गुरुवार, दिसंबर 24, 2009

बड़ी घिनौनी लगती है अब आदम की बू-बास मियां

बहुत दिनों बाद आज चिट्ठाचर्चा करने बैठा हूँ. लगता है जैसे भूल गया हूँ कि कहाँ से शुरू करें और कहाँ ख़तम करें? लेकिन चर्चा करनी है तो कहीं से भी शुरू कर दूँ न. करीब बारह बजे रात के आस-पास से शुरू करूं तो पहले भोजपुरिया बाबू क्या कहीं, उसपर नज़र टिक जायेगी. भोजपुरिया बाबू का कहना है कि झारखण्ड में जनादेश खंडित है.

अब आप सोचिये कि नेताओं को पग-पग पर दोष देने वाले जनों का आदेश ही खंडित है. नतीजा यह कि नेता महिमा-मंडित है. अरे, ई तो कविता टाइप बन गया. जी हाँ, भोजपुरिया भाई के अनुसार वहां के मास्टर जी, सौरी-सौरी गुरु जी, एक बार फिर से उभरे हैं. अब वे उभरे हैं तो आदेश देने वाला जन तो डूबेगा ही. जाइए और जाकर पढ़िए कि भोजपुरिया भाई क्या विचार रखते हैं इस जनादेश पर.
जो जन अपना ही आदेश खंडित करेगा उसके साथ क्या-क्या हो सकता है, यह बता रहे हैं डॉक्टर मान्धाता सिंह. उनका कहना है कि सरकार तो लोकतांत्रिक है मूल उसका चरित्र जनविरोधी और राजशाही वाला है. अब बताइए, सरकारों का भी चरित्र ऐसा न रहे तो किसका होगा? झिंगुरी लोहार का? डॉक्टर सिंह के अनुसार;

छोडिये जाने दीजिये. वहीँ जाकर पढ़ लीजिये. ये रहा लिंक. उनका ब्लॉग सुरक्षित है.

बताइए, असुरक्षित जन और कुछ नहीं तो ब्लॉग ही सुरक्षित कर ले रहा है और उसी को अपना अचीवमेंट मान रहा है. वैसे अचीवमेंट का क्या है? हम सांसदों के खाने पर होने वाले खर्चे को उस रेट से कम्पेयर लें जिस रेट पर उन्हें खाना मिलता है. उसके बाद यह मानें कि ये हमारा अचीवमेंट है. खुशदीप सहगल जी ने यह अचीव किया है. आप खुद ही पढ़िए. ये रहा लिंक.

सुनते हैं डॉक्टर लोहिया भी नेहरु जी के ऊपर होने वाले खर्च का हिसाब रखते थे और कहते थे कि जिस दिन हिसाब पूरा हो जाएगा, समाजवादियों की सरकार बन जायेगी. हिसाब रखते-रखते डॉक्टर साहेब चल बसे. समाजवादी गणित टें बोल गया. उनके शिष्य बाद में नेहरु जी की पार्टी को समर्थन देने के लिए दिल्ली में डिनर अटेंड करते रहे.

कल रात हिंदी ब्लागरी (या ब्लागरा?) ने अपने शैशवकाल से एक बार फिर निकलने की कोशिश की. नतीजा यह हुआ कि एक बढ़िया परिपक्व बहस छेड़ी गई जिसमें अरविन्द जी ने पूछा कि; जैसे अदाकारा, शायरा वैसे ब्लागरा/चिट्ठाकार क्यों नहीं?
इस सवाल पर तमाम बेहतरीन टिप्पणियां आई हैं क्योंकि अरविन्द जी ने यह विषय खुली चर्चा के लिए रख दिया है. उन्हें संस्कृत के विद्वान् की ज़रुरत है जो इस पर प्रकाश डाल सके. देखिये, अगर आप भी कुछ कर सकते हैं तो बाकी लोगों की तरह कुछ कीजिये.

कुछ और करिए या न करिए, हो सके तो संजय पटेल जी की पोस्ट पढ़िए. रफ़ी साहब के ड्राईवर श्री अल्ताफ हुसैन खान का रफ़ी साहब की यादों के बारे में एक साक्षात्कार दिया है. बेहतरीन पोस्ट है. एक जगह अल्ताफ साहब कहते हैं;

"साहब के चाहने वाले और क़रीबी दोस्त उन्हें आलम पनाह कहा करते थे, क्योंकि हमारे साहब को अंदाज़ ही कुछ ऐसा था। बड़े क़रीने के आदमी थे। कहीं भी कार रुकवा कर चाहने वालों से मिल लेते थे। हर ख़त का जवाब ख़ुद लिखते थे। जब हमने आलम-पनाह कहरने की कोशिश की तो मना कर दिया। कहा - मैं रफ़ी ही ठीक हूँ और वह भी मोहम्मद रफ़ी।"


विष्णु बैरागी जी ने तीन मैकेनिक्स के बारे में लिखा है. उनका कहना है कि;

"कुछ दिनों से मैं तीन मिस्त्रियों (मेकेनिकों) से दुःखी हूँ। मेरी व्यथा-कथा प्रस्तुत कर रहा हूँ और उम्मीद कर रहा हूँ ऐसा केवल मेरे साथ नहीं हो रहा होगा।"


बेहतरीन पोस्ट है. एक मैकेनिक ईश्वर के बारे में विष्णु जी लिखते हैं;

"उसकी हँसी मेरे गुस्से को अधिक टिकने नहीं देती। उसकी विनम्रता मुझ जैसे कुटिल आदमी को भी साध लेती है और मैं उसके सामने परास्त हो जाता हूँ। कहता हूँ - ‘अब तुझे नहीं बुलाऊँगा।’ वह मुँह फेरकर, हँसते हुए कहता है - ‘तो बताओ जरा, किसे बुलाओगे।’"


समीर भाई का लैपटॉप नहीं रहा. मैंने तो शुरू-शुरू में ही सबकुछ बता दिया लेकिन समीर भाई ने लैपटॉप के बारे में बाद में बताया. शेर ठोकने के बाद. जिन्हें यह शिकायत है कि हिंदी ब्लागरी में सस्पेंस नहीं लिखा जाता वे आज से शिकायत करना बंद कर दें....:-)

पाठकों से टिपण्णी के माध्यम से श्रद्धांजलि व्यक्त करने के लिए निवेदन करते हुए उन्होंने लिखा;

"निवेदन: कृप्या टिप्पणी के माध्यम से अपनी श्रृद्धांजलि अर्पित करें तो मुझे आपका पता वापस मिले वरना तो वो सब साथ ले ही गया है."


लोगों ने उनकी बात मानते हुए टिप्पणियों में श्रद्धांजलि दे दी है. आप ने अगर अभी तक नहीं दी है तो दे आइये.

निशांत जी ने आज ईसा मसीह के जीवन से एक कहानी छापी है. क्रिसमस का मौसम है सो ईसा मसीह के जीवन में घटी घटना से बढ़िया और क्या हो सकता है? आप कहानी पढ़ें. सुन्दर कहानी है.

अलबेला खत्री जी ने सूचना दी है कि उन्होंने अभीजीत सावंत के साथ मिलकर लाफ्टर के फटके में धमाल मचा दिया है. बता रहे हैं कि फिल्मसिटी में इस धमाल की शूटिंग पूरी हो गई है.

अभिषेक ने एक पोस्ट लिखी है. समाज में तमाम तरह के लूप के बारे में. पढ़िए. वे लिखते हैं;

"माइकल डग्लस का वालस्ट्रीट फिल्म का एक डायलोग याद आता है: 'एक समय मैं जिसे दुनिया की सारी दौलत समझता था वो आज एक दिन की कमाई है '. मेरे एक दोस्त ऐसे हैं जिनकी महीने की कमाई और मेरे एक समय के संसार की सारी दौलत में आराम से मैच हो जायेगा."


वाल स्ट्रीट के बारे में बात करते हुए अभिषेक लिखते हैं;

"वैसे 'ज़ीरो सम गेम' से वालस्ट्रीट का एक और डायलोग याद आया:
Bud Fox: How much is enough?
Gordon Gekko: It's not a question of enough, pal. It's a zero sum game, somebody wins, somebody loses. Money itself isn't lost or made, it's simply transferred from one perception to another."


आज विनोद कुमार पाण्डेय जी का जन्मदिन है. उन्हें जन्मदिन की बधाई.

"क्या हिन्दु धर्म अब उन अपराधियों, हत्यारों, भू-माफियाओं, हवाला कारोबारीयों के बल पर जिन्दा रहेगा,जो भगवा धारण कर लोगों को छल रहे है?"


योगेन्द्र मौदगिल जी की गजल पढ़िए. उनका ब्लॉग सुरक्षित है इसलिए ये अशआर मैं खुद टाइप कर रहा हूँ. मेरी मेहनत के लिए भी मुझे दाद दीजियेगा प्लीज. योगेन्द्र जी लिखते हैं;

उन सब ने खंडित कर डाला जिनपर था विश्वास मियां
क्या अपनों को धर के चाटे क्या अपनों की आस मियां

इस बस्ती से आते-जाते नाक पे कपड़ा रख लेना
बड़ी घिनौनी लगती है अब आदम की बू-बास मियां


पूरी गजल आप उनके ब्लॉग पर पढ़िए.

आज की चर्चा में बस इतना ही.आप सब को क्रिसमस की हार्दिक शुभकामनाएं.

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12 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे भी खूब भाया यह संवाद-कथन - "Money itself isn't lost or made, it's simply transferred from one perception to another.""

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  2. ...हिंदी ब्लागरी में सस्पेंस नहीं लिखा जाता...

    कैसे नहीं लिखा जाता? आज की पूरी चर्चा ही सस्पेंसफ़ुल है कि लेखक कौन है. बड़ा प्रयास किया जानने का. अंत में ब्लॉगवाणी ने रहस्य खोला कि आप हैं.

    चर्चा लाजवाब है.

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  3. बढियां -उधर ब्लागरा विमर्श चल ही रहा है ! शुक्रिया !

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  4. "उनके शिष्य बाद में नेहरु जी की पार्टी को समर्थन देने के लिए दिल्ली में डिनर अटेंड करते रहे."

    और वह भी बिन-बुलाये मेहमान बनकर :)

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  5. बड़े दिनों बाद दिखे शिव जी चर्चा मंच पर?

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  6. अच्छी चर्चा। बहुत मसाला मिल गया पढ़ने को। कल बाहर जो थे।

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  7. शिवकुमार जी,

    बहुत अच्छी रसभरी चर्चा!!!

    योगेन्द्र जी की गज़ल पूरी पढ़नी ही पड़ेगी, बहुत उम्दा शे’र छांटा है आपने
    ".......बड़ी घिनौनी लगती है अब आदम की बू-बास मियाँ"

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

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  8. धन्यवाद सफल चर्चा के लिए

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