अनूपजी ने अल्ल सुबह की पोस्ट में चिट्ठाचर्चा के चर्चादर्शन को साफ करते हुए एक फुरसतिया पोस्ट ठेली है। चर्चाकार बिरादरी की जनसंख्या में बढ़ोतरी की भी घोषणा की गई है-
इस बीच डा.अनुराग आर्य, श्रीश शर्मा मास्टरजी उर्फ़ ई पण्डित और प्राइमरी वाले मास्टर प्रवीण त्रिवेदी को भी चर्चा सुपारी भेज दी गयी है। डा.अनुराग के यहां तो सुना है चर्चा उनके लाइव राइटर पर सजी-संवरी धरी भी है। बस उसके मंच पर आने भर की देर है (आ भी गई अब तो भाई! और क्या खूब आई है) । श्रीश शर्मा तकनीकी पोस्टों की चर्चा (विज्ञान चर्चा से अलग) करेंगे और मास्टर प्रवीण जी अपनी मर्जी से जब मन आये तब वाले अंदाज में चर्चा क्लास लेंगे
अनूप की पोस्ट का एक लाभ तो ये हुआ कि देबाशीष की पोस्ट जो पढ़ने से छूट गई थी उसे पढ़ पाए.. दूसरा ये कि चर्चाकर्म के बहाने जो तमाम हरकतें हम करते हैं उन्हें तर्कसंगत ठहराने के लिए हमें पर्याप्त नए-पुराने तर्क मिल पाए मसलन देबाशीष ने सुझाया
चिट्ठा चर्चा की निरंतरता और सतत लोकप्रियता का एक कारण तो मुझे स्पष्ट दिखता है और वह है पूर्ण स्वतंत्रता। इंटरनेट पर और (शायद आम जीवन में भी) सामुदायिक कार्यों में भागीदारी बढ़ाने और बनाये रखने के तरीकों में एक महत्वपूर्ण अव्यय है कि सदस्यों को अपना काम करने की खुली छूट हो।
तथा अनूपजी ने भी कहा-
इस मसले पर खाली यही कहना चाहते हैं कि चिट्ठाचर्चा का कोई गुप्त एजेंडा नहीं है कि इनकी चर्चा होनी है, इनकी नहीं होनी है। चर्चाकारों को जो मन आता है, जैसी समझ है उसके हिसाब से चर्चा करते हैं। इस मसले पर चर्चाकारों में आपसै में मतैक्य नहीं है। हर चर्चाकार का अलग अंदाज है। हर चर्चाकार अपने चर्चा दिन का बादशाह होता है।
तो तय हुआ कि हम आज के दिन के बादशायह हैं ओर अगर किसी चिट्ठे की चर्चा करना उसे जागीर बख्शने जैसा है तो कुछ जागीरें बांटना चाहेंगे। मसलन लंबी कुंभकर्णी नींद के बाद सुजाता ने ईडियट की स्पेलिंग सीखी है और तमाम ईडियटपन का व्याकरण वे सामने रखती हैं-
गोल गोल घुमाऊंगी नही बात को। चोखेरबाली स्त्री मुक्ति की झण्डा बरदारों की राजनीतिक पार्टी नही है। जिस राजनीतिक विचरधारा पर पार्टी चलाते हो उसके पुरोधाओं की पुस्तक भी पढी है या पूंजी के दास हो केवल ?
अब तक ऐसी स्त्रीवादी पार्टी नही बनी है सो यह सवाल नही उठता है ।बार बार यह बताने की ज़रूरत नही कि देखो , मै पहली महिला जिसने फलाँ फलाँ किया उसे जानती हूँ , भीखाई जी कामा हंसा मेंहता,राजकुमारी अमृत कौर,सरोजनी नायडू,अम्मू स्वामीनाथन, दुर्गाबाई देशमुख,सुचेता कृपलानीके बारे मे पढा है मैने या वर्जीनिया वूल्फ ,उमा चक्रवर्ती , निवेदिता मेनन को पढा है ....इससे मुझे हक है कि मै अपने मन की बात लिखूँ !
कुछ जागीर समीरजी की बनती ही है क्यों ये अनूपजी ने बताया ही। तो समीर आज नेता के अस्ितत्व का प्रयोजनमूलक अध्ययन कर रहे हैं-
मनमानी है तो बलात्कार है
बलात्कार है तो पुलिस है
पुलिस हैं तो चोर हैं
चोर हैं तो पैसा है
पैसा है तो बिल्डिंगें हैं
बिल्डिंगे हैं तो बिल्डर हैं
बिल्डर हैं तो जमीन के सौदे हैं
जमीन के सौदे हैं तो घोटाले हैं
घोटाले हैं तो नेता हैं.
इस रेवड़ी वितरण के पश्चात हम यानि जिल्ले सुभानी यानि आज के दिन बादशाह सोचते हैं कि और किस किस को जागीरें बख्शी जाएं... दे दनादन मुंबई पर मीडिया की सहानुभूति व क्रोध की मार्केटिंग पर पोस्टें हैं पर सच कहें तो हम तो अपनी सारी बादशाहत जिस पर लुटाने को आतुर है वह अशोक पांडे की कबाड़खाने पर आ रही एक हिमालयी यात्रा सीरीज-
सन १९९५,१९९६,१९९७,१९९९ और २००० में उत्तराखण्ड के सुदूर हिमालयी क्षेत्र में स्थित व्यांस, चौदांस और दारमा घाटियों में कुल मिलाकर तकरीबन ढाई साल रहकर सबीने और मैंने इन घाटियों में रहनेवाली महान शौका अथवा रं जनजाति की परम्पराओं और लोकगाथाओं पर शोधकार्य किया था. भारत-चीन युद्ध से पहले शौका जनजाति को तिब्बत से व्यापार में एक तरह का वर्चस्व प्राप्त था. ये घुमन्तू लोग गर्मियों में तिब्बत जाकर वहां से नमक, सुहागा, ऊन वगैरह लेकर आते थे और जाड़ों में निचले पहाड़ी कस्बों, गांवों और मैदानी इलाकों में व्यापार किया करते थे.
इस श्रंखला में अब तक तीन पोस्ट आई हैं। पहले हिस्से में सिनला की दिशा में तैयारी वाला हिस्सा है-
मैं उनकी तरफ़ देखता भी नहीं क्योंकि उनकी आवाज़ बता रही है वे जमकर पिए हुए हैं. वे ऐसी अंग्रेज़ी बोल रहे हैं जिसे खूब दारू पीकर अंग्रेज़ी न जाननेवाले धाराप्रवाह बोला करते हैं. हम बिना रुके, बिना इधर-उधर देखे चलते जाते हैं - वे चीखते रहते हैं. मुझे अपनी पीठ पर सैकड़ों निगाहों की गड़न महसूस हो रही है.
दूसरा हिस्सा हताशा में उत्साह के क्षणों को पा जाने की शानदार दास्तान है-
मैं पागलों की तरह इस बचकाने खेल को घन्टों तक खेलता रहता हूं - सबीने खीझती रहती है. जब भी एक बम मेरी कार पर गिरता है, एक तीखी इलेक्ट्रॉनिक महिला आवाज़ निकलती है: "रौन्ग! रौन्ग! रौन्ग!" मशीन के भीतर कुछ तकनीकी गड़बड़ है और स्पीकर से आने वाली आवाज़ कर्कश और असहनीय है: "वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग!" जब भी ऐसा होता है सबीने कोशिश करती है मैं गेम को छोड़ दूं. पर मुझे हर हाल में इस लेवल से आगे जाना है
इसी क्रम में तीसरा हिस्सा
वापस आने की मजबूरी और फिर आगे जाने के साहस ओर उमंग की कथा है-
सबीने को यह जानने में एक सेकेन्ड लगता है कि उसने क्या पिया है. वह चीखना शुरू ही करती है कि मैं भागकर नंगे ही पैर आंगन में भाग जाता हूं. वह भी स्लीपिंग बैग से बाहर आकर चीखना शुरू कर चुकी है. भाग्यवश पूनी को अंग्रेज़ी ज़रा भी नहीं आती. मुझे अचानक उनके ज़ोर-ज़ोर से हंसने की आवाज़ सुनाई देती है.
हमारी नजर में यात्रा संबधी विवरण सदैव ही एक अच्छी ब्लॉग पोस्ट बनते हैं तिस पर अगर किसी के पास अशोकजी जैसी दृष्टि भी हो तो जो चीज तैयार होती है उसका उदाहरण है ये सीरीज।
इस स्लाइडशो की सभी तस्वीरें डा. सबीने के कैमरे से हैं तथा कबाड़खाने से ली गई हैं।
अब शाम होने को है इससे पहले कि बादशाहत का दिन जाए इस चर्चा को पोस्ट कर देते हैं। नमस्कार
लो कर लो बात! एक दिन का बादशाह चमडे के सिक्के चलाने लगा :)
जवाब देंहटाएंपर.......यह चमडे का सिक्का तो अशर्फ़ी से कीमती लगता है!!! बधाई एक नए अन्दाज़ में चर्चा पेश करने के लिए॥
इससे छोटा कमेंण्ट और क्या हो सकता है?
जवाब देंहटाएंNice
बढिया चर्चा
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा. जागीर प्रदान करने का आभार!! :)
जवाब देंहटाएंनए चर्चाकारों का भी स्वागत है.
जवाब देंहटाएंबादशाह का इकबाल बुलंद रहे।
जवाब देंहटाएंkoshish jaree rahe swagat hai
जवाब देंहटाएंNice
जवाब देंहटाएंछोटी किन्तु sateek
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक jee
vah!
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