इन दिनों बहुत से ब्लौगरों ने फेसबुक और ट्विटर की बढ़ती लोकप्रियता और सुविधाओं पर चर्चा की. सारी बातों का निचोड़ यह निकला कि फेसबुक और ट्विटर त्वरित और क्षणिक गतिविधि के रूप में अधिक उपयोगी हैं पर इनमें ब्लौगिंग जितनी व्यापकता और विमर्श की कमी है. यह सही है. विधिवत ब्लौगिंग करने के लिए आपको कम्प्युटर की ज़रुरत होगी जबकि फेसबुक और ट्विटर का सञ्चालन मोबाईल पर भी भली-भांति किया जा सकता है. मेरे पास बाबा आदम के ज़माने का मोबाईल है जिसमें इंटरनेट नहीं आता इसीलिए मैं अभी तक फेसबुक और ट्विटर का उपयोग एक सीमा से अधिक नहीं कर पाया हूँ.
मैं अक्सर ही बहुत विविध विषयों को इंटरनेट पर सर्च करता हूँ और सर्च के परिणाम स्वरूप मुझे अनेक नए ब्लौगों के बारे में पता चलता है. यह भी देखने में आता है कि बहुतेरे ब्लौगर आइसोलेटेड होकर ब्लौगिंग कर रहे हैं और उनका कोई पाठक वर्ग नहीं है. यही कारण है कि ऐसे ब्लौगरों में से ज्यादातर ब्लौगर कुछ पोस्ट लिखने के बाद ब्लौगिंग करना छोड़ देते हैं. हिंदी में ऐसे अनेक बेजोड़ ब्लॉग हैं जिनमें पिछले चार-पांच सालों में एक भी पोस्ट नहीं लिखी गयी है. कल को ऐसा भी हो सकता है कि गूगल या अन्य ब्लॉग सेवा प्रदाता कम्पनियाँ ऐसे ब्लौगों को निष्क्रिय मानकर डिलीट कर दे. इसका एक ही समाधान है कि हम ऐसे ब्लौगरों से संपर्क साधकर उन्हें कभी-कभार एक पोस्ट लिखने के लिए प्रेरित करें. निष्क्रिय पड़े ब्लौगों के डिलीट हो जाने पर उनमें प्रस्तुत सामग्री हमेशा के लिए लुप्त हो जायेगी क्योंकि इन ब्लौगरों ने उसे संजो कर नहीं रखा होगा.
दो दिन पहले मैं संस्कृत साहित्य के एक आख्यान को याद करने का भरसक प्रयास कर रहा था और इसके लिए मैंने फेसबुक पर मित्रों की सहायता भी मांगी. स्मृति के आधार पर मैंने हिंदी में कुछ कीवर्ड गूगल पर डालकर सर्च किया तो मुझे एक ब्लॉग में संस्कृत का वह श्लोक मिल गया जो मैं खोज रहा था. वह श्लोक यह है:
विप्राअस्मिन् नगरे महान् कथय कस्तालद्रुमाणं गणः
को दाता रजको ददाति वसनं प्रातर्गृहीत्वा निशि
को दक्षः परवित्तदारहरणे सर्वोपि दक्षो जनः
कस्माज्जीवसि हे सखे! विषकृमिन्यायेनजीवाम्यहम्.
(चाणक्य नीति, अध्याय 12, श्लोक 9)
एक ब्राहमण से किसी ने पूछा, "हे विप्र ! इस नगर में बड़ा कौन है?"
ब्राहमण बोला, "ताड़ के वृक्षों का समूह".
प्रश्नकर्ता ने पूछा, "दानी कौन है?"
ब्राहमण ने कहा, "धोबी. वह प्रातः काल कपड़े ले जाता है और शाम को ले आता है."
प्रश्नकर्ता ने फिर पूछा, "यहाँ चतुर कौन है?"
उत्तर मिला, "दूसरों की बीवी को चुराने में सभी चतुर हैं"
प्रश्नकर्ता ने आश्चर्य से पूछा, "तो मित्र ! फिर तुम यहाँ जीवित कैसे रहते हो?"
तो उत्तर मिला, "मैं तो ज़हर के कीड़ों की तरह बस किसी तरह जी ही रहा हूँ!"
कृपया हर कथा या आख्यान की भांति उपरोक्त श्लोक को ब्लॉग जगत की दशा/दिशा से जोड़कर नहीं देखें, अन्यथा इसकी गति भी लोमड़ी और शेर वाली निर्दोष कथाओं की भांति होगी. मैं यहाँ सिर्फ यह बताना चाह रहा हूँ कि जिस चीज़ को मैं यहाँ-वहां खोज रहा था वह सर्च करने पर मात्र पांच सैकंड में एक ब्लॉग पर मिल गयी. श्री अमित त्यागी के जिस पोस्ट में यह श्लोक उद्घृत है उसमें भारत की वर्तमान परिस्थितियों का खाका खींचा गया है. त्यागी जी लिखते हैं:
"एक सज्जन व्यक्ति बड़े से शोरूम के बाहर से गुज़रा। वह शोरूम को अंदर से देखना चाहता था। उसने गेट पर बैठे एक चौकीदार से पूछा क्या मैं अंदर जा सकता हू ? चौकीदार ने मना कर दिया। सज्जन व्यक्ति चुपचाप एक तरफ बैठ गया। तभी एक ‘कूल डूड’ आया और सीधा अंदर चला गया। सज्जन व्यक्ति ने चौकीदार से पूछा ? आपने उसको क्यों जाने दिया तो चौकीदार बोला उसने मुझसे पूछा ही कब था..?... नियमों को मानने वालों की यही नियति होती है। संपूर्ण व्यवस्था में उनकी स्थिति एक एलियन से कम नही होती ? भ्रष्ट एवं कमज़ोर तंत्र की यह विचित्र विडंबना है कि ईमानदार एवं पाबंद व्यक्ति की गुजर यहॉ एक दिन भी संभव नही है। ...सब चलता है.... के कांसेप्ट ने ही आज हमें उस मुकाम पर ला खड़ा किया है जहॉ 121 करोड़ लोगों में अन्ना हजा़रे एंड पार्टी दूसरे ग्रह के प्राणी जैसे लगने लगे हैं।"
यहाँ यह स्पष्ट करना ज़रूरी होगा कि उपरोक्त श्लोक मुझे हिंदी व संस्कृत के अनेक ब्लौगों पर ही नहीं बल्कि मराठी और अंग्रेजी के ब्लौगों पर भी उद्घृत मिला. हिंदी और अंग्रेजी से इतर भी एक दुनिया है ब्लौगिंग की जो यकीनन समृद्ध होगी और शायद कई मामलों में बेहतर भी. इधर हम अपनी कूपमंडूकता में ही मस्त फन्ने खाँ बने जा रहे हैं.
बहरहाल, त्यागी जी की उपरोक्त पोस्ट का विषय है भ्रष्टाचार. इसपर अब इतनी बात हो चुकी है कि बहुतेरे लोग उकता गए हैं. हम यह अपेक्षा करते हैं कि सभी का आचरण आदर्श हो जाए तो समस्या का समाधान हो जायेगा लेकिन यह होना मुश्किल है, जैसा फिल्म 'दीवार' के एक संवाद में कहा गया कि "आदर्श और उसूल... इनको गूंथकर दो वक़्त की रोटी नहीं बनती". फिर किया क्या जाए?
"हम भारतीय लोग कार्यो को अधूरा छोड़ देते हैं। कुछ समय काले धन एवं स्विस बैंक पर ध्यान लगाते हैं फिर खापों के तुगलकी फरमानों और अनावश्यक दिये जाने वाले फतवों का प्रतिकार करते हैं। कुछ समय महॅगाई पर भी चर्चा करते हैं। विश्व कप विजय का जश्न तो ऐसे मनाते हैं जैसे यह विजय हमारी समस्याओं के उपर समाधान की जीत हो। शायद हम कोई भी कार्य हाथ में लेकर एक सिरे से निपटाते नही हैं। समस्याए काफी उलझी हुयी हैं एवं रास्ता जटिल है। धरना प्रदर्शन करने वाले विपक्ष का कार्य भी सिर्फ सत्ता पक्ष का विरोध करना मात्र होता है मुद्दों को सुलझाना नही। मुद्दो के सुलझते ही सबकी राजनैतिक जमीन ही खिसक जायेगी।" (त्यागी जी की पोस्ट से)
डॉ. अरविन्द मिश्र जी ने भी अपनी ताज़ा पोस्ट भ्रष्टाचार के बिंदु पर लिखी है. इस समस्या का समाधान यद्यपि वह भी नहीं सुझा पाए. एक समाधान दिखता है सो उनकी ही पोस्ट में:
"गीता में कहा गया है - यद्यदाचरति श्रेष्ठः तद्देवो इतरो जनः स यतप्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्त्तते मतलब जैसा आचरण 'श्रेष्ठ ' लोग करते हैं वैसा लोग अनुसरण करते हैं। अगर ऊपर के लोगों का आचरण पारदर्शी निष्कलंक हो जाए तो नीचे तो अपने आप चीजें सुधर जाएं। ज्यादातर मुलाजिम ऊंचे ओहदों पर कार्यरत बॉस का ही तो अनुसरण करते हैं।"
भ्रष्टाचार रोग है, कोढ़ है, नासूर है, यह है, वह है... पिछले कुछ अरसे में यह सब पढ़-पढ़कर मन उकता गया है. फिर भी, मिश्र जी ने सरकारी सेवक होने के नाते अपनी दुविधा को भली प्रकार व्यक्त किया है. उनकी पोस्ट पर संजय अनेजा जी का बेहतरीन कमेन्ट पढ़िए. कमेन्ट की आखिरी लाइन अतिरोचक है:)
"मैं एक साधारण सा मुलाजिम हूँ और मैंने यह पहले दिन से तय कर रखा है कि मुझे घूस नहीं लेनी है, किसी से undue benefit नहीं लेना है और जब और जहां मौक़ा मिलता है अपने डीस्क्रीशन का अपनी समझ में जेनुईन जगह पर प्रयोग करता हूँ, उसके लिए नियमों को गीता-कुरआन नहीं मान लेता. ये वो बातें हैं जिन्हें मैं खुद पर लागू कर सकता हूँ और इस सबके लिए किसी अन्ना, केजरीवाल या किसी और मसीहा का इंतज़ार नहीं करता. सौ प्रतिशत ईमानदारी की गारंटी नहीं देता, सौ प्रतिशत प्रयास की गारंटी देता हूँ. घूस लेता नहीं हूँ लेकिन कई बार देनी जरूर पड जाती है :( 'सम्वेदना के स्वर' पर डा.पी.सी.चरक वाली कड़ियाँ आपने पढ़ी हैं? न पढ़ी हों तो पढ़ देखियेगा, जिस व्यवस्था के हम पुर्जे हैं उसका एक अलग ही नजरिये से अवलोकन है|
आपकी 'नारी देह नारी मन' विषय विशेषज्ञता से इतर यह पोस्ट पसंद आई|"
मुझे संजय भाई की कुछ दिन पुरानी वह पोस्ट याद आ गयी जिसमें उन्होंने ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने की प्रणाली का वर्णन किया था.
अनुराग शर्मा जी के ब्लॉग में फेसबुक और ब्लौगिंग में आयेदिन सामने आनेवाली परेशानियों का विमर्श किया गया है. ब्लौगिंग विषयक पोस्टों की यह विशेषता है कि उन्हें खूब पाठक और टिप्पणियां मिलतीं हैं, हांलांकि अनुराग शर्मा जी को पढ़ने और टिपियाने वाले कम नहीं हैं. उक्त पोस्ट पर बहुतेरे कमेन्ट भी पढ़ने लायक हैं. यदि सारे कमेंटों को निकालकर केवल डॉ. मिश्र के पहले कमेन्ट को ही रख दिया जाये तो भी बात वहीं रहेगी. बकौल मिश्र जी, "ग़म ही ग़म है मुई इस ब्लागिंग में".
कल की पोस्ट में अनूप जी ने फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' पर आई अनेक पोस्टों की खोजखबर ली थी. हर चर्चित फिल्म को देखने की ख्वाहिश करता हूँ पर उसके बारे में इतना पढ़ लेता हूँ कि उसके लगभग हर पक्ष से परिचित हो जाता हूँ. ऐसे में अगर फिल्म देखने जाऊं भी तो लगेगा कि यह फिल्म ना जाने कितनी बार देखी जा चुकी है. 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' के साथ भी यही हुआ है. भिन्न-भिन्न अभिरुचियों और झुकाव वाले ब्लौगरों ने इसपर बहुत कुछ लिख दिया. इसी कड़ी में कबाड़खाना पर अनिल यादव का रिव्यू जैसा फेसबुक स्टेटस पोस्ट किया गया जो इस फिल्म की अतिरंजनाओं और अरुचिकर स्थापनाओं को बहुत अच्छे से बयान करता है. आश्चर्य है कि यह पोस्ट अधिकांश पाठकों की नज़र से चूक गयी. पोस्ट में अंत में जो कुछ कहा गया है उसे हम अच्छे/बुरे सिनेमा की स्तरीय परिभाषा भी मान सकते हैं:
"हर बेहतर फिल्म निजी जिंदगियों की कहानी कहती है और इस तरह से विस्तार लेती है कि वह कहानी निजी न होकर सार्वभौमिक हो जाती है- कोई बड़ा सत्य उद्घाटित करती है (उदाहरण- रोमान पोलांस्की की पियानिस्ट, स्पाइडरमैन, बैटमैन सिरीज़ या फिर सलीम-जावेद की लिखी अमिताभ की फिल्में) यहां उल्टा है, इतिहास से चलती हुई कहानी अंत तक पहुंचते-पहुंचते एक व्यक्ति की निजी जिंदगी के फंदे में झूल जाती है.”
नारी ब्लॉग पर वंदना जी की एक कविता को लेकर विमर्श हुआ. वंदना जी की कविता में स्तन कैंसर से ग्रस्त स्त्री की शल्य चिकित्सा के बाद उसमें जनित अपूर्णता के विचार का अन्वेषण है क्योंकि स्त्री के वक्ष उसके स्त्री होने और स्त्रीयोचित सौंदर्य का प्रतिमान हैं. वंदना जी की पोस्ट पर और नारी ब्लॉग पर इस तथाकथित अपूर्णता और सौन्दर्यबोध को लेकर खासा विमर्श हुआ जिसमें कई कमेंट्स पढ़ने लायक हैं. पोस्टों पर महत्वपूर्ण कमेन्ट करनेवाली ब्लौगर आर. अनुराधा कैंसर के इस प्रकार से पर विजय प्राप्त कर चुकी हैं. उन्होंने अपने अनुभवों पर एक किताब भी लिखी है जिसके बारे में डॉ. सुषमा नैथानी जी ने लिखा था. पूरी पोस्ट में मुझे अनुराधा और अदा जी के कमेंट्स बेजोड़ लगे:
अनुराधा - "दरअसल मुझे लगता है कि यह सारी समस्या महिमामंडन की, अतिरेक की है। मां का महिमामंडन, फिर इस बीमारी का और उससे होने वाले 'नुकसान' का। क्यों नहीं इसे भी एक बीमारी की तरह देखा जा सकता? इसका भी इलाज है, समस्याएं हैं और इसके साथ भी जीवन है। क्या दूसरी सैकड़ों बीमारियां इसी तरह अनिश्चित भविष्य वाली नहीं होती? क्या सिर्फ इसलिए कि पुरुषों को अपने खेल के 'खिलौने' में कुछ कमी हो गई लगती है, यह बीमारी इतनी बड़ी समस्या बन जाती है?
अदा - "कोई उनसे जाकर पूछे जो इस दौर से गुजरतीं हैं, उन्हें अपना वक्ष प्रिय था या प्राण..
एक से एक सुन्दर इन्सान उम्र के साथ बन्दर हो जाता है, वो वक्ष जो प्राण लेने पर उतारू हो उसका नहीं होना ही ठीक है, और अगर इस कमी की वजह से कोई किसी को असुंदर दिखती है, तो देखने वाले के दिमाग ईलाज होना चाहिए, ख़ूबसूरती ३४-३२-३४ के इतर भी होती है...देखने वाली नज़र चाहिए..."
सबसे बेहतर रंग कौनसा है
मैं कहूंगा मिट्टी का
यदि कोई पूछेगा
सबसे दिलकश गंध किसकी है
मैं कहूंगा पसीने की
कोई यदि पूछेगा
स्वाद किसका सबसे लज्जत है
मैं कहूंगा रोटी का
यदि कोई पूछेगा
स्पर्श किसका सबसे उत्तेजक है
मैं कहूंगा आग का
कोई यदि पूछेगा
किसकी आवाज़ में सबसे ज़्यादा खनक है
मैं कह उठूंगा मेरी ! तुम्हारी !
ज्ञानदत्त जी इस बीच अपने पुत्र का विवाह अत्यंत सादगी से संपन्न करा आये. उन्हें बहुत-बहुत बधाई. उनकी ताज़ा पोस्ट में सुशील और उसकी चाय की गुमठी का ज़िक्र है. पिछले कुछ समय से उनकी पोस्टों का क्रम कुछ टूटा था. उनके ब्लॉग पर इस बीच घटित हुई बातों का लेखाजोखा चित्रों के साथ पढ़ने को मिलेगा, इसी आशा के साथ. धन्यवाद.
पुनश्च: ज्ञानदत्त जी के फेसबुक स्टेटस से:
राजा ने दरवेश से पूछा, "मरने के बाद लोग कहां जाते हैं?" दरवेश बोला, "मुझे नहीं मालुम। मैं अभी मरा नहीं!"
गहन चर्चा -जमाये रखिये ...बाटम लाईने ही सार होती हैं :-)
जवाब देंहटाएंलगता है अनूप जी और निशांत जी में होड़ लगी है..'कौन बढ़िया चर्चा लिखता है!' एक से बढ़कर एक चिट्ठा चर्चा पढ़ने को मिल रही है।:)
जवाब देंहटाएं@लगता है अनूप जी और निशांत जी में होड़ लगी है..'कौन बढ़िया चर्चा लिखता है!'
जवाब देंहटाएंचर्चियाने में सुकुलजी का कोई सानी नहीं.उनकी चर्चा हो और कोई धराशायी न हो,ऐसा हो नहीं सकता.
...और हाँ,वे महिलाओं के प्रति विशेष उदार और सहृदय हैं !जब सरकार हर स्तर पर उन्हें उठाने का प्रयास कर रही है तो वे भी इसी काम को आगे बढ़ा रहे हैं !
इस चर्चा से....
भ्रष्टाचार को बार-बार चर्चियाने से बहुत लोग उकता गए हैं तो क्या अब मौन साध लिया जाय ?
@एक सज्जन व्यक्ति बड़े से शोरूम के बाहर से गुज़रा।
सज्जन के साथ व्यक्ति कैसे सही है,चिट्ठाकार या चर्चाकार बता सकते हैं ?
प्रणाम गुरुदेव,
हटाएंचर्चियाने में अनूप जी का सानी नहीं है. उनमें वह चुटीलापन है जो मैं कुछ भी करके नहीं पा सकता. वह उसे मौज कहते हैं, आप उसे खुरपेंच कहते हैं.
महिलाओं के प्रति उदारता... करते होंगे, मुझे कोई ख़ास वाकया याद नहीं आता. मैं अपनी कहूं तो मैं तो ख़ासा उदारता बरतता हूँ. कोई विशेष कारण नहीं है.
न तो मौन साधा जाए और न ही अनशन किया जाए. बदलाव लाये जाएँ, अपने आसपास, अपने में, अपनों में. यह कैसे होगा? कुछ आप भी सुझाएँ. यदि यह नहीं हो सकता तो हो चुका भ्रष्टाचार का खात्मा.
सज्जन के साथ व्यक्ति कैसे सही है, यह चिट्ठाकार से ही पूछा जाए. हमने तो कॉपी-पेस्ट कर दिया.
प्रणाम :)
sahi chal rahe ho nishant bhayi ...bahut hi acchi post
जवाब देंहटाएंbahut badhiyaa
जवाब देंहटाएंहिंदी और अंग्रेजी से इतर भी एक दुनिया है ब्लौगिंग की जो यकीनन समृद्ध होगी और शायद कई मामलों में बेहतर भी. इधर हम अपनी कूपमंडूकता में ही मस्त फन्ने खाँ बने जा रहे हैं.
जवाब देंहटाएंपते की बात......
गंभीर और सार्थक लेखन के लिए ब्लॉग ही उचित माध्यम है .
जवाब देंहटाएंयहाँ गंभीर से तात्पर्य दिल से लिखने से है .
बढ़िया चर्चा .
निशांत जी ,
जवाब देंहटाएंकुछ पोस्ट पढ़ी हुई थीं , कुछ लिंक नये मिले !
धन्यवाद अली जी,
हटाएंहमारी पसंद एक सी होगी तभी आप वह पहले ही पढ़ लेते हैं जिसका यहाँ ज़िक्र किया जाता है :)
बहुत खूब , अच्छा और भला अंदाज़ !
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !
बहुत अच्छा लगा आज की चर्चा पढ़कर। अमित त्यागी ब्लॉग देखकर शाहजहांपुर के ही अपने साथियों अरविन्द मिश्र और अब्दुल लतीफ़ के ब्लॉग याद आ गये।
जवाब देंहटाएंअनुनाद सिंह के ब्लॉग पर यह श्लोक रहता था कभी:
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
(कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं ।)
अनुराधा और अदा जी के कमेंट्स शानदार हैं। बहुत अच्छा लगा उनको पढ़कर।
रवि कुमार की कविता बहुत अच्छी लगी। ज्ञानजी को यहां भी बधाई!
अदा और अनुराधा के साथ मेरी सहमति है. ऎसी कवितायें पढ़कर निराशा हुयी. शालिनी ने अपना लेख जिस तेज और समझदारी से लिखा उसकी प्रशंसक हूँ, पर कितनों को उसकी बात समझ में आयी, ये अपने आप में बड़ा सवाल है. अगर सच में वंदना जी ने शालिनी के लेख का मर्म समझा होता, तो संभवत: ऎसी कवितायी प्रतिक्रिया नहीं करती. शालिनी की प्रतिक्रिया इन कविताओं पर भी लागू होती है...
जवाब देंहटाएंजहर का कीड़ा ! - मुग्ध हूँ सोचने वाले पर !
जवाब देंहटाएंबहुते 'खाँटी' चर्चा करते हैं आप..
जवाब देंहटाएंआभार..
संतुलित और गम्भीर रही चर्चा। इस बहाने अमित त्यागी जी को पढने का अवसर भी मिला। [अन्य ब्लॉगरों को से तो पुराना परिचय है।]
जवाब देंहटाएंachhe ko achha hi kaha ja sakta hai......gar kuch adhik kahna ho to 'bahut
जवाब देंहटाएंachha kah sakte hain????
pranam.