शुक्रवार, मई 07, 2010

कोसल में विचारों का अनादर है

पत्रकार व ब्‍लॉगर राजकिशोर के संपादन में एक नई पत्रिका शुरू हुई है 'विचार' इसका प्रवेशांक मेंरे हाथ में है, संपादकीय श्रीकांत वर्मा की इन पंक्तियों से शुरू होता- 'कोसल में विचारों की कमी है'   राजकिशोर अपने कोसल पर विचार करते हैं तथा इसमें तनिक सुधार करते हुए 'कोसल में विचारों का अनादर है'   हम अपने कोसल को देखते हैं पाते हैं कि ब्‍लॉगों के कोसलप्रदेश में विचारों का घनघोर अनादर है... मजे की बात है कि जिन बातों का इस प्रदेश में आदर है वे विचारों के लिए आदर की गुंजाइश छोड़ती ही नहीं। आह परिवार  वाह संस्‍कृति आह आह सनातन धर्म वाह वाह वर्ण व्‍यवस्‍था... और चूल्‍हे में गया विचार.. जला दो इसे..बाद में आत्‍महत्‍या लिखवा लेंगे...स्‍साला विचार बिना ब्‍याह के ही गाभिन हो चला था।

खापवादी पहले थोड़ा शरमाते थे अब वातावरण पूरा ही विचारविरोधी हो गया है इसलिए बेधड़क सारे सवालिया निशान खुद शिकार पर ही लगा रहे हैं। प्रवीण ने अपनी चर्चा में इन्‍हें उद्धृत किया ही था। हमारा मत ये है कि देह- शुचिता के सवाल घनघोर स्‍त्री विरोधी विचार हैं..पर छोडि़ए कोसल में विचारों का...

 

पर विचार इस अनादर के बावजूद है जरूर मसलन फौजिया रियाज अपनी देह पर स्‍त्री के हक के पक्ष में साहसी बात रखती हैं-

समाज, तुम कहते हो की औरत की असल आज़ादी उसके घर में है, उसके परिवार में है क्यूंकि वहीँ वो सुरक्षित है. मेरी आज़ादी क्या है ये मुझे तय करने दो. मेरी असल आज़ादी ये है की आज मैं अपने मन की बात कह सकती हूँ. मुझे शर्म के खोल में लिपटने की ज़रुरत नहीं है, मुझे इज्ज़त के लबादे उढ़ाने की कोशिश करोगे तो उतार फेंकूँगी. मेरे डरने के दिन गए, मेरे सहम कर छुप जाने के दिन लद गए. आज मैं सामने खड़ी हूँ सामना कर सकते हो तो करो

वैचारिक दिवालियापन की केवल एक मिसाल महफूज की टिप्‍पणी में देखें फ़ौजिया के लेखन की तारीफ करते हुए वे कहते हैं-

अब मैं क्या बोलूं..... हर टोपिक बहुत शानदार होता है.... और बर्निंग होता है... मैं बहुत ऐप्रेशिईट करता हूँ... लिखने के स्टाइल को.... तुम्हारे.... इस पोस्ट को क्या कहूँ.... लफ्ज़ नहीं नहीं मिल रहे हैं ....तारीफ़ करने को....
ग्रेट.....
रिगार्ड्स..

जबकि वाणी जब अपनी पोस्‍ट में कुछ और सवाल उठाती हैं तो ये ही महफूज जी भूल जाते हैं कि वे अभी स्‍त्री की देह पर स्‍त्री के (उसके परिवार/समाज..के नहीं) हक पर वाह वाह कर आए हैं और अचानक अनब्‍याही मॉंओं को मार देने का फतवा जारी करते हैं-

 

जबकि यह बात एकदम सही है.,... कि दुनिया का कोई भी माँ-बाप यह कभी नहीं बर्दाश्त करेगा... कि उसकी बेटी या बेटा भी.... सामाजिक बंधनों से पहले .... मातृत्व या पितृत्व ... सुख ले ले.... हो यह भी सकता है कि जब निरुपमा के माता-पिता ने उसके गर्भवती होने का सुना तो उसको मार दिया.... और अगर ऐसा है तो उन्होंने ठीक किया....

वेचारिक दरिद्रता कोई इन साहब को पेंटेंट नहीं है ब्‍यार ही ऐसी चल रही है।

 

ऐसे में नास्‍तिकों का ब्‍लॉग कम से कम अभी तक तो बेहद ताजगी का अहसास दे रहा है... वहॉं आप हे हे हे साधुवाद करके नहीं आ सकते बेविचार के लोग जाएं ज्‍योंतिष या धर्म बचाओ वालों की शरण में। नास्तिकता सहज है संजय की छोटी सी पोस्‍ट है जिस पर 65 टिप्‍पणियॉं हैं जो पोस्‍ट से ज्‍यादा कीमती हैं। विचार के बहिर्गमन की कोशिशों के बीच इसे देखना राहत देता है।

हर बच्चा जन्म से नास्तिक ही होता है। धर्म, ईश्वर और आस्तिकता से उसका परिचय इस दुनिया में आने के बाद कराया जाता है, इसी दुनिया के कुछ लोगों द्वारा। कल्पना कीजिए कि इस पृथ्वी पर कोई ऐसी जगह है जहां ईश्वर का नामो-निशान तक नहीं है। ईश्वर की कोई ख़बर तक उस देश में कहीं से नहीं आती। कोई मां-बाप, रिश्तेदार, पड़ोसी, समाज, बड़े होते बच्चों को ईश्वर की कैसी भी जानकारी देने में असमर्थ हैं, क्योंकि उन्हें ख़ुद ही नहीं पता। क़िस्सों और क़िताबों में ईश्वर का कोई ज़िक्र तक नहीं है। तब भी क्या वहां ईश्वर के अस्तित्व या जन्म की कोई संभावना हो सकती है !?

 

मेरे लिए सबसे बड़ी राहत की बात इस कल्‍पना में ये है कि इस ईश्‍वर निरपेक्ष समाज में खाप-ऑनर किंलिंग- निरुपमा के होने की कोई गुंजाइश नहीं...। खैर एक जीवंत बहस में से एक का आस्‍वादन करें-

सिरिल-

One cannot claim that the universe (atoms) were brought in order by a God who exists in a realm that is not a part of this existence. If the electrons or protons, or neutrons are in order that does not imply that somebody brought them into order. They could be order just because that's the way of the things (or we may discover the true reason later), not because they were created by God.

:

:

नास्तिकता परंपरा का विरोध नहीं, परंपरा का न होना है. सोचिये अगर कोई परंपरा न हो तो जो बचेगा वही नास्तिकता है. आप उसका मूर्त रूप परंपरा के विरोध में देखते हैं क्योंकि परंपरा होने की वजह से विरोध होता है. अगर परंपरा नहीं होती तो विरोध भी नहीं होता.

अगर आप ईश्‍वर को मानते हैं (या ज्‍योतिष/रत्न/तंत्र मंत्र/) तो आपको इस ब्‍लॉग को जरूर देखना चाहिए कि कैसा कैसा कुफ्र हो रहा है भगवान (जैसा है जहॉं है के आधार पर) इनके कंप्‍यूटर पर बिजली क्‍यों नही गिराता। अगर नहीं मानते तो जरूर जाएं और देखें कि कैसे इस मुद्दे पर इस और उस धर्म के कट्टरपंथी एकसाथ बिलबिलाते हैं... आय एम लविंग इट।

Post Comment

Post Comment

16 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामीमई 07, 2010 5:09 pm

    प्रियभांशु के ऊपर यौन शोषण का केस दर्ज कर लिया गया हैं ।

    जवाब देंहटाएं
  2. इस चर्चा से बगावत की बू आ रही है... इसपर ज्यादा कमेंट्स नहीं आयेंगे...

    जवाब देंहटाएं
  3. क्या गजब संयोग है की मैंने अपने ब्लॉग पर फोल्लोवेर्स का शीर्षक "मगध में कमी नहीं है विचारों की" और "शराबघर तो अटे पड़े हैं विचारों से" दिया है और यहाँ कुछ इसी तर्ज़ पर चर्चा है... वैसे मैंने तो यह शीर्षक कृष्ण कल्पित के ब्लॉग "एक शराबी की सूक्तियां" से लिया था... इस चर्चा में हरकीरत हीर जी की ताज़ा पोस्ट "खूंटियों पर टंगी... " को भी शामिल किया जा सकता था... जहाँ लेखक स्वयं तंग आकर लिखती हैं
    "सभी टिपण्णीकर्ताओं से क्षमा चाहते हुए .....

    मैंने जिन मनोभावों को लेकर यह कविता लिखी थी उसे सिर्फ डॉ अनुराग जी की टिप्पणी
    पूरा करती है .....मैंने अश्लीलता के विरोध में नहीं लिखा ....ऐसा कवि क्यों करने पर बाध्य होता है
    यह कहना चाहा है ...."

    http://harkirathaqeer.blogspot.com/2010/05/blog-post.html

    जवाब देंहटाएं
  4. यहाँ अकेले महफूज जी ही नहीं हैं ......और भी लोगों की बात कीजिये न जो यहाँ भी वाह वाह...वहां भी वाह वाह
    ये भी सही और वो भी सही ..........सिर्फ एक को क्यूँ लपेटा जा रहा है भाई ?
    -
    -
    रचना जी आपसे ही पता चला कि "प्रियभांशु के ऊपर यौन शोषण का केस दर्ज कर लिया गया हैं"
    क़ानून का ज्यादा ज्ञान तो नहीं है लेकिन शोषण कैसा ?
    दो बालिग़ पक्षों के एक-दुसरे की रजामंदी से किया गया कृत्य शोषण कैसे ?

    जवाब देंहटाएं
  5. बढ़िया चर्चा. पर बात तो सही है. यहाँ और भी कई लोग हैं, जो एक जगह एक बात करके आते हैं और दूसरी जगह उसकी विरोधी टिप्पणी कर देते हैं, तो सिर्फ़ महफ़ूज़ ही क्यों ?
    आपने नास्तिकों के ब्लॉग की चर्चा की तो बहुत अच्छा लगा. इस ब्लॉग के निर्माण के समय लगा नहीं था कि इसे ऐसा समर्थन मिलेगा, बल्कि समर्थन नहीं नोटिस कहें, तो ज्यादा अच्छा है. संजय जी की पोस्ट पर सिरिल की टिप्पणियाँ बहुत ही तार्किक हैं. उन्हें यहाँ प्रस्तुत करने के लिये धन्यवाद !

    जवाब देंहटाएं
  6. .
    @ सागर जी,
    टिप्पणीकारिता के अपनी सीमायें हैं, अपनी ख़ामियाँ हैं, अपनी मज़बूरियाँ हैं.. और दुश्वारियों का तो कहना ही क्या ?
    यूँ ही मत न बदल जाता होगा.. कई जगहों पर ’ मन डोले रे तन डोले रे ’ फ़ैक्टर इतना प्रभावी होता है, कि ’ दिल का करार ’ न चाहते हुये भी बदल ही जाता है, क्या फ़र्क पड़ता है कि ’ कौन कैसी बाँसुरिया बजा रहा है ?’
    आख़िरकार उसे अपने को ’ ऊँची ऊँची मॉडरेशन की दीवारें भईया तोड़ के.. हो तोड़ के.. मैं आया रे ’ भी तो सिद्ध करना होता है कि नहीं ? जहाँ चिट्ठाकारिता के सम्बन्ध टिप्पणियों के समानुपाती होने पर ही टिके हों, वहाँ तार्किकता एक तरह की अनास्था है, भईये !

    जवाब देंहटाएं
  7. अब देख लीजिये..ऍप्रूवल ?
    इसकी कोई घोषित नीति होनी चाहिये कि नहीं ?
    किसी टिप्पणी के दिखने पर यह कैसे स्थापित होगा कि इसमें से कौन कौन से ’ असभ्य भाषा व व्यक्तिगत आक्षेप ’ वाले वाक्य हटाये जा चुके हैं ? मेरी असहमति का बिन्दु यहीं पर आकर टिकता है.. यह तो बड़ी टेढ़ी खीर है, भाई !

    जवाब देंहटाएं
  8. अच्छा हम तो समझे थे कि ये चिटठा चर्चा है...
    अब टिप्पणी चर्चा भी करने लगे आप...कमाल है ऐसी टिप्पणियाँ तो एक हज़ार मिल जायेंगी इस ब्लॉग जगत में ...जिस में चित भी मेरी और पट भी मेरी ...अंटा मेरे चाचा का...फिर महफूज़ मियाँ पर ये वज्रपात क्यों..
    और फिर आज से पहले क्यों नहीं इस तरह की बात हुई है....
    इस तरह की पोस्ट से भी तो.... कुछ जाहिर होता ही है....
    छाप दिए तो ठीक और नहीं छापे तब भी ठीक.....
    संजय जी की पोस्ट पर सिरिल की टिप्पणियाँ बहुत ही तार्किक हैं. उन्हें यहाँ प्रस्तुत करने के लिये धन्यवाद !
    हाँ नहीं तो...!!

    जवाब देंहटाएं
  9. अब मैं क्या बोलूं..... हर टोपिक बहुत शानदार होता है.... और बर्निंग होता है... मैं बहुत ऐप्रेशिईट करता हूँ... लिखने के स्टाइल को.... आपके.... इस चर्चा को क्या कहूँ.... लफ्ज़ नहीं नहीं मिल रहे हैं ....तारीफ़ करने को....
    ग्रेट.....
    विद बेस्ट रिगार्ड्स..

    just kidding ;)

    @सागर: मुझे जुकाम है... कोई भी बू नही आ सकती...

    कुछ भी हो.. चिट्ठाचर्चा राक्स भई :)

    जवाब देंहटाएं
  10. 'नास्तिकों का ब्लॉग'[!!]..बहुत अच्छा लगा जान कर.उनका स्वागत है.आशा है ,सार्थक विषयों पर सार्थक बहस पढ़ने को मिलेगी.
    -----------------------------------------------

    जवाब देंहटाएं
  11. "अगर आप ईश्‍वर को मानते हैं (या ज्‍योतिष/रत्न/तंत्र मंत्र/) तो आपको इस ब्‍लॉग को जरूर देखना चाहिए कि कैसा कैसा कुफ्र हो रहा है भगवान (जैसा है जहॉं है के आधार पर) इनके कंप्‍यूटर पर बिजली क्‍यों नही गिराता। अगर नहीं मानते तो जरूर जाएं और देखें कि कैसे इस मुद्दे पर इस और उस धर्म के कट्टरपंथी एकसाथ बिलबिलाते हैं... आय एम लविंग इट।"

    एन्ड आय लव्ड इट.. ब्यूटीफ़ुल लाईन्स...

    जवाब देंहटाएं
  12. नास्तिकों का ब्लॉग ~~~~~
    हुंह
    हुंह
    ऐसी जगह पे तो बिजली गिरके रहेगी
    ऐसी नापाक जगह को नेस्तनाबूद करने के लिए हवन और जाप शरू किया जा चुका है, जिसका परिणाम अतिशीघ्र (27 से 30 वर्षों के भीतर) ही देखने को मिलेगा
    -
    -
    जय बाबा भैरवनाथ

    जवाब देंहटाएं
  13. बड़े मार्के की बात और पूरी ईमानदारी के साथ ले कर आये हैं आप..कुछ दिनों से थोड़ी व्यस्तता के बावजूद देख पा रहा था कि निरुपमा प्रकरण के बहाने ब्लॉगजगत पर भी घमासान छिड़ा है..और घटना के सभी संभावित-असंभावित अंगों की आनुषंगिक विवेचना की जा रही है..उल्लेखनीय यह लगा कि मीडिया से लेकर ब्लॉग जगत तक दो गुटों मे विभाजित हो गया है..जहाँ आधुनिकता/समानता/वैयक्तिक-स्वतंत्रता-वादी निरुपमा की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु के पीछे के उन सारे महत्वपूर्ण/गौण तर्कों/प्रमाणों की तलवार भांज रहे हैं जो उसके अभिवावकों और संबंधियों को कटघरे मे खड़ा कर सकें..वहीं तमाम यथास्थिति/नैतिकता/संस्कृति-रक्षण-वादी निरुपमा के चरित्र और व्यक्तिगत जीवन का पोस्टमार्टम कर उन तथ्यों की पुनर्रचना कर रहे हैं जो उच्छ्रंखल या कहें कि ’कुलटा’ स्त्रियों के स्वेच्छाचरण से हमारे छुईमुई जैसे समाज की ’रक्षा’ कर सकें..मुझे लगता है कि इन तमाम वादों-विमर्शों और राउंड-टेबल-बहसों से परे ऐसी कोई मृत्यु एक बड़ी व्यक्तिगत क्षति है और पारिवारिक और सामाजिक क्षति भी...कारण और दोषी जो भी हो मगर एक माँ ने अपनी बेटी खो दी..और समाज ने होनहार पत्रकार खो दिया..ऐसी युवा-मृत्यु पारिवारिक संबंधों का क्षरण ही नही वरन्‌ श्रम और मेधा का क्ष्ररण भी है..हम और हमारा मीडिया स्वरचित त्वरित ट्रायल मे किसी को भी दोषी साबित कर उसे फ़ांसी पर तुरंत लटका देना चाहते हैं..चाहे वह लड़की के माता-पिता हों या उसका प्रेमी या कोई और!..और समाज का हर व्यक्ति स्वघोषित जज बनने का यह दायित्व पूरी तन्मयता के साथ निभा रहा है..जबकि पूर्ववर्ती आरुषि, कटारे या प्रियंका तोड़ी आदि के ऐसे ही प्रकरण हमारी स्मृतियों के क्षीण मेमोरी-कार्ड्स से कब के डिलीट हो चुके हैं! ..क्यों न हम दोषी करार देने का और सजा देने का काम कानून पर ही छोड़ दें और बैठ कर यह आत्मचिंतन करें कि ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की पुनरावृत्ति होने से बचाने के लिये हमारी क्या जिम्मेदारी है..और समय के साथ सामजिक बदलाव मे हम कहाँ फ़िट होते हैं!!..वरना अपने पूर्वाग्रहों और विरोधाभासों के साथ जारी ऐसी बहसें अंतहीन और निरुद्देश्य हैं..क्या वजह है कि हम जिन टीवी कार्यक्रमों पर सबसे ज्यादा हाय-तौबा मचाते हैं उन्ही की टी आर पी सबसे ज्यादा पायी जाती है? गूगल-ट्रेंड्स मे वही सारे वेबलिंक्स टॉप-सर्च मे होते हैं जो हमारी नैतिकता के लिये सबसे बड़ा खतरा होते हैं? राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक शीर्ष पर बैठे लोग ही पोल खुलने पर सबसे ज्यादा पतनशील पाये जाते हैं?..मैं मानता हूँ कि यह वैचारिक दोगलापन हमारी अस्थिमज्जा मे है..जिसे हम खुद नैतिकता और भावनात्मकता के आवरण मे छिपाये रखने के अभ्यस्त होते गये हैं..अपने समाज की कल्पना करने पर मुझे ऐसे व्यक्ति का खयाल आता है जिसके पैर तो इक्कीसवीं सदी मे पहुँच गये हों मगर जिसका सर या दिमाग अभी उन्नीसवीं सदी मे ही रह गया हो..ऐसे समाज मे अंतर्निहित विरोधाभास ही उसके लिये सबसे बड़ा खतरा हैं..नदी मे एक साथ दोनो किनारों की ओर तैरने वाला व्यक्ति किसी किनारे नही लगता है अंततः मझधार ही उसका प्रारब्ध होती है..
    अंततः जैसा कि आपने लिखा है विचारों को पनाह देना जरूरी है..मगर विचारों का आदर करने के लिये दिमाग का पूर्वाग्रहों से मुक्त होना बहुत जरूरी है...मगर हमारे अपने ही ’इमोशनल बैरियर्स’ हमें ऐसा नही करने देंगे..सो कुल मिला कर भविष्य को ले कर आशावादी हो पाना असंभव तो नही मगर बहुत मुश्किल जरूर है..
    बाकी चर्चा तो जबर्दस्त है ही..सब कह गये हैं!!

    जवाब देंहटाएं
  14. "सलेक्टिव नैतिकता " जिंदाबाद

    जवाब देंहटाएं
  15. अपूर्व से शब्द-शब्द सहमत...बिना जाने कह सकता हूं अपूर्व के अंदर पत्रकार कूट-कूट कर भरा हुआ है...

    अब आते हैं अपने एंटी हीरो महफूज़ अली पर...

    यार महफूज़ तू चीज़ क्या है...अपनी समझ से बाहर है...फिल्म अक्स की स्पिलिट पर्सनेल्टी की रियल लाइफ मिसाल है...आपे से बाहर होता है तो तुझे खुद ही पता नहीं चलता क्या कह रहा है...कहीं वही बात तो नहीं खुदा हुस्न (और इल्म) देता है तो गरूर आ ही जाता है...एक बार बड़े गुलाम अली खां साहब ने लता मंगेश्कर के लिए कहा था...कमबख्त, कभी बेसुरी ही नहीं होती...आज तेरे लिए कहने को जी कर रहा है...कमबख्त...कभी सुधर ही नहीं सकता...लेकिन इतना होने के बावजूद तेरे पास वो कौन सा अलादीन का चिराग है कि तेरी हस्ती मिटती नहीं...तुझे कोई प्यार करे या नफ़रत, लेकिन तुझे इग्नोर करने की हिमाकत कोई नहीं कर सकता...इतना ही कहूंगा कि आगे कभी दनदनाने से पहले मेरा और ब्लॉगवुड के बाकी सभी वेलविशर्स का एक बार ध्यान ज़रूर कर लिया कर...आमीन...

    जय हिंद...

    जवाब देंहटाएं

चिट्ठा चर्चा हिन्दी चिट्ठामंडल का अपना मंच है। कृपया अपनी प्रतिक्रिया देते समय इसका मान रखें। असभ्य भाषा व व्यक्तिगत आक्षेप करने वाली टिप्पणियाँ हटा दी जायेंगी।

नोट- चर्चा में अक्सर स्पैम टिप्पणियों की अधिकता से मोडरेशन लगाया जा सकता है और टिपण्णी प्रकशित होने में विलम्ब भी हो सकता है।

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.

Google Analytics Alternative