सोमवार, मई 10, 2010

चिट्ठे को भी सोशियल नेटवर्किंग बना दिया है

कल मदर्स डे के मौके पर रवि रतलामीजी चर्चा की थी उसमें कल तक प्रकाशित पोस्टों के जिक्र किये थे। देखियेगा।

इस मौके पर बोधिसत्व ने भी कवितायें पोस्ट कीं। एक में वे अपनी मां से दिल्ली के नाम पर दिल्लगी करते हैं:
माँ,
अगर बनी रही दिल्ली
तो दिल्लगी नहीं करता मैं
घर एक
दिल्ली में बनाऊँगा
तुम्हें दिल्ली
दिखाऊँगा।


बोधि जहां यह कहते हैं कि मां तो मां है वह तो प्यार करेगी ही। वहीं अर्कजेश को मदर्स डे मनाना मां के प्रति औपचारिक होने जैसा लगता है:
अपनी अपनी सोच है । और हमारी सोच यह है कि इन सब रिश्‍तों की भावुकताओं को बाजारवादी ताकतें कैश कर रही हैं । एक एसएमएस पैक । कहने का मन करता है कि सब पैसों की चोचलेबाजी है । विडबंना यह है कि जो लोग स्त्रियों को औकात में रहने की नसीहत देते रहते हैं ,वे भी मां का बहुत महिमामंडन करते रहते हैं । आधुनिक समय में एक और प्रवृत्ति पश्चिमी देशों में धीरे धीरे फैल रही है । इसके तहत औरतों को मॉं बनने में कोई फायदा नजर नहीं आता सिवाय झंझट के । इसलिए अब उधर की महिलाऍं बच्‍चे पैदा करने में ज्‍यादा उत्‍सुकता नहीं दिखा रही हैं । जापान की जनसंख्‍या कम होती जा रही है , इसलिए वहॉं की सरकार ने बच्‍चे पैदा करने के लिए प्रोत्‍साहन योजना शुरू की है ।


इसी मौके पर प्रशान्त ने भी मां से जुड़ी यादें बताना शुरू किया।

डा.रूपचन्द्र शास्त्रीजी ने बाबा नागार्जुन से जुड़ी यादें साझा की हैं।

उधर सतीश पंचम जी को देखिये वे खुल्ले में नहा रहा हैं और फोटो भी खिंचवा रहे हैं और उसके बारे में बता भी रहे हैं।

अदाजी आज अपने ब्लॉग पर ब्लॉगपोस्टों के बारे में बता रही हैं अपनी आवाजमें। सुनिये। मधुर आवाज में। अड़तीस मिनट की इस पोस्ट को सुनकर शास्त्री को तबस्सुम और अमीन सयानी की याद आ गयी। आशा है आवाज का जादू नियमित चलेगा।

आज के ब्लॉगर


कल मुझे ई-स्वामी ने इस ब्लॉग के बारे में बताया। मैंने कुछ पोस्टें देखीं और वे बहुत पसंद आईं। ब्लॉग का नाम है हथकड़। सबसे ऊपर लिखा है-[ कच्ची शराब - MOONSHINE ~ illicitely distilled whiskey. ] इससे लगता है यह किसी पियक्कड़ का ब्लॉग है। शुरुआती पोस्टों में काफ़ी दारूबाजी भी है। 1411 बाघ और 11 हिंदी चिट्ठा चिन्तक में देखिये उनके लेखन के अन्दाज की बानगी मिलती है। बात शराब से शुरू हुई:
कल रात को पीने के लिए वोदका का एक पैग ही बचा था। रूस की इस देसी शराब को मैं ज्यादा पसंद नहीं करता हूँ. आधी रात होते ही उतर जाया करती है फिर भांत - भांत के बेहूदा सपने देखते हुए सुबह हुआ करती है. आज विस्की के बारे में सोच रहा हूँ।

और चिट्ठाजगत से जुड़ गयी-
चौदह सौ ग्यारह बाघ और सिर्फ ग्यारह हिंदी चिट्ठा चिन्तक... ? कूट शब्द 1411 के तहत बाघ को समर्पित पोस्ट्स में ग्यारह प्रविष्ठियां दिख रही है। सोचता हूँ किसके बारे में चिंता की जाये ? बाघ या फिर उन के बारे में जो दिन में चार पोस्ट लिखते हैं और चेतना - चूतना की बातें किया करते हैं। जिन्होंने चिट्ठे को भी सोशियल नेटवर्किंग बना दिया है।

और अंत में दो घूंट बाघ को भी पिला दी:
डार्विन साहब की जयकार करते रहो समय बदलेगा तो पारिस्थितिकी तंत्र को भी बदलना ही पड़ेगा और जो फिट है वह सरवाईव करेगा. दुनिया के लंबरदारों के पास बढ़ते तापमान में लोगों के लिए सहानुभूति भी नहीं है फिर तुम तो यार जानवर हो. इसलिए दो पैग लेकर सो जाया करो।


सानिया मिर्जा पर लिखी एक कविता पर के बहाने कविताओं के चयन और उनको प्रकाशित करने के नजरिये पर भी अपनी बात कहते हैं भाईजी:
कवि के लिए दो ख़िलाफ़त भरे शब्द कोई कह दे तो उसके चमचे कांव - कांव करते हुए सर पर मंडराने लगते हैं, यही एक कवि के सफल और महान होने की पुष्टि का एक मात्र तरीका भी है.

सानिया के मशहूर होने की बात पर कवि की सोच से अलग सोच है इनकी:
आपने कविता में सानिया के निजी जीवन को, उसके इश्क़ को और मुश्किलों को रेखांकित करते हुए अंत में बड़ी बेतुकी बात कही है कि कहीं तुम कोक, पेप्सी, क्रीम और पाउडर में न दिखो ...? अगर सानिया मिर्ज़ा इन विज्ञापनों में न दिखती तो क्या अनिल गंगल या उनके पाठक उन्हें जानते होते ? कोई पूछे कि पिछले सैफ खेलों में पदक लाने वाली उत्तर पूर्व की खिलाड़ी का नाम बताओ, जिसके घर से सड़क तक आने के लिए तीन किलोमीटर तक कोई साधन नहीं है ? जिसको जूते भी स्थानीय स्पोंसर ने दिए हैं और बरसात के दिनों में उसकी छत न टपके ये अभी भी पक्का नहीं है ? इस सवाल का उत्तर देने में, मेरे विचार से कई कवियों की फूंक निकल जाएगी .



इस अंदाजे बयां ने मुझे इन राजस्थानी भाई का मुरीद बना दिया। टिपियाने की सोची तो देखा कमेंट बक्सा नदारद है। ब्लॉगजगत के लिहाज से यह अनूठी बात है। मैंने भाईजी से कहा कि अपना कमेंट बक्सा खोलिये न! तो भाईजी ने मौज लेते हुये अपनी सोच लिखी:
टिप्पणी के सन्दर्भ में पहले भी अनजाने मित्रों का आग्रह था किन्तु एक विचार मन में घर किये हुए है कि पढ़े लिखे विनम्र और ज्ञानी लोग जहाँ कहीं संभावना देखेंगे मार्गदर्शन करने का कोई ना कोई रास्ता ढूंढ ही लेंगे. ठीक वैसे ही जैसे आपने कीमती समय को मेरे इन शब्दों को समर्पित किया है


बहराहाल मुझे यह देखकर अच्छा लगा कि एक ब्लॉग ऐसा भी है जो टिप्पणियों से बेपरवाह है। यह बेपरवाही आयें या न आयें वाली नहीं है बल्कि न हीं आयें तो अच्छा है वाली है।

अब आजकल में इसकी सब पोस्टें बांचना ही मेरा अगला काम है। आप भी देखिये हथकढ़



मेरी पसंद


लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो कभी खफ़ा नहीं होती।

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।

मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना।


अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है।

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।

ऐ अंधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया।

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।

मुनव्वर‘ माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में गज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है।
रत्नाजी की पोस्ट मां और मुनव्वर राना

और अंत में


फ़िलहाल इतना ही। आपका सप्ताह मजेदार शुरू हो और झकास बीते इसके लिये मंगलकामनायें।

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12 टिप्‍पणियां:

  1. हथकड़ मैंने पढ़ा है ...मुझे तो पसंद आया था..ओर पुरानी पोस्टो को बांचने के लिए फिलहाल बुक मार्क करके रख दिया है ........ताकि लिखने वाले की सोच में ओर उतर सकूँ......एक किस्म की बोल्डनेस मैंने इस विषय पर महेन में भी देखी थी ........बहुत साल पहले जब ब्लोगिंग में नहीं आया था ..तब एक ब्लॉग पढ़ा करता था....जिसमे सिर्फ दारू के बारे में सूक्तिया थी......शायद आप कुछ रौशनी डाल सके......वेसे रविन्द्र कालिया का आत्मसंस्करण "ग़ालिब छूटी शराब " दिलचस्प है ......पढने के शौकीन उसे नेट पर भी पढ़ सकते है .....

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  2. शुरआती दौर में हम दिल से लिखते है ...फिर धीरे धीरे पाठको के बारे में सोचकर लिखने लगते है ....यानी हमारी असल अभिव्यक्ति कही पीछे छूट जाती है ...सच कहूँ .अपना वही असल रखना ही मूल ब्लोगिंग है ... ....यानी जो सोचते हो.जिस फीलिंग से गुजर रहे हो.....

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  3. बेनामीमई 10, 2010 10:24 am

    good people have started realizing that comments are not important and that blogging is not social networking

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  4. बढ़िया विषय उठाये , सुन्दर चर्चा !

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  5. शानदार चर्चा..बधाई.

    ************************
    'शब्द सृजन की ओर' पर आज '10 मई 1857 की याद में'. आप भी शामिल हों.

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  6. हथकढ़ का मैं भी मुरीद हूँ, भाई !
    प्रचार की भूख से अलग थलग, विवादों की देहरी से दूरी..
    इस पट्ठे की पोस्ट स्वाँतः सुखाय की ईमानदारी को प्रमाणित करती हैं ।

    धन्यवाद अनुराग, एक छोटे से मसले ने मेरी आँखें खोल दीं । मैं स्वयँ ही ताज़्ज़ुब करता था कि फ़रमाइशी फ़ीचर भली भाँति लिख लेने के बाद भी मैं आजकल ब्लॉग पोस्ट क्यों नहीं लिख पाता ? न जाने कितनी पोस्ट ड्राफ़्ट में पड़ी हैं । आने वाली टिप्पणियों के सँख्या को तवज़्ज़ो न देते हुये भी, गेटिंग ऍप्रिसीयेटेड फ़ैक्टर की कतरब्योंत में पोस्ट मुल्ला जी की पायज़ामा बन कर रह जाती रहीं । आज इसका गुत्थी का ’ यूरेका ’ हो गया, धन्यवाद ।
    यदि यह व्यक्तिपरक है तो क्या हुआ, एक दूसरा फ़ैक्टर भी है.. नहीं जानता कि यह मँच इसकी इज़ाज़त देगा कि नहीं, पर समीर भाई की सोच को अनूप शुक्ल के शब्दों में ढालने के प्रयास में मैं स्वयँ बन गया ब्लॉगिंग का कुत्ता.. न पोस्टठेलक का रहा न टिप्पणीकारी का । यह एक ईमानदार स्वीकारोक्ति है कि प्रारँभ से ही दोनों मेरे रोल मॉडेल रहे हैं.. और इनके मध्य साँमजस्य बैठाने के प्रयास में मेरा कचूमर बन गया, जबकि दोनों जन अपनी अपनी धुरी पर बदस्तूर बुलँद हैं । मेरे लिये निरपेक्षिता के पनघट की डगर बहुत कठिन रही । जो है सो है !
    तुम्हारी टिप्पणी के एक मज़मून ने मुझे भड़भड़ा कर रख दिया, सो वह सब यहाँ साझी करने की हिमाक़त ( इसे हिमाक़त ही कहेंगे ) कर बैठा । हथकढ़ की ईमानदार पोस्टों की याद आने से मन और भी सँज़ीदा है ।

    अनूप जी, ऎसी अनर्गल टिप्पणी ख़ातिर..मुझे प्रोवोकेट करने के लिये आज आप भी अनुराग के सँग साझीदार हैं ।

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  7. मैं बार बार अपनी बात रखता आया हूँ कि, ऍप्रूवल की शर्त पूर्वघोषित होनी चाहिये ।
    टिप्पणीकारों पर एक दुविधा का दबाव बनाये रखना निताँत अनुचित है । चर्चा को आद्योपाँत बाँचने के बाद यह ख़्याल क्यों आये कि, बख़्श मेरी खाला.. मैं लँडूरा भला ! ऎसा मॉडरेशन ’ बालिबध ’ से कुछ अलग है क्या, ऍप्रूवल की शर्त पूर्वघोषित होनी चाहिये ।

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  8. लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
    मैं उर्दू में गज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है।

    वाह,

    इसे कहते हैं - हासिले महफिल...

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  9. यह तो बहुत अच्छी चिठ्ठा चर्चा है। किससे बनवाई?

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  10. चर्चा और् अंत में मेरी पसन्द रचना बहुत सुन्दर लगी ।

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  11. ब्‍लॉगरत्‍व (बुधत्‍व की तर्ज पर) प्रदान करने में मदद करने वाली पोस्‍ट और टिप्‍पणियॉं ।

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  12. Hathkad blog ke baare mein bataane ke liye shukirya...hum bhi is par kabhi chakkar lagaa ke dekhenge ki yeh dono doctor log kaahe itne impressed huey jaa rahe hain. AAj toh charcha se jayada Dr. Amar kumaar ki tippani man ko choo gayi hai..very honest comment

    kavita achchi lagi, Satish Pancham ji ke blog se liya hand pump wala photo bhi bahut sunder hai...aabhaar

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