लोकगीत कहां से कहां कैसे सफ़र करते हैं यह आज हिमांशु की पोस्ट देखकर पता चला। उन्होंने अपनी अम्मा के मुंह से सुने लोकगीत का भावपूर्ण चित्रण करते हुये लोकगीत "छापक पेड़ छिउलिया कि पतवन गहवर हो..." प्रस्तुत किया है। सरल भावानुवाद अनुवाद सहित। इस पर अभिषेक ओझा की सहज प्रतिक्रिया है--
आज दिन में ये पोस्ट पढ़ी थी. पधरे पढ़ते भावुक हो गया था... आपके लिखने के तरीके ने शायद ज्यादा भावुक किया. वर्ना तो कितनी ही बातें पढ़ते ही दिमाग से निकल जाती है !
यह गीत कंचन की अम्मा भी गाती हैं। पीड़ा का यह गीत सार्वभौमिक है। कालातीत। सबसे पहले मैंने इस गीत और इसकी मार्मिकता के बारे में नंदनजी ने अपने आत्मकथ्य में लिखा है:
वहीं मुझे मिले डा.ब्रजलाल वर्मा जो मेरे क्लास टीचर भी थे और हिंदी,उर्दू,अंग्रेजी और फारसी तथा संस्कृत के खासे विद्वान थे। उन्होंने शब्दों की लरजन,उसकी ऊष्मा और उसकी संगति की ऐसी पहचान मेरे मन में बिठा दी कि मुझे साहित्य जीवन जीने की कुंजी जैसा लगने लगा। वे हिन्दी की किसी कविता की पंक्ति को समझाने के लिये उर्दू और संस्कृत के काव्यांशों के उदाहरण देते थे और इस तरह साहित्य की बारीकियों पर मेरा ध्यान केंद्रित करते थे। लोकजीवन से संवेदना के तमाम तार झनझना देते थे:-
छापक पेड़ छिउलिया तपत वन गह्वर हो,
तेहि तर ठाढ़ी हिरनिया हिरन का बिसूरइ हो।
यह सोहर मैंने पहली बार डाक्टर ब्रजलाल वर्मा के मुख से सुना था और पहली बार उस दर्द को गहराई से महसूस किया था कि एक हिरनी कैसे अपने हिरन को मार दिये जाने पर उसे याद करने के लिये कौशल्या मां से कहती है-” जब उसकी खाल से बनी डपली पर तुम्हारा लाड़ला थाप देता है तो मेरा हिया काँप जाता है,माँ वह डफली मुझे दे दो।मुझे उस आवाज में हिरना की सांस बजती हुई मालूम होती है और मैं बिसूर कर रह जाती हूँ।”
इसीगीत को मैंने मुंबई के साथी विमल वर्मा के मुंह से सुना किसी पोस्ट में था लेकिन अब शायद वह नहीं है। जिस सुविधा का उपयोग करके वह पोस्ट डाली गयी थी उसकी शायद मियांद खतम हो गयी इसलिये वह गीत अब वहां नहीं दिखता।
इसके रचनाकार का नाम नहीं पता लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी मुखान्तरित होता जा रहा है! हिमांशु से अनुरोध है कि वे अपनी अम्मा का यह गीत टेप करके अपने ब्लाग पर डालें। यू ट्यूब पर या किसी और तरकीब से। और भी लोगों ने इसे सुना होगा। न सुना होगा तो अब सुनेंगे। लोकगीत आगे की यात्रा पर चलेगा।
नीरज गोस्वामीजी गजल में लगातार नये-नये पेश करते रहते हैं। कल उन्होंने अपनी विवाह वर्षगांठ मनाई तो साथियों कहा कि भाभी जी को क्यों नहीं भेंट की यह गजल! अब बताओ भला भेंट करने को गजलै रह गयी है। करना ही होगा तो दीवान करेंगे।
पूजा को दिल्ली रह-रहकर याद आती है। अब जब सर्दी शुरू हो गयी तो एक बार फ़िर उनका मन दिल्लीमय हो गया और वे कहने लगीं:
बंगलौर में पढ़ने लगी है हलकी सी ठंढ
कोहरे को तलाशती हैं आँखें
मेरी दिल्ली, तुम बड़ी याद आती हो
वंदनाजी अपने बचपन में टहला रही हैंआज और अपने खेल-वेल के किस्सों के साथ अपनी शैतानियां भी उजागर कर गयीं। साथ ही अपनी बात भी कह गयीं:
आजके बच्चे जिस दौर से गुज़र रहे हैं, उसमें उन्हें तनाव के अलावा और कुछ नहीं मिल रहा। मनोरंजन के नाम पर टीवी या फिर नेट की दुनिया। लड़के तो फिर भी बाहर कुछ खेल-कूद ही लेते हैं, लेकिन लडकियां? अब मिलजुल के खेलने का समय नहीं रहा। इनडोर गेम्स के लिए ही अकेले लड़कियों को भेजते माँ-बाप डरते हैं। मेरी बिटिया खुद कत्थक सीखती है। दो अन्य बच्चियों के साथ शाम को डांस-क्लास जाती है. लेकिन जब तक लौट नहीं आती, मेरे प्राण उसी में अटके रहते हैं। समय बदला है, बदलाव ज़रूरी भी हैं, लेकिन ये बदलाव सुखद हैं? क्या इन्हें सुखद नही बनाया जा सकता? बच्चों का बोझ कुछ काम नहीं किया जा सकता? वे भी खुली सांस ले सकें? अपना बचपन जी सकें?
कोई मतलब बचा है? अख़बारों का?.. में प्रमोदजी आज के समय में अखबारों की स्थिति बयान करते हैं।
अख़बारों का अब भी कोई मतलब है? मतलब दूसरी जगहों में शायद बचा हुआ हो, मगर हमारे देश में? या वह महती प्रगतिशील हिन्दी साहित्य की तरह है, प्रकाशकों और पैसा कमानेवालों के लिए है, छपकर सुखी हो जानेवालों के लिए भी है, लेकिन पढ़ाने और समाज को कहीं आगे पहुंचाने के लिए, है? मालूम नहीं, मगर सवाल है. वाज़िब सवाल है. आपके पास तैयार जवाब होगा, मेरी जेब में नहीं है. जवाब का 'ज' भी नहीं है. कहनेवाले कहेंगे ब्लॉगिंग की हलचलों को देखो, दीखेगा हिंदी कहीं से निकलकर कहीं पहुंच रही है, कुछ उत्साही क्रांतिधर्मी गदाधर कार्यकर्ता लपककर सामने आएंगे, कहेंगे ओ बटनधारी बदमाश, हिंदी चल नहीं रही, दौड़ रही है! (घर के बच्चों को हम अंग्रेजी स्कूलों में भेज रहे हैं उसका गोबर उछालकर यह सुहानी, दीवानी तस्वीर गंदा न करो!)
एक ही मसले पर दो लोगों की राय अलग-अलग कैसे हो सकती है यह देखिये समीरलाल और घुघुतीबासूती की पोस्टों में।
जो हल घुघुतीजी बताती हैं वह समीरलाल की विकल्प सूची में ही नहीं शामिल है। समस्याओं को समझने और उनको हल करने का हरेक का नजरिया अलग-अलग होता है।
मेरी पसंद
खासियत ये तेरे दिवाने की गैर का साथ गैर के किस्से ये तो हद हो गई सताने की साथ फूलों के वो रहा जिसने ठान ली खार से निभाने की टूट बिखरेगा दिल का हर रिश्ता छोडि़ये जिद ये आजमाने की सारी खुशियों को लील जाती है होड़ सबसे अधिक कमाने की नाचिये, थाप जब उठे दिल से फ़िक्र मत कीजिये ज़माने की साफ़ कह दीजिये नहीं आना आड़ मत लीजिये बहाने की फैंक दरवाज़े तोड़ कर 'नीरज' देख फिर शान आशियाने की |
अपनी नज़रों से यूँ ना गिरा दीजिए.
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और अंत में: फ़िलहाल इतना ही। आगे फ़िर कभी। आपका दिन मंगलमय हो।
आभार ! नन्दन जी के आत्मकथ्य में इस सोहर का जिक्र प्रमुदित कर गया । संवेदना रचने के प्राथमिक सूत्र हमारी लोक-संस्कृति और लोक-व्यवहारों में हैं ।
जवाब देंहटाएंअम्मा से कहूँगा, वे इसे रिकॉर्ड करवा दें । राजी हुईं तो पॉडकास्ट प्रस्तुत करुँगा ।
टिप्पणी बाँक्स के ऊपर लिखा "आपकी प्रतिक्रियाये हमारे लिए महत्वपूर्ण है!- कुछ अशुद्ध है । ’प्रतिक्रियाये’ की जगह ’प्रतिक्रियायें’ और ’है’ की जगह ’हैं’ कर दें ।
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर !
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंसार्थक शब्दों के साथ अच्छी चर्चा, अभिनंदन। आपका दिन मंगलमय हो।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चा हुई है।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
bahut khoob !
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जवाब देंहटाएंएक हसीना-दो दिवाने बनाम एक बॅन और दो को हैं खाने...
समीर भाई ज़ान का टिप्पणी-डब्बा कमेन्ट लिखते लिखते ही टेक-ओवर ले लेता है । चुनाँचे चिट्ठाचर्चा अपना मँच है, लिहाज़न आज के बेनामी चर्चाकार की मार्फ़त यह टिप्पणी अपने गँतव्य तक पहुँचे, .
समीर भाई की उलझन को हल करते हुये, अपने सोचने की स्थिति में कुछ अलग तरह का यथार्थ है ।
पहले तो दोनों ही त्याग की मिसाल बनने की फिराक में एक दूसरे से आग्रह करते रहेंगे कि तुम खा लो, तुम खा लो..
दूसरे स्तर पर ज़ाहिर है कि न हार मानने की ज़िद में यह मनुहार स्वतः ही तकरार में बद्ल जायेगा ।
तीसरा स्तर वह है, जब यह तकरार अपने उत्कर्ष पर कहासुनी या झगड़े में बदल जायेगा ।
चौ्थे स्तर पर झगड़े की परिणिति एक दूसरे से रूठने की बनती है, सो यह भी हो जाये... बिना कुछ खाये घर में 36 का खाका !
पाँचवीं पायदान पर दोनों अपने भूख से बेहाल और दूसरे के भूखे होने की चिन्ता से मज़बूर होकर एक दूसरे को मनायेंगे ।
यदि मानोगे नहीं तो आख़िर जाओगे कहाँ ? लिहाज़ा समझौते के तौर पर सही दोनों ही इस इकलौते बॅन को आधा आधा बाँट कर खायेंगे । इस समझौते को खुशी खुशी मिल-बाँट कर खाने का नाम दिया जा सकता है, सो यही नाम रहने दिया जाये ।
पड़ोसी ने टोह ली तो दोनों चैन से आधे आधे बॅन को खाते पाये गये । वह इस सुखी दाम्पत्य को देख डाह से जल उठा ।
अब उसे कौन समझाये, यह रिश्ता इतना अज़ीब क्यों हैं ?
इति श्री बॅन-वितरण कथा !
छोटी है, पर ठीक है।
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छोटी सी गल्ती, जो बड़े-बड़े ब्लॉगर करते हैं।
धरती का हर बाशिंदा महफ़ूज़ रहे, खुशहाल रहे।
"वे हिन्दी की किसी कविता की पंक्ति को समझाने के लिये उर्दू और संस्कृत के काव्यांशों के उदाहरण देते थे और इस तरह साहित्य की बारीकियों पर मेरा ध्यान केंद्रित करते थे।"
जवाब देंहटाएंअब कहां ब्रिजलाल जी जैसे अध्यापक जो छात्रों को प्रेरित करें॥
सुखद चर्चा ।
जवाब देंहटाएंशायद सबसे छोटा कमेंट कर रहा हूँ!
जवाब देंहटाएंnice.
बढिया चर्चा.
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद तबीयत से की गई चर्चा पढ़ने को मिली। मैं इसे सौ में से सौ नम्बर देने वाला था कि डाक्टर अमर की टिप्पणी पढ़ी और चर्चा को भूल गया। उन का लिखा बहुत दिनों बाद पढने को मिला है। न जाने क्या बिगाड़ा है हम जैसे उन के पाठकों ने उन का?
जवाब देंहटाएंलम्बे अन्तराल के बाद यहाँ आना घर वापस आने जैसा है। जैसे कुछ दिनों बाहर घूम कर आने पर घर नया-नया लगता है उसी प्रकार इस चर्चा में एक नयी ताजगी महसूस हुई है।
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