मंगलवार, जून 05, 2012

संस्मरणों की दुनिया के रोजनामचे

कल चर्चा करने के बाद अच्छा लगा। सोचा कि चर्चा नियमित करनी चाहिये। सो आज भी सुबह से खुटखुटाने लगे। इस बीच ब्लॉगर के हुलिया और जलवा दोनों बदल गया है। यह भी देखा कि भले ही चर्चा का काम पिछ्ले बहुत दिनों से ठप्प सा था लेकिन नियमित पचास-साठ लोग चिट्ठा चर्चा देखते थे। कल लगभग दो सौ लोगों ने देखी।

कल रविरतलामी का इंटरव्यू चर्चा पर पोस्ट किया । संयोग से कल ही हिंदी के पहले चिट्ठाकर आलोक कुमार से भी आनलाइन मुलाकात हो गयी। बहुत देर तक चैटियाते रहे। उनके साथ हुयी चर्चा के अंश ठीक-ठाक करके जल्दी ही पेश किये जायेंगे। वैसे यह संयोग ही है कि हिंदी के पहले चिट्ठाकार के शुरुआती अनुभवों के बारे में अभी तक हम लोगों ने कोई बातचीत पोस्ट नहीं की।

कल कार्टून पोस्ट करना छूट गया था। इसलिये आज की शुरुआत ही कार्टून से की। कार्टूनिस्ट तो वैसे और भी हैं लेकिन काजल कुमार इस मामले में खास अपने लगते हैं काहे से कि वे नियमित रूप से ब्लाग जगत से जुड़े रहते हैं। एक पुरानी चर्चा याद आ रही है जिसमें सिर्फ़ कार्टूनिस्टों की चर्चा की गयी थी।

यह भी संयोग ही है कि बहुत दिनों के बाद डा.अनुराग आर्य की पोस्ट आयी। अनुराग आर्य का लिखने का अंदाज ऐसा है कि एक ही पोस्ट में न जाने कहां-कहां एयरलिफ़्ट करा देते हैं। यूरोप का कोई एयरपोर्ट है, सहारनपुर का कोई रेलवे प्लेटफ़ार्म है, एक टुकड़ा गुड़गांव है और आखिरी में डायरी। कमेंट बक्से पर ताला है। किसी को अंदर घुसने की इजाजत नहीं पोस्ट के। बस बाहर से ही निहार लो चकमक टुकड़े सजे हुये शो केस में। बातें भी इत्ते इशारे में की जाती हैं कि जरा सा चूके नहीं कि स्पार्किंग शुरु। कनेक्शन गुल्ल। फ़िर लौटकर आओ। तार जोड़ो और नये सिरे से रोशनी में सफ़र शुरु करो।

कई टुकड़े हैं इस पोस्ट के। एकाध झलक दिखला देते हैं:

 रहने दो ,तुम साले मर्द जिस्म से ऊपर उठते नहीं हो ....ख़ूबसूरती !!,
नहीं यार जिस्म भी ज्यादा देर अटरेक्ट नहीं कर पाता रोक नहीं पाता ,आप उबने लगते हो . प्यार में आप उबते नहीं  प्यार में उबने लगो  तो समझ लो या तो स्पेस चाहिए या इस प्यार को वापस टटोलने की जरुरत  है
" इतने बड़े एक्सपर्ट थे तो समझे क्यों नहीं ?"
"पर  तुमने कब कहा  था तुम मुझे उस नजर से देखती हो"
"लडकिया कभी नहीं कहती"
"जता तो देती है "
"कन्फ्यूज़  थी ओर न इतनी हिम्मत थी तब  " .!
"ओर मै कहाँ कहाँ भटकता रहा "
"हमारे  पास वो नहीं थी न ......ख़ूबसूरती !"
वो उसे देखता है एकटक   "तुम दुनिया में सबसे अलग  थी मेरे लिए ,बहुत अच्छी   "
वो कुछ कहना चाहती है फिर जाने क्यों रुक गयी है "डेस्टिनी " !
"फिर आज क्यों कहा ?"
ओह अब मै बोल्ड हूँ ,ओर तुम साले बूढ़े हो गए हो
यह पढ़कर लगता है कि पोस्ट के इस टुकड़े में नायिका नायक के साथ पुराने दिनों के कारीडोर में टहलती है। पहले जो कह नहीं पाये दोनों आपस में उसका कारण साझा करते हैं। नायिका अब बोल्ड हो गयी है। दो-तीन मिनट में नायक को दो बार साले बोलती है। हमारा  जैसा कोई खुराफ़ाती चर्चाकार होगा तो यही कहेगा- लड़की का लड़के को साले कहना लड़की की बोल्डनेस की निशानी है। लड़की-लड़का न जमे तो नायक-नायिका कह सकते हैं।

पोस्ट का सहारनपुरवाला हिस्सा बचाकर निकल जाने का मन करता है। सच जरा ज्यादा बोल्ड होता है न! तीसरा हिस्सा आपके और हमारे कई लोगों के जीवन के हिस्से होंगे। लेकिन चौथा हिस्सा खास अनुराग की डायरी का हिस्सा हो सकता है:
"दरअसल
हम सब इक ढोंग है
 बरसो से न कोई बुद्ध है न कबीर
राम निर्वासित है
तबसे ही
कोई लक्ष्मण उन्हें लेने नहीं जाता
रावण हो गये है अमर
पृथ्वी हांफती है काटते पूरा एक चक्कर
ईश्वर ने दे दिया है त्यागपत्र
कलयुग को मिल गयी है अगले चार सौ सालो की लीज़ ! "

ऊपर शायद किसी को एतराज हो कि ये तो हमारी भी डायरी का हिस्सा है। तो ऊपर अनुराग की डायरी की जगह अनुराग जैसे लोगों की डायरी का हिस्सा पढ़ें।

 डा.अनुराग के न जाने कित्ते प्रशंसक हैं। सब बड़े चाव से टिपियाते हैं उनके यहां। उनको अपनी अभिव्यक्ति का मौका दिये बिना अपने कमेंट बक्से में ताला लगा लिहिन डाक्साब। आप इस पोस्ट को निहार सकते हैं, सराह सकते हैं लेकिन टिपियाने के लिये अधिकृत नहीं है आप। ठीक है भाई!  :)

कमेंट बक्सा बंद करने वाली एक ठो और ब्लागर हैं -अदा! हां नहीं तो वाली अदा! जिन लोगों ने उनके सक्रिय और हां नहीं तो! फ़िनिशिंग वाली पोस्टें/ टिप्पणियों   के दौर देखे हैं वे उनके लेखन से बाकिफ़ होंगे। कुछ दिन उन्होंने अपनी आवाज में ब्लॉग चर्चा भी की। लेखन बिन्दास लेखन वाली अदाजी की आवाज बहुत शानदार है। इसका प्रमाण उनकी हर पोस्ट के नीचे उनकी आवाज में गाया हुआ गाना सुनकर मिलता है। कभी-कभी उनके श्रीमानजी भी संगत देते हैं। युगलगीत सुनकर लगता है जुगलजोड़ी को गला भी जोड़े में मिला है। :)

अदाजी ने पिछले दिनों कुछ बेहतरीन संस्मरण लिखे। उनमें से एक में अपने रेडियो प्रोग्राम के दिनों की यादें साझा की हैं। माउस और की बोर्ड को दरकिनार कर मन से लिखे इस संस्मरण में वे लिखती हैं:
मेरे श्रोता हर उम्र और हर तबके के लोग थे, मुझे याद है, एकाकी जीवन जीते हुए बुजुर्ग दंपत्ति, हॉस्पिटल में ३ साल से आपाहिज पड़ी महिला, फैक्टरी में रात की ड्यूटी करती हुई हिन्दुस्तानी महिलाएं, और अकेला टोरोंटो से रोज़ ओट्टावा आता हुआ ट्रक ड्राईवर, रात को बर्फ में टैक्सी चलाते टैक्सी ड्राईवर, और घर में नितांत अकेले रहने वाले हमारे बुजुर्ग...जब भी उनके फ़ोन आते थे, और उनको जब भी रेडियो पर मैं लेकर आती थी, उन्हें मैं उनकी अपनी नज़र में ऊँचा उठते देखती थी...उनकी आवाज़ में जो ख़ुशी मैं महसूस करती थी, उसको बयाँ करने की ताब मेरी लेखनी में नहीं है...
और भी कई तरह के श्रोताओं के किस्से सुनाते हुये वे बताती हैं:
क्या-क्या और कितनी बातें बताऊँ...सैकड़ों बातें हैं...वो ट्रक ड्राईवर जो टोरोंटो से ओट्टावा हर दिन आता था...कहता था मेरा सफ़र ४ घंटे का होता है सपना जी, आपके प्रोग्राम को सुनने के लिए मैं ठीक ८ बजे चलता हूँ टोरोंटो से, आपकी आवाज़ के साथ मेरे २ घंटे, कैसे बीत जाते हैं पाता ही नहीं चलता....या फिर उस दंपत्ति का जिनका तलाक़ होने वाला था और मेरे रेडियो प्रोग्राम ने वो होने नहीं दिया...या फिर उनलोगों का ज़िक्र करूँ, जो अपने बुड्ढ़े माँ-बाप को गराज में रखते थे, और हर सुबह गुरुद्वारे छोड़ आते थे, ताकि उनके खाने का खर्चा बच जाए..(इसके बारे में तफसील से लिखूंगी ), जिनको मैंने इतना लताड़ा, कि वो सुधर ही गए और, उनके माता-पिता की दुआओं ने मेरी झोली भर दी...

पोस्ट के आखिरी में वे अपने गुरु जी की आवाज सुनने पर हुये अपने हाल बयान करती हैं । हाल जो हुये वो तो उनकी पोस्ट में ही बांचियेगा आप। हम तो खाली आफ़्टर इफ़ेक्ट बता रहे हैं:
.....कुछ देर बात करने के बाद,  फ़ोन काटना पड़ा मुझे...इस बीच मैं एक भी फ़ोन नहीं ले पाई, डर के मारे मेरी आवाज़ काँप रही थी...कुछ संयत होकर जब मैंने फ़ोन काल्स लेना शुरू किया...मेरे सुनने वालों ने साफ़-साफ़ बता दिया...सपना जी, आपने जितनी देर अपने गुरु से बात की आप खड़ी थीं , हमें पता चल गया था...आपकी आवाज़ में वो घबराहट, वो आस्था, वो सम्मान था, जिसे हम न सिर्फ़ सुन रहे थे, महसूस भी कर रहे थे...और मैं हैराँ थी, आवाज़ की दुनिया भी कितनी पारदर्शी होती है...है ना !!!

ऊपर अनुराग और फ़िर अदाजी की पोस्टें पढ़ते हुये लगा कि ब्लागजगत के सबसे बेहतरीन पोस्टें संस्मरणों की दुनिया में सैर के रोजनामचे हैं।  बाकी तो सब ठीक है उनका अपना फ़ैसला है लेकिन कभी-कभी लगता है कि ये बिहार के पानी के किस्से सुनाने वाली अदाजी की ये अदा ठीक नहीं कि अपने कमेंट बक्से पर ताला सटा के चाभी कहीं छुपा दी- हां नहीं तो। :)

इस बीच अनीताकुमार जी ने भी नये सिरे से लिखना शुरु किया। सिंगापुर पलट पोस्टें लिखने के बाद ब्लाग सर्वे किया। आप भी अपने विचार बताइये उनको। उनके यहां कमेंट बक्से में ताला नहीं लगा है। सवाल भी बड़े आसान टाइप हैं जैसे कि:

1) क्या आप के भी ब्लॉग के ऐसे सक्रिय पाठक है जो खुद ब्लॉगर नहीं है पर आप के लिखे का इंतजार रहता है उन्हें?
2) क्या ये पाठक जन सिर्फ़ पढ़ते ही हैं या टिपियाते भी हैं? अगर नहीं टिपियाते तो आप को कैसे पता चलता है कि वो आप के पाठक हैं?

3) क्या ये पाठक  आप के लिये पहले अजनबी थे या आप के अपने परिवेश में से ही हैं, जैसे आप के दोस्त, रिश्तेदार, सहकर्मी, बॉस, इत्यादी?

4) ऐसे पाठकों के प्रति आप उतने ही सहज रह पाते हैं जितने ब्लॉगर बिरादरी के पाठकों के प्रति?

5) क्या पोस्ट लिखते समय आप इस बात का ख्याल रखते हैं कि ये पाठक आप का लिखा पढ़ने वाले हैं और हो सकता है कल दफ़तर में  ही मौखिक या टेलिफ़ोन पर ही टिपिया रहे हों?

6) कहीं इस एहसास से आप के लेखन में कमी या कृतिमता तो नहीं आयी?

जबाब आप उनकी पोस्ट पर ही दीजिये। 


आज के लिये फ़िलहाल इतना ही। बकिया फ़िर । जल्दी ही।


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14 टिप्‍पणियां:

  1. अदा जी को नियमित पढ़ता और सुनता रहता हूँ,गज़ब लिखती और मधुर गाती हैं !

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  2. shandar cha jandar charcha........philhal link ki
    sair kari jai.....phir milte hain....

    pranam.

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    1. मिले नहीं फ़िर! सैर में व्यस्त हो गये लगता है।

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  3. वाह...सुन्दर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

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  4. मुझे भी लगता है कि टिप्पणी डब्बे पर ताला लगाना पढ़ने वालों के साथ नाइंसाफ़ी है। अनुराग जी की हर पोस्ट प्रशंसनीय होती है। आलोक जी से हुई आप की बातचीत का इंतजार है।
    धन्यवाद

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  5. फिर से कुनबा सहेजिये ...शुभकामनाएं!

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  6. आपकी बात हम उठा नहीं सकते हैं अनूप जी..कोसिस भी कीये बाक़ी मालूम नहीं का पिरोब्लेम है, कमेन्ट बॉक्स खुल के ही राजी नहीं हैं :(

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    1. खुलेगा! जल्द ही। कोशिश कीजिये फ़िर से।

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  7. अनुराग जी की पोस्ट वैसे तो मिस नहीं करता हूँ पर पिछले दिनों हो गयी , आपकी चर्चा ने मिलवा दी, ये बढ़िया हुआ...
    उन्हें पढ़ना सुखद अनुभव है, ज़ूम-इन ज़ूम-आउट और फ्लैशबैक के साथ ही साथ कहानी एक रफ़्तार से आँखों के सामने से गुज़रती है| और आप भी "घणे" जौहरी हैं, मान गए आपकी पारखी नज़र को :) :) :)

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