शुक्रवार, अप्रैल 12, 2013

फ़रिश्ते सरीखे मुस्तफ़ा और खोना-मिलना पापा का

पिछले महीने एक सुबह, बहुत सुबह मेरे फ़ोन पर एक एस.एम.एस. आया- अनूप जी क्या आप मुगलसराय में किसी को जानते हैं? जरूरी काम है।

एस.एम.एस. अनुसिंह चौधरी का था। उनसे कभी-कभी गांव कनेक्शन के लिये लेख या सामग्री के सिलसिले में बात होती रहती है। लेकिन इत्ती सुबह का यह सवाल अलग सा था।

 मैंने उनको फ़ोन किया तो पता चला कि उनके पापा मुगलसराय स्टेशन के पास ट्रेन से उतर गये हैं। उनको भूलने की बीमारी है। मेरे पास मुगलसराय के किसी दोस्त का नंबर तो नहीं था लेकिन बनारस के जितने मित्रों के नंबर मेरे पास थे मैंने उनको दिये। उन दोस्तों को फ़ोन भी कर दिया कि अनुसिंह फ़ोन करेंगी । रेलवे से जुड़ा मामला होने के चलते सबसे पहले ज्ञानदत्त पाण्डेयजी और अपने दोस्त मनोज अग्रवाल को फ़ोन किया। अनुसिंह से उनके पापा का विवरण लेकर उनको बताया। ज्ञानदत्त जी और मनोज जी दोनों ने मुगलसराय में स्टेशन मास्टर/डीआरएम और संबंधित लोगों फ़ोन किये। नंबर दिये। मनोज ने बताया कि यह बात रेलवे के लोगों को रात से ही पता है और वे हर संभव जगह पर खोज कर रहे हैं।

यह खोज खबर तो रात से ही शुरु हो गयी थी। इसका पता अनु सिंह को था। लेकिन वे चाहती थीं कि कोई दोस्त/जानने वाला खुद मुगलसराय स्टेशन जाकर देख आये। क्या पता स्टेशन में ही कहीं हों उनके पापा। इस बीच मैंने देवेन्द्र पाण्डेय जी को फ़ोन किया। बनारस में रहते हैं। वे फ़ौरन मुगलसराय स्टेशन जाने के लिये तैयार हो गये। विवरण मैंने उनको एस.एस.एस. कर दिया था। कुछ देर बाद उन्होंने फ़ोन किया कि उनको मैं पहचानूंगा कैसे? कोई फ़ोटो हो तो आसानी होगी। अनुसिंह ने अपने पापा की फ़ोटो अपलोड की फ़ेसबुक पर। देवेन्द्र पाण्डेयजी बनारस से निकल पड़े मुगलसराय के लिये।

इस बीच मैंने डा.अरविन्द मिश्र को भी फोन किया। पता चला कि वे सोनभद्र में थे। बहुत दूर बनारस से। हिमांशु के बारे में पता किया तो पता चला कि वे मुगलसराय से काफ़ी दूर रहते हैं। अफ़लातून जी का फोन उठा नहीं।

घंटे भर बाद देवेन्द्र पाण्डेय जी का फ़ोन आया। मुगलसराय स्टेशन से। उन्होंने हर प्लेटफ़ार्म छान मारा था लेकिन अनु के पापा का पता नहीं चला। घंटे-ड़ेढ घंटे और खोजने के बाद वे वापस बनारस लौटे। उदास। सबको यही लग रहा था कि अनु के पापा मुगलसराय में किसी दूसरी ट्रेन में बैठ गये होंगे। शहर में होने की आशंका भी थी। जहां संभव वहां खोजा जा रहा था। बीच-बीच में अनु सिंह के उदास अपडेट मिल रहे थे-पापा का कोई पता नहीं मिला अब तक। मैं हर बार दिलासा देता कि हौसला रखो मिल जायेंगे। मेरी तरह और न जाने कितने शुभचिंतक उनको हौसला बंधा रहे होंगे। लेकिन बीतते समय के साथ उनकी आवाज उदास होती जा रही थी- पापा अभी तक नहीं मिले। आखिरी बार मैंने करीब नौ बजे फ़ोन किया था। वही उदास जबाब- कुछ पता नहीं चला। हमारा भी वही कहना- हौसला रखो मिलेंगे। जरूर मिलेंगे।

रात करीब दस बजे अनुसिंह का फोन आया- अनूप जी, पापा मिल गये। इसके बाद उन्होंने कुछ-कुछ बताया कि कैसे मिले, कहां मिले। मेरे लिये बड़ी खुशी की बात थी कि सुबह एकदम सुबह से जो अनु सिंह के पापा के खो जाने की उदास खबर थी वह रात तक मिलने की खबर में बदल गयी थी। मैंने फ़ौरन देवेंद्र पांडेय, डा.अरविन्द मिश्र और मनोज अग्रवाल तथा ज्ञानदत्तजी सूचना दी।

अब उदासी छंट गयी थी। हमने अनुसिंह चौधरी से कहा कि तुम संस्मरण उस्ताद हो। पापा के खोने-मिलने का संस्मरण लिखो। उन्होंने कहा- हां लिखूंगी। शायद यह भी कहा कि इस बीच जिस मन:स्थिति से गुजरी हूं वह सब लिख पाना संभव नहीं है।

इस बीच अनु ने पोस्ट लिखी - पापा के खोने और मिलने के बीच ! इस संस्मरण में अनु ने अपने पापा के खोने और फ़िर से मिल जाने के किस्से को विस्तार से बयान किया है। पापा के खोने की खबर उनको अपनी मां(सास) से मिली। उनको अपराध बोध भी रहा होगा कि उनके साथ रहते वे स्टेशन पर उतर गये। अपराध बोध रुलाई के रूप में फ़ूटा:
“पापा कहीं चले गए हैं,” फ़ोन उठाते ही मां ने कहा और फिर उनकी रुलाई फूट गई। मां और पापा, यानी मेरे सास-ससुर होली हमारे साथ मनाने के लिए कटिहार से दिल्ली डिब्रूगढ़ राजधानी में आ रहे थे और ऐसे कई सफ़र दोनों साथ-साथ साल में कई बार करते हैं। मुश्किल ये है कि आठ साल पहले सिर पर लगी एक चोट की वजह से अब याददाश्त कई बार पापा को तन्हा छोड़ने लगी है और थोड़ी देर के लिए वो ये भूल जाते हैं कि वो कहां हैं, किसके साथ हैं और उन्हें जाना कहां है।
65 साल की उमर कोई ऐसी ज्यादा उमर नहीं होती लेकिन भूलने की बीमारी के चलते वे उतर गये कहीं मुगलसराय में। इसके बाद:
मां की नींद खुली तो ट्रेन प्लैटफॉर्म से खिसकने लगी थी और पापा सामने की सीट पर नहीं थे। ट्रेन रुकवाकर अपने पति को खोजने की मां की सारी कोशिशें नाकाम गईं और उस नाकामी का अपराधबोध और डर हिचकियों में फोन पर निकला।
उसके बाद :
डेढ़ बजे रात से पापा को खोजने की कोशिश शुरू हो गई। हम कई सौ किलोमीटर दूर थे। मुग़लसराय में हम किसी को जानते तक नहीं थे। लेकिन पैंतालीस मिनट के भीतर आधी रात होने के बावजूद देश के सबसे बड़े जंक्शनों में से एक मुग़लसराय में पैंसठ साल के एक लापता आदमी को खोजने का काम शुरू हो गया।
साथ जुड़े लोगों के हाल/मन कैसे थे। क्या-क्या किया गया खोज-खबर लेने में:
मां ट्रेन में थीं, हम दिल्ली में और पापा गुमशुदा थे। हमें रेलवे, पुलिस और मीडिया में बड़े ओहदों पर बैठे कुछ दोस्तों का सहारा था। बावजूद इसके एक ऐसे बुजुर्ग को खोजना मुश्किल था जो भूल जाने की हालत में अपना नाम और घर का पता तक नहीं बता पाते। मुमकिन था कि उन्होंने कोई दूसरी ट्रेन ले ली हो। ये भी मुमकिन था कि वो मुग़लसराय शहर में कहीं खो गए हों। मुग़लसराय से उस वक़्त होकर गुज़रने वाली सभी ट्रेनों और उन सभी स्टेशनों पर गुमशुदगी की रिपोर्ट पहुंचा दी गई जहां पापा के उतरने की संभावना थी। वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर, दिल्ली और हावड़ा के रूट में गया, धनबाद, गोमो, आसनसोल और हावड़ा तक आरपीएफ़ को इत्तिला कर दिया गया। दिल्ली और आस-पास के शहरों से परिवार के लोग मुग़लसराय तक पहुंच गए। घर-परिवार, दोस्त-यार, अनजान लोग तक मदद के लिए आगे आए, सांत्वना दी, फोन करके हिम्मत बंधाते रहे। मनीष को सुबह साढ़ चार बजे एयरपोर्ट के लिए टैक्सी में बिठा आने के बाद से फ़ोन बजना बंद नहीं हुआ।
इसके बाद तुलसीदास की चौपाई चरितार्थ होने लगी:
धीरज,धरम, मित्र अरु नारी,
आपतकाल परखिये चारी।
और यह इम्तहान कैसा गुजरा इसके बारे में अनु लिखती हैं:
स्कूल के दोस्त, कॉलेज के दोस्त, आईआईएमसी के दोस्त, एनडीटीवी के दोस्त, ब्लॉगर दोस्त, ऑनलाईन दोस्त, भूले दोस्त, बिसरे दोस्त, नए दोस्त, पुराने दोस्त... मुसीबत के कुछ घंटों में अपनी ख़ुशकिस्मती का अहसास हुआ। जिसने सुना, मदद के लिए हाथ बढ़ाया। जैसे बन पड़ा, मदद की भी। जहां रहे, हाथ थामे रखा और सहारा देते रहे।
लेकिन समय के साथ हौसला कम होता जा रहा था। बीस घंटे बाद के हाल ये थे :
रात घिरने लगी और उत्तर प्रदेश के एक बड़े पुलिस अधिकारी ने मुझे फोन पर कहा, “मैं आपको झूठी दिलासा नहीं दूंगा। पुलिस के हाथ में कुछ नहीं। जो है, ऊपरवाले के हाथ में है। हिम्मत बनाए रखिए और दुआ कीजिए कि आपके ससुर जहां हों, ठीक हों।” पूरे बीस घंटे में उस लम्हे मैं दूसरी बार फूट-फूटकर रोई थी।
जो है सब कुछ ऊपर वाले के हाथ में , करिश्मा भले सब उसका ही रहा हो लेकिन उनके पापा मिले नीचे वाले इंसान की मेहनत के चलते। अनु लिखती हैं:
मुग़लसराय स्टेशन पर उतरने के बाद रात में ही पापा स्टेशन से बाहर चले गए। उन्हें याद नहीं था कि जाना कहां है और आए कहां से हैं। शहर में भटकने के बाद जब ट्रेन में बैठे होने की याद आई तो वापस लौट गए और जो पहली ट्रेन दिखी, उसपर बैठ गए। ट्रेन में नींद आ गई और नींद खुली तो कोडरमा में थे। वहीं उतरकर उन्होंने चलना शुरू कर दिया और धूप के चढ़ने के साथ भूखे-प्यासे रास्ते पर चलते रहे। उन्हें ना कोई नंबर याद था ना जगह की सुध थी। शाम होने लगी तो वो मुस्तफ़ा नाम के एक आदमी के घर के बाहर पड़ी कुर्सी पर बैठ गए और कहा, ये मेरा घर है। मुस्तफ़ा वहीं नमाज़ पढ़ रहे थे। नमाज़ अता करने के बाद मुस्तफ़ा ने बस्ती के और लोगों को आवाज़ दी और पूछा कि कोई इस बुज़ुर्ग को जानता था क्या। बस्ती के लोगों ने पापा से बात करने की कोशिश की। धूप, थकान और घबड़ाहट से बेहाल पापा वहीं गश खाकर गिर गए जिसके बाद मुस्तफ़ा ने मोर्चा संभाल लिया।
और  मुस्तफ़ा के मोर्चा संभालने के बाद:
उन्हें होश में लाने से लेकर उन्हें खाना खिलाने और आराम करने देने की जगह देते हुए उस फ़रिश्ते सरीखे इंसान ने एक बार भी ना सोचा कि ये नया आदमी कौन और इससे मेरा नाता क्या, या फिर इसकी धर्म-जात क्या। पापा ने टुकड़ों-टुकड़ों में अपना परिचय दिया और मुस्तफ़ा बस्ती के लड़कों के साथ मिलकर फोन और इंटरनेट कैफ़े की मदद से उन जानकारियों के आधार पर पापा के घर का पता करने की कोशिश करते रहे। आख़िर में पापा को पटना में रहनेवाले अपने एक बचपन के दोस्त का नाम और घर का आधा-अधूरा पता याद आया। मुस्तफ़ा और बस्तीवालों ने गूगल पर वो आधा पता डाला और कई कोशिशों के बाद पापा के दोस्त से बात करने में क़ामयाब हो गए।
अद्भुत संयोग है यह सब। मुगलसराय से भटककर 300 किलोमीटर दूर कोडरमा के किसी गांव पहुंचना। एक अनजान इंसान को उसके परिजनों के पास तक पहुंचाने के लिये तकनीक का इस्तेमाल। सब कुछ काल्पनिक, अद्भुत और सुखद सा लगा होगा जब अनु के पापा एक फ़रिश्ते जैसे इंसान मुस्तफ़ा की नेकनीयती और मेहनत के चलते मिल गये। अगर कोडरमा के उस गांव में मुस्तफ़ा न मिलते तो क्या होता? अनु सिंह ने लिखा:
बाकी की कहानी लिखते हुए मेरे हाथ ये सोचकर कांप रहे हैं कि अगर मुस्तफ़ा ने पापा को अपने घर से निकाल दिया होता तो? या फिर लावारिस समझकर पुलिस के हवाले कर अपने कर्तव्य की इतिश्री ही समझ ली होती? या फिर एक गांव में बैठे हुए तकनीक का इस्तेमाल कर एक भूले हुए आदमी का पता खोजने की नामुमकिन-सी कोशिश ही ना की होती तब?
इस सुखांत घटना से मिले सबक के बारे में लिखती हैं अनु:
पापा घर लौट आए हैं और गुमशुदगी और तलाश का ये एक दिन हमें ज़िन्दगी के कुछ अहम और नायाब पाठ सिखा गया है। अपने बच्चों की तरह अपने बुज़ुर्गों का ख़्याल रखना हमारी ज़िम्मेदारी है। जैसे बच्चों को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता, वैसे बुज़ुर्गों को भी नहीं। उनकी देखभाल के लिए एक सुदृढृ व्यवस्था का निर्माण वो चुनौती है जिससे पार पाना ही होगा। आमतौर पर गुम होनेवालों में बड़ी संख्या बच्चे, बुज़ु्र्ग और मानसिक रूप से परेशान, तनावग्रस्त लोगों की होती है और उनकी गुमशुदगी पूरी तरह रोकी तो नहीं जा सकती। लेकिन हमारी थोड़ी-सी जागरूकता एक परिवार को बिखरने से बचा सकती है। कहीं किसी भटके हुए की मदद करना एक छोटा-सा ग़ैर-ज़रूरी काम लग सकता है, लेकिन ये छोटा-सा काम किसी एक इंसान और उसके परिवार को बड़े दुख से बचा सकता है। मुस्तफ़ा नाम के एक अनदेखे अजनबी ने सहृदयता का जो पाठ पढ़ाया है, वो भी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सबक है।
अनु की यह पोस्ट मैंने कल रात पढ़ी। मुझे अपने जीवन में ऐसे तमाम लोग याद आये जब एकदम अनजान लोगों ने ऐसे सहायता की जैसे हम उनके एकदम सगे हों। तीस साल पहले साइकिल से भारत भ्रमण के दौरान ऐसा कई बार हुआ। केरल में मेरे पिताजी के ऐसे मित्र मिले जो न मेरे पिताजी से कभी मिले भी न थे। एक पुलिस अधिकारी ने अपने पास के सब पैसे हमको दे दिये। इसके अलावा खाना/पीना रहना और अन्य सहयोग और सुविधायें इफ़रात मिलीं। वह तीन माह का भारत दर्शन मेरे लिये ऐसा अनुभव है जिसके चलते मुझे कोई भी देश के किसी भी हिस्से का व्यक्ति अजनबी सा नहीं लगता। बहरहाल आज की चर्चा सिर्फ़ इतनी ही। अनु सिंह का यह संस्मरण लिखने के बाद और कोई चर्चा करने का मन नहीं है। इसी को दुबारा पढ़ते हुये दुआ करना करना चाहता हूं कि दुनिया में मुस्तफ़ा सरीखा मन और नेकनीयती सबको मिले।

और अंत में

अनु सिंह के पापा का खोलने और मिलने का संस्मरण पढ़कर अपना एक किस्सा याद आ गया। करीब पांच-छह साल पहले हमारी श्रीमतीजी फ़र्रुखाबाद से कानपुर ट्रेन से आ रहीं थीं। रात की ट्रेन से। आंधी के चलते टेलीफ़ोन लाइनें उखड़ गयीं थीं। रेलवे वालों को भी पता नहीं चला रहा था कि ट्रेन कहां हैं। पास के रावतपुर स्टेशन गये। वहां भी कुछ पता नहीं चला। हम कार से फ़र्रुखाबाद की तरफ़ चल दिये। हर स्टेशन पर देखते कि ट्रेन वहां तक पहुंची है कि नहीं। उसके बाद आगे चल देते। ज्यादा दूर तक नहीं जाना पड़ा। दो स्टेशन आगे ही मंधना में गाड़ी खड़ी थी। बिजली गुल। ट्रेन में अंधेरा। हम डिब्बा-डिब्बा अपनी पत्नी और भतीजी को खोजते रहे। आवाज देकर पुकारते भी रहे। इस बीच ट्रेन ने चलने के लिये सीटी भी दे दी। हम सोच नहीं पाये कि उतर जायें कि गाड़ी में खोजते रहें। इस बीच एक सीट पर बैठी श्रीमती जी ने मुझको देख लिया। और हम उनको ट्रेन से उतारकर अपने साथ ले आये। इस तरह मजाक-मजाक में हम कम मेहनत में काम भर के हीरो भी बने रहे कुछ दिन। लेकिन बाद की रूटीन लापरवाहियों ने वह हीरो मेडल न जाने कब का धुंधला दिया है। :)

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23 टिप्‍पणियां:

  1. मानवीय सरोकार की अनुकरणीय मिसाल प्रस्तुत की मुस्तफा ने-
    कभी कभी तो लगता है मानवता आज इन्ही छोटी जगहों और मुस्तफा सरीखे 'छोटे कद के ' लोगों में मौजूद रह गयी है -
    आपका भी यह मानवीय सरोकार मैंने महसूस किया -
    मैंने अनु सिंह चौधरी जी का संस्मरण भी देखा -मगर जैसा कि एक डेजा वू सरीखी मेरी
    छठी हिस संकेत कर रही थी हिन्दी ब्लागर्स के लिए एक भी धन्यवाद का शब्द वहां नहीं था
    -मुझे लगता है अनु सिंह जी को भले लिटरली ही एक शब्द ब्लागर्स का भी घन्यवाद ज्ञापन में जोड़ना चाहिए था
    मैं इस बिंदु पर बहुत संवेदनशील होता गया हूँ और काफी पहले क्वचिद पर
    एक पोस्ट भी लिखी थी कि हम कृतज्ञता ज्ञापन में न जाने क्यों इतना कृपण हो जाते हैं !

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    1. कभी-कभी (क्या अक्सर ही) आप ऐसी बातें करते हैं जो बहुत छोटी लगती हैं। इंसानियत और सहृदयता की बात के बीच ब्लॉगर्स के लिये धन्यवाद ज्ञापन की मांग करना वैसा ही है जैसे जाकिर अली रजनीश, ढेर सारी चर्चाओं के बावजूद, शिकायत कर रहे हैं- अनूप जी, तस्‍लीम को तो आप कन्‍ने से काट गये, कौन बात की नाराजगी है ?

      अनु सिंह ने लिखा भी है:
      स्कूल के दोस्त, कॉलेज के दोस्त, आईआईएमसी के दोस्त, एनडीटीवी के दोस्त, ब्लॉगर दोस्त , ऑनलाईन दोस्त, भूले दोस्त, बिसरे दोस्त, नए दोस्त, पुराने दोस्त... मुसीबत के कुछ घंटों में अपनी ख़ुशकिस्मती का अहसास हुआ। जिसने सुना, मदद के लिए हाथ बढ़ाया। जैसे बन पड़ा, मदद की भी। जहां रहे, हाथ थामे रखा और सहारा देते रहे।

      यह धन्यवाद और कृतज्ञ भाव नहीं है तो और क्या है?

      क्या आप चाहते हैं कि अलग से औपचारिक धन्यवाद प्रस्ताव पेश किया हिंदी ब्लॉगर्स के लिये? कुछ तो समझिये कहने के पहले कि आप कह क्या रहे हैं? बड़े बनिये उदार! औघड़ बाबा की नगरी का वासिंदा इत्ता हिसाबी -लाहौल विला कूवत! :)

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    2. ओह तो दबा छुपा नाम ब्लागर्स का भी था -इस ओवरसायिटी के लिए मुआफी
      दरअसल आप जिस महानता की कोटि में आते हैं हम उसमें नहीं अ पाए हैं ,
      हम छोटे कद के हैं इसलिए बात भी छोटी ही करते हैं ,जितनी व्यग्रता आपने इस
      मामले मे दिखायी मुझे लगा आप कुछ ज्यादा के हकदार थे बस -मगर आप महानता का कोई मौका कहाँ छोड़ते हैं
      और मुझे छोटा ,छोटी सोच का साबित करने का भी . इस धरती पर हमारे जैसे वन मानुषों से विकसित निम्न विरासत के जीव भी हैं तो आप सरीखे आसमान से टपके देवदूत भी -यह बात ज्यादातर निम्न विरासत वाले ब्लागर्स जानते हैं!

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    3. मुआफ़ी हम क्या देंगे महाराज ? आप महान है।

      अब फ़िजूल का जबाबी कीर्तन क्या किया जाये?

      छोड़ा जाये। मस्त रहा जाये। :)

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    4. ...मिसिर जी ,आप नाहक ही सुकुल जी को हूल दे रहे हैं :)
      .
      .सबके काम के तरीक़े जुदा हैं ।

      हटाएं
    5. एक बेटी को उसका खोया हुआ बाप मिल जाय, यह बड़ी बात है, क्रेडिट किसे मिला,यह गौण है।

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  2. आम आदमी तो आज भी धर्म-जाति के बंधनों से ऊपर उठ जाए पर ये जो सो काल्ड "क्रीमी लेयर" है न, ये उठने कहाँ देती है | अनु जी की पोस्ट कल पढ़ी थी | वो वाकई संस्मरण उस्ताद हैं | और साथ ही जो बात उन्होंने वृद्धों की देखभाल के लिए उठाये हैं, वो बहुत महत्वपूर्ण हैं |

    आपके हीरो बनने वाली बात भी धासूं ही है, बस ऐसा मौका भगवान दुबारा ना दे :) :) :)

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    1. अरे हम कहां के हीरो भाई! हम तो जीरो हो गये! वो तो एक बात बताई जो याद आ गयी। :)

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  3. सच में इंसानियत मौजूद है आज भी समाज में .... अनु जी का यह संस्मरण मर्मस्पर्शी ,

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  4. बेहतरीन चिट्ठा चर्चा सरजी । शुक्र है कि अनु जी के बाबूजी सकुशल वापस आ गए ।

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    1. धन्यवाद! वाकई यह सुकून की बात है कि उनके बाबूजी घर वापस आ गये।

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  5. excellent post today anup
    i read her post yesterday
    and honestly i felt like myself thanking each one who helped in moments of distress

    but it was such a relief in the end

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  6. मुस्तफ़ा ने अपना नाम सार्थक किया। वह वाकई पैगम्बर बनकर आया!

    ..अब बहुत अच्छा लग रहा है पढ़कर।

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    उत्तर
    1. सही ! मुस्तफ़ा पैगम्बर बनकर आये !

      आपका भी मन वैसा ही है। बहुत मेहनत की आपने उस दिन।

      मुझे भी बहुत अच्छा लगा अनु का संस्मरण पढ़कर और इसे लिखकर!

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    2. मेरा मेहनत करना कोई बड़ी बात नहीं है, न करना गलत होता। मेरी जगह कोई भी होता तो करता, ऐसी परिस्थिति में तो करना ही चाहिए। मैं तो अपने एक मित्र के कहने पर खूब सोच समझकर, जान बूझकर ऐसे ब्लॉगर की मदद करने गया जिन्हें मैं भी जानता था। पैगम्बर का मन तो मुस्तफ़ा का है जिसने एक ऐसे व्यक्ति की मदद की जिसे वह बिल्कुल नहीं जानता था।

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  7. यूं फरिश्ते की तरह किसी से मदद मिलना...जीवन में हमारे नेक और अच्छे कर्मों का फल ही होता है..अनु जी के पापा सही सलामत मिल गए...सुनकर इतनी राहत मिल रही है..जैसे अपने घर की बात हो

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  8. ओह! मेरे पिताजी भी डिमेंशिया से ग्रस्त हैं और याददाश्त में बहुधा गड़बड़ियाँ होने लगी हैं। मैं इस पोस्ट की संवेदनायें समझ सकता हूं। उस दिन यह जान कर बहुत सुकून मिला था कि उनके पिताजी मिल गये थे!

    मैं एक व्यक्ति को जानता हूं जिनके दादा जी यहां रात में मानिकपुर-नैनी के बीच जाने किस स्टेशन पर रात में उतर गये। फिर उनका, बहुत खोजने पर भी, पता न चला! :-(

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  9. बहुत सुन्दर लेखन | पढ़कर आनंद आया आपका संस्मरण | एक नया अनुभव हुआ और एक नायाब उदहारण प्रस्तुत किया आपने | आशा है आप अपने लेखन से ऐसे ही हमे कृतार्थ करते रहेंगे | आभार

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  10. मुस्तफा जैसे व्यक्ति ही नर में नारायण का विश्वास दिलाते हैं। अन्त सुखद हुआ, जानकर संतोष हुआ।

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  11. पढ़कर रोमांच हो आया। कैसा अविश्वसनीय सुसंयोग था। मनुष्य की तो है ही तकनीक की भूमिका भी इसमें कम नहीं। मैं इस घटना व स्थिति की कल्पना से ही चकित हूँ। उनके पिताजी के लिए शुभकामनाएँ। यहाँ विदेशों में कुछ ऐसे संसाधन विकसित किए गए हैं जो ऐसे व्यक्तियों की गतिविधियों का पूरा ब्यौरा उस से जुड़े कंप्यूटर पर देते रहते हैं कि वे कब कहाँ गए, कहाँ हैं आदि। जमानत पर छूते अपराधियों और पालतू पशुओं तक को एक छोटी-सी चिप हाथ, गले या पाँव में पहनाई जाती है। पालतू पशुओं के क्रम में तो यह अनिवार्य है और प्रत्येक पशु के गले में बेल्ट के साथ लगी होती है। स्मृति खो चुके ऐसे लोगों के लिए अतिरिक्त सावधानियाँ भी नियत हैं कि उनकी जेब में अतापता व फोन नंबर सदा रखे हुए होने चाहिएँ व ढेर सारी और भी चीजें। आशा है, अपने पिताजी के संदर्भ में अनुसिंह अब और अधिक सतर्कता बरतेंगी व इसे पढ़ने वाले दूसरे लोग भी कुछ अतिरिक्त उपाय अवश्य करेंगे। शुभकामनाएँ।

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