आजकल थ्री ईडियट फ़िल्म के बड़े चर्चे हैं। तीन दिन पहले प्रवीण कुमार जी ने इस फ़िल्म के बहाने भारतीय और अमेरिकी बच्चों के आत्मविश्वास के स्तर का जायजा लिया:
भारत का बालक अमेरिका के बालक से दुगनी तेजी से गणित का सवाल हल कर ले पर आत्मविश्वास उसकी तुलना में एक चौथाई भी नहीं होता। किसकी गलती है हमारी, सिस्टम की या बालक की। या जैसा कि “पिंक फ्लायड” के “जस्ट एनादर ब्रिक इन द वॉल” द्वारा गायी स्थिति हमारी भी हो गयी है।
इस फ़िल्म के बारे में आशीष तिवारी का कहना है कि एक साधारण सी कहानी को कोई बहुत ख़ास तरीके के बिना भी फिल्माए बगैर बेच दिया गया था !
अभय तिवारी की नजर में तो ये एक बेईमान और नक़ली फ़िल्म है। कारण कि :
फ़िल्म उपदेश तो ये देती है हमारी शिक्षा पद्धति ऐसी हो कि छात्र ए़क्सेलेन्स को पर्स्यू करे सक्सेज़ को नहीं। सक्सेज़ से यहाँ माएने पैसा और गाड़ी है, जो चतुर नाम के चरित्र के ज़रिये बार-बार हैमर किया जाता है। लेकिन ख़ुद फ़िल्म एक्सेलेन्स को नहीं सक्सेज़ के (मुन्नाभाई) समीकरण को लागू करती है। ये उस तरह के नक़ली बाबाओं के चरित्र जैसे है जो प्रवचन तो वैराग्य और त्याग का देते हैं, लेकिन खुद लोभ, और लालच के वासनाई दलदल में लसे रहते हैं।
राजकुमार हीरानी और विधु विनोद चोपड़ा की क्लास लेते हुये अभय कहते हैं- निश्चित ही यह फ़िल्म उन्होने एक दर्शकवर्ग को खयाल में रखकर बनाई है। ये है बेईमानी नम्बर वन।
अपनी बात के समर्थन् में तर्क पेश करते हुये उनका कहना है--अगर कोई ये समझता है कि ये किसी की मानसिकता बदलने की कोई कोशिश है तो ग़लत समझता है, यह स्थापित मानसिकता को समर्पित फ़िल्म है, जिसे कॅनफ़ॉर्मिस्ट कहा जा सकता है।
फ़िल्म के बारे में अपना आक्रोश व्यक्त करते हुये अभय लिखते हैं:
मेरी अपनी राय में यह फ़िल्म न सिर्फ़ फूहड़ और बेईमान है बल्कि शर्मनाक भी है मेरे लिए। राजकुमार हीरानी और विनोद चोपड़ा तो धंधे वाले लोग है, और कामयाब धंधेवाले हैं; मेरे धंधे वाले लोग हैं, उनको मेरी बधाईयां हैं। अफ़सोस और शर्म तो अपनी पीढ़ी और नौजवान पीढ़ी के लोगों से है जो अभी तक इस तरह के नौटंकीछाप सिनेमा को एक्सेलेंस समझ लेने की बकलोली कर सकते हैं।
इस फ़िल्म के साथ-साथ आमिर खान की हिट फ़िल्म तारे जमीं को भी जमींदोज करते हुये अभय लिखते हैं:
इसी तरह का धोखा ‘तारे ज़मीन पर’ में भी दिया गया था। जो बच्चा सब से अलग, अनोखा है, उसे अपने अनोखेपन में ही स्वीकार किया जाना चाहिये, मगर उस फ़िल्म में अनोखे बच्चे को पेंटिग प्रतिस्पर्धा में जितवाया जाता है, उसे मुख्यधारा में कामयाबी दिलाई जाती है।
अभय की यह फ़िल्म समीक्षा पढ़ते हुये आप सहमत-असहमत हो सकते हैं लेकिन उनके सरोकारों को एकदम से नकार नहीं सकते।
हिन्दी साहित्य में मां पर जितना अधिक लिखा गया है पिता पर शायद उतना नहीं लिखा गया।
पिछले दिनों विनीत ने एक गाने के बहाने अपने पिता के शुक्ल पक्ष को याद किया। अपने तरह की एक अलग पोस्ट में उनके लिखने का अंदाज अद्भुत है। ISHQIYA का गाना- दिल तो बच्चा है जी और पापा का शुक्ल पक्ष में एक जवान और समर्थ होते युवा का अपने पिता के साथ जुड़ी यादों को नये सिरे से देखना कुछ इस तरह से देखना कि हर कृष्ण पक्ष के साथ कम से कम एक शुक्ल पक्ष नत्थी हो जाये- एक अलग तरह की कोशिश् है। प्यारा अंदाज।
एक गाना किसी के मन को इत्ता हिला दे ऐसा नही हुआ होगा शायद। पिता के प्रति लगाव और प्रेम का पेट्रोल मन में रहा होगा और गाने ने तो खाली स्पार्क का काम किया होगा। जिस पिता के कृष्ण पक्ष याद करते हुये विनीत लिखते हैं:
पता नहीं क्यों पापा को जब भी याद करता हूं तो मुझे अपने जीवन का कृष्ण पक्ष याद आता है,शुक्ल पक्ष याद ही नहीं आता। खुशी के मौके पर भी वो याद आते हैं तो मामला कृष्ण पक्ष का ही याद हो आता है। मसलन दीवाली के दिन मुझे मोटरसाइकिल पर बिठाकर घुमाते पापा याद नहीं आते,हाथ से पटाखे छीनते पापा याद आते हैं। सिनेमा देखते वक्त साथ में ले जाकर अंजता सिनेमा(बिहारशरीफ)में गोद में बिठाकर पापड़ खिलाते पापा याद नहीं आते,बल्कि साईकिल के मडगार्ड में 'खुदा गवाह' की बरसाती लगाने पर अंधाधुन पीटते पापा याद आते हैं। कडकड़ाती ठंड में मां से छुपाकर अंडे खिलाते और बाद में कुल्ला कराते पापा याद नहीं आते बल्कि स्वेटर न पहनने पर-लाओ इसके सारे स्वेटर,मफलर चूल्हे में झोंक देते है,कहते पापा याद आते हैं। बालों में तेल लगाना ही छोड़ दिया क्योंकि तेल की खुशबू से ज्यादा जल्दी में शीशी का ढक्कन खुला छोड़ने पर पापा के थप्पड़ याद हो आते हैं।
गाना सुनने के बाद विनीत अपनी सोच में सुधार करना चाहते हैं और लिखते हैं:
बहरहाल इस गाने को सुनकर अब पापा के संस्मरण का शुक्ल पक्ष याद करता हूं। इंटरमीडिएट की परीक्षा हमने दे दी थी। कोई खास काम नहीं था। नानीघर से भी हो आए थे। तड़के उठने की आदत अभी भी बनी हुई थी लेकिन उठकर करें क्या,समझ नहीं आता। तब हमने बहुत ही धीमी आवाज में सेटमैक्स पर आनेवाली पुरानी फिल्में देख शुरु की। पापा दूसरे कमरे में होते लेकिन उन्हें आभास होने लगा था कि मैं सुबह तीन-चार बजे टीवी देखता हूं। सीडी डिस्क या फिर वीडियो का इंतजाम नहीं था इसलिए पापा निश्चिंत थे कि कुछ गंदा नहीं देखता होगा। एक बार आकर देखा तो गाइड फिल्म आ रही थी। वो भी बैठक देखने लगे। फिर अगले दिन तीसरी कसम...और फिर बाप-बेटे के फिल्म देखने का सिलसिला चल निकला। मां बहुत खुश होती उन दिनों कि चलों ठीक जम रहा है। पापा अपने जमाने के प्रसंग सुनाने लगे। सुरैया,नरगिस,मधुबाला का नाम लेने के बाद मैं पापा का चेहरा गौर से देखता..एक अजीब सी कसक।
एक कड़क, अनुशासित पिता के कृष्ण पक्षीय संस्मरणों के साथ शुक्ल पक्ष वाले हिस्से जुड़ने के साथ ही पिता जिस रूप में याद आते हैं वह मजेदार,पुरसुकून और प्यारा अंदाज है। विनीत लिखते हैं:
फिलहाल तो मन कर रहा है- इस्किया की सीडी या डीवीडी खरीदूं,लिफाफे में बंद करुं और उस पर लिखकर- पापा तुस्सी ग्रेट हो उनके पते पर स्पीड पोस्ट कर दूं।..
यह पोस्ट जिसे गिरीन्द्र झा भावुकता का चोकोबार कहते हैं पढ़कर इसके पहले पिता पर लिखे गये तमाम संस्मरण याद आ गये। अविनाश वाचस्पतिजी ने तो एक ब्लॉग ही बनाया है पिताजी। कुछ दिन पहले प्रशान्त ने अपने पिताजी के रिटायरमेंट पर उनके बारे में लिखा था और उनका विदाई भाषण भी पोस्ट किया था। पिता दिवस के मौके पर युनुस ने पिता पर केन्द्रित कुछ कवितायें पोस्ट की थीं और चर्चा हुई थी पिताओं के दिन भी बहुरे! इसी क्रम में बोधिसत्व की कविता याद आई! बोधि की कविता और विनीत की पोस्ट पर रवीश कुमार की टिप्पणी नीचे है।
पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे वे हर मिलने वाले से कहते कि बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस। वे जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो किराने की दुकान पर। उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की पर कुछ भी काम नहीं आया। माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को ध्रुव तारे की तरह अटल करने के लिए पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...। बोधिसत्व | कल रात हरिद्वार के होटल अलकनंदा में अचानक नींद टूट गई। ख्वाब में बाबूजी थे। मुझे कई चीज़े खिला रहे थे। मैं नहीं खा रहा था। कहने लगे बहुत जिद्दी हो। ये तो खा लो। दही बड़ा। मुझे अच्छा लगता है। मैं खाने लगता हूं और वो रोने लगते हैं। इस सपने में ऐसे अचानक से जगा दिया कि रात जग कर रोने लगा। अगली सुबह ठंड पड़ी गंगा में उतर गया। पता नहीं क्यों। शायद अहसास करने के लिए कि बाबूजी यहीं कहीं होंगे। वर्ना बिना जूता उतारे गंगा घाट पर दो दिनों से चल ही रहा था। आज सुबह नंगे पांव चलने लगा। |
फ़ेसबुक आजकल अपनी बात रखने और प्रचार करने के काम आती है। इस बात को विस्तार से जब विनीत ने बताया तो प्रशान्त कहने लगे--वैसे इतनी भाड़ी-भरकम बहस का एक मुखड़ा ही देखकर यहां से हांफते हुये जा रहे हैं.. :)
नये साल के मौके पर कई नामचीन साहित्यकारों के इस साल से उम्मीदें और आशंकाओं के बयान देखना चाहते हैं तो इधर कबाड़खाना देखें।और अगर बीते साल का लेखा-जोखा देखना हो तो उधर अभिव्यक्ति पर जायें। लेकिन अगर आप कल दिनांक 10.01.2010 को दिल्ली में हो रही ब्लॉगर मीट में भाग लेना चाहते हैं तो सीएसडीएस-सराय पहुंचे दोपहर को दो बजे। ब्लॉगर मीट के साथ सभी लोग शब्दों के सफ़र वाले अजित वडनेरकर को जन्मदिन की बधाई भी दे सकते हैं। हां, कल अजित वडनेरकर का जन्मदिन है। और अगर बीते हुये जन्मदिन के मजेदार किस्से सुनने हों तो रश्मि रवीजा के ब्लॉग पर जाइये। उन्होंने जन्मदिन के बारे में लिखते हुये लिखा है--वे क्षण जो जीने का सबब बन जाते हैं (२)ओह यह तो दूसरा भाग है तो पहला भाग भी होगा न देखिये तो सही-वे क्षण, जो जीने का सबब बन जाते हैं। वे कहती हैं:
ख़ुशी हुई देख...बरसों पहले शुरू हुआ यह सरप्राइज़ का सिलसिला अबतक जारी है...बचपन में जन्मदिन के दिन हम सुबह सुबह नए कपड़े पहन, मंदिर जाते थे और हमारी पसंद का खाना बनता था. शायद नौ-दस बरस की थी, तब की बात है..जन्मदिन वाले दिन,शाम को बाहर खेल रही थी..नौकर ने आकर बोला,ममी ने सारे बच्चों के साथ बुलाया है...अबूझ से सब अन्दर गए तो नमकीन और मिठाइयां मिलीं. लेकिन हमारे साथ खेलने वाली 'नईमा' घर के अन्दर आने को तैयार नहीं थी...जबरदस्ती अन्दर लेकर आई पर वह कुछ खाने को तैयार नहीं...बड़ी मुश्किल से मनाया था,उसे खाने को. पर उस कच्ची उम्र में ही मुझे आभास हो गया था कि 'नईमा' का हर घर में यूँ खुले दिल से स्वागत नहीं होता.
ब्लॉग पोस्टों के बहाने कुछ वाक्य प्रयोग
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मेरी पसन्द ध्यान रखो घर के बूढ़ों का, उनसे आँख चुराना क्या |
और अंत में: आज सुबह चर्चा न कर सके।अब कर पा रहे हैं। कैलेंडर पलटने के पहले चर्चा पोस्ट करने का सुकून है। अब हो जाये तब है।
बकिया सब मजे में है। पढ़िये और मजे लीजिये। मन हो तो टिपियाइये भी।
मस्त रहिये। कल तो इत्तवार है ही।
बढिया चर्चा।
जवाब देंहटाएंitana kuch likh dala. isase achcha to ek nai film ki patkatha likh dalte. chehara samne kar aam ka maza lijiye guthali ginane vale bahut hain :0
जवाब देंहटाएंसार्थक शब्दों के साथ बहुत ही गंभीर चर्चा, अभिनंदन।
जवाब देंहटाएंक्या बात है अनूपजी! बहुत उम्दा चिट्ठाचर्चा। सदा की भांति।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा रही। विनीत का जो लेख छूट गया था वह भी पढ़ने को मिला। आभार।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
पापा पर लिखते वक्त जितना भावुक नहीं हुआ,उससे कहीं ज्यादा चिठ्ठाचर्चा में अफनी पोस्ट की चर्चा पढ़कर भावुक हो गया।..
जवाब देंहटाएंमस्त चर्चा रही । मुहावरों का वाक्य प्रयोग बढिया रहा ।
जवाब देंहटाएंबढिया चर्चा!!
जवाब देंहटाएंचर्चा अच्छी रही। कार्टून तो गजब का है स्पेशली वह कोहरे वाला।
जवाब देंहटाएंमस्त एकदम मस्त।
जब मेरे कुछ समसामयिक विषयों पर लिखे पोस्ट्स 'कौन जगायेगा अलख'....'खामोश आँखों की अनसुनी पुकार'... आदि, चर्चा में शामिल नहीं हुई थी तो जरूर निराशा हुई थी...पर आज जन्मदिन वाली अपनी पुरानी पोस्ट्स की चर्चा देख कुछ एम्बैरेसिंग ही लग रहा है. :)
जवाब देंहटाएंहाँ लघु उपन्यास का जिक्र करने का शुक्रिया...ब्लॉग में पोस्ट करने का ईनाम बस यही है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे पढ़ें.
हमेशा अच्छे लिंक्स की तलाश में यहाँ आती हूँ जो पूरी हुई...शुक्रिया
Vaah ji vaah
जवाब देंहटाएंbahut badhiya charcha!
en film banaakar shiksha vyastha par prashn-chinh lagaanaa kitna aasaan hai . . .uska jwalant udahran hai film 3-idiots.
abhay ji ke likhe se apne ko sahmat pataa hun.
charcha me aajkal uthaye jaane vaale vishay bahut acche lag rahen hain. . . . . .?
jai ho......!
(by mobile)
इतने सारे लिंक हैं, अत: पता नहीं, गदहा-कुकुर विवाद छाप कोई लिंक है या नहीं।
जवाब देंहटाएंआने वाले उत्साही लोगों को देखते वह विवाद अप्रिय चीज होती है।
बढ़िया चर्चा ...अच्छे् लिनक्स ...आभार .....!!
जवाब देंहटाएंअच्छे लिंक्स
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अच्छी लगी और काफी उपयोगी रही यह चर्चा।
आभार!
गिरीजेश जी ने भी पिता को लेकर एक अद्भुत कविता लिखी है...
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