ये साल भी गुजरने को है ...नये वादे .नयी कसमे आदतन फिर सर उठायेगे ....बही खाते टटोले जायेगे ....हमेशा की तरह गुजरे साल की सरहद पे .....हिन्दुस्तान में सेंटा क्लोज कंफ्यूजाये रहेगे .उन्हें घर की चिमनियों से उतरने की आदत जो ठहरी..... ओर इत्ती आबादी में गिफ्टों में केलकुलेशन भी बड़ा मुश्किल काम है ........? इधर हम भी कंप्यूटर की इस दुनिया का हिसाब टटोलने की कोशिश कर रहे है ...हिसाब पेचीदा है ..इसलिए किस्तों में रिलीज़ करना ही मुनासिब होगा ...
रजनी भार्गव एक तमन्ना छोटी सी,/ बड़ी आँखों वाली लड़की की/ खामोशी में रहती थी,/ लड़की के गालों के गुच्चों में / मुस्कराहट में छिपी रहती थी,/ लड़की के काले बालों की/ चोटी में फूल सी गुँथी रहती थी/ एक तमन्ना बड़ी सी,/ रसॊई के आले में / आचार के मर्तबान में रहती है/ फ़टी रसीद सी/ पंसारी की दुकान में रहती है/ माधो, बिट्टो की/ शादी के लेन -देन में रहती है/ बगीचे के फव्वारे के/ नीचे पानी में पड़े सिक्कों में रहती है/ छोटी तमन्ना चुलबुली सी/ बड़ी तमन्ना संजीदी सी/ हर साँझ छुप्पा छुप्पी खेलती हैं/ कुट्टी, अब्बा कर के रात को/ सपनों में चाँद पर बैठी मिलती हैं। | एक : नन्ही परियां / उड़ती है तितलियों सी / किसी के हाथ ना आने को,/ लड़के भरते हैं कुलांचें / जंगल के ओर छोर को / नापने की जिद में।/ झुरमुट की आड़ में युवा / थामता है हाथ, / टटोलता है प्रेम का घनत्व। युवती सूंघती हैं साँसें / स्त्रीखोर की / मामूली पहचान को परखने के लिए। बूढे कोसते हैं समय को / और लौट लौट आते हैं/ पार्क की उसी पुरानी बेंच पर / जिसका एक पाया, / उन्होंने कभी देखा ही न था। दो : बादल निगल जाते हैं जब / आकाश की ज्यामितीय रचना को / सितारों को ढक लेती है / भूरे रंग की बेहया जिद्दी धूल/ तब भी दिखाई देती है / झुर्रियों वाली बुढ़िया / आदिम युगों से आज तक / कातती हुई समय का सूत।/ राजकुमारी |
मनीषा पण्डे…….. बात सिर्फ तर्क और समझदारी की होती तो मैं मम्मी की बात मान लेती। लेकिन मेरे अंदर तो काठ का उल्लू और मॉडर्न, फैशनेबुल, अत्याधुनिक प्रगतिशीलता का दुपट्टा वाली लड़की बैठी थी। उसकी आधुनिकता अगर रामदेव के कब्ज निवारक चूर्ण के सामने झुक जाए तो लानत है ऐसी आधुनिकता पर। मैंने मां को साफ साफ कहा, देखो, अपने पुरातनपंथी तर्कों से मेरी प्रगतिशीलता को आहत मत करो। जो लड़कियां इस धरती पर पति का अंडरवियर धोने के लिए नहीं पैदा हुईं, जिन्हें कुछ महान रचकर दुनिया को दिखा देना है, वो सिगरेट भी न पिएं तो क्या भजन गाएं। रामदेव का चूरण और ईसबगोल की भूसी पति चरणों में सेवारत स्त्रियों का भोज्य होती थी, आधुनिक विचारशीलता तो कॉन्सटिपेशन और सिगरेट के साथ ही परवान चढ़ती है। मैं सिगरेट नहीं छोड़ सकती। मां अपना सिर पीटतीं, कहतीं, ऐसी नामुराद को कौन ब्याहेगा। पापा कहते, सुधा शांत हो जाओ। बड़े बच्चों को हैंडल करने का ये कोई तरीका नहीं है। मनविंदर भिम्बर तुम मेरे परिंदे हो/ तुम्हारा घोंसला मुझे आज भी याद/ मैंने तुम्हें उड़ना सिखाया/ तुम उड़े/ लंबी उड़ान पर/ लौटे नहीं/ क्योंकि/ तुम नहीं सीखे/ कैसे लौटते हैं | प्रज्ञा पांडे….. तुम्हारा ख़त / कई टुकडे बन गए इबादत के/ पढ़ते हुए / तुम्हारा ख़त / याद आई जाति बिरादरी / याद आया चूल्हा / छूत के डर से/ छिपा एक कोने में ! याद आई बाबा की / पीली जनेऊ / खींचती रेखा कलेजे में ! तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए / याद आई / सिवान की थान/ जहाँ जलता / पहला दिया हमारे ही घर से ! याद आई झोपडी/ तुम्हारी / जहाँ छीलते थे पिता / तुम्हारे / बांस / और बनाते थे खाली टोकरी ! याद / आया हमारा / भरा खेत खलिहान ! तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए / घनी हों गई छांव नीम की / और / याद आई / गांव की बहती नदी / जिसमें डुबाये बैठते / हम / अपने अपने पाँव ! और बहता / एक रंग पानी का! फाड़ दिया / तुम्हारा ख़त / कई टुकडे बन गए / इबादत के / और इबादत के कई टुकडे हुए! |
...नीरा ..... उसका बेलेंस हमेशा के लिए माइनस में........ यह काफी का तीसरा कप है और केफीन उसके भीतर की उथल - पुथल को संतुलित करने के बजाये उसे और उष्मा दे रही है वह उसके लिए पानी मंगाता है उसका मन करता है पानी को गले में नहीं अपने सर पर उडेल ले .... इतने बरसों से उसे जानने के बाद भी उसे लग रहा है आज वह किसी अजनबी के पास बैठी है जैसे पहली बार मिल रही हो ... .... उसके दीमाग में उपजने से पहले, कोई भी भ्रम को उसका विशवास उन्हें विंड स्क्रीन पर पड़ी बारिश कि तरह वाइपर से पोंछ देता था उसने एक बार भी नहीं पूछा क्यों इस बार मुझे जल्दी जाने को क्यों कह रहे हो... ? प्यार और विशवास उसकी ख़ुशी के केडिट कार्ड का पिन नंबर था वह सालों से उसे कहीं भी, किसी भी समय केश करा सकती थी... अब उसका बेलेंस हमेशा के लिए माइनस में........ वो बार - बार कह रही थी... "तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते हो? " .. "यदि ऐसी बात थी तो क्यों आने को कहा...क्या इमानदार होना इतना मुश्किल था.... कोई बहाना बना सकते थे नौकरी का, छुट्टी का, तबियत का, हालात का... जरूरी तो नहीं था मुझसे मिलना " ... वो थक गई थी, हार गई थी उसका मौन उसे तोड़ रहा था कुचल रहा था... वो हार कर फिर कहती है "हाव कुड यू ......" उसने अपना मौन तोड़ा और मुस्कुरा कर कहा "तुम बेवजह भावुक और पोजेसिव हो रही हो ...... आई वोंट माइंड इफ यू स्लीप विद यौर एक्स और सो..... " … |
बेजी ….पहला खाता अनुभूतियों से अभिव्यक्ति के मुखौटे उतार / खरेपन में निहारता है/ मन की पेटी खोल कर / लज्जा, डर, बौखलाहट ,दुख ./.. हर्श, चैन, खुशबू, आराम..../ प्यास ,तरस..../ बिखेरता ही चला जाता है.../ दूसरा खाता ख़ामोशी की आक्रति यकीं मानो / खामोशी जिस्म पहनती है / पसर कर कहीं / बैठ जाती है जब / तब / बीच की जगह भर जाती है.... / साही की तरह / नुकीले काँटे पहन / इस तरह / पास आती है... / कि बहुत नज़दीक बैठे हुए से भी / फासला बढ़ जाता है..../ तीसरा खाता…….. हमेशा हिंसा के साथ शोर नहीं उठता / कोई हथियार / नहीं दिखता / क्रोध हावी नहीं होता / ना कोई लहूलुहान होता है...../ मौन को म्यान से निकाल / धार को / तेज़ कर/ एक बेपरवाह नज़र के साथ / वार.... |
दीप्ति का पहला खाता दिल्ली में रहना तू तो दिल्ली में रहती हैं, तुझे क्या परेशानी है। यार काश मैं भी दिल्ली में रहती... ऐसा कहते ही उनसे एक आह भरी और आज उस पर जो बीती वो मुझे सुना दी। मैं बात कर रही हूँ, मेरी उस दोस्त की जिसने अपनी ज़िंदगी में कुछ भी अपने मन से नहीं किया है। हरेक काम वो अपने माता-पिता की मर्ज़ी से करती आई हैं। उसे इस बात का बहुत कोफ़्त है कि उसके माता-पिता को उस पर बिल्कुल यक़ीन नहीं है। ये सच भी है कि स्कूल या कॉलेज के दिनों में वो कभी हमारे साथ भी कही घूमने नहीं जाती थी। उसके माता-पिता उसे कभी नहीं जाने देते हैं। इसके पीछे शायद ये भावना हो कि उन्हें बेटी पर यक़ीन न हो लेकिन, मुझे ऐसा लगता है कि शायद उन्हें इस दुनिया पर यक़ीन नहीं हैं। खैर, दूसरा खाता यहां पिछले कुछ सालों में टीवी ने अपनी शक्ल-सूरत बदल ली है या फिर ये कहे कि समाज ने बदल ली। बुनियाद और हम लोग को याद करनेवाले टीवी के साफ-सुथरे स्वरूप को बहुत मिस करते हैं। सच भी है कि समाज का रूप बदला तो है लेकिन, क्योंकि सास भी कभी बहू थी जितना नहीं। आज के धारावाहिकों में कोई भी गरीब कोई नहीं, आम परेशानियों से जूझता हुआ कोई नहीं। परेशानियाँ अगर है भी तो लार्ज़र देन लाइफ़ है। ऐसे में इनसे मन उचटना स्वाभाविक है |
यूं किसी का हाथ पकड़ के इस दुनिया के कबाड़ से अलग ऊंचाई पे बैठा देना .ओर उसे एक मुकम्मल सच में बासी होते दिन...उससे न पूछिए क्या अपने तर्कों से दूसरो के दुखों की शिनाख्त की जा सकती है नए होने के लिए प्रतिपल मरना जरूरी था .और अपने दुःख को रूक कर देखना भी इसलिए अनिवार्य हो गया ..तर्क के नियमों का अतिक्रमण किए बगैर ,औरकुछ ऐसा जानना -खोजना भीतर से बाहर की तरफ जो उसके सुख का कारण होता |
पूजा ... रात के किसी अनगिने पहर / तुम्हारी साँसों की लय को सुनते हुए / अचानक से ख्याल आता है / कि सारी घर गृहस्थी छोड़ कर चल दूँ... / शब्द, ताल, चित्र, गंध / तुम्हारे हाथों का स्पर्श / तुम्हारे होने का अवलंबन / तोड़ के कहीं आगे बढ़ जाऊं / किसी अन्धकार भरी खाई में / चुप चाप उतर जाऊं / ओर कभी इस तरह ./... कार के डैशबोर्ड पर / जिद्दी जिद्दी टाइप के शब्द लटक जाते हैं/ गियर, एक्सीलेटर, क्लच / पांवों के पास नज़र आते ही नहीं / बहुत तंग करते हैं मुझे / गिरगिटिया स्पीडब्रेकर / अचानक से सामने आ कर / डरा देते हैं...और इसी वक्त ब्रेक / चल देता हैं कहीं और / महसूस नहीं होता पांवों के नीचे .. |
तनु शर्मा जोशी उदासियों का सबब जो लिखना.../ तो ये भी लिखना.../ कि चांद...तारे...शहाब आंखे.../ बदल गए हैं../.. वो ज़िंदा लम्हें जो तेरी राहों में..../ तेरे आने के मुंतज़िर थे.../. वो थक के राहों में ढल गए हैं../.. वो तेरी यादें....ख्याल तेरे.../. वो रंज तेरे....मिसाल तेरे... / वो तेरी आंखे....सवाल तेरे... / वो तुमसे मेरे तमाम रिश्ते..../ बिछड़ गए हैं...उजड़ गए हैं..../ उदासियों का सबब जो लिखना... / तो ये लिखना..../ मेरे इन होठों पर तुम्हारी दुआ के सूरज / पिघल गए हैं... / तमाम सपने ही जल गए हैं.... / बाद मरने के तुम मेरी कहानी लिखना / कैसी हुआ सब बर्बाद, लिखना../. ये भी लिखना कि मेरे होंठ हंसी को तरसे.... / कैसे बहता रहा मेरी आंखों से पानी...... / लिखना....!! | उस समय जब मैं छोटी थी बाबूजी कभी कोलकाता, कभी दिल्ली जाते थे और वापसी में गुड़िया भले ना हो कोई ना कोई खिलौना ज़रूर होता था उनके हाथ में। कल से सोच रही हूँ, कहीं कोई रिमाइंडर तो नही लगा रखा है मोबाइल में फिर भी ये तारीख आने के पहले क्या क्या याद दिलाने लगती है। उनका हँसते हुए आना, मुझे देखते ही आह्लादित होना, सायकिल की गद्दी से उतरने से पहले ही मेरी तहकीकात. "सुबह कहा था, पेन लाने को लाये ???" और फिर शाम की सुइयों के साथ सड़क पर रखे कान..... मोपेड का हॉर्न....... और शिकायतों का पुलिंदा........! उनको देखते ही बातो में झगड़ालूपन अपने आप आ जाता था। मैं जितना लड़ के बोलती वो उतना मुस्कुराते। दुनिया की सबसे सुंदर, सबसे इंटेलीजेंट, सबसे वर्सेटाईल, सबसे विट्टी बेटी उनकी है ....ये उनकी आँखे बताती थीं। और मैं खुद में फूली नही समाती थी। सारी दुनिया मिल के उपेक्षा करे फिर भी, उनका प्यार मुझे उपेक्षित नही होने देता था। हर बार याद आता है वो स्वप्न, जो मैने उनके जाने के १३ साल बाद देखा था और गोद में बैठ के उन्हे बार बार रोकते हुए कहा था कि after thirteen years of your departure I stiil love YOU ........दिनों की संख्या बदलती जाती है और मैं अब भी वही वाक्य उतनी ही शिद्दत से दोहराती हूँ कि after twenty years of your departure I stiil love YOU -कंचन |
" पुलिस -वाली दुनिया में हर बीमारी का इलाज हो सकता है पर ये लगने की बीमारी का कोई इलाज नहीं है! ऑफिस में बाबू से पूछो.." जानकारी तैयार हो गयी?" जवाब मिला .." नहीं क्योकी उन्हें लगा की शायद दो दिन बाद देनी है" अब आप तर्क ढूंढते फिरो की भाई साब जब तारीक आज की डाली है की आज ही तैयार करके देना है तो आपको कैसे लग गया?" उन्हें तो बस लग गया सो लग गया! श्रद्धा जैन- बस की खिड़की से सिर टिकाए वो लड़की,/ सूनी आँखों से जाने क्या, पढ़ा करती है, / आंसूओं को छुपाए हुए वो अक्सर, / खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है / हर बात से बेज़ार हो गयी शायद/ हँसी उसकी कही खो गयी शायद/ गिला किस बात का करे, और करे किससे, / हर आहट पर उम्मीद मिटा करती है/ खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है / नकामयाब हर कोशिश उससे गुफ्तगू की / अफवाह बनी अब तो पगली की आरज़ू की / कोई कहे घमंडी, पागल बुलाए कोई / हर बात सुनकर, वो बस हंसा करती है / खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है/ मैं देख कर हूँ हैरान उसकी वफ़ाओं को/ कब कौन सुन सकेगा खामोश सदाओं को / लब उसके कब खुलेगे कोई गिला लिए / कब किसी और को कटघरे में खड़ा करती है / खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है/ | हमारे यह पूछने पर कि इस मामले को कौन देखता है ,वह सज्जन एक दम से क्रोधित हो गए ,'हमें नहीं मालूम ,आप आगे ऑफिस से पता कीजिए ,देखते नहीं हम काम कर रहे हैं ' अंतिम वाक्य उन्होंने बहुत जोर देकर कहा ,तब हमें एहसास हुआ कि हमने कितना बड़ा गुनाह कर दिया ,वहां मौजूद सारे कर्मचारी बेहद गुस्से में दिख रहे थे ,पता नहीं उन्हें गुस्सा किस पर था ,लेकिन इतना समझ में आ गया था कि यह गुस्सा सरकारी कर्मचारी होने पर भी काम करने का था ,फिर हम काफ़ी देर तक मेरी गो राउण्ड खेलते रहे ,मतलब एक टेबल से दूसरी टेबल तक हमारा अनवरत आवागमन जारी रहा ,पैर टूट कर बेजान हो गए ,हमें इतना समझ में आ गया था कि जब हम ये हमें इतना नचा सकते हैं तो हमारे वृद्ध पिताजी को कितना नचाते ,हर कर्मचारी ये समझ रहा था कि शायद हमारा जन्म इस तहसील के आँगन में हुआ हो , हम इसी के बरामदे में खेलते कूदते बड़े हुए हों ,और यहाँ के कर्मचारियों के साथ हमारा दिन रात उठना बैठना हो .यहाँ आकर ये लग रहा था कि शायद इंसान को अभी दिशा बोध नहीं हुआ है , एक कर्मचारी ने तो हवा में इशारा किया कि ये इस नाम के सज्जन यहाँ मिलेंगे .उस महिला कर्मचारी ने हमें जब उत्तर की ओर इशारा किया तब उसका आशय दक्षिण दिशा से था , वे सारे कर्मचारी यूँ बात कर रहे थे जैसे कि हमें उनके इशारों को समझ जाना चाहिए था , ऐसे मौकों पर स्वयं पर कोफ्त होती है कि भगवान् ने हमें अन्तर्यामी क्यूँ नहीं बनाया , एक ही परिसर में घूमते घूमते हमें घंटों हो गए ,उस पर तुर्रा ये कि बार बार पूछा भी जा रहा है कि 'काम हुआ कि नहीं , या फलाना सज्जन मिले या नहीं |
अन्नू आनंद…… मध्य प्रदेश के आदिवासी जिले झाबुआ में कठिवाड़ा एक विषेश प्रकार का गांव है। कस्बों की गहमागहमी से दूर, विकास से अछूता यह गांव चारों तरफ से पहाड़ियों और जंगलों से घिरा है। । आदिवासी लड़कों में बचपन से ही अनुसासनबद्ध तरीके से सामूहिक नेतृत्व की भावना पैदा कर उन्हें अक्षर ज्ञान के अतिरिक्त जीवन के विभिन्न उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने का प्रषिक्षण देने वाला यह आश्रम है गुजरात राज्य की सीमा पर स्थित कट्ठिवाडा का ‘राजेंद्र आश्रम’। यह स्कूल आश्रम पद्धति के स्कूलों में अनूठी मिसाल है। क्योंकि यह स्कूल इन इलाकों के आदिवासी बच्चों को प्रषिक्षिति कर रहा है जिन के लिए सामान्य स्कूल भी कल्पना मात्र है। झाबुआ जिले की 87 फीसदी जनसंख्या आदिवासियों की है। इन में साक्षरता केवल 13 प्रतिषत है। ये आदिवासी सूदूर जंगलों में बसे हुए हैं। अधिकतर आदिवासियों का मुख्य धंधा खेतबाड़ी हैै। ये आदिवासी सामूहिक बस्तियों में न रह कर अलग टप्पर बना कर निवास करते हैं। इस तरह हर गांव अलग-अलग फलियों (मोहल्लों) में बंटा प्रषासन द्वारा हर गांव में स्कूल का प्रावधान है। लेकिन अधिकतर स्कूल कागजों पर चल रहे हैं। इस की एक वजह यह भी है कि इन सूदूर बस्तियों में षिक्षक आना नहीं चाहते। जिन की नियुक्ति होती भी है तो वे लंबे अवकाष पर चले जाते हैं। इसलिए इन गांवों के सरकारी स्कूल या तो बंद पड़े रहते हैं या षिक्षकों की अनुपस्थिति में बच्चे आना बंद कर देते हैं। अषिक्षा, अज्ञानता और विकास से दूर अधिकतर आदिवासी षराब पीकर अपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं। जिस का असर बच्चों पर भी पड़ता है। इस लिए यहां आर्थिक सामाजिक सुधार के लिए केवल किताबी षिक्षा ही नहीं पर्याप्त बहुमुखी प्रसिक्षण की जरूरत है।
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जवाब देंहटाएंदास ’ निट्ठल्ला ’ बैठ के सबका मुज़रा लेय...
भईया अनुराग, पर यह नहीं जाना कि कोई हमारे ऊपर की डाल पर भी बैठा है ।
वाकई बेहतरीन विहँगमावलोकन किया है, कहीं कहीं.. किसी बिन्दु पर आज की चर्चा में दास निट्ठल्ला भी बगले झाँकनें को मज़बूर हुआ है । हाँ यह अलग बात है कि चर्चामँडल का ज़िम्मेदार विपक्ष आज की चर्चा स्त्रीपरक होने का मुद्दा उठाये तो उठाये, पर यह चर्चा... आह्हाः !
जवाब देंहटाएंश्री चन्द्र-मौलेश्वर प्रसाद जी की प्रॉक्सी में..
लगे हाथ एक और टिप्पणी,
’बचनाऽऽ.. ओ हसीनों, लो मैं आ गया !’
अब cm pershad जी इसका खँडन करें, थोड़ी चुहल सही !
गुरवर.. जरा हेडिंग पे गौर फरमाये .... "उस जानिब से "
जवाब देंहटाएंवाह डा. साहेब आज की स्पेशल चर्चा साल की कुछ बेहतरीन चर्चाओं में से एक रही ॥ चर्चा का मंच अब पुन: अपने पुराने रंग में आ रहा है .....जान कर तसल्ली और खुशी हुई
जवाब देंहटाएं"दुनिया में हर बीमारी का इलाज हो सकता है पर ये लगने की बीमारी का कोई इलाज नहीं है"
जवाब देंहटाएंसही भी है.... अब देखिए ना कि डॉ. अमर कुमार जी को लगा कि हम आधी आबादी को इस तरह हलके से ले लेंगे और नारी जाति कहेगी
सर पे बुढापा है मगर दिल तो जवां है :)
कभी कभी टिप्पणियाँ लिखने के हुजूम में समझ नही आता कि किसी विशेष लेख पर ऐसा कौन सा शब्द लिखा जाये जिससे ये पता चले कि बहुत अच्छा का मतलब वाक़ई बहुत ही अच्छा है....! ऐसा ही कुछ यहाँ भी समझिये...!
जवाब देंहटाएंबहुत सी रचनाओं से वंचित रह थी... आज समय पढ़ा...! तनु शर्मा जी और चोखेर बाली का पहला खाता यहाँ न पढ़ती तो नावाकिफ रह जाती...!
बढिया रहा यह महिला विशेषांक।
जवाब देंहटाएंक्या कभी पुरूष विशेषांक भी निकाला जाएगा?
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छोटी सी गल्ती जो बडे़-बडे़ ब्लॉगर करते हैं।
क्या अंतरिक्ष में झण्डे गाड़ेगा इसरो का यह मिशन?
एक से एक खूबसूरत फूल हैं आपके गुलदस्ते में, एक जगह इतना कुछ पढने को एक साथ मिल जाए और क्या चाहिए :) इतने रंग, ऐसी खुशबुयें और ऐसा तरन्नुम...दिल खुश हो गया...जैसे की बहार थोडा पहले आ गयी हो इस साल के आखिर में. इनमें से अधिकतर मेरी पसंदीदा लेखकों में से एक हैं. मेरी लिस्ट में कुछ और बेहतरीन नाम देने के लिए बहुत शुक्रिया. आपकी पसंद वाकई लाजवाब होती है. किस्त की इस लिस्ट में हमें भी शामिल करने के लिए शुक्रिया :)
जवाब देंहटाएंसभी मनपसंद ब्लॉग हैं इस चर्चा में ..इस लिस्ट में मुझे भी जगह देने के लिए शुक्रिया डॉ अनुराग जी ..
जवाब देंहटाएंbahut hi khoobsoorti se yaadon ko jivant kiya hai.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंपठनीय व संग्रहणीय उद्धरणों वाली चर्चा|
जवाब देंहटाएंअनुराग जी का चर्चा से जुड़ना नई उपलब्धि है|
पुनश्च -
कृपया "वाच्नवी" को "वाचक्नवी" कर दें तो आभारी रहूँगी|
जवाब देंहटाएंतुमने ठीक कहा, डा. अनुराग !
वाक़ई मैंनें शीर्षक पर ध्यान नहीं दिया,
जो अमूमन मैं वैसे भी नहीं किया करता ।
चिट्ठाचर्चा अपवाद भले हो, पर ब्लॉगर पर अधिकाँश शीर्षक ’ जापानी तेल ’ के विज्ञापन से अधिक का महत्व खोते जा रहे हैं ।
चिट्ठाचर्चा तो जैसे मेरी मधुशाला है, आये और पढ़ना शुरु कर दिया, कुछेक लिंक पकड़ा और चल दिये... गोया ’ माल से मुझको मतलब कुल्हड़ से क्या लेना । यूँ समझो कि.. ’ जाम से हमें मतलब लेबल का क्या करना !’
यह तो जैसे नशा है, भूल-चूक तो होनी ही है, नशे का क्या ?
'उस जानिब से'
जवाब देंहटाएंसचमुच बहुत जरूरी और उम्दा चर्चा।
आज की चर्चा बहुत बढ़िया रही!
जवाब देंहटाएंडॉ अनुराग जो बहुतो कि नज़र मे अवगुण हैं उसको भी आपने उलेखित किया शुक्रिया , अपना नाम नहीं खोजा अगर कहूँ तो गलत हैं , अंत मे ही सही मिल ही गया
जवाब देंहटाएंrachnayo ka chunav behtareen tha aur andaaj to tha hi ..dhanywaad anurag ji..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर-सुन्दर पोस्टों के बारे में फ़िर से पढ़कर बहुत अच्छा लगा। रचनाजी और कविताजी के बारे में आपकी बात से पूर्णतया सहमति। रचनाजी का योगदान , जहां उनको जैसा सही लगा , वहां बेधड़क अपनी आवाज उठाने और बात रखने का रहा है।
जवाब देंहटाएंकविताजी ने जो चर्चायें की वे अपने में अनुपम हैं। चिट्ठाचर्चा उनके लिये केवल ब्लाग पोस्टों के लिंक देने से आगे की चीज रही हमेशा। उनकी सोच और चिंतन उनके द्वारा की गयी चर्चा में साफ़ झलकता है।
आगे की किस्तों का इंतजार कर रहे हैं जी।
ये वाली तो शानदार है ही जी।
thnx a lot anurag ji...
जवाब देंहटाएंits an honour...
छांट छांट के लिंक लगाये लगते है,.. ऐसी चर्चाये निसंदेह चिठ्ठा चर्चा को एक स्टेप आगे ही ले जायेगी.. माननीय अजय कुमार झा जी की तरह मुझे भी लगता है कि चिठ्ठा चर्चा अब अपने पुराने रंग में आ रही है..रचना जी का नाम मैंने भी ढूँढा और वाकई देखकर ख़ुशी हुई कि आप भी उनके बारे में वैसा ही सोचते है जैसा मैं.. उस जानिब से यदि बात हो तो रचना जी की बेबाकी से अपनी बात रखने की बात आप ख़ारिज नहीं कर सकते.. वैसे भी यहाँ पर ऐसे गिने चुने नाम ही है..
जवाब देंहटाएंऔर हाँ नंदिनी का लौटना सुखद रहा.. अच्छे ब्लोग्स पर निरंतर लेखन भी जरुरी है.. आखिर यही तो हमारी खुराक है..
चर्चा के लिए आपको दौ सौ नंबर..
मुझे नहीं लगता की डाक्टर अनुराग की पसंद को कोई भी समझदार इंसान ना पसंद कर सकता है....सभी की सभी छांटी हुई पोस्ट्स लाजवाब हैं...इतनी मेहनत करने के लिए उन्हें कोटिश धन्यवाद...
जवाब देंहटाएंनीरज
dair se aana hua....thanx anurag ji
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनुराग जी,सभी पोस्ट अच्छी लगीं। कुछ पर तो मैं अक्सर जाती हूँ पर अब कुछ नए साथी जुड़ गए सफ़र में।
जवाब देंहटाएंहमारी चर्चा के दिन की पूर्व संध्या पर जब ऐसी झन्नाक चर्चा होती है तो सच हम गज़ब मायूस हो जाते हैं... हमारा डिस्क्लेमर कल की चर्चा में चयन व दृष्टि की इतनी गुणवत्ता न दे पाएंगे पहले कहे देते हैं :)
जवाब देंहटाएंशानदार
नारी ब्लॉग के लिंक से यहाँ आयी और इतने सारे ब्लॉग्स के बारे में पढ़कर खुश हो गयी......धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंitne dinon se samay nahi mil raha tha ...aaj ek link me jakar dekha to apna bhi naam mila...dhanyavadd
जवाब देंहटाएंप्रत्यक्षा को और रजनी जी को पढ़ना हमेशा ही सुखद होता है। बहुत मेहनत की है आपने।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंडा.अमर जी से साभार..: चिट्ठाचर्चा तो मेरी मधुशाला है...और जब साक़ी इतना हुनरमंद हो तो फिर कहने ही क्या....
जवाब देंहटाएंये जो नई अदा के साथ पिलाना साक़ी तुमने शुरू किया है ना उसका नशा नहीं जाने वाला कम से कम तब तक जब तक प्याले की दूसरी किश्त ना हाज़िर कर दोगे...मुझे/ मुझ जैसे तक को एक डा. ने शराबी बना दिया...:)
उम्दा....बेहतरीन....
बहुत अच्छी रही ये चर्चा कुछ रचनायें जो नहीं पढ पाई थी पढने का अवसर मिला धन्यवाद
जवाब देंहटाएंक्या कहूँ....आप तो बस आप हैं.....
जवाब देंहटाएंइतनी मेहनत..... सचमुच एक ऐसा चिकित्सक जो एक एक कोशिकाओं का ध्यान रख सकता हो,वही कर सकता है....
कल ही बात हो रही थी और मुझसे पूछा गया कि ब्लॉग पर अच्छे लेखक लेखिकाओं के बारे में ,उनके ब्लॉग के बारे में बताऊँ...कुछ नाम ginaye और कुछ छूट गए...अब आपकी इस पोस्ट को सहेज लिया है, किसी भी जिज्ञासु को मेरे अपने पसंद की अच्छा लिखने वाले महिला ब्लोगरों की सूची अग्रेसित करने के लिए...
बहुत बहुत बहुत सारा धन्यवाद.....
abhaar
जवाब देंहटाएंaur shukriya kuchh naye links bhi mile.