लेकोनिक हमारे प्रयोगवृत्त का शब्द नहीं है, कतई नहीं। आज ज्ञानदत्तजी ने अपनी पोस्ट में ठेला तो विशेषण के रूप में खूब जमा।
श्रीश पाठक “प्रखर” का अभियोग है कि मेरी टिप्पणी लेकॉनिक (laconic) होती हैं। पर मैं बहुधा यह सोचता रहता हूं कि काश अपने शब्द कम कर पाता! बहुत बार लगता है कि मौन शब्दों से ज्यादा सक्षम है और सार्थक भी। अगर आप अपने शब्द खोलें तो विचारों (और शब्दों) की गरीबी झांकने लगती है। उसे सीने के प्रयास में और शब्द प्रयोग करें तो पैबन्द बड़ा होता जाता है
श्रीश ने इसके प्रत्युत्तर में एक पोस्ट लिखी है-
आदरणीय ज्ञानदत्त जी से :
"टिप्पनीनवेस्टमेंट" शायद कुछ इसी तरह का शब्द इस्तेमाल किया था आपने. उस संकेत को ध्यान में रखिये और विचारिये मेरी सहज अपेक्षा कम से कम आप जैसे वरिष्ठ और आदरणीय ब्लागेरों से.
काश कि आपकी टिप्पणियां laconic होतीं लगभग हर बार. बहुधा वो महज संक्षिप्त रह जाती हैं.
इस तक पर लेकोनिकता बनी रही है मसलन श्रीश की पोस्ट पर रश्मिजी ने मासूमियत से कहा- बहुत ही गहन विचारों को प्रेषित किया है ....
पूरे चिट्ठासंसार में अगर कुछ भी लेकोनिक हो तो अनूपजी की चिंता होने लगती है। ट्विटर, फेसबुक और लो अब टिप्पणी.. अब किसी ने पोस्टों के लेकोनिक होने की बात कर डाली तो फुरसतिया क्या करेंगे। वैसे ज्ञानदत्तजी की पोस्ट पर ही अनूपजी ने साफ साफ बता दिया कि उन्हें लेकोनिक का कोनो अता-पता नहीं था
लेकॉनिक का मतलब पता चला! शास्त्री जी की टिप्पणी से आधा और बबलीजी की टिप्पणी से पूरा सहमत!
मानो अनूपजी न कहते तो हम माने बैठे थे कि वे लेकोनिक से किसी किस्म का कोई संबंध रख सकते हैं। फुरसतिया इश्टाईल में लेकोनिक होना एक ब्लॉगदोष है - लेकोनिक एक लेकुना है। पर इस लेकोनिक विमर्श ने हमें सुझाया की आज पोस्टों को उनकी टिप्पणी के लिए तलाशा खलासा जाए।
मसलन शरद कोकस की पोस्ट को लें जिसमें वे बताते हैं कि किस प्रकार श्रद्धा उन्मूलन समिति ने श्रीदेवी की तस्वीर से भभूत की बरसात करवाई-
एल्युमिनियम की फ्रेम में जड़ी श्रीदेवी की एक तस्वीर तैयार करवाई गई, मंच तैयार किया गया और उस पर एक कुर्सी रखी गई जिस की पीठ से टिकाकर श्रीदेवी को विराजित किया गया ,बाकायदा अगरबत्ती लगाई गई ,फूल चढ़ाये गये और लोगों ने देखा कि कुछ देर में उस फोटो के काँच पर भभूत गिरने लगी है ।
इस पर एक लेकोनिक टिप्पणी ब्लॉगजगत की 'ज्योतिषी' संगीताजी की भी है-
पढे लिखे लोग भी इतना अंधविश्वासी कैसे हो जाते हैं .. हमारे गांव में तो ऐसे बाबाओं को कोई टिकने भी न दे
(ज्योतिषियों के गॉंव में दूसरे अंधविश्वासियों का प्रवेश वर्जित है :)) इस क्रम में अनिल कांत ने अपनी पोस्ट में बाकायदा क्रमवार बताया है कि लेकोनिक टिप्पणियों की उपस्थिति ब्लॉग की खराब सेहत की निशानी है-
1. यह टिप्पणी प्राप्त होना कि "बहुत खूबसूरत रचना/ भावपूर्ण रचना/ Nice Post"
जब आपको इस तरह की टिप्पणी प्राप्त हो तो इसका तात्पर्य यह है कि पढ़ने वाले के पास आपकी पोस्ट के बारे में कहने को कु्छ नही है या बहुत से ब्लॉंगर सिर्फ़ बिना पढ़े अपनी अधिक से अधिक टिप्पणी दर्ज कराना चाहते हैं. इसका मतलब यह भी निकलता है कि आप ने इतना रोचक नही लिखा कि पाठक दिलचस्पी ले.
इस पोस्ट पर रंजन ने अपनी लेकोनिकता व्यकत की-
nice post!!
पर बाद में सफाई पेश की-
अंशु की जेएनयू पर पोस्ट बहुत ही टिप्पयोत्तेजक पोस्ट है... झट ही इस या उस पाले में हो जाने का मन करता है-Anil Ji.. मजाक कर रहा था.. point 1 आजमा रहा था.. आपने बहुत सुक्ष्म बिंदुओं को छुआ है.. धन्यवाद..
उन्हें साम्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए इफ्तार पार्टी में जाना जरूरी लगता है. कई इफ्तार पार्टियों में जिन्हें बुलाया गया है-उनके साथ वे लोग भी शामिल होते हैं, जिन्हें नहीं बुलाया गया. आप इन झूठे धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशीलों के सम्बन्ध में क्या राय रखते हैं? दुर्भाग्यवश ऐसे लोगों की तादाद जेएनयू में बढ़ती जा रही है
ऐसे में लोकोनिक होना कठिन है, लेकोनिकता आती भी है तो तल्ख होकर-
अंशुमाली रस्तोगी ने कहा… मित्र, प्रगतिशीलों के पास न विचार होता है न धारा। चचा नामवर को देख लीजिए
पी.सी.गोदियाल ने अपनी सन्नाटेदार लेकोनियत को एक टिप्पणी में व्यक्त किया है-
हा-हा-हा-हा, मेरे दिल की बात कह दी, ये तनख्वाह किस बात की लेते है ह***खोर , घोर आश्चर्य !
अगर आप इस *** को मूर्त रूप में पढ़ना चाहें तो, ज़ाकिर अली का मूल सवाल ये है कि सांसद तनख्वाह किस बात के लिए लेते हैं। गोदियालजी के ये स्टारालंकित संबोधन सांसदों के ही लिए है। इस सवाल का तोचलो फिर भी गल्लमगल्ला से जबाव देने की कोशिश की जा सकती है पर कुछ सवाल केवल बेबसी का ही अहसास कराते हैं। मसलन अनिल पुसादकर की बिडंबना-
दोबारा अस्पताल भी नही गया,उस लडकी से सामना करने की हिम्मत नही हो पा रही थी जो हर वक़्त अपने पिता को अच्छा होने की आस लिये संघर्ष कर रही थी।डा की बात भी मेरे दिमाग मे उथल-पुथल मचाये हुये थी,क्या अब मरीज के रिश्तेअदारों को उम्मीद भी नही करना चाहिये?मै उस लड़की को कैसे समझा सकता था कि बेटा अब तुम्हारे पापा नही बचेंगे
यहॉं टिप्पणियों में लेकोनिक होने की गुजाइश नहीं... मौन कहीं बेहतर है (nice post की तुलना में) अवधिया जी तसल्ली से बताते हैं कि तसल्ली तो दी ही जा सकती है-
इतना तय है कि लेकोनिकता टिप्पणीसंसार का मूल शिल्प है। उदाहरण के लिए चंदन की कवितामयी पोस्ट को लें.. आठ में से सात टिप्पणियॉं ये हैं-अनिल जी, जीवन में कभी कभी ऐसे मौके भी आते हैं किन्तु अच्छा हो या बुरा, झेलना तो पड़ता ही है। आप फोन उठाना बंद मत कीजिये और इस विपत्ति की घड़ी में उनका साथ दीजिये। बापू की भांजी को तसल्ली देना सबसे बड़ा काम है जो कि, मुझे विश्वास है कि, आप अवश्य ही अच्छी तरह से कर सकते हैं।
तत्काल ही उनके पास जाइये
1. बहुत सुन्दर कविता...
2. ब्लॉग की साज-सज्जा बहुत ही सुन्दर लग रही हैं...चन्दन और चित्र भी बहुत ही सुन्दर है...दीदी...
3. बहुत सुन्दर नवगीत लिखा है आपने!बधाई!
4. बहुत सुन्दर कविता...बेहतरीन. मेरी तरफ से बधाई....
5. सुन्दर रचना! बधाई.
6. वाह... बढ़िया रचना.. साधुवाद स्वीकारें..
7. bahut hi pyari rachna.
तो ये तो थी हमारी ओर से चुनी चंद लेकोनिक टिप्पणियॉं पर अब आपके पास है nice, nice charcha, अच्छी चर्चा.... लेकोनिक होने का। तो शुरू हो जाएं। सनद के लिए बता दें हमारी पिछली चर्चा पर Nice के ग्यारह ढेले मारे गए थे :))
नाइस
जवाब देंहटाएंnice!!
जवाब देंहटाएंवैसे बहुत समसमायिक मुद्दा है.. आखिर ये लेकोनिक टिप्पणी होतॊ क्यों है.. कल के अनिल की पोस्ट को जोड़ कर देखना चाहिये.. अगर पोस्ट पढ़ते ही विचार आने लगते है तो टिप्पणी स्वतः ही सार्थक हो जाती है.. वरना "लेकोनिक".. पाठक के पास २ विकल्प है.. या तो बिना टिप्पणी किये निकल जाये या फिर लेकोनिक टिप्पणी कर जाये.. समीर जी ने बहुत पहले कहीं कहा था जिससे में सहमत हूँ कि टिप्पनी न करेने से संक्षिप्त टिप्पणी अच्छी.. कम से कम लेखक को पता तो चले कि कोई आ कर गया है..
जवाब देंहटाएंबहुत खूब, मोगैम्बो खुश हुआ मसिजीवी जी !
जवाब देंहटाएं@ पंकज
जवाब देंहटाएं:)
@ रंजन इसके विपरीत हमारा तो मानना है कि चिट्ठा अर्थव्यवस्था में टिप्पणी एक ग्रोसली ओवरवैल्यूड करेंसी है... इसी वजह से फेक करेंसी की तरह लेकोनिकता भी प्रचलन में है :)
ये तो लेकोनिक पोस्ट हो गई।
जवाब देंहटाएंटिपण्णी चाहे लेकोनिक हो जाये पर सोच लेकोनिक नहीं होनी चाहिए... विडम्बना ये है कि टिप्पणियों से ज्यादा सोच लेकोनिक हो जाती है लोगो की..
जवाब देंहटाएंबहरहाल चर्चा की चर्चाइयत कतई लेकोनिक नहीं लगी..
`1. यह टिप्पणी प्राप्त होना कि "बहुत खूबसूरत रचना/ भावपूर्ण रचना/ Nice Post"
जवाब देंहटाएंजब आपको इस तरह की टिप्पणी प्राप्त हो तो इसका तात्पर्य यह है कि पढ़ने वाले के पास आपकी पोस्ट के बारे में कहने को कु्छ नही है या बहुत से ब्लॉंगर सिर्फ़ बिना पढ़े अपनी अधिक से अधिक टिप्पणी दर्ज कराना चाहते हैं. इसका मतलब यह भी निकलता है कि आप ने इतना रोचक नही लिखा कि पाठक दिलचस्पी ले.'
बहुत खूबसूरत चर्चा........ विदाउट लेकुना :)
nice
जवाब देंहटाएंहमने कभी एक लोकोक्ति सुनी थी....
जवाब देंहटाएं'नहीं मामा से अच्छा है काना मामा का होना'
वाह, लेकॉनिक शब्द को सफाई से लोक लिया गया है।
जवाब देंहटाएंअसल में पूरे जीवन में इतनी केकोफोनी है कि लेकोनी की प्रेक्टिस व्यक्ति को ऋषित्व प्रदान कर सकती है।
लेकिन ऋषि बहुत एकाकी जीव थे! :-)
नाइस ╬ nice
जवाब देंहटाएं@ ज्ञानदत्त G.D. Pandey
जवाब देंहटाएंकेकोफोनी = ??
हम तो भैया नये नये शब्दों को देख और पढ़कर खुश हो लेते हैं चाहे वो चर्चा में हों या पोस्ट में. 'लेकोनिक' शब्द भी अच्छा लगा और उसके संबंध में की गयी चर्चा तो है ही गौर करने वाली
जवाब देंहटाएंगनीमत , 'लूकोनिक' पर बेस्ड यह पोस्ट लूकोनिक नहीं बन पायी ! राहत!
जवाब देंहटाएंnice चर्चा । आपके चर्चा का अंदाज ही अलग है । वाह वाह ।
जवाब देंहटाएंटिपिया दें फिर कुछ टिप्पियोत्तेजक लिंक पर जाते हैं ।
पढें हिन्दी ब्लॉग्गिंग में टिप्पणी का महत्व
अच्छी रही यह चर्चा.
जवाब देंहटाएंटिप्पणी शास्त्र का ज्ञान काफी कम है. अतः, कुछ भी कह पाने में अपने आपको असमर्थ पा रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंआप सभी इस शास्त्र में ज्ञान के सागर हैं, कृप्या विषयास्नान जारी रखें.
शुभकामनाएँ.
अभी तो लैकोनिक का अर्थ ही नहीं खोज पाए और अब ये ....केकोफोनी....अनूठी शब्द सम्पदा है ज्ञानदत्त जी की ...!!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन चर्चा, आभार :)
जवाब देंहटाएंब्लॉग की सार्थकता इसमें है की मौजू विषयों पर बहसियाने का या अपने विचार रखने का विशेषाधिकार केवल पत्रकारों ओर छपने वाले लेखको के पास नहीं रह गया है .आमजन .आम पाठक..रोज मर्रा की जद्दोजेहद में उलझा आदमी भी अपने की -बोर्ड से सवल रख सकता है या जवाबो में प्रश्न ढूंढ सकता है ....आप ब्लॉग में कुछ तलाशते है या उसे महज़ उलीचने का एक साधन मान ते है .ये आप पर निर्भर है अच्छे लिखे को .गंभीर पाठक ढूंढ कर पढ़ ही लेता है .देर सवेर ...सबसे अच्छी बात यहां संवाद की प्रक्रिया है ....हिंदी ब्लोगिंग में सार्थक बहसे कम हो रही है ...पहले कभी कभार चोखेर बाली जैसी जगह दिख जाती थी ....शायद इसका कारण बहसों का निज ओर व्यक्तिगत हो जाना होगा ..... पर हर असहमति संदेह की दृष्टि से नहीं देखि जानी चाहिए ....नेट के साथ सबसे बड़ा फायदा ये रहता है के आपके पूर्व में लिखे का सनद रहता है .....दस फौरी टिपण्णी से बेहतर एक सापेक्ष सार्थक टिपण्णी मायने रखती है ....उसकी लम्बाई चोड़ाई नहीं ...पर यदि एक गंभीर लिखने वाला अपने पाठको से ये अपेक्षा रखता है के उसके लिखे को गंभीरता से पढ़ा जाए तो उससे भी यही उम्मीद होती है के वो भी गंभीर टिपण्णी करेगा ...विषय से संबंधित ............गाँव वालो को कभी कभी गुटनिरपेक्ष स्टेंड को छोड़ देना चाहिए
जवाब देंहटाएं101% agree with Dr. Anuraag " ब्लॉग की ..... छोड़ देना चाहिए "
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