आज अपने देश साठवां गणतंत्र दिवस मना रहा है। बकौल खुशदीप
गणतंत्र सीनियर सिटीजन बन गया आज जिस पर अपनी बात कहते हुये
गिरिजेश राव लिखते हैं--
रघुवीर सहाय का 'हरचरना' याद आता है जो 'फटा सुथन्ना' पहने राष्ट्रगान के बोलों में 'जाने किस भाग्यविधाता' का गुन गाता रहता है!
इसी तर्ज पर कभी धूमिल ने लिखा था-
क्या आज़ादी तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई ख़ास मतलब होता है
आज सुबह कड़ाके की ठंड में राजधानी में झंडा फ़हराने का कार्यक्रम हर वर्ष आठ बजे की जगह इस बार दस बजे से हुआ। इस मौके पर अनायास परसाई जी का
ठिठुरता हुआ गणतंत्र याद आया:
गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है। गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा़ नहीं है।
विडंबना है कि परसाई जी की ये पंक्तियां आज भी उतनी ही बल्कि और ज्यादा प्रासंगिक हैं। जब परसाई जी के इस लेख की ये पंक्तियां पढ़ीं:
इस देश में जो जिसके लिये प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय स्वतंत्रता के लिये प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। सहकारिता केलिये प्रतिबद्ध इस आन्दोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं। सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारितापूर्वक खाने लगते हैं और आन्दोलन को नष्ट कर देते हैं। समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुये हैं।
लेखकीय स्वतंत्रता के लिये प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। का उदाहरण हाल ही में ब्लॉगजगत में भी देखने को मिला जब अविनाश वाचस्पति को किसी लेखक ने ही इस बात पर धमकी दी जब उन्होंने उसके द्वारा चोरी की गयी रचना को चोरी ही मानकर उसकी आलोचना की।
बहरहाल आज देश भर में गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है। उल्लास के साथ। इस मौके पर साथियों ने पोस्टें लिखीं। वन्दना अवस्थी तो अतीत में टहल आईं और देख दाख आईं कि कैसे वे कड़क प्रेस करके
स्कूल जातीं थीं:
इधर २५ जनवरी आती , और उधर हमारी यूनिफ़ॉर्म तैयार होने लगती. खूब कड़क प्रेस किया जाता. प्रेस करने का काम मेरी छोटी दीदी करतीं, और मैं वहीँ खड़े हो , अपनी प्रेस हो रही शर्ट का कॉलर छू - छू के देखती की खूब कड़क हुआ या नहीं. स्कर्ट की एक-एक प्लेट सहेज के प्रेस की जाती
.आगे उनकी पोस्ट में आज की पीढ़ी के इन राष्ट्रीय पर्वों से उदासीन होने के कारण भी तलाशती हैं।
सतीश पंचम गाजीपुर के ८६ पार लेखक विवेकी राय के लेख के बहाने बीते जमाने के सपने और आज की हकीकत की बात करते हैं। उनकी पोस्ट का शीर्षक बहुत कुछ कह जाता है:
देश की तिकोनी चौकोनी कटी दरारों के बीच की बरफी पर गदहे घूम रहे हैं, बकरीयां उछल-कूद कर रही हैं। कौए सीपियों में खाना ढूँढ रहे हैं।बिखरे गणतंत्र को बसाना है ! यह आवाहन है निपुण पाण्डेय का।
कल गुजरात हाईकोर्ट ने अपने एक निर्णय में कहा कि हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो दिया गया है, लेकिन क्या इसे राष्ट्रभाषा घोषित करने वाला कोई नोटिफिकेशन मौजूद है? इस मसले पर विस्तार से देखिये- देवेश की पोस्ट-
बिन भाषा के गूंगे-बहरे राष्ट्र में काहे का गणतंत्र गिरिजेश अपनी
द्विपदियां इस मौके पर लिखते हैं जो उदास हैं। देखिये:
जिस दिन खादी कलफ धुलती है।
सजती है लॉंड्री बेवजह खुलती है।
फुनगियों को यूँ तरस से न देखो,
उन पर चिड़िया चहक फुदकती है।
तुम्हारे पास कांव-कांव, हमारे पास कट्ठा कट्ठा अखबार! में विनीत कुमार मृणाल पांडेजी की नेटमीडिया और नेटस्पेस पर लिखने वाले लोगों के बारे में बनी सोच और उसके कारणों की पड़ताल करते हैं। विनीत का सवाल है:
अब ऐसे में वो ब्लॉगर और वेबसाइट के लोगों पर इस बात का आरोप लगाती हैं कि सब अपनी-अपनी भड़ास निकाल रहे हैं और जजमेंट देती हैं कि इन सुरों में दम नहीं है तो सवाल तो किया ही जाना चाहिए कि आप कॉलम का इस्तेमाल इनसे अलग किस रूप में कर रही हैं?
हरकीरत’हीर’ से बातचीत करा रहे हैं
कुलवंत हैप्पी! इसमें हरकीरत कलसी के हरकीरत’हीर’ बनने की कहानी और अन्य बातें हैं।
क्रिकेट का गणतंत्र में रवीश कुमार की ये दो फ़ोटुयें सारी बातें कहती हैं।
इन तस्वीरों में हर तरह से साजो-सामान से लैस बच्चों की पीठ दिख रही है और अद्धे-गुम्मे वाले बच्चे सीना कैमरे के सामने किये हैं। पता नहीं यह अनायास है कि सायास। प्रमोद सिंह इस पर टिपियाते हैं:
"धरती पर रखे जाते ही अहिल्या की तरह विकेट में बदल जायेंगे।"
"जब दूसरी तस्वीर को ब्लैकबेरी से क्लिक कर रहा था तो मेरे द्वारा पंद्रह बार देखी जा चुकी ग़ुलामी का डॉयलॉग याद आ गया। देख रहा हूं जगत की मां के सर पर फूल है और मेरी मां के सर पर जूते।"
इसके आगे रवीश एंथ्रॉपॉलॉजी कहां चहुंपती है, बहुतै जल्दी स्टम्पिन हो गया.
प्रमोदजी के लिये आज का दिन भी
रोज के किस्से जैसा ही है:
फिर भी जाने क्या आवारापन, कुहरीला मन है, तुम्हारे मलिन मन की खिड़कियों पर बगाहे भटके गोरैया की तरह फुदकता, चहकता मिलूंगा, तुम छनौटा खींचकर मारोगी तो उनींदे तुम्हारे सपनों के होंठ, अपने होंठों से सील दूंगा. मीठे, मार्मिक थोड़े उन सुहाने क्षण हम एक-दूसरे को कितना जान लेंगे, लेकिन यह भी ग़ज़ब होगा कि फिर जल्दी ही, उतनी ही निष्ठुर, निर्ममता से, अपने-अपने अकेलेपन की चादरें तान लेगे.
सैमसुंग-साहित्य अकादमी पुरस्कारों के खिलाफ मानव श्रृंखला में जन संस्कृति मंच द्वारा बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता उत्पाद कंपनी सैमसुंग के साथ मिलकर साहित्य अकादमी द्वारा टैगोर साहित्य पुरस्कार दिए जाने के विरोध में सोमवार को मानव श्रृंखला खला बनाये जाने और आगे के विरोध के विवरण हैं!
अपने पिता के साथ बिताये आखिरी तीन दिन में पिता की याद करते हुये उनको समर्पित कविता पेश की वाणी ने:
बहुत आती है घर में कदम रखते ही
पिता की याद...
पिता के जाने के बाद
ड्राइंगरूम की दीवारों पर रह गए हैं निशान
वहां थी कोई तस्वीर या
जैसे की वो थे स्वयं ही
बड़ी बड़ी काली आँखों से मुस्कुराते
सर पर हाथ फेर रहे हो जैसे
जो की उन्होंने कभी नही किया
जब वो तस्वीर नहीं थे ..स्वयं ही थे
कथाकार सूरजप्रकाश जी से
दस सवाल पूछे गये। उनमें से तीन के अंश यहां दिये जा रहे हैं:
आज जीवन के हर क्षेत्र में यही हो रहा है। सब कुछ जो अच्छा है, स्तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है। कभी स्वेच्छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते। आज हमारे आस पास जो कुछ भी चलन में है, वह औसत है, बुरा है और कचरा है। हम उसे ढो रहे हैं क्योंकि बेहतर के विकल्प हमने खुद ही चलन से बाहर कर दिये हैं।
आज की पीढ़ी के पास सबकुछ है लेकिन धैर्य या संतोष नहीं है1 बात मूल्य बदलने की भी है। हमारी पीढ़ी तक शादी के बाहर या इतर या शादी से पहले सैक्स बहुत खराब बात मानी जाती थी। आज सैक्स जीवन की एक शैली है, बस, सुरक्षित तरीके से कीजिये। ये खूबियां दुनिया से हमारे पास आ गयीं, अब क्या देस और क्या परदेस।
आप आने वाले कल की बात नहीं कर सकते। दस साल बाद की क्या कहें। बेशक हम चांद पर हो सकते हैं लेकिन व्यक्ति का सुकून, अपनापन आत्मीयता और परिवार सब बलि चढ़ जायेंगे। आदमी और अकेला और मशीनी होता जायेगा।
आमतौर पर कहा जाता है, पब्लिक स्कूलों में जहां कहीं भी सरकारी पैसे से रूफवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाए गए हैं, पैसे की बर्बादी ही हुई है। इसके बावजूद भी चिकमगलूर जिले में तो कहानी ही दूसरी है।
बांचिये तो सही।चंद्रभूषण भैया के किस्से हम बकलमखुद में बांच रहे हैं। अपने सबसे ताजे किस्से में उन्होंने बजरिये एक इजराइली कहानी की नायिका
बताया-
जब किसी से प्यार करो तो उसे अपना सर्वस्व कभी मत सौंपो, क्योंकि उसके बाद तुम्हारे पास अपना कुछ नहीं रह जाता। कुछ नहीं, यानी ऐसा कुछ भी नहीं, जिसके सहारे आगे जिया जा सके।
आज उन्होंने समाजवादी नेता स्व.जनेश्वर मिश्र से सुना हुआ डा.राम मनोहर लोहिया से जुड़ा एक किस्सा सुनाया। डा.लोहिया की
समझाइस थी-
अगर तुम किसी को अपनी मर्जी से कुछ देना चाहते हो तो उसे सबसे अच्छी चीज दो। खराब चीज का देना तो अपना बोझ उतारना हुआ, देना नहीं हुआ।
संगीता पुरी जी ने 2008 में गणतंत्र दिवस के मौके पर राजपथ पर हिन्दी ब्लॉग जगत की झांकी निकाली थी !!
देखिये तो सही।यहां ग्रामीण चलाते हैं रेलवे स्टेशन देखिये क्या व्यवस्था है:
स्टेशन पर पूरी व्यवस्था ग्रामीणों के हाथों में है। पानी से लेकर बैठने, टिकट बांटते वक्त लोगों को एक कतार में रखने और खुल्ले पैसे तक का जुगाड़ भी यहां तैनात ग्रामीण ही करते हैं। स्टेशन की व्यवस्था देख रहे चैलासी गांव के 65 वर्षीय बजरंग जांगिड कहते हैं कि हम इस स्टेशन को पूरे देश का आदर्श रेलवे स्टेशन बना देंगे। बकौल जांगिड, रेलवे स्टेशन तो आसानी से बन गया। अब सबसे ज्यादा चुनौतीभरा काम है, स्टेशन को व्यवस्थित करना।
वर्ष २००९ में हिंदी साहित्य: एक नज़र में देखना चाहते हैं तो
इधर पहुंचिये।दो दिन पहले बालिका दिवस के मौके पर एक विज्ञापन में एक भूतपूर्व पाकिस्तानी सेना अधिकारी की फोटो गलती से छपी। पाकिस्तानी सेना अधिकारी ने इसे मासूम भूल कहा, प्रधानमंत्री कार्यालय और महिला एवं बाल विकास मंत्री ने इस चूक पर माफ़ी मांग ली। लेकिन रचना जी का एतराज एकदम अलग है। उनका सवाल है कि मां की महत्ता केवल
बेटा पैदा करने तक ही है? मुद्दे की इस बात पर कन्या भ्रूण हत्या रोकने के वैकल्पिक कारण बताते हुये घुघुती बासूतीजी ने लिखा:
कन्या भूण हत्या इस लिये भी रोकी जाए ताकि कल यदि पति , भाई, पिता ही नहीं यदि जवाँई राजा को भी गुर्दे की आवश्यकता पड़े तो कोई देने वाली तो हो! और तब तक रोकी जाए जब तक पुत्र पैदा करने के लिए कोख का कोई विकल्प न मिल जाए और गुर्दों का भी!
रचनाजी की बात के समर्थन में कुछ लोगों ने अपनी प्रतिक्रियायें दीं। लेकिन अनुराधा का मानना अलग है। वे कहती हैं:
मैं सहमत नहीं हूं। मेरा विचार है कि यह विज्ञापन पुरुषों को संबोधित है, इसलिए सभी पुरुष महानुभावों की तसवीरें एक बार को ठीक लगती हैं। दरअसल, (यह मेरा विचार है) यहां contrast पैदा करने की कोशिश की गई है कि हे पुरुषों, अगर तुम्हारी मांएं न जन्मी होतीं तो तुम भी यह सब अचीव करने के लिए इस दुनिया में अवतरित न हुए होते।
दूसरे, अगर लड़कियों का महत्व दूसरी तरह से कहा जाना होता तो विज्ञापन में सफल महिलाएं होतीं और कैप्शन होता कि अगर ये महिलाएं पैदा न हुई होतीं तो देश कैसे उनकी देन को नमन कर पाता...। हालांकि यह विज्ञापन के लिए एक पिटा हुआ आइडिया है।
इस तरह मुझे यह विज्ञापन थीम के लिहाज से गलत नहीं लगा, मंशा का तो सरकार ही जाने।
इस पोस्ट की ही बात
इस पोस्ट में भी की गयी है! देखियेगा।
शिवकुमार मिश्र के यहां आज गणतंत्र दिवस के दिन वैवाहिक संविधान लागू हुआ। चौदह साल निकाल दिये सकुशल। शिवकुमार मिश्र की शादी के बारें
सत्यकथा यहां उपलब्ध है। मिश्र दम्पति को हमारी मंगलकामनायें।
आज के ही दिन मानसी के मां-बाबा ने अपने वैवाहिक जीवन के पचास वर्ष पूरे किये। ग्यारह दिन पहले अपना जन्मदिन मनाने वाली मानसी ने अपने मां-बाबा के बारे में लिखते हुये
लिखा-
आज २६ जनवरी को उनकी शादी की सालगिरह है। बचपन से ही मां को कभी भी कोई काम इन्डिपेन्डेन्ट्ली करते नहीं देखा है, बाबा ने मां का एक राजकुमारी की तरह ख़याल रखा है हमेशा। आज भी जब सुबह मां को फ़ोन किया, तो पता चला बाबा इस अवसर पर मां की पसंद की मिठाई लेने गये थे दुकान।
मानसी के मां-बाबा को हमारी तरफ़ से बधाई और मंगलकामनायें।
आज
सत्यनारायण भटनागर जी और
अमिताभ त्रिपाठी को भी उनके जन्मदिन के मौके पर शुभकामनायें।
कविताजी आजकल भारत प्रवास पर हैं। पिछले दिन उनकी
मुलाकात हैदराबाद में चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी से हुई। चंद्रमौलेश्वर जी अस्वस्थ हैं और आंतों में अल्सर की समस्या से जूझ रहे हैं। चंद्रमौलेश्वरजी के स्वास्थ्य के लिये मैं शुभकामनायें देता हूं।
एक लाईना
- जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना गोपालदास "नीरज" : कि तेल बरबाद कहीं हो न जाये
- सारे जहाँ से अच्छा.... : ये यादिस्तान हमारा
- गणतंत्र दिवस जब आता है, :हम सबका मन हरसाता है।
- मकबरा कहो या कहो ताज महल तुम, : अंदर घुसने के टिकट के दाम एक्कै हैं
- क्रिकेट का गणतंत्र: चलाने के अद्धे-गुम्मे भी उत्ते ही जरूरी हैं जित्ते बैट-बल्ले।
- अंग्रेज़ चले गए लेकिन अंग्रेजी विरासत में छोड़ गए :उसी से काम चल रहा है, अपनी भाषा की जरूरत ही नहीं पड़ी।
- सिर्फ़ ब्लोग्गिंग ही सब कुछ नहीं है , अगली ब्लोगर्स बैठक की घोषणा : भी तो जरूरी है!
- साठ का गणतंत्र : बोले तो साठा में पाठा
- क्या कैटरीना 2012 में विवाह करेंगी : त का कौनौ मैरिज हाल बुक कराने को बोली हैं?
- ६० साल के संविधान में ९४ पैबंद:शतक से सिर्फ़ ६ पैबंद दूर
- मानव समाज का सबसे निकृष्ट संविधान :साठ साल चल गया ससुर
- बथुआ प्रेम की पराँठा परिणति :कुहरीले जाड़े की साजिश की आड़ में
- सड़क भी इनके बाप की....!!शहर भी इनके बाप का.....!! :हमरे बाप तो खाली वसीयत में चरैवेति-चरैवेति छोड गये हैं।
- परेड की एक झलक : में फ़ोटो की अपेक्षा न करें!
- कोचिंग पुराण: बच्चों के सर पर जबरिया एक पहाड़
मेरी पसंद
आपत्ति फ़ूल को है माला में गुथने में,
भारत मां तेरा वंदन कैसे होगा?
सम्मिलित स्वरों में हमें नहीं आता गाना,
बिखरे स्वर में ध्वज का वंदन कैसे होगा?
आया बसंत लेकिन हम पतझर के आदी,
युग बीता नहीं मिला पाये हम साज अभी,
हैं सहमी खड़ी बहारें नर्तन लुटा हुआ,
नूपुर में बंदी रुनझुन की आवाज अभी।
एकता किसे कहते हैं यह भी याद नहीं,
सागर का बंटवारा हो लहरों का मन है,
फ़ैली है एक जलन सी सागर के तल में,
ऐसा लगता है गोट-गोट में अनबन है।
नंदलाल पाठक...और अंत में
पिछली नौ जनवरी को चिट्ठाचर्चा के पांच साल पूरे हुये। चर्चा शुरू करने और पांच साल पूरे होने के किस्से कई बार सुना चुके हैं। चर्चा की
पहली पोस्ट लिखने के तीन दिन पहले की पोस्ट में (जब चर्चा जैसी चीज का कोई ख्याल नहीं था मन में) मैंने
लिखा था:
भारतीयब्लागमेला(वर्तमान) का उपयोग तो सूचनात्मक/प्रचारात्मक होता है.किसी चीज को पटरा करने के दो ही तरीके होते हैं:-
1.उसको चीज को टपका दो(जो कि संभव नहीं है यहां)
2.बेहतर विकल्प पेश करो ताकि उस चीज के कदरदान कम हो जायें.
चिट्ठाचर्चा उस समय के कुछ अंग्रेजी से ब्लागरों से मिले झटकों की प्रतिक्रिया स्वरूप शुरू हुआ था। इस बारे में मैंने लिखा था:
झटकों में ऊर्जा होती है.उसका सदुपयोग किया जाना चाहिये.बात बोलेगी हम नहीं.ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते.पता नहीं अगली मिर्ची कब लगाये कोई.
आज अंग्रेजी चिट्ठों का भारतीय ब्लॉग मेला बंद हो गया। लेकिन उससे मिले झटके से शुरु हुआ चिट्ठाचर्चा अभी भी चल रहा है।
पांच साल से अधिक समय तक चिट्ठाचर्चा नाम के ब्लाग से जुड़े रहने के चलते इससे जुड़े डोमेन से लगाव सहज/स्वाभाविक बात है लेकिन यह लगाव मेरे लिये मात्र कौतूहल की बात ही रही। दोस्तों ने इसके फ़ायदे गिनाये तब भी। जब छत्तीसगढ़ के साथियों ने इसे लिया तब भी मेरी रुचि इस बात तक ही रही कि देखें कैसी चर्चा करते हैं साथी लोग। कल
संजीत की पोस्ट पर इसका जिक्र देखकर अच्छा लगा कि कुछ लोग हैं जो ऐसा सोचते हैं।
चिट्ठाचर्चा से मेरा जुड़ाव किसी बड़े तीस मार खां टाइप उद्देश्य के चलते नहीं है। न ही मुझे हिन्दी सेवा जैसा कोई मासूम भ्रम है कि इसके चलते हम हिन्दी की स्थिति में कोई उचकाऊ सेवा कर रहे हैं। अपनी बोल-चाल की भाषा होने के चलते इसमें अभिव्यक्ति से मुझे सुख मिलता है। मजा आता है। आनन्द मिलता है। पैसा-कौड़ी की कोई चाह इससे नहीं है मुझे। न ही कोई अन्य व्यापारिक उद्देश्य। अपने आनन्द के लिये जब समय मिलेगा तब चर्चा करते रहेंगे। जब तक मिलेगा करते रहेंगे।
हमेशा की तरह आगे भी चिट्ठाचर्चा से जुड़े किसी भी मसले पर कोई भी निर्णय साथी चर्चाकारों की आमसहमति से ही होगा। लेकिन इस चिट्ठाचर्चा.कॉम नाम से जुड़ा कोई भी नैतिक/सामाजिक अधिकार का रोना हम नहीं रोयेंगे। कानूनी/व्यवसायिक अधिकार तो बनते ही नहीं। चिट्ठाचर्चा.कॉम जिसके नाम से लिया गया वह हमसे बाद की पीढ़ी का है। अपने से छोटों की उन्नति की किसी भी राह में रोड़ा बनकर हम अपनी नजर में छोटे नहीं होना चाहेंगे।
फ़िलहाल इतना ही। आपको एक बार फ़िर से गणतंत्र दिवस मुबारक।
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