कल अभी हम नींद के चपेटे में ही थे कि मेरे मोबाइल में पट से कोई संदेशा आ के गिरा। देखा तो मेरे छोटे बेटे लिखा था- Happy fathers day. बड़ा भला-भला लगा। फ़िर हम भी पिता बन गये। कायदे से। घर से दूर क्या करें सोचते हुये बच्चे के लिये नेट से फ़रारी की सवारी फ़िलिम का टिकट बुक किये। बच्चे के साथ छह और लोगों को सिनेमा देखने को मिल गया। इस तरह शुरु हुआ कल का दिन जिसे फ़ादर्स डे के रूप में मनाया गया।
इस मौके पर कई पोस्टें लिखीं गयीं। विनीत कुमार ने अपने पिता को याद करते हुये लिखा-डरी हुई गर्लफ्रैंड की तरह रोज फोन करते हैं पापा विनीत की इस पोस्ट में पिता के साथ बदलते संबंध समीकरण बयान किये गये हैं। पिता जो अपने बच्चे से अपना इजहार-ए-मोहब्बत करने में सकुचाते हैं वे धीरे-धीरे बहाने से खुलते हैं। इधर-उधर बहाने बताकर अपने बच्चे से बतियाना चाहते हैं। हाल ये है कि बच्चा उनके इस संकोच की लड़ीली चुहल लेने लगा है। इसके कारण तलाशते हुये विनीत लिखते हैं:
पिता-पुत्र के बीच संबंधों के बदलते व्याकरण को बयान करते हुये बहुत प्यारी पोस्ट है यह। इसी सिलसिले में मुझे पंकज उपाध्यायकी एक पोस्ट याद आयी जिसमें बच्चा वे अपने पिता से मुलाकात होने पर अपने भाव बताते हैं:
लेकिन यह बड़ा भाई या पितापन का रोल वहीं तक रहता है जहां बच्चे को लगता है कि उसने ये दुनिया ज्यादा देखी है। घर में फ़िर वही पिता बच्चे हो जाते हैं:
बहरहाल फ़ादर्स डे के बहाने ये पीडी और पंकज की पोस्टें याद आ गयीं। कल अर्चना चावजी ने लोरी अली की पोस्ट का पाडकास्ट पेश किया। इस पोस्ट का शीर्षक है-"कुछ नहीं कहते, ना रोते हैं; दुःख पिता की तरह होते हैं ......."
इस पोस्ट में एक मां अपनी बेटी को उसके पिता की तमाम खूबियां बताती हैं और अंत में सिद्धार्थ जोशी के अनुसार इमोशनल तमाचा लगाती है:
दिन कोई भी हो लेकिन जब बैरी कूल से मुलाकात होती है तो मजा आ जाता है। बैरीकूल के किस्से सुनाते हुये बलियाटिक ओझा बाबू सदालाल सिंह का स्केच खींचते हैं:
इसई बहाने अभिषेक बाबू अपना ऊ भी बना लिये ब्लॉगिंग करने वाले प्रोफ़ाइल कहते हैं। जरा फ़रमाइये तो वो जिसे लोग मुलाहिजा कहते हैं:
आप देखिये आपका क्या कहना है। वैसे रवि रतलामी का कहना है:
पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे
वे हर मिलने वाले से कहते कि
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।
और अंत में
फ़िलहाल इतना ही। ऊपर का कार्टन काजल कुमार का है। ये हमारी ब्लॉग की दुनिया का सीन है। सच्चा टाइप।
चलते-चलते देखिये कुछ तस्वीरों में एक तस्वीर ये फ़ाइनल वाली है। इसके पहले की मोहब्बत के किस्से देखने के लिये आइये बेचैन आत्मा के ठिकाने पर।
इस मौके पर कई पोस्टें लिखीं गयीं। विनीत कुमार ने अपने पिता को याद करते हुये लिखा-डरी हुई गर्लफ्रैंड की तरह रोज फोन करते हैं पापा विनीत की इस पोस्ट में पिता के साथ बदलते संबंध समीकरण बयान किये गये हैं। पिता जो अपने बच्चे से अपना इजहार-ए-मोहब्बत करने में सकुचाते हैं वे धीरे-धीरे बहाने से खुलते हैं। इधर-उधर बहाने बताकर अपने बच्चे से बतियाना चाहते हैं। हाल ये है कि बच्चा उनके इस संकोच की लड़ीली चुहल लेने लगा है। इसके कारण तलाशते हुये विनीत लिखते हैं:
पापा का रोज फोन करना और उसे किसी न किसी तरह नकारना उतना ही बड़ा सच है जैसे इस देश की लाखों लड़कियों का किसी की बेटी,किसी की बहन होने से कहीं ज्यादा मजबूती से किसी की गर्लफ्रैंड का होना और उसे नकारना. इस खुले समाज में भी उसका ऐसा स्वीकार करना. मैं अक्सर सोचता हूं कि आखिर पापा को दिक्कत क्या है ये बताने में कि मेरी उनसे रोज बात होती है? कहीं उन्हें इस बात का डर तो नहीं कि सरेआम दुनिया को पता चल जाएगा कि बाप के सीने में कोई दिल है जिसका पिछले कुछ सालों से तेजी धड़कना शुरु हो गया है,खासकर अपने बेटे के लिए. या फिर एक सनातन व्यवस्था के चरमरा जाने का खतरा व्यापता है उन्हें कि बाप का काम ही है बेटे के प्रति सख्ती बरतना, इतनी सख्ती कि जब डांटा जाए तो उसके अगले दो-तीन घंटे तक अलग से बाथरुम जाने की जरुरत न पड़े ?
पिता-पुत्र के बीच संबंधों के बदलते व्याकरण को बयान करते हुये बहुत प्यारी पोस्ट है यह। इसी सिलसिले में मुझे पंकज उपाध्यायकी एक पोस्ट याद आयी जिसमें बच्चा वे अपने पिता से मुलाकात होने पर अपने भाव बताते हैं:
वे सामने ही खडे थे। वे मुस्करा रहे थे। मैंने उनके पैर छुये, उनके गले लगा और दोस्तों के जैसे उनके गले में हाथ डाल दिया। न जाने मुझे क्यों लग रहा था कि ये दुनिया इनके लिये एकदम नयी है और इस वक्त मैं इनका दोस्त, बडा भाई या पिता हूँ जिसने ये दुनिया ज्यादा देखी है।
लेकिन यह बड़ा भाई या पितापन का रोल वहीं तक रहता है जहां बच्चे को लगता है कि उसने ये दुनिया ज्यादा देखी है। घर में फ़िर वही पिता बच्चे हो जाते हैं:
फ़िर एक दिन शाम को उन्हें जाना है। वो सुबह जल्दी ही उठ जाते हैं। गैस की कुछ दिक्कत भी है। एक दो घंटे बाद मेरी भी आँख खुलती है। देखता हूँ कि वो मुझे सोते हुये देख रहे हैं। मैं अपने बिस्तर से सरकते हुये उनके पास पहुँच जाता हूँ और उनकी गोद में सर रख देता हूँ। वो मेरे सर पर हाथ फ़ेरते हैं, मैं फ़िर से सो जाता हूँ।प्रशांत प्रियदर्शी उर्फ़ पीडी ने भी अपने दो बजिया वैराग्य सीरीज में अपने बाबूजी को याद करते हुये कई पोस्टें लिखी हैं। इनमें एक लड़के के मन के भाव हैं जो वह तब नहीं व्यक्त कर सका जब पिता के पास था। अब दूर आ जाने पर वो सब व्यक्त हो रहा है:
कभी-कभी पापाजी मुझे धिरोदात्त नायक भी कहा करते हैं.. मुझे बहुत आश्चर्य भी होता है उनकी इस बात पर.. मेरे मुताबिक तो मैं नायक कहलाने के भी लायक नहीं हूं.. फिर धिरोदात्त नायक तो बहुत दूर की कौड़ी है.. शायद यह इस कारण से होगा कि सभी मां-बाप अपने बच्चों को सबसे बढ़िया समझते हैं.. उनकी नजर में उनके बच्चे सबसे अच्छे होते हैं, सच्चाई चाहे कुछ और ही क्यों ना हो..
बहरहाल फ़ादर्स डे के बहाने ये पीडी और पंकज की पोस्टें याद आ गयीं। कल अर्चना चावजी ने लोरी अली की पोस्ट का पाडकास्ट पेश किया। इस पोस्ट का शीर्षक है-"कुछ नहीं कहते, ना रोते हैं; दुःख पिता की तरह होते हैं ......."
इस पोस्ट में एक मां अपनी बेटी को उसके पिता की तमाम खूबियां बताती हैं और अंत में सिद्धार्थ जोशी के अनुसार इमोशनल तमाचा लगाती है:
आज सुबह तुमने पापा को कहा था ना, "पापा अब तो मत टोकिये, बड़ी हो गयी हूँ मै! " तुम पापा से तो बड़ी नहीं हो सकती ना! आज अपने टेबल पर से जब इस चिट्ठी को पढ़ लो तो जाकर पापा से माफी मांगना, और हाँ! शुगर फ्री वाला मूंग का हलवा ज़रूर बना लेना, पापा को तुम्हारे हाथों का हलवा बहुत पसंद है.मोनिका शर्मा पिता के बारे में लिखती हैं:
हाँ! अब लेटर पढ़ कर रो चुकने के बाद शाम के लिए कपडे इस्तरी कर लेना (हो सके तो मेरी एक साड़ी भी कर देना) शाम को पापा पिक्चर की टिकटें लाने वालें हैं.
मुझे तो समझनी है
तुम्हारी हर इच्छा, हर बात
लाकर देनी है तुम्हें हर सौगात
खिलौने, गुब्बारे और मिठाई
कपड़े , किताबें, रोशनाई
तुम्हारा हर स्वप्न करूँ पूरा
नहीं तो मैं रहूँगा अधूरा
इसी सोच के साथ मैं जीता हूँ
क्यूँकी मैं पिता हूँ .....!
अदा जी का तो आज कमेंट बक्सा भी खुल गया जी।खैर वहां तो बाद में जाइयेगा पहले कविता अंश देख लीजिये , एक विदा होते पिता का वायदा है यह:
मैं हर पल तुम्हारे साथ रहूँगा
दूर नहीं रहूँगा तुमसे
अब दिल में रहूँगा
हर संकट तुमसे पहले
मैं सहूंगा
तुम्हारी रगों में बहूँगा
तुम्हारे चेहरे पर सजूंगा
और अब मुझे जाना ही होगा...
लौट कर भी तो आना है.....!
दूर नहीं रहूँगा तुमसे
अब दिल में रहूँगा
हर संकट तुमसे पहले
मैं सहूंगा
तुम्हारी रगों में बहूँगा
तुम्हारे चेहरे पर सजूंगा
और अब मुझे जाना ही होगा...
लौट कर भी तो आना है.....!
कम उम्र में विदा हो गये पिता को याद करते हुये गुस्ताख लिखते हैं:
बाबूजी, मरने के लिए बयालीस की उम्र ज्यादा नहीं होती। उस आदमी के लिए तो कत्तई नहीं, जिसका एक कमजोर सा बेटा सिर्फ दो साल का हो, और बाद में उस कमजोर बेटे को समझौतों से भरी जिंदगी जीनी पड़ी हो। जब सारी दुनिया के लोग अपने पिता की तस्वीरें फेसबुक पर शेयर करते हैं, तो मुझे बहुत शौक होता था कि आप होते तो...बाबूजी मुझे पता है कि आप होते तो, जेठ की जलती दोपहरी में ज़मीन पर नंगे पांव नहीं चलना होता मुझे...आप मेरे पैर अपनी हथेलियों में थाम लेते।
अफ़लातून चन्द्रकान्त देवताले की कविता पढ़वाते हैं:
दुनिया-भर के पिताओं की लम्बी कतार मेंरेखाजी ने अपने पिता से मिली सीख साझा की:
पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वां नम्बर है मेरा
पर बच्चों के फूलोंवाले बगीचे की दुनिया में
तुम अव्वल हो पहली कतार में मेरे लिए
पापा ने मुझे एक कार्ड बोर्ड पर बड़े बड़े अक्षरों में --पिता से संबंधित कुछ कवितायें देखिये रेडियोवाणी पर।
करत करत अभ्यास ते जड़मत होत सुजान ,
रस्सी आवत जात ते सिल पर होत निशान .
लिख कर मुझे दिया
दिन कोई भी हो लेकिन जब बैरी कूल से मुलाकात होती है तो मजा आ जाता है। बैरीकूल के किस्से सुनाते हुये बलियाटिक ओझा बाबू सदालाल सिंह का स्केच खींचते हैं:
अब ‘सदालाल सिंग’ में जो बात है ऊ का बताएं आपको. नामे से अफसर लगते हैं. पर्सनिलिटी त खैर हईये है इनका ! देखिये देखिये… अभी नहीं… जब चलेंगे तब देखिएगा…. … जो तनी बाएं मार के दाहिने पैर घुमा देते हैं न… चाल नहीं कतल है… कतल ! और सकल त देखिये रहे हैं… ललाटे लाल बत्ती है इनका - भक् भक् बरते चलते हैं !’सदालाल सिंह शायर टाइप भी हैं। शायर कैसे ये सुनिये बैरीकूल से:
‘जानते हैं भईया, ई सदलालवा हमको एतना पकाया है कि का बताएं आप से. हम तो गजल-उजल शायरी ई सब में पूरे गोल… आ ई साला आके जो परस्तिस, तसब्बुर जैसा शब्द हमको सुनाता था. हमको लगता था कि बहुते बड़का शायर है. ऊ त बाद में पता चला कि कइसे इधर का उधर करता है. एक दिन दू लाइन सुनाया हमको – “किस्सा हम लिखेंगे दिले बेकरार का, खत में सजा के फुल हम प्यार का.” हमको लगा कहीं तो सुने हैं… गलती कर दिया ऊ राग में गा दिया. नहीं त हमसे नहीं धराता. लेकिन जब धर लिए कि सब गाना का उठाके हमको सुना रहा है… उसके बाद से तो… देखे नहीं कईसे भागा है आज. साला सुनता पंकज उदास को भी नहीं है आ बात करेगा मेहदी हसन का.
इसई बहाने अभिषेक बाबू अपना ऊ भी बना लिये ब्लॉगिंग करने वाले प्रोफ़ाइल कहते हैं। जरा फ़रमाइये तो वो जिसे लोग मुलाहिजा कहते हैं:
"आप हैं न काम के न धाम के. शिक्षा के नाम पर भरपूर टाइम पास करते रहे। कोई प्रकाशित कृतियाँ नहीं। किसी पुरस्कार-सम्मान का सवाल ही नहीं उठता। संप्रति बकबक बहुत करते हैं।" :)
आप देखिये आपका क्या कहना है। वैसे रवि रतलामी का कहना है:
मेरी पसंदपरिचय को रीडिफाइन करने की जरूरत है. :)
पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे
वे हर मिलने वाले से कहते कि
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।
वे जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो
किराने की दुकान पर।
किराने की दुकान पर।
उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी
सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की
पर कुछ भी काम नहीं आया।
सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की
पर कुछ भी काम नहीं आया।
माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी
मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक
सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को
ध्रुव तारे की तरह
अटल करने के लिए
पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।
मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक
सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को
ध्रुव तारे की तरह
अटल करने के लिए
पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।
1997 में
जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया
बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का
पूरी बाँह का स्वेटर
उनके सिरहाने बैठ कर
डालती रही स्वेटर
में फंदा कि शायद
स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,
भाई ने खरीदा था कंबल
पर सब कुछ धरा रह गया
घर पर ......
जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया
बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का
पूरी बाँह का स्वेटर
उनके सिरहाने बैठ कर
डालती रही स्वेटर
में फंदा कि शायद
स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,
भाई ने खरीदा था कंबल
पर सब कुछ धरा रह गया
घर पर ......
बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।
पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे
दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं
1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक
पर देह ने नहीं दिया उनका साथ
दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।
दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं
1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक
पर देह ने नहीं दिया उनका साथ
दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।
इच्छाएँ कई और थीं पिता की
जो पूरी नहीं हुईं
कई और सपने थे ....अधूरे....
वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे
पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल
हार गए पिता
जीत गया काल ।
बोधिसत्व जो पूरी नहीं हुईं
कई और सपने थे ....अधूरे....
वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे
पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल
हार गए पिता
जीत गया काल ।
और अंत में
फ़िलहाल इतना ही। ऊपर का कार्टन काजल कुमार का है। ये हमारी ब्लॉग की दुनिया का सीन है। सच्चा टाइप।
चलते-चलते देखिये कुछ तस्वीरों में एक तस्वीर ये फ़ाइनल वाली है। इसके पहले की मोहब्बत के किस्से देखने के लिये आइये बेचैन आत्मा के ठिकाने पर।
बहुत बढ़िया-बढ़िया लिंक थमा दिये हैं। पढ़ता जा रहा हूँ और फॉलो करता जा रहा हूँ। जो बचे उनको रात में पढ़ना पड़ेगा।
जवाब देंहटाएंअरे हाँ...जल्दी में धन्यवाद देना तो भूल ही गया। फोटू चर्चा में शामिल होने लायक हो गई! मजा आ गया।...धन्यवाद।:)
जवाब देंहटाएं'डरी हुई गर्लफ्रेंड की तरह रोज़ फ़ोन करते हैं पापा' पोस्ट पिता को याद कम उनका उपहास-सी ज़्यादा उड़ाती है.विनीत कुमार की अपनी आधुनिक सोच हो सकती है पर अपने पिता को इस तरह की उपमाएं देकर क्या बताना चाहते हैं? उनकी भावनाएं नेक हो सकती हैं पर सच में 'पिता' ऐसा सम्बन्ध है जो चाहकर भी खुले-आम प्यार दिखाने से परहेज करता है.इसमें भी उसके पुत्र की ही भलाई छुपी होती है.अनुशासन के लिए वह अपने दिल पर पत्थर रख लेता है.हमारे ज़माने के पिता ऐसे ही होते रहे हैं.नए ज़माने में अब खुल रहे हैं पर इस तरह की तुलना मुझे तो नहीं जंची !
जवाब देंहटाएं...बाकी चर्चा ठीक-ठाक है.कविता अच्छी है !
fullam-full sair kari gayee ......... link de ke rah dikhane ke liye sukriya cha abhar .........
जवाब देंहटाएंk k aur d p ke cartoon pahle se dekhe the.
pranam.
बढ़िया चिट्ठा चर्चा .... कई लिंक्स बहुत सुंदर मिले ... आभार
जवाब देंहटाएंसंतोषजी की भावना का सम्मान करते हुए बस इतना साझा करना चाहता हूं- पापा बहुत खुश हैं मेरे इस लिखे से..हम भी खुश हो रहे हैं.क्या करें कई बार जीवन उपदेशों से परे अपने छोटे-छोटे सुखों से लहलहाने लग जाती है.
जवाब देंहटाएंयह अच्छा लगा कि आपके पिताजी खुश हैं.हम सबका उद्देश्य अंततः यही है कि हमारे जन्मदाता हमसे प्रसन्न रहें !
हटाएंभावुक चर्चा, पिता पर एक बेहद अच्छी सीरिज कुछ महीने पहले कबाडखाना पर आई थी वो भी लगाते... !
जवाब देंहटाएंउसका लिंक बताइये न! लग जायेगा जी। :)
हटाएं"पापा बहुत खुश हैं मेरे इस लिखे से..."
जवाब देंहटाएंविनीत जी आपकी गर्लफ्रेंड इतनी अच्छी है कि इस लेख के बाद भी बुरा नहीं मान रही :)
आपकी पोस्ट शानदार है। आपसे अधिक आपके पिता की सफलता के बारे में बताती है। आप ठगते हैं और वे खुद को ठगवाते हैं। उन्हें पगेलागणा कहिएगा... :)
अनूपजी को बड़ा धन्यवाद, आज एक से बेहतर एक लिंक थमाए हैं। कल रात दो तीन अच्छे लिंक मिले थे, पर यहां तो पूरा इंसाक्लोपीडिया रख दिया है आपने फादर्स डे का... :)
गिरिजेशजी के ब्लॉग कंपीटीशन के चक्कर में फिर से पुराने दिन लौट आए हैं। उनका आभार व्यक्त कर चुका हूं, यहां आपका, आप सालों से ऐसे ही जुटे हुए हैं। यह सुकून देने वाला है। अच्छी चर्चा का यह स्थाई भाव बनाए रखिएगा... :)
बोधिसत्व की जी कविता में मुझे अपने पिता की झलक दिखाई देती है। बढ़िया लिंक्स दिये हैं जल्द पढ़ने की कौशिश करेगें। आभार
जवाब देंहटाएंपिता पर इतनी कविताएं पढ़ीं, पढ़ाईं तो एक यह भी पढ़ लीजिए शायद आपको अच्छी लगे....
जवाब देंहटाएंhttp://devendra-b echainaatma.blogspot.in/2011/12/blog-post_03.html
अनूप जी,
जवाब देंहटाएंआप फुल फॉर्म में नज़र आ रहे हैं आज कल..अच्छा लगा देख कर..
और फिर आपकी बात ही जुदा है..
हम आपकी क्या तारीफ़ करें..कितना भी कहेंगे कम पड़ जाएगा..
आभार..