बुधवार, मई 05, 2010

निरुपमा : कुलीनता बनाम स्त्रीविमर्श और समाज

बिजनेस स्टैण्डर्ड में कार्यरत पत्रकार निरुपमा पाठक की  ह्त्या/आत्म-ह्त्या के मामले में पिछले अनुभवों की ही तरह जल्दी ही मीडिया ट्रायल किया  जा चुका है ....और वह भी इस हद तक कि उसमे बहुत विचार - पुनर्विचार की गुंजाइश नहीं दिखती | पहले आत्म-ह्त्या   और फिर  ह्त्या की ख़बरों के बाच चर्चा लिखे जाने तक  छह सदस्यीय फोरेंसिक दल ने अपनी जांच पूरी कर ली है। अब रिपोर्ट के आने का इंतजार है, जो कि आज  सार्वजनिक की जाएगी।

अधिकतर  ऐसे मुद्दों पर ब्लॉग जगत में सक्रिय  पत्रकार समूहों द्वारा रूटीन प्रतिक्रियाएं आयीं ...कहीं जन-समर्थन जुटाने की कवायद तो कहीं तटस्थ होकर अफ़सोस जताने तक  , कहीं वर्णव्यवस्था पर प्रश्नचिन लगाती तो कहीं स्त्री विमर्श के सहारे दैहिक व शारीरिक संबंधों को लेकर नए सवाल खड़े करती  | ऐसे मुद्दे पर अचानक चर्चा हेतु तत्पर होने  की मुख्य वजहें  बनी डा0  कविता वाचक्नवी और   गिरिजेश राव की पोस्ट्स  के अलावा निरुपमा के पिता का पत्र !


ऐसे समय जब बड़ी आसानी से ऐसी हत्याओं को  आनर किलिंग  कह के मुद्दे की चीर-फाड़ की जा रही हो उस समय ऐसे पक्षों पर भी नजर डाला जाना चाहिए | कि ....

एक वयस्क सुशिक्षित लड़की एक वैसे ही लड़के से बिना किसी सावधानी के शारीरिक सम्बन्ध बनाती है, गर्भवती होती है और तीन महीने (मतलब कि शिशु को जन्म देने को मानसिक रूप से तैयार) तक मृत्युपर्यंत गर्भ धारण रखती है। क्या उसका अपने माँ बाप के प्रति, जो कि पुराने विचारों के थे और वैसे ही समाज में रहते थे, कोई दायित्त्व नहीं था ? 


इन परिस्थितिओं में यदि यह मान लिया जाए कि निरुपमा के गर्भ में कोई संतान ना होती तो क्या उसकी यही नियति होती ? आखिर वही ....

लड़का खुलेआम टेसुए बहाता, हीरो बना घूम रहा है। लड़की के पोस्टमार्टम के समय क्या यह आवश्यक नहीं था कि गर्भ का डी एन ए परीक्षण कराया जाता ताकि लड़के का पिता होना सिद्ध हो सकता और उसको क़ानून के शिकंजे में लिया जा सकता ?

कितनी निरुपमायें अब तक  ऐसी ही परिस्थितिओं में ख़बरों में नहीं आयीं ...तो ....

कहीं ऐसा तो नहीं कि सारा बवाल बस इस लिए है कि मरने वाली पत्रकार थी और उसे मारने का पहला कदम लेने वाला ( उसे गर्भवती कर) उसका कथित प्रेमी भी पत्रकार है? कहीं प्रेमी अपने को बचाने के लिए जमात इकठ्ठी कर यह नौटंकी तो नहीं फैला रहा? कहीं ऐसा तो नहीं होगा न कि कल सुबूत मिले कि लड़के ने उसके साथ छिप कर शादी कर ली थी ?

 

इसी उधेड़बुन  में आलस्य-गुरु अपने अन्दर भी झांकते हुए चुनौती देते हैं कि .....

आप में से कितने गिरिजेश अपने नाम से 'राव' हटाने को और अपने बच्चे को भी जाति सूचक उपनामों से मुक्त करने को तैयार हैं? ..मैं गिन रहा हूँ। संख्या बहुत कम है। .. तो भैया बहिनी! आप लोग उपनाम तक हटाने को तैयार नहीं; जाति व्यवस्था पर इतनी हाय तौबा क्यों?

 

विवाह -पूर्व  शारीरिक संबंधों पर प्रहार करते हुए गिरिजेश बड़ा सवाल खडा करते हैं कि ....

कल अगर आप का बच्चा आप से पूछ बैठे तो क्या कहेंगे उसे ? वो जो कुत्ते करते हैं न वही कर रहे हैं - ऐसा कह पाएँगे आप ? ..सेक्स एजूकेसन। ... बच्चे सम्भोग करने के पहले उसकी ज़िम्मेदारी तो समझें...

 

दुसरे पक्ष को देखें तो एक भावनात्मक प्रश्न यह भी है कि .....

ऐसा कैसे हो सकता है एक उम्र के बाद मां बेटी का रिश्ता दो सहेलियों का सा हो जाता है, जो अपने सुख-दुख एक दूसरे के साथ शेयर करती है। माँ सिर्फ मां न रहकर बेटी की पथ-प्रदर्शक बन जाती है। बेटी की पेशानी में पड़ा एक हल्का सा बल भी मां को विचलित कर देता है और वह जानने को व्याकुल हो उठती है कि बेटी क्यों परेशान है? बेटी की हत्या का विचार मां के मन में कैसे आ सकता है?

 
निरुपमा के मामले में स्त्री विमर्श से जुड़े हुए कुछ दूसरे मुद्दों पर भी बहस जारी है  | चोखेरबाली पर आर0 अनुराधा आम प्रतिक्रियाओं के विपरीत इसे हिम्मत नहीं कायरता बताते हुए कहती हैं कि .....
मैं क्रांतिकारी नहीं हूं। मैं उससे सबसे पहले पूछती कि ये क्या हाल बना लिया? क्या अपना इतना भी ख्याल नहीं? क्या तुम सचमुच, जानबूझ कर बिन ब्याही मां बनना चाहती हो, ऐसे सामाजिक माहौल में? और मुझे लगता है कि वह इससे इनकार करती कि उसने चाह कर यह हालात अपने लिए बनाए हैं। यह उसकी हिम्मत नहीं, कायरता थी। 

.... ....जाहिर है समाज में रहकर उसके साथ अपने दैहिक संबंधों को लेकर सामान्य जागरूकता एक पढी लिखी लडकी में होनी ही चाहिए |
malefemale एक तो, वह पढ़-लिख कर भी खुद अपने शरीर के बारे में कुछ नहीं जानती। वह चाहती है, पर नहीं जानती कि इसका क्या करे? इस शरीर का सम्मान किस तरह करे। दुनिया भर की खबरें, लेख उसने पढ़े, एडिट किए, पर उसे इतना भी नहीं पता था कि अपने को इस हालत तक पहुंचाने से रोकने के कई तरीके हैं, और सब सहज और जायज है। वह दिल्ली शहर में आर्थिक रूप से आत्म निर्भर, अपने रोज के फैसले खुद करने वाली आज़ाद लड़की थी। और वह उसका प्रेमी भी, जो कि कोई अनपढ़ गंवार नहीं था और उसे इतनी अंतरंगता से जानता था, जो कभी उसकी हालत जान नहीं पाया तो क्या इस आशंका के बारे में सोच कर उसे आगाह भी नहीं कर पाया?
जाहिर है लडकी सामजिक रूप से उच्च वर्गीय हो तो वर्ण-व्यवस्था पर प्रश्न-चिन्ह तो लगने ही थे | पर इसके विपरीत स्त्री विमर्श के अगले चिंतन   को आगे बढाते हुए इस  चर्चा के होने की दूसरी महत्वपूर्ण वजह बनी डा0  कविता वाचक्नवी  का विचार है कि ....
निरुपमा की दुर्घटना को साझे "समाज की मानसिकता का प्रतिफल" के रूप में लिया जाना चाहिए अर्थात् सम्प्रदाय विशेष / जाति विशेष वर्सेज़ स्त्री नहीं अपितु समस्त समाज / सभी सम्प्रदाय वर्सेज स्त्री के रूप में देखा जाना चाहिए।  निरुपमा किसी भी सम्प्रदाय (धर्म?) में होती उसके कुँआरे मातृत्व को स्वीकारने की हिम्मत किसी में न होती।
जो लड़की महानगर में अकेली रहती है व प्रतिष्ठित पत्रकारिता से जुड़ी है, अपने पैरों पर खड़ी है, और सबसे बढ़कर जो एक पुरुष के साथ सहवास करने का साहस रखती है ( विशेषकर, उस भारतीय समाज में जहाँ विवाहपूर्व यौन सम्बन्ध मानो भयंकरतम जघन्य अपराध मानता है समाज, तिस पर उसमें इतना साहस भी है कि वह लगभग तीन माह का गर्भ वहन कर रही है ( ध्यान रहे यह वह काल होता है जब गर्भावस्था के बाह्य लक्षण सार्वजनिक रूप में दिखाई देने प्रारम्भ् होने लगते हैं); ऐसी साहसी व निश्शंक लड़की का मात्र माता-पिता के अन्तर्ज़ातीय विवाह के विरोधी होने के डर-मात्र से विवाह न करना कुछ हजम नहीं होता। यदि कोई माता-पिता के डर / दबाव-मात्र से इतना संचालित होता है तो उसका भरे (भारतीय) समाज में विवाहपूर्व गर्भवती होने का साहस करना - ये दो एकदम लग ध्रुव हैं। एक ही लड़की, वह भी बालिग, विवाह करने का साहस न रखे किन्तु सहवास व कुंआरे मातृत्व का साहस रखे, यह क्या कुछ सोचने को विवश नहीं करता ?
कविता जी इस विषय के दुसरे पक्षों पर बड़ी बेबाकी से अपनी राय रखती है कि आखिर ......
एक ऐसे अमानवीय समय में जबकि दो व्यक्तियों की हत्या की भर्त्सना  करते हुए पूरे समाज को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए व स्त्री की सुरक्षा और उसके जीवन के मौलिक अधिकार, मातृत्व के मौलिक अधिकार की बात होनी चाहिए, सामजिक न्यायव्यवस्था की बात होनी चाहिए; वैसे समय में ब्राहमणवाद आदि  का नाम लेकर हिन्दुत्व को धिकारने के प्रसंग निकालना मुझे उसी शैतानी पुरुषवाद की चाल दिखाई देता है जो स्त्री को अप्ने प्यार की फाँस में फँसा कर उसे भोग्या और वंचिता दोनों बनाता है। विवाह की जिम्मेदारी से बचता है और छलना करता है, दूसरी ओर भाई और अपना परिवार अपना पौरुष दिखाते हैं।
स्त्री क्या करे? कहाँ जाए?
भले ही आप विचारों की इस भीड़ के विपरीत ध्रुवों  से अपनी सहमति या असहमति का निर्धारण कर पायेंया नहीं? पर ऐसी घटनाओं से हमें   क्या पता चलता हैकि.......
  • हम आर्थिक और विकास के लाख दावों के बावजूद अभी भी बर्बर मानसिकता में जी रहे हैं.
  • हमें अभी भी दूसरों की आजादी के अधिकार का सम्मान नहीं आता.
  • लोकतान्त्रिक पद्धति से बहुत दूर हैं. यह नहीं जान पाए हैं कि लोकतंत्र जीवन की एक सुविचारित प्रणाली है न कि केवल शासन व्यवस्था.

विचारों की दौड़ कहाँ तक जसकती है कि लोग अब परेशान हैं कि .....

निरुपमा ने क्या नाम सोचा होगा अपनी बेटी के लिए?

 

उपरोक्त चर्चा में एक दूसरा पक्ष यह भी है कि निरुपमा के गर्भ में पाया जाने वाला अंश केवल निरुपमा का ही था या .....उसकी जवाबदेही किसी और की भी है?

नीरू के शरीर में पल रहा भ्रूण जिस किसी का भी अंश था..मैं उसे नहीं जानता....पर क्या पुरुषों के लिए भी ऐसी ही सज़ा होगी....क्या उस बच्चे में उस पुरुष का अंश नहीं है....या सारी गलती नीरू की ही थी...
ज़ाहिर है अब मैं भावुक हो रहा हूं...और हमारे सभ्य समाज में भावुक केवल सामाजिक प्रतिष्ठा और दकियानूसी नियमों को लेकर हुआ जाता है...मानवीय नीतियों और मूल्यों को लेकर नहीं....ये भी एक नियम ही है....
माफ करना नीरू ! हम तुम्हें बचा नहीं पाए...पर क्या अफसोस करें तुम्हारे जैसी हज़ारों नीरू हम खो चुके हैं...शायद खोते भी रहेंगे....?

कोई मुद्दा आये और उसके बाद विचार और चिंतन  और मनन में फंसा मन जब अपने को निःशक्त  पाता है तो वह अपने आप से गंभीर सवाल करता है ...ऐसे सवाल जिनका जवाब किसी के पास नहीं ...ना हमारे पास ना आपके पास ना शासन के पास | इसी उधेड़बुन  में .....
हर राह से गुजरते हुए मैं अपने दामन को बचा न सका। किसी भी तौर निकला यही लगा कि इस गुरुतर अपराध में उस लड़की के हत्यारों के साथ ही परोक्ष रूप से बहुत से लोग शामिल हैं। किसी भी एंगल से लिखना चाहा तो बार-बार सवाल उठता रहा कि संविधान के पोथे के सिवा इस देश में ऐसी कौन-कौन सी जगहें हैं जहाँ जातिवाद,सामंतवाद या पितृसत्ता पर्याप्त रूप से कमजोर हुई है....?
जहाँ एक लडकी की मौत हुई तो यह सवाल कैसे रह जाता कि यदि वह स्त्री ना होकर एक पुरुष होती तो क्या उसकी भी यही नियति होती ?

यदि निरुपमा कि हत्या उसके माता-पिता ने कि है तो क्या यही कोशिश वह अपने बेटे के लिए करते। जब निरुपमा का भाई अपनी पसंद से कोई लड़की चुनता। उससे शादी करने का फैसला करता तो क्या उसका हश्र भी निरुपमा कि तरह होता?

 
चलते चलते निरुपमा के पिता का तथाकथित पत्र का अंश
आदमी को जिंदा रहने के लिए समाज एवं परिवार की आवश्यकता होती है अत: ऐसा काम करने से हमेशा बचना चाहिए जिससे बदनामी मिलती हो. मन बहुत चंचल होता है उसे मजबूती एवं दृढ़ निश्चय से काबू में रखना पड़ता है. आजकल का फिल्मी एवं टीवी का वातावरण जो कि वास्तविक नहीं होता है उससे प्रभावित नहीं होना चाहिए. मां-बाप की गलती का फल आनेवाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है, उसे वर्तमान एवं भविष्य में होनेवाले परिवार सभी गालियां देते हैं. भावना में बहकर कोई काम नहीं करना चाहिए. इस पत्र को दोनों आदमी पढ़कर संकल्प ले लो कि गलती सुधार लेंगे और मां-बाप की इच्छा के प्रतिकूल कोई काम नहीं करेंगे. मां-बाप अपने बच्चों की भूल को क्षमा कर देंगे. मां-बाप बेटे बेटियों को अपने से दूर भेजते हैं कि वे हमारे नाम और यश को उज्जवल करेंगे न कि मलीन.
 
उपरोक्त पत्र से  आप जैसे चाहें निष्कर्ष निकाले ....लेकिन कुछ गंभीर प्रश्न  भी छोड़ता मुझे  दीख पड़ता है | आखिर ऐसे अनुत्तरित प्रश्नों का हल हम सब   अब तक  ...शायद इसीलिये नहीं खोज पायें हैं? एक निष्कर्ष यह भी देखें ....कि....
"धर्म" से टकराना स्त्री के लिए कभी आसान नही रहा और यह वह सबसे बड़ी दीवार है जो उसके रास्ते मे खड़ी है।धर्म के ठेकेदार और पितृसत्ता के चौकीदार हाथ मे हाथ मिलाए सत्ता की सीढियाँ चढते हैं और मिल बाँट कर 'धर्म विमुख औरतों' को सबक सिखाते हैं।
निश्चित रूप से यह
पत्र एक पिता ने पुत्री को समझाते हुए नही लिखा है , यह एक आहत दर्प वाले पितृसत्ता के मुखिया ने बागी के प्रति दाँत कसमसाते हुए लिखा है, मुट्ठियाँ भींचते हुए ,शब्द चबा-चबा कर लिखा है, गुस्साई रक्तिम आँखों से लिखा है। 
 
चलते चलते .....
निरुपमा ने ये शायद सोचा नहीं था,
आधुनिकता परिधान जैसी हो गई है।
 
और
आखिर में !
 
उसे मिटाओगे
एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे
उसके ही घर की हवा से
उसे वहां से भी मिटाओगे
उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर
वहां से भी
मैं जानता हूं
कुलीनता की हिंसा !
(आलोक धन्वा की कविता का अंश)

ऐसी चर्चाएँ कुछ विचारोत्तेजक निष्कर्ष निकाल सकेंगी इस आशा के साथ चर्चा को विराम |
आपका
 प्राइमरी का मास्टर 

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27 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

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  2. हमारा समाज ऐसा क्यूँ है ... एक लड़की गर्भवती हो भी गयी ... तो उसे मरना क्यूँ पड़ता है ... आखिर कब तक हम ऐसे समाज में जियेंगे

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  3. जहाँ तक मैं समझता हूँ, गिरिजेश का मूल प्रश्न यह है कि बिना जानकारी, सबूत और मुक़दमे के मृतका के माता-पिता का मीडिया ट्रायल सही नहीं है. और वह मूल प्रश्न अभी भी उतना ही ताकतवर है. अच्छी बात यह है कि भावनाओं में बहने वाले यह लोग वास्तव में न्यायाधीश नहीं हैं अन्यथा कितने माँ-पाप अपने बच्चों को खोने के बाद फांसी चढ़ा दिए गए होते.

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  4. निरुपमा की मौत हमारे पूरे समाज का अक्स है। एक इन्सान की जिन्दगी से अधिक कीमती कुछ नहीं होता। कुछ भी नहीं।

    आपने बहुत पुण्य का काम किया इस मुद्दे पर आई कुछ पोस्टों की चर्चा करके आज।

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  5. अभी हाल में अमिताभ बच्चन की पिक्चर ’पा’ की बहुत चर्चा हुई थी। उसमें चर्चा के बिन्दु पा के मेकअप में लगे घंटे और उस बीमारी के इर्द-गिर्द बने रहे जिसमें कम उमर के बावजूद लोग बड़े दिखते हैं और जल्दी मर जाते हैं।

    उसी पिक्चर में एक और बिन्दु था-विद्या बालन द्वारा बिना शादी किये अपने बच्चे को जन्म देने का और उसका पालन पोषण का निर्णय लेने का साहस दिखाने का। यह एक नयी और स्त्री के लिहाज से साहस की घटना थी- मेकअप में लगे घंटों और पा की बीमारी से ज्यादा अहम। इस बात का जिक्र शायद बहुत कम हुआ। पिक्चर में विद्याबालन के साहस की लोगों ने तारीफ़ ही की कि उसने अपने बच्चे को जन्म दिया।

    पिक्चर के इस पहलू पर भी अगर चर्चा हुई होती तो शायद निरुपमा को साहस मिलता कि जो उसके जीवन में हो रहा है , जो उसने किया, वह उतना समाज अस्वीकार्य नहीं है। अगर निरुपमा को समय पर सहारा और ताकत मिलती तो उसका मरना या उसको मारना नहीं हो पाता। निरुपमा कहीं न कहीं यह सोचकर परेशान और कमजोर हो गयी थी कि उससे कुछ ऐसा हो गया है जिसे समाज स्वीकारता नहीं है। यही परेशानियां और कमजोरियां उसको दुविधा में ले गयीं और वह मारी गयी।

    अफ़सोस जनक घटना।

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  6. vastav me charcha ise kahate hain. maine abhi tak is vishay par itani sanjidagi se vichaar hi nahin kiya tha. par is charcha se vishay ki gahrai ka andaja hua. is behtarin charcha ke liye dhanayvad.

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  7. अफ़सोस जनक घटना।
    विचारोत्तेजक चर्चा।

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  8. ऐसी विचारपरक और प्रासंगिक चर्चा के लिये साधुवाद!
    निरुपमा के मुद्दे पर अभी बहुत कुछ सामने आना बाकी है. मीडिया कोई न्यायालय नहीं है कि उसके निष्कर्षों के आधार पर हम खुद कोई राय बनाने लग जायें, इसलिये इस पर मैंने अभी कुछ नहीं कहा है. पर, सोचने की बात है कि जब निरुपमा जैसी पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर और उच्चवर्गीय लड़की के साथ ऐसा हो सकता है, तो फिर सामान्य लड़कियों की बात ही क्या करें?
    पर जहाँ तक मैं समझती हूँ, यह संघर्ष माँ-बाप और बेटी या प्रेमी और प्रेमिका के बीच नहीं... उच्च जाति और निम्न जाति के बीच भी नहीं... ... औरत और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के बीच है. इसके सभी पक्षों पर गौर करने के बाद ही कोई राय बनाई जा सकती है...और यह पक्ष सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है.

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  9. इक्कतीस मार्च को निरुपमा ने अपनी फेसबुक प्रोफाईल में लिखा था कि
    "She tells enough white lies to ice a wedding cake."
    शायद वो अपनी बात ही कर रही हो.. निरुपमा का जाना सो कॉल्ड समाज को कठघरे में खड़ा करता है.. कुछ दिन पूर्व आयी फिल्म लव सेक्स और धोखा में ओनर किलिंग की कहानी दर्शायी है.. गाँवों में इस तरह की घटनाये होती रहती थी पर अब तो पढ़े लिखे शहरी लोग भी ऐसी हिंसक वारदाते अंजाम देने से नहीं कतराते.. जैसा कहा जा रहा है कि निरुपमा को उसके ही परिवार वालो ने मार डाला.. जबकि उनकी ऑरकुट प्रोफाईल में पांच चीजों के बारे लिखने को कहा जाता है जिनके बिना वे जी नहीं सकती तो निरुपमा अपने परिवार के बारे में लिखती है..

    five things I cannot live without: Not five Things rather five people(my family)......I m one of them.

    इंसान कब अपनी इंसानियत उतार फेंकता है पता ही नहीं चलता.. ऐसे में ब्लॉग सच में की ये पंक्ति बहुत सार्थक है.. आधुनिकता परिधान जैसी हो गई है।

    गिरिजेश जी कविता जी और चोखेर बाली पर आये लेख झकझोरते है.. निरुपमा के पिता के पत्र की कुछ बाते भी सोचने लायक है... फिलहाल इतना ही कहूँगा..

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  10. कब तक समाज से डरेंगे ..........जब तक डरेंगे ये समाज डराता रहेगा और जब आप इस समाज के मुंह पर थप्पड़ लगाना जान जायेंगे ये चुप हो जायेगा क्यूंकि इसे पता है कि यहाँ इसकी दाल नहीं गलेगी...........आज के युग में जब इंसान अन्तरिक्ष को भी लांघ चुकने का दावा कर रहा है कब तक ये सदी गली मान्यताएं टिकेंगी....................अब इस तरह के प्रश्न उठाने बेमानी हैं अगर कोई कुछ कर सके तब तो बात है ............अब देखिये कितनी ही लड़कियों या औरतों ने लीक से हटकर कदम बढाया तो आगे बढ़ पायीं और जब हमारे देश के कानून में समलैंगिकता को भी मान्यता मिलने लगी है तो ये कोई बड़ी बात नहीं रही कि बेटी कुंवारी ही गर्भवती हो गयी और दूसरी बात जब नीना गुप्ता जैसी अदाकारा ने बिन ब्याही होकर बेटी को जन्म दिया था तो ये ही समाज कुछ दिन बोलकर चुप हो गया था और अब भी उसी समाज ने उसे भी मान्यता दी ना तो इस बार ऐसा क्यूँ ना होता दूसरी बात अगर बच्चा नहीं चाहिए था तो दूसरे रास्ते थे मगर वो नहीं अपनाये गए .............जब विज्ञानं ने इतनी तरक्की कर ली है तब ऐसा कदम उठाना कहाँ तक न्यायसंगत है ?आज के वक़्त में इस मुद्दे को चुपचाप दबाया भी जा सकता था मगर उसकी हत्या करना या आत्महत्या करने जैसा जघन्य अपराध करने कि क्या आवश्यकता था ..........एक ज़िन्दगी से खेलना कहाँ तक वाजिब है ?
    आज भी लड़की की ज़िन्दगी से खेलना चाहता है हर कोई मगर जहाँ तक मैं समझती हूँ जब वो एक पत्रकार थी तो कम से कम वो खुद तो ऐसा कदम नहीं उठा सकती थी इतनी तो समझदार होगी ही क्यूंकि ये पेशा वो ही अपना सकता है जो निर्भीक हो , जिसमें समाज को आइना दिखाने की हिम्मत हो फिर ऐसा इंसान ऐसा कदम क्यूँ उठाएगा ?
    बहुत प्रश्न हैं मगर उत्तर किसी के पास नहीं है क्यूंकि हम सब सिर्फ कुछ दिन बोलकर चुप होने वाले लोग हैं उसके बाद सब अपने अपने कामो में व्यस्त हो जाते हैं क्या फर्क पड़ता है कोई अपना थोड़े ही मारा है या किसी अपने के साथ ऐसा थोड़े हुआ है आज जरूरत है समाज को दिशा देने की और इसके लिए नारी जाती को ही आगे आना पड़ेगा और अपने सम्मान की खुद रक्षा करनी पड़ेगी तभी अपना हक़ वो पा सकती है नहीं तो ये समाज उसे यूँ ही मारता रहेगा .

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  11. धर्म बड़ी फ्लेकसिबल चीज़ है .....अपनी मन मर्जी मुताबिक जिसने जो तजुर्मा करना चाहा कर दिया .ओर फेंक दिया सामने ....तजुर्मा करा किसने? ...आदमी ने ....बरसो पहले बड़ी तरकीब से समाज विभाजन हुआ ...मकसद ..... सत्ता ओर आर्थिक व्यवस्था एक पलड़े में रहे ...बाकी बची औरत.....उसके वास्ते फिर नया तजुर्मा ...शानदार तरकीबे ....शानदार मिसाले .....ओर मेंटल कंडिशनिंग ...कमिया आदमी में थी .... .वक़्त बदल रहा है....दुनिया चाँद पे पहुच रही है ....करनाल ओर किसी खाप पंचायत के निर्णय पर नाक-मुंह सिकोड़ते लोग अंग्रेजी के अखबार में अपनी बेटी के लिए अपनी जाति के कोलम में वर ढूंढते है ......ओनर किलिंग को गंवारू ओर अनपढ़ तबके की सोच बताने वाले लोग .....बड़े गर्व से अपने ड्राइंग रूम में कहते है .हमारा बेटा तो जी समझदार है .लव मेरिज नहीं करेगा ....हमारी मर्जी से शादी करेगा ...... किसी फरजाना के पति के दस साल बाद लौटने पे ....वर्तमान पति से उस ओर फ़ौरन धकेल दी गयी फरजाना पर चैनल बुद्धिजीवियों की जमात को बैठाकर लम्बी चौड़ी बहसे करता है ........ओर आधे घंटे बाद ..उसी चैनल पर ..कोई ज्योतिषी आपके आज के तारो की दशा बतलाता है......पौन घंटे बाद फलां मंदिर से आरती का डायरेक्ट प्रसारण ......... पढ़े लिखे चार्टेड एकायुंटेंट ....मस्सो के इलाज़ के लिए पीर की मज़ार पे धागे बांधते है ....टीचर सुबह की रोटी खिलाने के लिए काला कुत्ता ढूंढती है ताकि उसके बेटे को नज़र न लगे........पोस्ट ग्रेज्युट कोलेज में पढ़ने वाला प्रोफ़ेसर वोटिंग मशीन में उस आदमी को चुनता है ....चूँकि वो भी जाट है ....उसके साथ पैदल चलकर वोटिंग मशीन में आने वाला दूसरा प्रोफ़ेसर वोटिंग मशीन में गुज्जर प्रतिनिधि पर मोहर लगता है ......एक ही मोहल्ले में घर वापस आते वे हँसते बतियाते साथ आते है ......रात को सर्व धर्म सभा में खड़े वे अपना अपना भाषण पढ़ते है ....चतुर्वेदी जी को इस बात पे गुस्सा है के आई ए एस में दक्षिण की लोबी ज्यादा सक्रिय है ...इसलिए उन्हें प्रमोशन जल्दी नहीं मिलता .....ओर बिश्वेषर इसलिए चतुर्वेदी से नाराज है .के उन्हें लगता है वे ब्राहमण केंडी डेट को इंटरव्यू में अधिक मार्क्स देते है .....दरअसल हम बहुत समझदार लोग है .कहानी को कहानी की तरह पढ़ते है ..ओर यथार्थ को यथार्थ की तरह .....हम जानते है कहाँ ताली बजानी है ....कहाँ समूह के पीछे खड़ा होना है ...ओर .कहाँ आवाज ऊँची करनी है ......
    खराबी हम सब में है .....हम सब ही मिलकर समाज बनाते है .....अपनी बेटियों-बहनों के आगे हमारे चेहरे एक से हो जाते है .वहां कोई घाल मेल नहीं रहता ......
    धर्म ने तो कहा .था ...ईमानदार बनो .किसी के लिए बुरा न करो....बुरा न सोचो....झूठ मत बोलो..जानवर ..प्रकृति पर दया रखो......कमाल है ना उसे कोई नहीं मानता .... ....



    कविता जी जब कहती है .

    एक ऐसे अमानवीय समय में जबकि दो व्यक्तियों की हत्या की भर्त्सना करते हुए पूरे समाज को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए व स्त्री की सुरक्षा और उसके जीवन के मौलिक अधिकार, मातृत्व के मौलिक अधिकार की बात होनी चाहिए, सामजिक न्यायव्यवस्था की बात होनी चाहिए; वैसे समय में ब्राहमणवाद आदि का नाम लेकर हिन्दुत्व को धिकारने के प्रसंग निकालना मुझे उसी शैतानी पुरुषवाद की चाल दिखाई देता है जो स्त्री को अप्ने प्यार की फाँस में फँसा कर उसे भोग्या और वंचिता दोनों बनाता है। विवाह की जिम्मेदारी से बचता है और छलना करता है, दूसरी ओर भाई और अपना परिवार अपना पौरुष दिखाते हैं।

    मुझे लगता है वे ठीक कहती है ....


    लेकिन गर इस प्रक्रिया में मां गर भाई ओर पिता के साथ है..तो.....ये मेंटल कंडिशनिंग कितनी स्ट्रोंग है ... .यदि निरुपमा की जगह उसका नाम निरुपम होता ....ओर उससे किसी ओर जाती की लड़की गर्भवती हुई होती तो क्या तब भी उनके परिवार पिता..भाई ...मां की यही प्रतिक्रिया होती ?
    क्यों कभी लड़के का परिवार गर्भवती करने के लिए अपने लड़के की ओनर किलिंग नहीं करता ?

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  12. O K, अब ठीक है..
    राजीव-रँजन द्वारा ऎसी घटना को इतने कैज़ुअली लेना निँदनीय है ।
    उसके चेहरे या हाव-भाव में शॉक या सदमा न होकर एक तरह से निवृति का सँतोष भाव रहा है ।
    गर्भ ठहर जाने के बाद, घर वालों को अपनी ओर झुका लेने का झाँसा देकर उसने अपनी तुष्टि तो कर ली चुँकि ऎसे वाक़यों में पहल लड़के की ओर से ही हुआ करती है । पर अपने कृत्य के परिणाम भुगतने को उसने निरुपमा को अपने हाल पर छोड़ दिया । उसे कम ब कम लड़की को बरगलाने की सज़ा तो मिलनी ही चाहिये, इसमें जीनोटाइपिंग टेस्ट का कोई महत्व नहीं है ।
    जिस तत्परता से निरुपमा के पिता का भेजा पत्र प्रस्तुत किया गया, और मीडिया ने प्रथम दृष्टया को लपक लिया, वह कई प्रश्न ख्ड़े करता है !
    जो कुछ भी हो, इस चर्चा-मँच को अब कोई जन " ही ही-ठी ठी" का ज़मावड़ा नहीं कह सकता । एक दुखते मुद्दे पर, ब्लॉगर के ताज़ा उपलब्ध लिंक को बटोर, ऎसी विचारपूर्ण चर्चा और टिप्पणियाँ निश्चय ही इसे नये आयाम देती है !
    इसी माफ़िक लगे रहने का मास्टर प्रवीण भाई !

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  13. प्रवीण जी, इस चर्चा द्वारा आप के वैचारिक उद्वेलन को अनुभव कर पा रही हूँ। आपने जिस प्रकार विमर्श के लिए प्रविष्टियों को बुना है, उस से ही आपका मन्तव्य भी परिलक्षित होता है। धन्यवाद।

    वैसे आपकी आमद कल स्त्रीविमर्श(http://streevimarsh.blogspot.com) पर साकार [:)] हुई थी।
    उल्लेख के लिए अत्यन्त आभारी हूँ।

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  14. जब चर्चा ही इतनी सशक्त हो तो फ़िर टिप्पणियों की धार उसे और तीखा बना देती है, कुल मिला कर फ़िलहाल तो इतना ही कहने का मन है कि , ये अंक संग्रहणीय बन पडा है । आभार मा स्साब आपका ।

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  15. अत्यंत दुखद लगता है. एक पोस्ट Honor Killings का सच. "राम लाल का ब्लाग" पर भी मैंने देखी थी. अच्छा लिखा था.

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  16. अब तो सिर्फ चर्चा ही कर सकते हैं । जाने वाले चले गये और छोड़ गए अनसुलझे सवाल..............

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  17. बहुत सारे पेंच है इसमे..

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  18. एक लडकी के इसलिए मर जाने या मार दिए जाने के बाद क्‍योंकि वह गर्भवती थी और विजातीय विवाह करना चाहती थी , अपराधियों को और अपराधी बनाने वाली व्‍यवस्‍था को, पहचानने और धिक्‍कारने , कोसने (इतना ही कर सकते हैं) के बजाय समाज के चाहे किसी-भी-पक्ष को ध्‍यान में रखकर, नैतिकता की सावधानियॉं प्रस्‍तावित करने वाले असंवेदनशील सामंती लोग ही प्रत्‍यक्ष और अप्रत्‍यक्ष रूप से इस तरह की घटनाओं के जिम्‍मेवार हैं ।

    एक ऐसा समाज जिसमें एक मॉं अपनी बेटी को समाज की डर की वजह से गला घोंट देती है, की नैतिकता की रक्षा में दिए गए सारे तर्क वमनकारी हैं ।

    जब एक निरपराध मर गया तो भाड में गए आपके सारे विमर्श और नैतिकताऍं और ग्रंथ ..... सिवाय इसके की उसकी मौत के जिम्‍मेवार लोगों को सख्‍त सजा मिले

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  19. सुबह ही चर्चा पढी थी.. तबसे मन एकदम अजीब सा हो गया था... अभी कमेन्ट्स भी पढे और अभी भी मेरे पास कहने को कुछ भी नही है..

    अर्कजेश की लास्ट लाईनो से एकदम सहमत हू..
    "जब एक निरपराध मर गया तो भाड में गए आपके सारे विमर्श और नैतिकताऍं और ग्रंथ ..... सिवाय इसके की उसकी मौत के जिम्‍मेवार लोगों को सख्‍त सजा मिले"

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  20. तथ्यों के आलोक में इन चीजों को भी जोड़ दिया जाना चाहिए -

    निरुपमा को लिखा पिता का पत्र किसने जारी किया?
    क्या माता पिता ने स्वयं? या प्रियभांशु ने?
    प्रियभांशु के पास वह पत्र आया कैसे?

    सन्देह यह जाता है कि निरुपमा की हत्या के समाचार के बाद प्रियभांशु निरुपमा के आवास पर गया होगा, तभी तो वह खोजकर पत्र जारी करता है।

    यदि गया तो यह उसका सम्वैधानिक अपराध है, तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करने की मंशा और उसे क्रियान्वित करना। अर्थात् प्रियभांशु ने कुछ तथ्य मिटाए भी होंगे, उड़ाए भी होंगे।

    क्या यह सम्भव नहीं है कि प्रियभांशु विवाह से मुकर गया हो व निरुपाय निरुपमा अपने माता-पिता के पास इसी दुविधा में गई हो व वहाँ जा कर विवाह न होने की सम्भावना के बावजूद वह प्रियभांशु के गर्भ को नष्ट न करने की जिद्द पर हो... और ऐसी तनातनी, कहासुनी, झगड़े और विवाद का फल हो उसकी मॄत्यु!

    प्रियभांशु के मोबाईल के अन्य रेकोर्ड्स की जाँच भी अनिवार्य है।

    पिता का पत्र जारी करके सारे कथानक को जातिवाद के रंग में रंगने की साजिश का बड़ा मन्तव्य प्रियभांशु के अपने अपराध से ध्यान हटाने व पुलिस और मीडिया को गुमराह करने की साजिश हो।

    वरना मॄत्यु की पहली सूचना के तुरन्त साथ ही प्रियभांशु अपना नाम व चित्र सार्वजनिक न होने की जद्दोजहद में न होता ( जैसा कि कई एजन्सियों ने तब कहा/लिखा/बताया था)।

    वस्तुत: यह स्त्री के साथ छलनापूर्ण प्रेम कथा का पारम्परिक दुखान्त व भर्त्सनायोग्य दुष्कृत्य है। जिसकी जितनी निन्दा की जाए कम है। हत्यारों और हत्या की ओर धकेलने वालों को कड़ा दण्ड मिलना ही चाहिए।

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  21. कविता जी की बात से मेरी सहमती है.
    ये भी तो नहीं पता कि प्रियभान्शु और उसके माता-पिता सहर्ष शादी को तैयार थे? उनकी भी कुछ चिट्ठी पत्री, कोई फ़ोन कुछ तो होगा. कितनी अजीब बात है कि एक बार भी कोई इसकी सुध लेने की कोशिश नहीं करता. अगर वाकई वर पक्ष तैयार था, तो ये उनकी जिम्मेदारी बनती थी कि सम्मानपूर्वक लड़की के माता-पिता से बात करने जाएँ. इस तरह से इस अवस्था में अकेले लड़की को छोड़ना किस तरह उचित है.

    मुझे ये मामला बहुत सरल नहीं लगता. संभव है कि लड़की अपने माता -पिता को मनवा कर शादी कर रही हो, और सिर्फ उनके प्रति अपने प्रेम के लिए घर गयी हो. पर हमारे समाज में जिस तरह से प्रेम विवाह प्रायोजित होते है, उनका अपना दबाब होता है. ये भी उतना ही संभव है कि प्रेमी और प्रेमी के माता-पिता भी सीधे-सीधे कोर्ट की शादी या बिना दहेज़ वाली शादी के पक्ष में न रहे हो. चूँकि लड़की गर्भवती थी, उस पर भावनात्मक दबाब बनाया गया हो अपने माता-पिता को राज़ी करवाने का. अंतरजातीय और गैर अंतरजातीय प्रेम विवाहों में भी विवाह अपनी पसंद के व्यक्ति से होना एक मुख्य कारण है विरोध का, पर उससे भी ज्यादा है कि विवाह धूमधाम से हो, लोगों के खासकर वर पक्ष की दान दक्षिणा बनी रहे. वर और वधु पक्ष दोनों की सामाजिक प्रतिष्ठा विवाह के धूम-धाम से जुडी होती है. संभव है, कि लड़की के पिता ने इस तरह के विवाह को संपन्न करने से मना किया हो, और वर-पक्ष ने लड़की को बिना धूम-धाम, दान-दक्षिणा के स्वीकार करने से. प्रेम विवाह को जिस आसानी से स्वीकृति अब मिल जाती है, बिन दहेज़ की शादी को नहीं है. और अकसर प्रेम विवाह में लड़की और लड़की के माता-पिता पर अतिरिक्त दबाब बढ़ जाता है. इस मामले में प्रियभान्शु और उसके परिवार ने फिलहाल ऐसी कोई भूमिका अब तक नहीं निभाई है जिसके लिए उन्हें सहानुभूती मिले.

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  22. जरा इसे
    http://tutikiawaz.blogspot.com/2010/05/blog-post_05.html

    और इसे भी देखे

    http://tutikiawaz.blogspot.com/2010/05/blog-post_06.html

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  23. दर-असल यह महज़ निरुपमा या एक स्त्री की मौत नहीं वरन समाज के गलन व पतन का प्रतीक है. अपनी बातों को ऊपर रखने के लिए अब समाज में हिंसा को एक अहम् स्थान मिल चुका है.अफ़सोस की बात तो यह है कि तथाकथित बुद्धिजीवी ही इसमें आगे है.

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