आज सुबह अपना लोटपोट खोलकर अंतर्जाल-झरोखे से दुनिया झांक रहे थे तो कुछ दृश्य ये दिखे! विवेक रस्तोगी लिखते हैं:
इस स्टेटस पर True लिखकर सहमत होने वाले डा.अरविन्द मिश्र अपने स्टेटस में बयान करते हैं:
रचने की कल्पना मात्र से जब फ़ेसबुकिया इतना मुस्करा रहा है तो कभी मानो अचक्के में कुछ रच गया तो क्या हाल होगा। इस बीच बनारस से सौ किमी दूर ज्ञानदत्त जी अपने फ़ेसबुक सैलून से पहला आइटम स्टेटस पेश करते हैं:
वाह! पीटर ड्रकर कहते हैं "अपनी प्रसन्नता की फ़िक्र न करो, अपने कर्तव्यों की सोचो"। सुप्रभात मित्रवर।
ज्ञानजी के स्टेटस को उनसे हजारेक किमी दूर बैठे अतुल श्रीवास्तव ने पसंद कर लिया है लेकिन उन्होंने अभी तक अपने ताजा स्टेटस पत्ते नहीं खोले हैं। इस बीच विजय सत्पथी जी ने अपने फ़ेसबुक एकाउंट के अपहरण की सूचना जारी की:
प्रिय मित्रों , मेरा दूसरा फेसबुक अकाउंट हैक हो गया है .. खुल नहीं रहा है ..मैंने पासवर्ड ही बदल दिया फिर भी खुल नहीं रहा है .. क्या आप लोग कुछ सुझाव दे सकते है .अभी तक कोई सुझाव नहीं आया है। वैसे विजय जी ने अग्रिम धन्यवाद दे दिया है। अगर किसी थाने में सूचना के लिये जायेंगे तो थाने वाले पक्का कहेंगे कि एक तो हैं उसी से काम चलाओ काहे को डबल एकाउंट रखते हैं।
इस बीच हम अपने बिस्तरे से उतरकर कुर्सी लेकर बरामदे में आ गये हैं। सोचते हैं कि आगे कुछ लिखें कि पहिले अपना स्टेटस अपडेट कर दें:
बरामदे में कुर्सी पर बैठे सुहानी सुबह को बीच-बीच में ताकते हुये चिट्ठाचर्चा कर रहे हैं। इस तरह की सबसे पहली चर्चा होगी दुनिया में ।और हमने ये स्टेटस ट्विटरिया दिया और वह फ़ेसबुक पर भी आ गया। जैसे ही स्टेटस छपा नहीं कि डा.अरविन्द मिश्र ने लपक के उसे लाइक कर डाला। और टिपिया भी दिया:
व्यंगकार ताका तूकी न करे तो रोटी कैसे पचे :)डा.मिश्र की टीप में एक वर्तनी दोष है, एक बिम्ब दोष और एक ठो अभिव्यक्ति आत्मविश्वास की कमी। व्यंग्यकार को वे व्यंगकार लिखे ये वर्तनी दोष है। बिम्ब दोष ये कि सुबह-सुबह रोटी नहीं खा रहे हैं हम चाय पी रहे हैं लेकिन डा.मिश्र बासी सूचनाओं से काम चला रहे हैं। कल्पना शक्ति का सहारा लेकर उनको कोई सुबह माफ़िक बिम्ब पेश करना चाहिये। आत्मविश्वास की कमी उनके इस्माइली से झलकती है। उनको लगता है कि उनकी बात में मुस्कराने वाली बात नहीं निकल पायी। इस बीच सहारनपुर से रजनीकांत जी आ गये अपना स्टेटस लेकर:
रजनीकांत जी के स्टेटस को अगली सदी का कोई समाजवैज्ञानिक देखेगा तो निष्कर्ष निकालेगा कि उस जमाने तक पुष्प, होंठ और सांस साक्षर हो चुके थे और पांखुरी, बांसुरी तथा सांस-देहरी पर लेखन का काम करने लगे थे। वैसे पुष्प और गंध को लिखते-पढ़ते देखकर बड़ा अच्छा लगा। तीन साल पहले तक ये हमारे यहां लड़ने-झगड़ने में मशगूल रहते थे:
पुष्प की गंध से कुछ खटक सी गई,
नैंन-सैन चुंबन की ले-दे फ़टाफ़ट हुई।
हवायें बेचारी सब गुमसुमा सी गईं
शाम मारे शरम के हो गई सुरमई
भौंरें भागे सभी सर पे धरे अपने पंख
तितलियां फ़ूल में बस दुबक सी गयीं।
इसको देखकर दो नतीजे निकाले जा सकते हैं एक तो यह कि संगत के असर से पुष्प और गंध सुधर गये और लड़ाई-झगड़ा छोड़कर पड़ने लिखने लगे। दूसरा यह कि पुष्प और गंध जवान होने के बाद पाठशाला जाते हैं। उधर अप्रैल को सबसे क्रूर महीना मानने वाले कवि अनूप भार्गव की व्यथा-कथा देखिये:
इससे पता चलता है कि कवि को गीत के आगे कुछ नहीं सुहाता है। कवि उनके खफ़ा होने से भी इसलिये परेशान होता है क्योंकि उनके चक्कर में उसके गीत का हुलिया बिगड़ा गया है। बात हुलिया बिगड़ने की आयी तो एक ठो कवि की व्यथा कथा देख लीजिये। कवि पहले ’उनके’ जाने पर खुश होता है उसी कवि को कुछ दिन में आटा-दाल के भाव पता चलते हैं:
तुम बिन व बच्चों के बिना,सुबह-सुबह ही कविता वाचक्नवीजी का स्टेटस भी देखा था:
आतप सहा,भूखा रहा,
सुबह उठके दिन गिना |
तुम्हारी हर नसीहत
अब हमें स्वीकार है,
बस हो गया इतना विरह
बुलाता तुम्हें श्रृंगार है ||
अच्छी बुरी कविताएँ हर काल और हर भाषा में लिखी जाती रही हैं और अच्छे बुरे लोग (स्त्रियाँ + पुरुष ) भी हर काल, हर समाज व हर भाषा में होते हैं। इसलिए यदि कोई कहे कि पुरुषों ने हिन्दी कविता में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए हर तिकड़म, हर राजनीति और हर हथकंडा अपनाया है तो यह बात जितनी एकांगी होगी उस से अधिक एकांगी, निरर्थक और पूर्वाग्रहपूर्ण यह बात है कि प्रत्येक कवयित्री अपने तीसों साल पुराने चित्र और धोखे के क़सीदों के बल पर कविताएँ रचती है। किसी का भी चीजों को यों जनरलाईज़ करना बेहद हास्यास्पद हो सकता है। ऐसा करना कहीं कुंठा के जन्मने जैसा लगता है। सच्ची बात तो यह है कि यदि कोई कविता कर्कट है तो उस से घबराने और विचलित होने की क्या बात है। अच्छी कविता का संस्कार विकसित करने के काम में धैर्य और आपा खो कर दूसरों की रेखा छोटी करने जैसी नीति की मैं तो पक्षधर नहीं।इतने कड़क स्टेटस पर क्या लिखा जाये यह हमको समझ नहीं आया लेकिन फ़िर आगे सुषमा नैथानीजी ने इसे विस्तार दिया:
कला का हर फॉर्म लगातार रियाज़ माँगता है, और हर किसी से कभी बहुत अच्छी धुन बन सकती है, और कभी सिर्फ शोर और खटर-पटर हो सकती है. किसी एक ही व्यक्ति की सारी रचनाएँ श्रेष्ठ नहीं हो सकती, न सारी घटिया. अच्छे और बुरे का अनुपात बदल सकता है, और ये रियाज़ की, समझ की और रचनाशीलता से ही संभव है, कि ज्यादा रचनाएँ अच्छी, घटिया कम।चलते-चलते विनीत कुमार का एक ठो स्टेटस अंश देख लिया जाये:
अपने कमरे में आकर सुलक्षणा ने आठ साल पुरानी अटैची निकाल ली थी..रंगीन अखबार इतिहास के गडढे में धंसकर मटमैला हो गया था. आनंद बाजार का शहर/आसपास का पन्ना निकाला. उसने अभी तक पूरा अखबार ही रखा था, उसकी कतरन भर नहीं. जूड़े में बेली का गजरा, लाल पाढ़वाली छपा साड़ी, बड़ी सी बिंदी, पैरों में घुंघरु, चेहरे पर मुस्कान और बंगाल के बड़े नेता प्रणव दा से पुरस्कार लेती हुई. सुलक्षणा उस तस्वीर को फिर से चूमती है. वो खुश होती है कि जिस प्रणव दा ने उसे आज से आठ साल पहले पुरस्कार दिया, अब राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं. जान, एटा देख न एकटू, आमार प्रणव दा..पोल्टू दा का इंटरवल के बाद फिर से दांत पीसना जारी था..( लप्रेक, ए लिटिल विट पॉलिटिकल)राष्ट्रपति चुनाव पर हुई ट्विटर बमचक का नजारा देखना हो तो शिवकुमार मिश्र के यहां आइये:
@DialMforMamta कअ इजिये कअ इजिये। हमें जो ऐ ... कोई आपत्ति नईं ऐ।@Soft_Lion No no, Mulayom ji, I don’t agree with you. You see, @Official_kalam is people’s president, just like I am people’s Chief Minister.@DialMforMamta जन्ता के इए ई तो हम भी काम कअ अहें एं। हम सभी जन्ता के इए ई तो एं।@DialMforMamta Telling @Soft_Lion such thing would not work. Don’t worry I have plan-B and if needed, I have Plan-C and Plan-D too. I am all for a Virat president.
बाकी फ़िर कभी। सबसे ऊपर वाला फ़ोटो सतीश सक्सेनाजी के मेरे गीत के विमोचन के मौके पर लिया गया था। इसमें अमरेन्द्र ब्लाग बहादुर की तरह पोज दिये खड़े हैं और सतीश सक्सेना जी शायद कह रहे हैं:
इस दुनियां में मुझसे बेहतर
गीत, सैकड़ो लिखने वाले !
मुझसे अच्छा कहने वाले,
मुझसे अच्छा गाने वाले !
यह प्रयास भी सार्थक होगा,अगर आप आ जाएँ मीत !
मात्र उपस्थित होने से ही , गौरव शाली मेरे गीत !
मजेदार (चिट्ठा)चर्चा है. खासतौर से
जवाब देंहटाएंये वाली.....
"डा.अरविन्द मिश्र ने लपक के उसे लाइक कर डाला। और टिपिया भी दिया:
व्यंगकार ताका तूकी न करे तो रोटी कैसे पचे :)
डा.मिश्र की टीप में एक वर्तनी दोष है, एक बिम्ब दोष और एक ठो अभिव्यक्ति आत्मविश्वास की कमी। व्यंग्यकार को वे व्यंगकार लिखे ये वर्तनी दोष है। बिम्ब दोष ये कि सुबह-सुबह रोटी नहीं खा रहे हैं हम चाय पी रहे हैं लेकिन डा.मिश्र बासी सूचनाओं से काम चला रहे हैं। कल्पना शक्ति का सहारा लेकर उनको कोई सुबह माफ़िक बिम्ब पेश करना चाहिये। आत्मविश्वास की कमी उनके इस्माइली से झलकती है। उनको लगता है कि उनकी बात में मुस्कराने वाली बात नहीं निकल पायी।"
अब इंतजार इस बात का है कि डा मिश्र आपको अपनी फंतासी मे कैसे लपेटते है.
डॉ अरविन्द मिश्र को छेड़ने का कोई मौका नहीं जाने देना है गुरु ....
हटाएंजरूरत से ज्यादा आत्मविश्वासी अरविन्द में आत्मविश्वास की कमी निकाल दी !
पवन कुमार मिश्र,
हटाएंअरविन्दजी आजकल चुनाव में व्यस्त हैं इसलिये मन से जबाब नहीं दे रहे हैं। मूड में होते तो तीनों बातों के जबाब इस तरह देते शायद:
१. व्यंगकार देशज भाव में लिखा। वर्ना ये तो पांचवी पास बच्चे को भी पता है कि व्यंग्यकार कैसे लिखा जाता है।
२. रोटी पचने की बात से मतलब यह था कि रात की खायी रोटी सुबह तक नहीं पची इसीलिये व्यंग्यकार ताका तूकी करके (रात की खाई) रोटी पचाने का प्रयास कर रहा है।
३. कुछ लोगों को समझ में नहीं आता कि कहां हंसना है उनकी सहूलियत के डायलाग में इस्माइली लगा देते हैं। :)
सतीश सक्सेनाजी,
आप हमको अरविंदजी को छेड़ने के लिये उकसा रहे हैं जबकि वे तो आपको भला इंसान समझते हैं। अरविन्दजी को लगता है कि हमेशा आदमी पहचानने में गलती हो जाती है। :)
आपके और अरविन्द के पंगे मुझे पसंद हैं ! किसी दिन आप दोनों के संबंधों पर एक विस्तृत
हटाएंरपट लिखता हूँ ....
भाईचारे की वकालत के गीत लिख लिखने वाले गीतकार को हमारे ’पंगे’ पसंद हैं। क्या बात है। यह है असलियत संवेदनशील इंसान की। :)
हटाएंbadhiya charcha hai.
जवाब देंहटाएं:-)
जवाब देंहटाएं:) :)
हटाएंकभी-कभी बैठकर भी चर्चिया लिया करो:-)
जवाब देंहटाएंआप जब कानपुर से जबलपुर गए थे तो ' घर से बाहर जाता आदमी 'लिखकर खूब स्यापा कर रहे थे.हमारी तो अर्धांगिनी हमसे दूर हो गई है तो हम रोयें भी नहीं :-)
...कविता मत देखो,भावनाओं को समझो !
फ़ेसबुक,ट्विटर और ब्लॉग पर बैठा कैसे जाता है ये जरा फोटो लगाकर बताइयेगा।
हटाएंभाई अब कविता और भावना में से जो हमें बेहतर लगेगा उसी को तो समझेंगे। :)
मस्त स्टेटस चर्चा ... इस चिट्ठा चर्चा में ..
जवाब देंहटाएंमस्त टिप्पणी।
हटाएंबहुत बढ़िया चर्चा
जवाब देंहटाएं@ सतीश जी के साथ फ़ोटो खिंचाते हुये भी कोई उनसे अच्छा भले न लगे लेकिन उनके आस-पास स्मार्ट लग सकता है। ............ kya tir-e-nazar hai???
जवाब देंहटाएंpranam.
सतीश जी की फोटो के बारे में कह रहे हैं न!
हटाएंहम तो अपनी फोटू देखे जा रहे हैं, लगता है कुछ ज्यादा ही मोटिया रहे हैं :) की बोर्ड पर धमक तेज करनी पड़ेगी, ताकि पडोसी का कुछ तो असर आये :)
हटाएंयह भी ठीक है ...अब फेस्बुकीय चर्चा ..:)
जवाब देंहटाएंहां ट्विटर और ब्लॉग भी तो हैं साथ में। :)
हटाएंमस्त। पूरे फार्म में हैं आजकल। नज़र न लगे।
जवाब देंहटाएंनजर कैईसे लगेगी- आपकी टिप्पणी का ढिढौना जो लग गया। :)
हटाएंफेसबुक और ट्विटर पर चर्ची लगी, वैसे ये बात तो है कि फेसबुक से बहुत कुछ पता लग जाता है वैसे न भी लगे.
जवाब देंहटाएंहां! फ़ेसबुक प्रयोग करने में काफ़ी आसान है इसलिये लोग वहां झट से स्टेटस अपडेट कर देते हैं।
हटाएंबहुत रोचक!
जवाब देंहटाएंख़ास कर पुष्प और गंध के लिखने -पढ़ने की बात/ समाज वैज्ञानिक का विश्लेषण ... बहुत ही बढ़िया था .
धन्यवाद! :)
हटाएंवर्तनी का प्रेत हर जगह पिछियाए रहता है ससुरा ..
जवाब देंहटाएंबाकी भी दोष निकाल दिए हैं, हैरत है!
फोटो तो वाकई जानदार चेपे हैं !
दोष सब फ़ालतू के हैं। सबसे पहली प्रतिटिप्पणी में बयान जारी कर दिया गया। सतीश जी को आप समझिये। अब देखिये हमें उकसा रहे हैं सरेआम आपका आत्मविश्वास से मौज लेने के लिये जबकि आप उनको भला आदमी मानते हैं।
हटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं""इस बीच हम अपने बिस्तरे से उतरकर कुर्सी लेकर बरामदे में आ गये हैं।"" ---- क्या बिस्तरे शब्द सही है ? मुझे लगता है कि बिस्तर होना चाहिए था |
जवाब देंहटाएंअब सुबह उतरे थे तब वर्तनी देखकर तो उतरे नहीं थे। अब कल फ़िर उतरकर अपना बयान जारी कर देंगे।
हटाएंआत्मविश्वास की कमी उनके इस्माइली से झलकती है। उनको लगता है कि उनकी बात में मुस्कराने वाली बात नहीं निकल पायी------ध्यान रखना पड़ेगा आगे से इस्माइली का प्रयोग करने में , लेकिन इस्माइली का प्रयोग तो आप भी बहुत करते हो :)) (डबुल इस्माइली -डबुल आत्मविश्वास कि कमी :)
जवाब देंहटाएंहां हमारी आत्मविश्वास अक्सर बहुत हिल जाता है यह सोचकर कि अगला हमारी बात समझकर हंसेगा या नहीं। इसलिये डबल इस्माइली सटा देते हैं।
हटाएंउस जमाने तक पुष्प, होंठ और सांस साक्षर हो चुके थे और पांखुरी, बांसुरी तथा सांस-देहरी पर लेखन का काम करने लगे थे...
जवाब देंहटाएंगुरु ,
प्लीज़ कविताओं / गीतों का न पढ़ा करो न विवेचना किया करो ! जो दो चार जगह कवि बचे भी हैं वे भी आपको पढकर अपना सर पीटते भाग जायेंगे !
आप नहीं चाहते कि हम भी स्तरीय साहित्य पढ़ें तो यही सही। नहीं पढ़ा करेंगे कवितायें/गीत। आप लिखते रहिये आराम से। हमको अपने ब्लॉग पढ़ने के आनंद से वंचित करके न जाने कौन सा सुख मिलेगा आपको। लेकिन खैर यही सही। :(
हटाएंधनभाग गुरु ...
हटाएंek tho Diclaimer lagaaya kijiye ki kripaya dil par na lein :P nahin to kisi din charcha par katl-e-aam ho jaayega :)
जवाब देंहटाएंसलाह पर अमल किया जायेगा। और जब कभी कत्लेआम होगा तो उसकी भी चर्चा की जायेगी।
हटाएंकानपुर वाले इस कदर सिलबट्टे पर भांग भी नहीं पीसते जैसा आप ने डॉ. अरविंद जी महीन किया है। पर बनारस भी इस फ़न में कम नहीं रहा है।
जवाब देंहटाएंबनारस के क्या कहने!
हटाएं:) पूरी चर्चा कॉपी पेस्ट फ़िर भी मौलिकता लिए हुए…मस्त चर्चा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
हटाएंबहुते आत्म-विशवास परक चर्चा रही !
जवाब देंहटाएंजय जय
धन्यवाद !
हटाएंमज्जेदार , लज्जतदार !!!!
जवाब देंहटाएंस्माइली से आत्मविश्वास की कमी झलकती है, नयी बात पता चली। वैसे स्माइली का एक फायदा भी है कि पंगा लेने के बाद कह सकते हैं हम तो मजाक कर रहे थे।
जवाब देंहटाएं..ठीक कह रहे हो पंडिज्जी !
हटाएं