श्रीवास्तव जी जैसे लोगो को देखकर लगता है हम किस बात पे इतराते है ....ओर हमने किया ही क्या है अब तक ?ये वो लोग है जो बिना इश्तेहार बाजी के वर्तमान सिस्टम में रहते उसकी कमियों को जानते बूझते इससे कम या ज्यादा कुछ निकालकर उसे बेहतर कामो में इस्तेमाल कर रहे है ....अब समय दूसरा है सलमान जब विवाद में फंसते है तो अचानक उनकी चेरिटिया बढ़ जाती है .इमेज मेक ओवर प्रोसेस है.......परोपकार भी करना है ओर यश की चाहत भी है .....जाने दो इमोशनल हो जायूंगा तो बहुत कुछ कह जायूंगा ... ओर हां तुम सुनो ......तुम वाकई असाधारण हो ... ये बयान् जारी किया गया डा.अनुराग आर्य द्वारा कंचन की इस पोस्ट पर।यह पोस्ट पढ़कर एक बार फ़िर लगा कि कंचन संस्मरण् लेखन में उस्ताद हैं। गौतम राजरिशी लिखते हैं: -
कहते हैं बार मौन रहना बड़े-से-बड़े संवादों से ज्यादा श्रेयष्कर होता है, किंतु इस ब्लौग पर अपना मौन प्रदर्शित कैसे करूं...? अपनी वर्तमान स्थिति में जब रोज जूते के लेस बाँधने या कमीज का बटन बंद कर पाने की नाकामी पर खुद पर झुंझलाता हूँ तो तुम हौसलों की टोकरी लिये चली आती हो। सोचने लगता हूँ कि मेरी तो ये बस कुछेक महीनों के लिये है और तुम...उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़! i salute you, dear sis! अब लेख/संस्मरण के बारे में हम क्या लिखें। आप देखिये स्वयं ही। अलबत्ता कंचन के बारे में कुछ् जानना हो तो पढिये- |
मज़े का अर्थशास्त्र .... बेहतरीन् व्यंग्य लेख है। इसमें शेफ़ाली जी ने नौकरी पेशा महिलाओं के दुख-दर्द को मजे-मजे से बयान किया है। अद्भुत नजर है शेफ़ाली की और कमाल का अंदाजे बयां। जब् वे लिखती हईं-- बरसात का वह दिन आज भी मेरी रूह कंपा देता है जब उफनते नाले के पास खड़ी होकर मैंने साहब से फोन पर पूछा था, ''सर, बरसाती नाले ने रास्ता रोक रखा है ,आना मुश्किल लग रहा है, आप केजुअल लीव लगा दीजिए. साहब फुंफ्कारे '''केजुअल स्वीकृत नहीं है, नहीं मिल सकती'' कहकर उन्होंने फोन रख दिया. मैंने गुस्से में आकर चप्पलों को हाथ में पकड़ा और दनदनाते हुए वह उफनता नाला पाल कर लिया, जिसमे दस मिनट पहले ही एक आदमी की बहकर मौत हो चुकी थी, तो परसाई जी का वाक्य याद आता है- जो लोग् प्रॉपर चैनल नहीं पार कर पाते वे इंगलिश चैनल् पार कर् जाते हैं। शेफ़ाली पाण्डेय के इस लेख में कामकाजी महिलाओं के किस्से पढ़ते-पढ़ते लगता है कि वे अपनी स्मृति में सब किस्से सहेजकर रखती जाती हैं और मौका मिलते ही ब्लाग पर् पोस्ट् कर् देती हैं। अब इसको देखिये-- मेरे साथ काम करने वाले एक सहकर्मी के प्रति मेरी कुछ कोमल भावनाएं थीं , वह अक्सर काम - काज में मेरी मदद किया करता था .एक दिन उसकी मोटर साइकल में बैठकर बाज़ार गई तो वह उतरते समय निःसंकोच कहता है ''पांच रूपये खुले दे दीजियेगा .'' क्या-क्या दिखायें आपको ? आप तो पूरा लेख ही बांचिये।शायद आप् भी वही कहें जो isibahane ने कहा… जो लिखा गया है, वो हमने अपनी कामकाजी मांओं और बहनों को जीते देखा है या कहूं भोगते देखा है। सौ फ़ीसदी सच। पढ़ते-पढ़ते लगा कि जाने-अनजाने हम इन बेहद ज़हीन महिलाओं को शायद उतनी तवज्जो, उतनी इज़्ज़त नहीं देते जितना उनका हक़ है। |
अपनी तारीफ़् करते हुये प्रमोद ताम्बट लिखते हैं--बचपन से ही अपने आप को व्यंग्य के काफी करीब पाया इसीलिए पिछले 27 साल से नेक नेक ही सही इस सागर में कुछ कुछ बूंदे पटकता आ रहा हूँ। प्रमोद ताम्बट का लेख १.कुछ कीड़े तीर की गति से किसी के थोबडे़ पर जा भिड़ते हैं, या कपड़ों में जा घुसते हैं और अंततः इस गुस्ताखी के लिए उस गुस्सैल बंदे के हाथों मसलकर मार दिये जाते हैं, उड़ने की इतनी अनोखी और महत्वपूर्ण कला धरी की धरी रह जाती है। २.एक होता है मच्छर, सुविधाजनक रूप से आदमी का खून पीने के लिए इसे छोटे-छोटे पंख और एक नुकीली स्ट्राँ मिली हुई है, गॉड गिफ्ट की तरह, मगर यह प्राणी कान पर भिन-भिन कर या आदमी के सर पर चक्करदार उड़ानें लगा-लगाकर अपना टाइम खराब करता है। आखिरकार किसी स्प्रे का शिकार होकर स्वर्ग सिधार जाता है। ३.कीट-पतंगे, चाहें तो ‘पतंगों’ की तरह उन्मुक्त उड़ान भर सकते हैं, मृत्यु उनके करीब भी नहीं आ सकती। मगर नहीं, वे उड़ेंगे तो सीधे अपनी मौत की दिशा में दौडेंगे। दो कौड़ी की ‘शमा’ या सौ-दो सौ वॉट के बल्ब की मामूली सी गर्मी में जल मरेंगे। ४.अद्भुत है यह उड़ने की कला भी, जिनके पास पंखों की नेमत है वे उँचाई पर जाने के लिए उनका उपयोग नहीं कर पा रहे, और जिनके पास किसी साइज़, कलर, डिजाइन का कोई पंख नहीं वे आसमान में बैठे नीचे लोगों पर कुल्लियाँ कर रहे हैं। प्रमोदजी नियमित व्यंग्य लिखते हैं। ब्लाग की दुनिया में दो महीना पहले आये। अभी तक दस् पोस्टें लिखीं। आशाहै कि नियमित ब्लागर बन् जायेंगे जल्द् ही। |
कौन कहता है ’पा’ अमिताभ बच्चन की फ़िल्म है ऐसी फ़िल्म समीक्षा पहले कहीं नहीं देखी पढी ..एक एक पहलू पर जितनी बारीकी और बेबाकी से लिखा आपने वो काबिले तारीफ़ है । बहुत प्रभावी आलेख। समीक्षा की एक नई और अनूठी शैली। सार्थक लेखन से लगातार चूकते जा रहे प्रिंट मीडिया में इसक किस्म की किसी वैचारिक पहल के लिए अब जगह शायद नहीं बची है। इसीलिए अनुराग जैसे रचनात्मक ऊर्जा वाले लोगों के लिए ब्लाग वह स्पेस उपलब्ध कराता है, जहां बिना कंधा-कोहनी टकराने की चिंता किए वे विषय के एक एक पहलू से गुजरने का जोखिम आसानी से ले सकते हैं। बधाई अनुराग। आपकी जै हो। इन दो टिप्पणियों को मिलाकर कुल जमा चार टिप्पणियां हैं अनुराग अन्वेषी की पोस्ट में जिनमें उन्होंने कौन कहता है ’पा’ अमिताभ बच्चन की फ़िल्म है कहते हुये अनूठी समीक्षा की है। ब्लाग में ताला लगा होने के कारण् मैं पोस्ट के अंश नहीं पेश् कर पा रहा हूं लेकिन आप देखिये इस् पोस्ट को! अनुराग कहते हैं कि यह् फ़िल्म किसी एक्टर के लिये नहीं याद की जायेगी। बल्कि यह् फ़िल्म याद की जायेगी कर्स्ट्न टिंबल और डोमिनिक के लाजबाब मेकअप और बाल्की के जबर्दस्त निर्देशन् और् सधी हुई स्क्रिप्ट् के लिये । और भी बहुत् कुछ है जिसके लिये यह पोस्ट याद रखने लायक है। आप स्वयं देखिये। इसी फ़िल्म की समीक्षा करते हुये अजय ब्रह्मात्मज ने लिखा- -
सबसे पहले आर बाल्की को बधाई कि उन्होंने फिल्म को भावनात्मक विलाप नहीं होने दिया है। उन्होंने ऑरो को हंसमुख, जिंदादिल और खिलंदड़ा रूप दिया है। हालांकि प्रोजेरिया की वजह से ही ऑरो में हमारी दिलचस्पी बढ़ती है, लेकिन लेखक और निर्देशक आर बाल्की ने बड़ी सावधानी से इसे कारुणिक नहीं होने दिया है। कुछ दृश्यों में ऑरो की मां से सहानुभूति होती है, लेकिन फिर से बाल्की उस सहानुभूति को बढ़ने नहीं देते। वे मां की दृढ़ता और ममत्व को फोकस में ले आते हैं। कामकाजी महिला और उसके विशेष बच्चे के संबंध को बाल्की ने व्यावहारिक और माडर्न तरीके से चित्रित किया है। यह पा की बड़ी खासियत है।
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चंदू भाई हमारे पसंदीदा चिट्ठाकार हैं। वे कम लिखते हैं लेकिन जब लिखते हैं बेहतरीन लिखते हैं। जिस भी विषय पर लिखते हैं अपने समय, आसपास, दुनिया जहान का हिसाब-किताब टटोलते हुये लिखते हैं। भविष्य के बारे में व्यवस्थित रूप से सोचना, किसी खास मसले से जुड़ी अनंत संभावनाओं को खारिज करते हुए सिर्फ एक पर उंगली रख देना खुद में एक बड़ा कौशल है। गणित और भौतिकी का तो मूल काम ही यही है। इसी लेख में वे टेलीपैथी या पूर्वाभास के बारे में बताते हुये लिखते हैं: अट्ठारहवीं सदी की गणितज्ञ मारिया एग्नेसी रेखागणित की जटिल समस्याओं के हल नींद में खोज लेती थीं और आंख खुलते ही उन्हें कॉपी में उतार देती थीं। पिछली सदी के जीनियस भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन का कहना था कि उनकी कुलदेवी नामगिरि सपने में आकर उनके कठिन सवाल सुलझा जाती हैं। बेंजीन की संरचना पर काम कर रहे फ्रेडरिक केकुले को सपने में एक सांप दिखा जो अपनी पूंछ अपने मुंह में दबाए हुए था और यहीं से एक शास्त्र के रूप में ऑगेर्निक केमिस्ट्री की नींव पड़ गई। अल्बर्ट आइंस्टाइन ने जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी तक पहुंचाने वाला अपना गेडानकेनएक्सपेरिमंट एक दोपहर में दिवास्वप्न देखते हुए किया था। किसी धौंस, अनुशासन या मजबूरी के तहत नहीं, सहज जीवनचर्या के तहत अंग्रेजी अपना कर उसी में सोचने-समझने और मजे करने वाली कोई पीढ़ी मेरे परिवार में अब तक नहीं आई है। नवभारत टाइम्स ,दिल्ली में सम्पादक चंद्रभूषण जी के लेख पढ़कर भाषा, भाव, सोच हर स्तर पर हमेशा कुछ न कुछ इजाफ़ा होता है। इन्हीं चंदू भैया को पकड़ लिया शब्दों के सफ़र वाले अपने अजितजी ने और कहा लिखो बकलमखुद। पहली किस्त् में चंदू जी ने अपने बचपन के किस्से लिखे और अपनी परेशानी अपने दोस्त् को बतायी। आप् भी सुनिये न: लड़कियों के बीच परवरिश लड़कों को शायद कुछ ज्यादा ही संवेदनशील बना देती है, लेकिन इसकी अपनी कई मुश्किलें भी हुआ करती हैं। बहुत साल बाद इसी शहर में बी.एससी. करते हुए मैंने अपने दोस्त पंकज वर्मा को अपनी परेशानी बताई। 'यार, लगता है मैं कभी प्रेम नहीं कर पाऊंगा।' 'क्यों?' 'जबतक किसी लड़की से मेरा परिचय नहीं होता, मैं उसके पीछे पलकें बिछाए घूमता हूं, लेकिन जैसे ही परिचय होता है, बातचीत होती है, वह मुझे बहन जैसी लगने लगती है।' दूसरी किस्त में उन्होंने अपने अंग्रेजी सीखने के किस्से बयान किये और इसके अलावा भी जो लिखा उसको पढ़ते हुये इस् पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये अभिषेक ओझा ने लिखा: पता नहीं क्यों बकलमखुद में अपने जैसे लोग ही मिलते हैं. कहीं न कहीं हर कड़ी में अपने जैसी बात दिख जाती है. इसी पोस्ट् में चंदू जी के बारे में अपनी राय व्यक्त करते हुये Kishore Choudhary ने लिखा: चंद्रभूषण जी से परिचय पहलू जितना ही है. आपका लेखन सजग व चिंतनशील है. मैंने पहलू पर जितनी भी पोस्ट देखी वे समग्र मानवता की चिंता से पूर्ण और सर्वकालीन चिंतन से भरी थी. समाज के सबसे निचले तबके की बात हो या अर्थजगत के महामाक्कारों की करतूते सब पर पैनी नज़र हमेशा बनी रही है. आज बाकलम खुद के फिर से आरम्भ हुए इस नए अभियान में मेरी आशाएं अद्वेत रूप से बलिष्ठ है कि पाठकों को कई अविस्मर्णीय पहलुओं और सामाजिक जीवन के साथ साथ बेहद निजी अनुभवों से भी दो चार होने का अवसर मिलेगा. आप देखिये बकलम खुद के बहाने चंद्र्भूषणजी को पढिये और आनंदित होइये। |
एक लाईना - आज शिखा वार्श्नेय तथा यूनुस खान का जनमदिन है –बधाई दे दिये भाई! हैप्पी बड्डे
- क्या नारी ही गृहिणी हो सकती है पुरुष हाऊस हसबैंड नहीं… क्या पुरुष को नारी का स्थान ले लेना चाहिये.. –अरे सब गड़्बड़ा देगा।
- अपुन गधे ही भले...खुशदीप –बनना बेकार है।
- ब्लॉग मित्रों और पाठकों, मैं फ़ॉर्म में आने की कोशिश कर रहा हूं…[14]-अभी तो फ़र्मा बन रहा होगा।
- कैसे करूँ, किस-किस को दूँ!!!! -किसी को न् देव! सबअपने पास रखो।
- कब कटेगी चौरासी- कब पढ़ेंगे आप आप बांच लिये होगया ]
- हम सब स्वार्थी हैं –जाड़ा है मान लिया।
- का बताएं भैया! हम तो निपट गंवईहा ठहरे.!!! –ठहरे काहे चलते रहो।
- "जरा इन नए ब्लॉगर्स की भी सोचें …. !!!!" (चर्चा मंच) -पर भी नहीं आये।
- बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी.... –बिना किराये के घुमायेगी।
- जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ -सोचना कोई अच्छी बात है का ?
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काजल कुमार के चुनिन्दा कार्टून पिछली चर्चा में डा.अनुराग आर्य ने साल भर के चुनिन्दा कार्टून पेश करने का आदेश दिया था। हमने उनके आदेश का पालन करते हुये काजल कुमार के सन २००९ के कार्टून में से चुनिन्दा कार्टून यहां पेश करने का तय किया। ये कार्टून यहां पेश हैं। काजल कुमार के बारे में ज्यादा कुछ जानने के लिये उनका इंटरव्यू बांचिये जो ताऊ ९ वीं पहेली जीतने पर लिया गया था। काजल कुमार शायद अन्य कार्टूनिस्टों के मुकाबले कुछ अधिक ब्लागर हैं और ब्लाग पोस्टों पर संक्षिप्त परन्तु चुटीली टिप्पणी करते रहते हैं। टिप्पणियां पढ़कर लगता है कि वे यहां कार्टून लिख रहे हैं। शुरुआती कार्टून वे कार्टून हैं जो उन्होंने ब्लागजगत के बारे में ही बनाये हैं! तो आप देखिये काजल कुमार के कुछ चुनिन्दा कार्टून, पढिये उनका इंटरव्यू और बताइये कैसा लग यह तामझाम! |
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और अंत में: फ़िलहाल इतना ही। बाकी भी चलता ही रहेगा। आप मस्त रहिये जैसे हमेशा रहते हैं।
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जवाब देंहटाएंसवा दो घँटे में यह चर्चा ख़त्म की..
अब तो तीन पाँच भी हो चला है ।
चर्चा उत्तम होनी हई थी, सो है !
पर बदले बदले से सरकार नज़र आते हैं !
जय हो गुरु जी
जवाब देंहटाएंललित जी ठहरे कहाँ हैं कोई भी ठहरा नज़र नहीं आ रहा सब चल रहे है अहर्निश जात्रा जारी रहे हम सबकी
खूब सारे कार्टून दिखाने का शुक्रिया
उत्तम चर्चा के साथ उसके उत्तम होने का प्रमाण पात्र मुफ्त? डॉ साहब की चर्चा अतिउत्तम रही, बधाई!
जवाब देंहटाएंकाजल की के इतने कार्टून देखकर उनकी दृष्टि और चिन्तन - दोनों का पता चला । विविधतापूर्ण । आभार ।
जवाब देंहटाएंएक लाइना भी सुन्दर हैं ।
कैसे करूँ, किस-किस को दूँ!!!! -किसी को न् देव! सबअपने पास रखो।
जवाब देंहटाएंका बताएं भैया! हम तो निपट गंवईहा ठहरे.!!! –ठहरे काहे चलते रहो।
वाह सुकुल जी वाह, बढिया चर्चा-आभार
nice
जवाब देंहटाएंसदा की तरह अच्छी चर्चा।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चा। एक साथ इतने कार्टून देख कर अच्छा लगा।आभार।
जवाब देंहटाएंचर्चा में मेरी पोस्ट शामिल करने के लिए धन्यवाद ....मेरे व्यंग्य में बस शब्द मेरे होते हैं ...अनुभव में उधार ले लेती हूँ .....काजल कुमार कार्टून्स की बहुत प्रशंसक हूँ ....एक साथ समेटने के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएं'बताइये कैसा लग यह तामझाम!?-
जवाब देंहटाएं-बहुत सुन्दर,बहुत बढ़िया!
आभार.
सदा की तरह...
जवाब देंहटाएंअरे ये अचानक कंचन एण्ड कंचन कंपनी का चिट्ठाजगत में मय अनेकानेक लिंक्स एड्वरटाइज़मेंट.... साल जाते जाते मिला ये कनपुरिया तोहफा.... हम प्रसन्न हुए....!! :) :)
जवाब देंहटाएंcharcha kaa page khullae mae bahut time lae rahaa haen itnae images ki vajeh sae , sambhav ho to cartoon ka resolution kam karey tab daakey . mujeh lagtaa haen kam log padh paa rahey hogey
जवाब देंहटाएंअच्छी चर्चा...एकाध अच्छे लिंक्स जो छूट गए थे...यहाँ से मिल गए...शुक्रिया
जवाब देंहटाएंसभी की प्रतिक्रियाओं का शुक्रिया।
जवाब देंहटाएं@रचनाजी, आपकी बात सही है। देर लग रही है कार्टून देखने में। अब आपकी सलाह पर देखते हैं कित्ती जल्दी अमल में ला सकते हैं। शुक्रिया सलाह का।
बहुत अच्छी चर्चा!
जवाब देंहटाएंकुछ गुण-ज्ञान हमें भी मिल रहा है जी!
आभार!
पहला शुक्रिया के चंद्रभूषण जी को पढ़ा..... जो छूट गया था ..दूसरा इसलिए के आपने वादा निभाया ओर कार्टूनों को इस तरह से जगह दी ....
जवाब देंहटाएंगुजरात के नाको प्रोजेक्ट में जुड़े रहने के कारण मनीषा बेन नाम की एक महिला की लगन ओर समर्पण एड्स रोगियों के लिए देखकर हम लोग हैरान होते थे ...अच्छे खासे रईस परिवार के होने के बावजूद वे रेड लाईट एरिया ओर दूसरी जगह धूप में दिन रात घूमती ओर सरकारी क्लर्को..सरकारी अस्पतालों के सड़े तंत्र से घंटो जूझती थी ...उनके चेहरे पर मैंने कभी शिकन नहीं देखी थी .....
ऐसे ही अहमदाबाद के स्किन डिपार्टमेंट के पूर्व हेड की बेटी रोज शाम के दो घंटे .केंसर से पीड़ित बच्चो को कहानिया सुनाने में बिताती थी ..अब तो वे अमेरिका में है ...मेरी मित्र जिन्होंने असमय एविंग्स ट्यूमर के कारण इस जीवन से विदा ली उनकी मां
अपने बेटे के साथ अमेरिका न जाकर अपने पति के साथ
आज भी सूरत में लायंस क्लब के माध्यम से अपने सीमित साधनों में रहकर भी केंसर रोगियों के लिए जो बन पड़ रहा है कर रही है ...यानी इस दुनिया में बहुतेरे ऐसे लोग अब भी है जो इंसानियत की टोर्च बखूबी संभाले हुए है ...श्रीवास्तव जी उनमे से एक है ....
आपने इस शानदार बेहतरीन लाजवाब पोस्ट के अंत में लिखा है..."फ़िलहाल इतना ही। बाकी भी चलता ही रहेगा। आप मस्त रहिये जैसे हमेशा रहते हैं"... मेरा कहना है जो हमेशा मस्त नहीं रहते वो कैसे रहें ? प्रश्न विचारणीय है हवा में उड़ा णीय नहीं है...
जवाब देंहटाएंनीरज
"'केजुअल स्वीकृत नहीं है, नहीं मिल सकती'' कहकर उन्होंने फोन रख दिया. मैंने गुस्से में आकर चप्पलों को हाथ में पकड़ा ".....
जवाब देंहटाएंऔर दे मारा बास के सिर पर :)
कार्टूनों का कार्टन लाजवाब रहा॥
कार्टून्स के कारण रौनक रही चर्चा में , काजल कुमार को शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंहम भी कंचन जी के प्रंशसक हैं। आप की पसंद की कविता की कमी खली। चर्चा हमेशा की तरह बड़िया और मस्त कार्टून
जवाब देंहटाएंवाह साहब! आपने तो हमारा सोने वाला समय भी लूट लिया। इस चर्चा की लालच में फँस ही गये। बधाई देता चलूँ इतना आनन्द परोसने के लिए।
जवाब देंहटाएंआप की चुनिंदा का अर्थ शब्दकोश में नहीं मिला। अच्छी और सुंदर चर्चा।
जवाब देंहटाएंओह!
जवाब देंहटाएंकसर पूरी हो गई..इतने सारे कार्टून एक साथ ! आभार.
पेज जल्दी खुलें इसके लिए कार्टून/फ़ोटो को अलग-अलग अपलोड करने के बजाय जो तरीक़ा मैं अपनाता हूं वह ये है कि
(1) पहले किसी एक A4 पेज पर (मसलन Illustrator में) कई चित्र पेस्ट कर, पेज को jpg फ़ार्मेट में save कर लेता हूं फिर
(2) उस पेज का रिज़ोल्यूशन Irfanview का प्रयोग कर 50 dpi तक घटा कर फिर save कर लेता हूं, फिर
(3) इस फाइल को MS Paint में खोलकर (बिना कोई बदलाव किए) एक बार फिर save करता हूं. एसा करने से फ़ाइल का compression तीन गुना तक बढ़ जाता है,यानि 100 KB की फ़ाइल घटकर 30 KB रह जाता है.
"अनूप चर्चा" के लिए आभार...
जवाब देंहटाएंकार्टून ज़्यादा होने की वजह ब्लॉग खुलने में वाकई बहुत टाइम लगा...
जय हिंद...
bahut hi badhiya..
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