अबे! ओ!!कवि!!!इसको ब्लॉगानुवाद रविरतलामी ने इस तरह किया:
तू लिक्ख,
कागज को घोंच मत,
अच्छी कविता लिक्ख!
अबे! ओ!! ब्लॉगर!!!चर्चा की भाषा में अगर कहें तो इसे कुछ यूं कहा जायेगा शायद:
तू लिक्ख
कीबोर्ड को टकटका मत
अच्छे पोस्ट लिक्ख
अबे! ओ!!चर्चाकार!!!
तू चर्चिया
खाली लिंक में सटा
अच्छी चर्चा कर!
चर्चा करने बैठे तो अदाजी का सवाल भी सामने आकर खड़ा हो गया। वे कहती क्या हैं पूछती हैं:
ई बतावल जावे..चिटठा-चर्चा करे में आपहूँ कौनो पी.एच.डी. ऊ.एच.डी. कीये हैं का ???अदाजी की अपनी अदा है बात कहने की। हां नहीं तो वाली अदाजी का कहने का मतलब है कि कुछ करना-धरना आता भी है चर्चा-उर्चा की खाली मेहनतै करते रहते हैं। :)
इसई बहाने हम पुराने दिन के किस्से याद करने लगे। कभी अदाजी अपनी खनकती आवाज में चर्चा करतीं थीं। कुछ के लिंक जो मिले वे आप भी देखिये/ सुनिये।
1.ब्लॉग समाचार ....ब्लागों की कहानी ...अदा की ज़ुबानी ....
2.ब्लॉग समाचार ...अदा की पसंद .....पाँच पोस्ट्स....(3)
3.ब्लॉग समाचार ....अदा की पसंद....पाँच ब्लॉग और कुछ कमेन्ट.....
4.ब्लॉग समाचार ......पोस्ट माला
जो लोग पाडकास्टिंग के झमेले जानते हैं ऊ लोग समझते हैं कि इसमें कित्ता मेहनत लगती है। लेकिन अदाजी ने काफ़ी दिन तक अपनी आवाज में चर्चा की और खूब पसंद की गयी उनकी चर्चा। तो हमको पी.एच.डी.देने का साजिश करेंगी अदाजी तो हम आपको आपके काम के हिसाब से डबल पी.एच.डी. थमा देंगे -हां नहीं तो कहकर।
इधर-उधर डोलते हुये आज पुरानी चर्चायें देख रहे थे तो सतीश पंचम एक पोस्ट में कुछ ज्यादा चमकते दिखे। सो उनको लिंक दुबारा थमा दिया। उन्होंने लौटती मेल से टिपिया दिया:
दो साल बाद इस चिट्ठाचर्चा को फिर से पढ़ना सुखद रहा। प्रियंकर जी की बात देखिये दो साल बाद भी एकदम टंच लग रही है।बड़ा बवाल है ये नास्टेल्जिया भी। हम कहां से कहां टहलन लगे:
उन्ही की बात कापी पेस्ट कर रहा हूं - हिंदी चिट्ठाकारी हिंदी समाज के पुराने कुएं में लगा नया रहट है. रहट की डोलचियों में पानी तो उसी समाज का है . उस बंद समाज की समस्याएं ही हिंदी चिट्ठाकारी की भी समस्याएं हैं. समाज बदलेगा,तभी चिट्ठाकारी का स्वरूप बदलेगा. तब हिंदी चिट्ठाकारी का पोखर इतना बड़ा महासागर होगा जिसे छोटे-मोटे दूषक तत्व प्रदूषित नहीं कर पाएंगे.
आये थे करने चर्चा
लगे करने टाइम खर्चा
कल की चर्चा में अलीजी की प्रतिक्रिया थी
फेसबुक वाले छोड़ कर सभी लिंक देख पाये ! लिंक देखते हुए सहजै रहिबा तक भी पहुंचे , बेहतर कवितायें पर प्रतिक्रियायें ?
अपने ब्लॉगजगत का यही किस्सा है। बहुत सारा अच्छा पढ़ने से रह जाता है। आज ऐसे ही घूमते हुये सीतापुर के अरुणमिसिर के ब्लॉग तीन पत्ती पर पहुंचे। ये कविता देखिये:
झोपड़ी मेंइस कविता की व्याख्या के लिये काम भर की समझ नहीं है लेकिन कविता जमी बहुत। यह भी लगा कि कैसी-कैसी तो इधर-उधर की तुकबंदियों में टिप्पणियों की झड़ी लगा देते हैं हम लोग। लेकिन यहां कोई आया नहीं। हमें लगता है ब्लॉगर भी एकदम मध्यमवर्गीय आदतों वाला होता है। जानी-पहचानी जगहों पर जाता है। टिपियाता है चला जाता है। अनजान जगहों पर जाने में सकुचाता है।
दस लोग खड़े थे
पाँच ने सोंचा पाँच ही होते
तो बैठ सकते थे
दो ने सोंचा दो ही होते
तो लेट सकते थे
एक ने सोंचा केवल मैं ही होता
तो बाकी जगह
किराए पर उठा देता !
खैर छोड़िये अगली कविता देखिये मिसिरजी की:
अपने घर को घुमा कर मैंनेआगे की कविता आप मिसिरजी की पोस्ट में बांचिये। और कवितायें भी उनके ब्लॉग पर देखिये। कुछ कवि्तायें उनकी धूप के गांव में भी हैं।
उसका रुख समंदर की ओर कर दिया है
वह पोखर जो कभी घर के सामने था
पिछवाड़े हो गया है !
लगभग भूला ही रहता हूँ उसे अब
लेकिन कभी जब यूँही बे-इरादा
पीछे की खिड़की खोलता हूँ
हुमक कर आ जाता है
आधा चेहरा छिपाये सिर्फ एक आँख से देखती
उस दलित लड़की-सा
जो अभी तक मेरे वादों को सच मानती है !
कल चर्चा में सिद्धार्थ जोशी ने एक लाईना की फ़रमाइश की। एक लाईना या्नी वन लाइनर के बड़े रोचक अनुभव रहे हैं। शुरुआती दौर में लोगों ने इनको बहुत पसंद किया। फ़िर कुछ लोगों को खराब लगा। कुछ लोगों ने इसमें चर्चाकार की प्रत्युत्पन्न मति देखी जबकि कुछ को व्यंग्यकार की धूर्तता। हालांकि इसे पसंद करने वाले ज्यादा थे लेकिन फ़िर यह कम होता गया। अब जो्शी जी ज्योतिषी हैं लेकिन उन्होंने नहीं बताया कि एक लाईनाम में हमारे लिये धिक्कार योग हैं सराहना का जुगाड़। बहरहाल हम अनुराग कश्यप मोड में जाते हुये (जैसा पाठक चाहते हैं वैसी चर्चा की जाती है) चंद एक लाईना पेश कर रहे हैं। जिस किसी को बुरा लगे बता दे , उसकी पोस्ट का लिंक हटा दिया जायेगा।
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मेरी पसंद
बहुत बार चाहा , में शूलों का दर्द कहूंकिन्तु एक रूप उतर आता है गीतों में.
जब भी मैं आया हूँ फूलों के मधुबन में ,
शूलों से भी मैंने रूककर बातें की हैं .,
फूलों ने अगर दिए मकरंदित स्वप्न मधुर ,
शूलों ने भी मुझको दुःख की रातें दी हैं.
बहुत बार चाहा दुःख सहकर भी मौन रहूँ ,
वरवस एक रूप गुनगुनाता है गीतों में,
मेरे मन पर यदि है जादू मुस्कानों का ,
आँसू की भाषा भी जानी पहचानी है ,
एक अगर राधा है ब्रज के मनमोहन की ,
दूजी तो घायल यह मीरा देवानी है.
बहुत बार चाहा है आँसू के साथ बहूँ ,
किन्तु एक रूप मुस्काता है गीतों में.
कृष्णाधार मिश्र, शाहजहांपुर