने वाली कवितायें अगले दिन आर्काइव का हिस्सा बन जाती हैं और ओझल हो जाती हैं। मुझे लगता है कि जो लोग भी ( यह संख्या कम नहीं है मेरे अनुमान से ) अच्छी कविता के मुरीद हैं उन्हें ऐसी रचनाओं को सामने लाने व शेयर करने के काम में हस्तक्षेप करना चाहिए। डा० अनुराग आप सुन रहे हैं न? पहले भी कई बार देख चुका हूँ कि आपकी 'चर्चा' के कारण ही बेहद जरूरी कविताओं तक मेरी पहुँच हो पाई है। ऊपर कह चुका हूँ कि यह पोस्ट न देख पाया होता तो निश्चित रूप से बहुत - सा उम्दा छूट गया होता।

    * इस 'चर्चा' की प्रतिचर्चा करने का मन कर रहा है क्यों कि जितनी जरूई इसमें पोस्ट्स / लिंक्स हैं उतनी ही जरूरी टिप्पणीयाँ दीख रही हैं जो हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया के बनने के प्रति आशव्स्त करती जान पड़ती हैं कि अगर (कुछ) अच्छा लिख जा रहा है तो (बहुत)कुछ अच्छा पढ़ा भी जा रहा है व यह भी कि ( अच्छा )पढ़ने वाले कम नहीं हैं, बस शेयरिंग और केयरिंग का क्रम बने / उसमें जड़ता न आए और आँखें आलोचना की इबारत देखने - पढ़ने के लिए भी खुली रहें।

    * आज की इस चर्चा में कई महत्वपूर्ण पोस्ट्स हैं। उनपर की गईं टिप्पणियाँ भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। मैं एक - एक कर इन लिंक्स हो आया हूँ किन्तु तात्कालिक रूप से टिप्पणी न सका । इन सबको एक बार और पढ़कर वहीं कुछ कहना पसंद करूँगा। इसे मेरा आलस्य या बचाव की मुद्रा न समझी जाय क्योंकि मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि मैं अपने जरूरी समय व श्रम का एक बड़ा हिस्सा खपाकर अखबार नहीं बाँच रहा हूँ अपितु हिन्दी ब्लाग नामक एक गंभीर सास्कृतिक - साहित्यिक कर्म की इबारतों से रू - ब- रू हूँ इस वक्त।

    * बाकी सब ठीक। सभी दोस्तों को नमस्ते और डा० अनुराग आपके प्रति आभार इस मौके को उपलब्ध करवाने के लिए।

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  33. बिगाड़ दिया है डा. अनुराग जी जैसे लोगों ने मुझे....!

    मै कितना सोचता हूँ, भाग जाऊं शब्दों की चैन भरी आभासी आहों से पर इतने खूबसूरत लफ्जों की बालियाँ पछोर-पछोर के ले आते हैं जनाब कि मै उन्हें कुतरता-बुनता-चुनता रहता हूँ.

    क्या कहेंगे आप "सागर साहब" को जो साहब स्नेह से बहुरुपिया बना देने की दरख्वास्त कर रहे हैं...! स्नेह की शीतलता खो नहीं जायेगी नए-नए चेहरे बुनने में..? बोलो..? अब किस पे भरोसा करूं जब अथाह गहरा,शांत सागर स्वयं कहे अपने सबसे विश्वस्त लिबास से कि उसे नाचना सीखा दे...फिर क्या होगा जब भावों की सुनामी उठ पड़ेगी भाव-धरा पर,सागर...बोलो..? वैसे ऐ सागर तू तो एक शानदार जज़्बा है जिसे पता है कि उसकी विनम्रता में भी एक आग है अव्वल...!
    महेन भाई...क्या कोई जोर से बोले...? दर्दों की फ़ाइल पर जम जाने दो परत-दर-परत आंसुओं की..जरूरी है नमी किसी 'अदृश्य-विकास' के लिए...!

    और हाँ ..नीरज रोहिल्ला साहब ,,हम तो दोष आपको ही देंगे...दौड़ते आप हो..सेहत आपकी बनती / बिगड़ती है पर हांफते हम सारे है...सच्ची...!

    "ताहम" पर पहली बार गया..फालो कर लिया है..कुछ अपनी गलतियाँ कम करूँ अब...!

    "कुछ एहसास" पर पहुंचा तो सर्द जम सा गया..कुछ खामोशियाँ जाने क्यूँ इतनी ठंडी होती है कि एक अरसे बाद उनको ठुक्ठुकाओं तो भी नहीं पसीजती वें..उन्हें अपने भीतर जैसे कुछ "घनत्व" छुपाना होता है..! फीड संजो लिए और फालोवर भी हो गया..!

    बेजी जी ..! आप तो जैसे पल्लवी जी से मिल के ही बैठी हो और लगी हों एक मुकम्मल सा कोई रास्ता खोजने..! एक उमडती-घुमडती सी पोस्ट..अच्छी लगी..!


    "अजन्मे किरदार" पर शब्द..एक स्लाईड शो की तरह आते जा रहे थे और अपना ही किरदार जब नुमाया हो गया तो चौंका मै ...मुझे तो "अलविदा" कहना था..! जीवन की आभा..! तो बरसो..तुम..! स्याह काली छतरियां टूट चुकी हैं...!

    वैसे अनूप सेठी जी से मुझे यही कहना है कि आपने मेरी एक हैरानगी सोल्व कर दी है. तमाम पसंद-नापसंदों के बावजूद मै धीरे-धीरे अपने घर वालों की तरह होते जा रहा हूँ..!

    "तुम्हारी इस पेंटिंग से मुझे संतोष मिला कि
    अधर्म का मुंह देखने से
    धर्म का पिछवाडा देखना बेहतर है"

    नंदिनी जी के ब्लॉग यूँ ही आया-जाया करता रहा हूँ..आज पक्का फालोवर बन गया हूँ. आपकी उपरोक्त लाइन...क्या करूँ..क्या कहूँ..सदियाँ रोक रही हैं पुरातन कि मै सहमत ना होऊं..पर विवश हूँ इन प्रखर पंक्तियों पर..इतना करारा लिख गयीं आप ...मुझे सोचना पड़ा है कई बार..!

    और गुलमोहर के फूल हर बार इतने से भोले से बेहद साफ़ सवाल पूछ लेते हैं..कि हर बार बचना/बचाना होता है खुद को..सूरज तो खैर सदियों से तप/तपा रहा है..!

    "निर्मम"
    ओम आर्य जी ने गौतम जी की डायरी पे उभर आयी उस कविता को कहा है.."निर्मल"
    मुझे कहने दीजिए "निर्मम' आप यूँ सच नहीं उकेर सकते..दरद कसमसा जाता है..! त्रासदी कविता की भी और प्रेम की भी ...मुझे गहरे में कहीं समझाता है कि तुम खामोश देखते रहो..पत्तियां पैगाम कभी तो पहुचएंगी....!

    कबाड़ख़ाने पे कभी कुछ कबाड नही मिला..माजिद मजीदी की कई फ़िल्में देख सका हूँ..द चिल्ड्रेन आफ़ हेवन ..बहुत ही तह तक छू गयी थी..मुझे तलाश है भारतीय सिनेमा में भी एक ऐसी ही मूवी की..!

    अर्श..! डस्की ब्यूटी..! पानी पीने से हिचकियाँ खतम नहीं हो रही ...रोटियां चाँद के मानिंद हैं..इन्हें सिर्फ गोल मत समझो..!

    और पीयूष मिश्र ने तो जो गुलाल फेका था, पिछले बरस उसका "लाल" तो अब कभी भी उतरने से रहा..!



    अनुराग जी.............! आप चिट्ठाचर्चा करते हो या फलियाँ छील देते हो मटर की...! ओ जादूगर तेरी नज़र का ही जादू होगा शायद कि हम भी जी लेते हैं घड़ी दो घड़ी किसी तार छांह में...!

    आभार नाकाफी...और गैरजरूरी भी...पर एक मुकम्मल सलाम तो मुझसे ले ही लीजिए.......!!!

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  34. कभी इधर आना ना हुआ। एक से एक बेहतरीन रचनाएं। नए नए विचार। कमाल है जी। खैर फुरसत से पढेगे। और रही गाने की बात तो जी गुलाल फिल्म के गानों की तो बात ही कुछ और है इसके गानों को पता नही कितनी सुन और सुनवा चुका हूँ। ओ री दुनिया, औ रात के मुसाफिर..........

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  35. अनुराग जी,

    कई सारें बातें हैं -

    हिन्दी में बहसें अब नहीं होतीं, वह समय चला गया। बहस का सही - सही अर्थ साहित्यिक खेमों में दलबन्दी है। आप विचार के स्तर पर असहमत होते हुए "मित्र सम्वाद" नहीं निभा सकते। न तो यह रहा कि आलोचना निष्पक्ष हो, व न ही यह रहा कि आलोचना को सही अर्थ में लिया जाए। इसलिए तर्क, बहस, विचार के युग कब के युगातीत हो गए।

    आलोचना (?) या तो चाटुकारिता है, या स्वरुचि पाठ, या शत्रुता।


    रही बात नए/ खुले मंच नेट पर हिन्दी लेखन की तो इसमें बहसें केवल चर्चित होने का पर्यायमात्र हैं, वरना एक भी बहस अंजाम तक कभी पहुँची हो! बहस के मुद्दों को परोसने वाले केवल इसलिए विवादास्पद चीजें लगाते हैं कि रैंक और हलचल बढ़े, न कि इसलिए कि वे वास्तव में विमर्श के इच्छुक हों और विमर्श के बाद सही तत्व को अपनाते हुए कभी अपने विचार किसी ने बदले हों। इस सब के बीच, सबकी अपनी अहमन्यताओं और ब्लॊगजगत की (भले ही इस त्रासदी के परिणामस्वरूप की जाने वाली) थोथी वाह वाह के बीच महालेखक बनने/ होने/होने का वहम होने... जैसी कई स्थितियाँ हैं, .....


    आलोचना में सबकी अपनी प्रतिबद्धताएँ हैं, अपनी सोच है और हिन्दीसमाज में बहुधा मैं व मेरे/मेरी (विचार, व्यक्ति, प्रतिबद्धता....) की सोच से आगे निष्पक्षतापूर्वक सही स्तरीयता का आकलन नहीं होता यह हमारी आलोचना की ही नहीं, समूचे लेखन की त्रासदी है। अत: आलोचना होती ही नहीं, रही ही नहीं।


    कविताओं का चयन चर्चाकार की रुचि का पता देता ही है, देगा, देना भी चाहिए। साथ ही अपनी रुचि में उसकी स्वाधीनता का भी आदर हो।


    मैं अपनी बात कहूँ तो कुछ कविताएँ इस चयन में मुझे प्रभावित कर पाईं, जिन्हें मैं वास्तव में कविता कह सकती हूँ। शेष में कुछ भाव के स्तर पर ठीक हैं तो शिल्प के स्तर पर कविता के मुहावरे में कमजोर और कुछ शिल्प में सही होने का आश्वासन देती प्रतीत होती हैं तो वे कथ्य और सरोकार में आश्वस्त नहीं करतीं।


    कविता वस्तुत: इतनी संश्लिष्ट विधा है कि उसके एकार्थी होने तक के आधार पर भी वह उन्नीस ठहराई जा सकती है, बहुस्तरीयता और अनेकार्थता कविता के बीस होने के कारक होने चाहिएँ, होते हैं।
    अब कविता के क्या होने से उसे वाह मिलेगी, यह तो यद्यपि हर पाठक का अपना पैमाना होता है, किन्तु एक मानक कसौटी की अनिवार्यता भी बनी ही रहेगी।


    और हाँ, यदि कुछ कविताएँ किसी चयन में किसी कसौटी पर उन्नीस हो तों भी उनका उल्लेख या उनकी उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता, वे भी अपने समय में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर रही हैं तो इसे दर्ज़ किया जाना चाहिए।


    असहमति भी बड़ी उपलब्धि है कि यह पता देती है कि मन्थन की भूमिका तैयार करने में सफलता प्राप्त हुई। इसलिए आपके श्रम और प्रतिचर्चा पर श्रम करने वाले सभी सचेत लेखकों/ पाठकों का धन्यवाद अनिवार्य है।

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  36. कुछ ब्लाग तो मैं लगातार पढ़ती हूँ और कुछ नये पढ़वाने की लिए शुक्रिया अनुरागजी ..
    मैं समझती हुँ ब्लॉगर होना मंच पर कविता और कहानी पढ्ने के समान है इसलिए यहाँ पर इमानदार प्रतिक्रिया देने की गुन्जाइश कम है प्रंशसा सभी के सामने अच्छी लगती है और नकारत्मक बात और आलोचना निजि तरीके से एकान्त में.. दूसरी बात यह कि इमानदार प्रतिक्रिया देने लिए आत्मविश्वास, आर्टिकुलेशन, विशलेषण, पैनी नज़र की ज़रूरत होती है जो सभी के बसका काम नही जिसमें मैं भी शामिल हुँ तीसरी बात यह की हमे नकारत्मक प्रतिक्रिया को निजि तौर पर नही लेना चाहिए कविता या लेख की खामिया उस व्यक्ति की खामिया नही हें ... जो लोग त्रुटियाँ निकालने का समय निकालते हैं वो हमे बेहतर देखना चाहते हैं हाँ में हाँ मिलाने वालों से अधिक वो हमारे हितैषी हें..

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  37. जाहिर है इस संवाद प्रक्रिया पर प्रतिक्रिया जारी रहेगी ...इस बीच कविता जी ने नेट पर एक अमूल्य धरोहर छोड़ी है ....उसका लिंक यहां देखिये यकीन मानिये बुकमार्क करने जैसा पन्ना है

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  38. इस सदी में पहली बार प्रतिवाद के भिन्न भिन्न आयाम देखे खैर...अशोक की कई बातों से मैं सहमत हूँ...

    पीयूष मिश्रा.....उभरे हुए तर्कों को अपनी रचनाओं में प्रयोग कर रहे हैं...मुझे उनकी रचनाएं पसंद हैं..दुनिया के बोल आपने लिखे...

    उसकी एक पंक्ति गायब हो गई,,,
    "क़ादिल ये कहता वहां ईसा है"
    ..........ये चर्चा ज़बरदस्त चल रही है...बीच में आया तो..कम से कम मेरा अनिष्ट हो सकता है.....

    सागर की एक बात समझ नहीं आई जो येहूदा आमिखाई की कविता को लेकर कह रहे हैं...

    "जैसे आप पिछवाड़े बरामदे की बत्ती बुझाना भूल जाएं
    ऐसा होता है किसी को भूलना
    सो वह जली रहती है अगले दिन भर
    लेकिन फिर रौशनी ही आपको
    दिलाती है याद

    ... ऐसे बिम्ब विश्व कविताओं में ही मिलता है."
    विश्व कविता से उनका क्या आशय है...और बिम्ब एवं विश्व कविता का निश्चित तालमेल कैसे पाया उन्हों ने ...

    चर्चा अच्छी चल रही है....मैं बार बार देख सकता हूँ कि..संवाद की दूरी किस किस तरह से पाटी जाती है...भाषा गाढ़ी होगी कि नहीं ये भी नहीं पता...

    अनुराग आप चयन के मामले में बहुत आगे हैं...चिट्ठाचर्चा में आपका चयन पहले भी मुझे पसंद आया ...

    Nishant kaushik
    www.taaham.blogspot.com

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