बहुत दिन हुये चर्चा किये! कभी रोज करने का मन होता था। दिन में एक से अधिक बार चर्चिया देते थे। अब हाल ये है कि महीनों हो गये चर्चा किये हुये। शायराना अन्दाज में कहा जाये तो :
रविरतलामी चिट्ठाजगत के बड़े खलीफ़ा हैं। शुरुआतै से (जून ,2004) लगे हैं लिखने-पढ़ने में। चिट्ठाजगत और अंतर्जालजगत में हुये बहुत सारे काम-धाम में इनका नाम आया है। इसके बारे में विस्तार से रवि बाबू ने अपने एक साक्षात्कार में बताया है। इनके मुताबिक -हिंदी के नए सूर और तुलसी हिंदी ब्लॉगिंग के जरिए ही पैदा होंगे।
लेकिन ई बात पक्की है कि अभी सूर और तुलसी पैदा हुये नहीं हैं। अगर हुये भी हैं तो वो प्रोफ़ेशनल नहीं होंगे काहे से कि रवि बाबू ई भी कहे हैं कि हिन्दी ब्लॉगिंग में प्रोफ़ेशनलिज्म का अभाव है। एक बात और जान लें ब्लॉगिंग से जुड़े लोग कि ब्लॉगर वही जो 500 पोस्ट ठेल ले जाये। ज्यादा हम क्या कहें! आप खुदै बांचिये उनका इंटरव्यू!
वैसे हम आपको बतायें कि हम भी कभी रवि रतलामी जी को इंटरव्युविया चुके हैं। हमारे ब्लॉग पर इसे बांचिये। सूचनार्थ ये भी बता दें कि हमारे ब्लॉग पर सबसे ज्यादा स्पैम टिप्पणियां जिन पोस्टों पर आती हैं उनमें से एक पोस्ट यह भी है- सीखना है तो खुद से सीखो-रवि रतलामी
अब आगे क्या लिखा जाये ये सोचने में थोड़ा समय लग रहा है। जब तक सोचते हैं तब तक आप कुछ ब्लॉग पोस्टों के अंश बांच लीजिये। क्या पता पूरी पोस्ट बांचने का मन बन जाये!
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में
सात समुंदर पार चले जाना चाहिए
जाते-जाते पलटकर देखना चाहिए
दूसरे देश से अपना देश
अंतरिक्ष से अपनी पृथ्वी
तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद
पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी
घर में अन्न-जल होगा कि नहीं की चिंता
पृथ्वी में अन्न-जल की चिंता होगी
पृथ्वी में कोई भूखा
घर में भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ लौटना
घर की तरफ लौटने जैसा.
घर का हिसाब-किताब इतना गड़बड़ है
कि थोड़ी दूर पैदल जाकर घर की तरफ लौटता हूं
जैसे पृथ्वी की तरफ.
विनोद कुमार शुक्ल
आज उतनी भी मयस्सर नहीं मयखाने में,:) बहरहाल लगा के इस्माइली शुरु होते हैं। ढेर दिनों के बाद। :)
जितनी कभी हम छोड़ दिया करते थे पैमाने में।
रविरतलामी चिट्ठाजगत के बड़े खलीफ़ा हैं। शुरुआतै से (जून ,2004) लगे हैं लिखने-पढ़ने में। चिट्ठाजगत और अंतर्जालजगत में हुये बहुत सारे काम-धाम में इनका नाम आया है। इसके बारे में विस्तार से रवि बाबू ने अपने एक साक्षात्कार में बताया है। इनके मुताबिक -हिंदी के नए सूर और तुलसी हिंदी ब्लॉगिंग के जरिए ही पैदा होंगे।
लेकिन ई बात पक्की है कि अभी सूर और तुलसी पैदा हुये नहीं हैं। अगर हुये भी हैं तो वो प्रोफ़ेशनल नहीं होंगे काहे से कि रवि बाबू ई भी कहे हैं कि हिन्दी ब्लॉगिंग में प्रोफ़ेशनलिज्म का अभाव है। एक बात और जान लें ब्लॉगिंग से जुड़े लोग कि ब्लॉगर वही जो 500 पोस्ट ठेल ले जाये। ज्यादा हम क्या कहें! आप खुदै बांचिये उनका इंटरव्यू!
वैसे हम आपको बतायें कि हम भी कभी रवि रतलामी जी को इंटरव्युविया चुके हैं। हमारे ब्लॉग पर इसे बांचिये। सूचनार्थ ये भी बता दें कि हमारे ब्लॉग पर सबसे ज्यादा स्पैम टिप्पणियां जिन पोस्टों पर आती हैं उनमें से एक पोस्ट यह भी है- सीखना है तो खुद से सीखो-रवि रतलामी
अब आगे क्या लिखा जाये ये सोचने में थोड़ा समय लग रहा है। जब तक सोचते हैं तब तक आप कुछ ब्लॉग पोस्टों के अंश बांच लीजिये। क्या पता पूरी पोस्ट बांचने का मन बन जाये!
- तुम्हारी सबसे बड़ी ख़ासियत पता है क्या है ? कि तुम बेहद आम हो... तुम में हर वो कमी है जो तुम्हें एक ख़ास इन्सान बनाती है... तुम कोई कैसानोवा नहीं हो... इतने ख़ूबसूरत कि जिसे देखते ही लड़कियां पागल हो जाएँ... तुम मेरी ही तरह एकदम साधारण हो... बेहद सौम्य... और इसीलिए मुझे सबसे ज़्यादा पसंद हो... क्यूँकि तुम्हारी ख़ूबसूरती तुम्हारे दिल में बस्ती है... मेरी आँखों से देखना कभी ख़ुद को... ख़ुद अपने आप पे दिल ना आ जाये तो मेरा नाम बदल देना... वैसे वो तो तुमने पहले ही बदल दिया है... तुम्हारे मुँह से कभी अपना नाम सुनती हूँ तो कितना पराया सा लगता है ये दुनियावी नाम... सुनो, तुम मुझे मेरे नाम से मत पुकारा करो ! तुम्हारी यादों का केलाइडोस्कोप ! -रिचा
- मैं अब भी वो कूटभाषा सीख रहा हूं जब कीबोर्ड की दो बूंदों वाला एक बटन किसी ब्रैकेट वाले दूसरे बटन के साथ जुगलबंदी कर ले तो हम मुस्कुराने (स्माइली) लगते हैं या फिर उदास दिखने लगते हैं। क्या ज़िंदगी में ऐसा नहीं हो सकता। हम जिन्हें चाहते हैं, वो दिखें, न दिखें। मिलें, न मिलें। बात करें, न करें। बस इतना कि ज़िंदगी में उनकी मौजूदगी का एहसास बना रहे। किसी भी आकार में। सॉलिड में न सही, लिक्विड या गैस में ही सही। मैं एक कूटभाषा में लड़ना चाहता हूं...-निखिल आनन्द गिरि
- पिछली पीढ़ी का सच ये भी है कि जहां अति होती है, अति भी वहीं होती है। सो, ज़मींदारी बिखरती गई और ज़मीन-जायदाद नशे और ऐय्याशियों की भेंट चढ़ने लगे। बंटवारे के बाद भी एक धुर ज़मीन के लिए भाई-भाई एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे रहे। पूरा परिवार बेईमानियों, डर, अवसाद और कर्ज़ के बोझ तले दबता चला गया। ज़मींदारी नहीं बची, और किसी तरह बची-खुची ज़मीन पर खेती करके परिवार गुज़ारा करते रहे। लेकिन ऐंठ ना जानी थी, नहीं गई। -गर्मी छुट्टी डायरीज़ ५: ज़मीन, जायदाद, ज़मींदारी की अनचाही विरासत -अनु सिंह चौधरी
- कुल मिलाकर जीजाजी के साथ वो फिल्में देखी जाती जिसमें थोड़ा-बहुत मसाला हो. ऐसे में मां-चाची जीजाजी के दो-चार घंटे की एक्टिविटी पर गौर करती. सबकुछ सही रहा तो हरी झंड़ी मिल जाती. जाने देते हैं, घर के मेहमान हैं, उन्नीस-बीस होगा तो साथ में हैं न और फिर जूली ( जो ब्याहकर आयी है) बउआ थोड़े हैं,समझती नहीं है कि मेहमान-पाहुन के साथ एतना-एतना जुआन-जवान बहिन के साथ जा रही है तो ध्यान रखे. बाकी तो हम जैसे चपरासी छोटे भाई होते ही जो थोड़ा भी इधर-उधर आने पर चट से मां को रिपोर्ट करते- मां, इन्टरवल हुआ न तो जीजाजी सबको फंटा दे रहे थे औ लास्ट में सुषमा दीदी को दिए न त हाथ पकड़े ही रह गए. -सौ साल का सिनेमाः जीजा वही जो सिनेमा दिखाए- विनीत कुमार
- किरनों से उसकी सुलह हो गयी थी! एक दिन एक खत आया... सूरज जा चूका था! हमेशा के लिए! वह रोई..बिलखी! इतने आंसू झरे कि किरने भी भीग कर अपने रंग खो बैठीं! सूरज पूरब से पश्चिम तक जाते जाते उसके उदास मुख पर चमक लाने की कोशिश करता! पर वो चमक वापस नहीं आई! उसने सूरज का खत जला दिया और साथ में उंगलियां भी जला बैठी ! उँगलियों पर मलहम लगाये वह सोच रही थी.... क्या सचमुच सूरज नज़दीक आने पर झुलसा देता है?" एक लड़की और सूरज की दोस्ती की कहानी -पल्लवी त्रिवेदी
दूर से अपना घर देखना चाहिएकविता की बात चली तो देखिये पूजा उपाध्याय ने भी कविता लिखी है। वैसे तो वो जो भी लिखती हैं वो भी कविता ही लगता है। लेकिन ऊ सब छोड़िये। अभी तो उनके लिखे मेरा मतलब रचे हुये को देखिये:
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में
सात समुंदर पार चले जाना चाहिए
जाते-जाते पलटकर देखना चाहिए
दूसरे देश से अपना देश
अंतरिक्ष से अपनी पृथ्वी
किचन हर रोज़ चढ़ता है उनपर परत दर परतकविता की बात चली तो कविता तो अपने नीरज त्रिपाठी भी करते हैं -बल भर करते हैं। नमूना देखियेगा-
रंग, गंध, चाकू के निशान, जले के दाग जैसा
नहाने के पहले रगड़ती हैं उँगलियों पर नीम्बू
चेहरे पर लगाती हैं मलाई और शहद
जब बदन को घिस रहा होता है लैवेंडर लूफॉ
याद करती हैं किसी भूले आफ्टरशेव की खुशबू
आधी रात को नहाने वाली औरतें में बची रहती है
१६ की उम्र में बारिश में भीगने वाली लड़की
करते करते काम कभी गर तुम थक जाओ
कार्यालय में कुर्सी पर चौड़े हो जाओ
ऐसे सोओ सहकर्मी भी जान न पाएँ
रहे ध्यान ऑफिस में न खर्राटे आयें
ऐसे लो जम्हाई कि दूजे भी अलसाएं
मैनेजर की फटकारें लोरी बन जाएँ
चिंतन की मुद्रा में नींद का झोंका मारो
मीटिंग में मौका पाते ही चौका मारो
कुछ पुरानी पोस्टों से
पिछ्ले दिनों हिंदी ब्लॉगजगत के कई साथियों की किताबें आयीं। मुझे याद आया कि शुरुआती दौर के चिट्ठाकारों में से एक अतुल अरोरा की किताब कब से नेट पर पड़ी है। पूरी किताब बस छपने की देरी है। एक कनपुरिया लड़के के अमेरिकी किस्से। जैसा कि वे खुद लिखते हैं:कानपुर की गलियों मे एलएमएल-वेस्पा चलाते चलाते एक दिन खुद को अटलांटा में एचओवी लेन में पाया| अभी तक तेजरफ्ता रही इस जिंदगी में, जो अभी तक गुजरा है, उसमें से जो कुछ खट्टा - मीठा या गुदगुदाता सा है उन्हें समेट कर रोचक संस्मरणों का संकलन तैयार किया है "लाईफ ईन ए एचओवी लेन"|शीर्षक है लाईफ इन ए एचओवी लेन! अब आप पूछियेगा कि ई एच.ओ.वी.लेन क्या बला है। तो आइये आपको बता ही देते हैं (वैसे अगर आप पढ़ेंगे तो पता चल ही जायेगा) क्या होती है एच.ओ.वी.लेन! किताब की प्रस्तावना में अतुल बताते हैं-
अमेरिका के कुछ महानगरों के हाईवे में सबसे बाईं तरफ की लेन एचओवी यानि कि हाई आकूपेनसी वेह्किल लेन कहलाती है| अगर आप को कुछ दूर तक हाईवे से बाहर नही निकलना , तो एचओवी लेन में आप एकसमान तेज गति से सफर कर सकते है| ईसमें निश्चित अंतराल पर प्रवेश व निकास के चिन्ह निर्धारित होते हैं| बस एक बार एचओवी लेन में प्रवेश कीजिए और फर्राटे से बिना लाल बत्ती या लेन बदलने की चिंता किए भागते जाइऐ | अमेरिका में जिंदगी भी बस एचओवी लेन की तरह लगती है|अब आपका मन करे तो आराम से बांचिये एच.ओ.वी.लेन के किस्से। दस अध्याय हैं। हर अध्याय के उप-अध्याय हैं। पहली पोस्ट नहीं भाई पहले अध्याय में अमेरिका जाने की सूचना मिलने पर जिसे कनपुरिया भाषा में कहते हैं -बवाल कटा। इसके बाद सलाह का दौर शुरु हुआ। देखिये सीन:
भला हो अमेरिका में पहले से रह रहे मित्रों का जिन्होने वक्त पर सही मार्गदर्शन कर दिया| यहाँ सब कुछ मिलता है| घर एयरकंडीशंड होते हैं अतः रजाई कोई नही ओढ़ता| मेरे एक मित्र को ऐसे ही विशेषज्ञों ने रजाई, कढ़ाई और न जाने क्या माल असबाब लाद कर ले जाने पर मजबूर कर दिया था| बेचारा एयरपोर्ट पर फौजी स्टाईल के बिस्तरबंद के साथ कार्टून नजर आ रहा था|आगे के किस्से आप खुदै बांचिये। मजे की पूरी गारंटी। ये किस्से हैं सन दो हजार चार-पांच के आसपास के लिखे। पूरी किताब मस्त पड़ी है ब्लागर पर तबसे। जिसे मन आये पढ़ डाले। छाप दे। :)
मेरी पसंद
दूर से अपना घर देखना चाहिएमजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में
सात समुंदर पार चले जाना चाहिए
जाते-जाते पलटकर देखना चाहिए
दूसरे देश से अपना देश
अंतरिक्ष से अपनी पृथ्वी
तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद
पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी
घर में अन्न-जल होगा कि नहीं की चिंता
पृथ्वी में अन्न-जल की चिंता होगी
पृथ्वी में कोई भूखा
घर में भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ लौटना
घर की तरफ लौटने जैसा.
घर का हिसाब-किताब इतना गड़बड़ है
कि थोड़ी दूर पैदल जाकर घर की तरफ लौटता हूं
जैसे पृथ्वी की तरफ.
विनोद कुमार शुक्ल
चर्चा की याद आई, अच्छा लगा ☺
जवाब देंहटाएंहम भी अच्छे लगने वाले मोड में रहे कल! :)
हटाएं...मस्त चर्चियाये हो.खासकर रवि रतलामी जी का तो जवाब नहीं,हाँ उनका साक्षात्कार थोड़ा लंबा हो गया है फिर भी उसका लब्बो-लुबाब आप बता ही दिए हैं तो उसे पढ़ने की जहमत कौन उठाये ?
जवाब देंहटाएं...कविता ,जो आपकी पसंद रही,उस पर हमारी भी मुहर है|
जब मास्टर लोग पढ़ने से जी चुरायेंगे तो बालक लोगों के क्या हाल होंगे।
हटाएंकविता पसंद करने का शुक्रिया। अतुल अरोरा की पोस्टें न पढ़ी हों तो देखियेगा।
charcha achhi cha bhali lagi.....aur ab aatee rahegi.....ye jankar balak kilkit-pulkit cha
जवाब देंहटाएंpramudit hua.......
pranam.
बालक को किलकिल च पुलकित देखने के लिये प्रयास जारी रहेंगे। :)
हटाएंबकौल...मूंछें हों तो नत्थू लाल जैसी वरना न हों :) तो चर्चा हो तो फुरसतिया जैसी वर्ना न हों :) :)
जवाब देंहटाएंआपकी इस्टाइल चर्चा आपके अंतर्ध्यान होने से विलुप्तप्राय प्रजाति हो गयी है. एक जगह लिंक इकठ्ठा कर के रख देने से हमारे मन लायक चर्चा नहीं होती...चर्चा होती है जब लिंक्स के लेखन पर चर्चाकार अपनी छोटी बड़ी जैसी भी टिप्पणी चिपकाता है...कि मेरे ख्याल से ई पोस्ट में ई अच्छा है...हियाँ जा के ई चीज़ बांचा जा सकता है.
पुराने ज़माने के आदमी हो गए हम तो...ऐसा ही चर्चा खोजते हैं...कभी कभार चर्चा कर लिया कीजिये अनूप जी...चिट्ठाचर्चा के बिना ब्लॉग्गिंग का एक जरूरी हिस्सा मिसिंग लगता है. लिंक्स कुछ पढ़े हुए हैं, कुछ को अभी बांच के आते हैं. चकाचक चर्चा :)
चर्चा के न जाने कित्ते इस्टाइल थे हैं और आगे और नये आयेंगे इंशाअल्लाह। कोशिश करेंगे कि कुछ दिन तो नियमित बनें रहें। :)
हटाएंबहुत दिन बाद आप इधर आये और मैने भी तभी इधर का चक्कर लगाया। वाह क्या संयोग है...!
जवाब देंहटाएंवैसे कानपुर से जबलपुर की शिफ़्टिंग ब्लॉगजगत के लिए घाटे की घटना साबित हुई है।
चिठ्ठाचर्चा पर आकर बहुत कुछ जानने को मिल जाया करता था जिसके लिए अब बहुत भटकना पढ़ता है। इसके लिए प्रायः समय नहीं होता।
मौका निकालकर ऐसेइच ठेलते रहिए। और मेरा ताजा गीत बाँचने जरूर आइएगा। :)
जबलपुर में लिखना तो बढ़ा है ऐसा भाई लोग कहते हैं। अब इसमें घाटा हुआ या फ़ायदा यह कहना मुश्किल है। आप कह दिये त अब उसे क्या मना करें।
हटाएंकविता आपकी उसई दिन बांचे थे जब छपी थी। कल जाकर उसमें हाजिरी भी करि आये। :)
सुन्दर चित्रण...उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद! बहुत बहुत!
हटाएंरवि जी का ब्लॉग अड्डा पर इंटरवियु पढ़ आये थे पहले ही लेकिन आप को दिया इंटरवियु अभी पढ़ा ये भी बहुत अच्छा लगा। विनीत के ब्लॉग पर पहली बार चिठ्ठाचर्चा से पहुंची। बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंपूजा और सिद्धार्थ जी की टिप्पणी हमारी भी मानी जाए और चिठ्ठाचर्चा नियमित की जाये। :)
हमारी चर्चा के जरिये आप विनीत कुमार तक पहुंची ये तो बड़ी भली बात है।
हटाएंपूजा और सिद्धार्थ की बात आपकी बात है यह भी अच्छा लगने वाली बात है।
नियमित करने का प्रयास करेंगे। :)
बहुत बढ़िया. थोडा रेगुलर होइए :)
जवाब देंहटाएंधन्यवाद! कोशिश करेंगे रेगुलर होने की।
हटाएंजमाये रखिये ....
जवाब देंहटाएंपृथ्वी में कोई भूखा
जवाब देंहटाएंघर में भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ लौटना
घर की तरफ लौटने जैसा...
हाँ, बात फिर बन गयी. सन्नाटा अच्छा नहीं लगता इधर.
जवाब देंहटाएंदिनों बाद आया, दिनों बाद आपको पढ़ा.
तो ये आपकी कमबैक पोस्ट है :)
जवाब देंहटाएंअब आप चर्चा की गाड़ी को भी एच ओ वी लेन में दौड़ाएंगे हमें पूरी उम्मीद है और हम सब हाई स्पीड का मजा लेंगे !!!! :)