इस कोहरे के मौसम में बसंती हवा की खनक भी साथियों के लेखन में दिखने लगी है। अपूर्व बसंत का गीत सुनाते हैं:
सिर्फ़ बसंत मे जीना
बसंत को जीना
ही तो नही है जिंदगी
वरन्
क्रूर मौसमों के शीत-ताप
सह कर भी
बचाये रखना
थोड़ी सी सुगंध, थोड़ी हरीतिमा
थोड़ी सी आस्था
और
उतनी ही शिद्दत से
बसंत का इंतजार करना
भी तो जिंदगी है
हाँ यही तो गाती है
ठिगनी बंजारन चिड़िया
शायद!
नजीब अकबराबादी बसंत के बारे में लिखते हैं:
आलम में जब बहार की लगन्त हो
दिल को नहीं लगन ही मजे की लगन्त हो
महबूब दिलबरों से निगह की लड़न्त हो
इशरत हो सुख हो ऐश हो और जी निश्चिंत हो
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो
अव्वल तो जाफरां से मकां जर्द जर्द हो
सहरा ओ बागो अहले जहां जर्द जर्द हो
जोड़े बसंतियों से निहां जर्द जर्द हो
इकदम तो सब जमीनो जमां जर्द जर्द हो
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
रवीश कुमार हरिद्वार के संत समागम का बेईमान गुणा भागम निहारते हैं:
सारे बाबाओं के होर्डिंग हैं लेकिन वहीं गंगा प्रदूषित हो रही है। जिन धार्मिक मंचों से गंगा के लिए आवाज उठती है वो इतने राजनीतिक हो गए हैं कि सबकी माता होने के बाद भी गंगा को लेकर सामूहिकता नहीं बन पाती। गंगा को लेकर कोई चिंतन नहीं है। गंगासागर की तरफ जाने वाले मार्ग में गंगा की हालत देखी नहीं जाती। हरिद्वार के ठीक ऊपर पहाड़ों को देखिये। वृक्ष कट गए हैं। वृक्ष की जगह होर्डिंग उग आए हैं। मुख्यमंत्री के चेहरे से लेकर मोहन पूरी वाले का बोर्ड दूर से दिख जाएगा। कहीं से नहीं लगता है कि हरिद्वार आध्यात्मिक जगह है।
किसी भी काम में सफ़लता अधीननस्थ और बॉस के आपसे संबंधी पर काफ़ी हद तक निर्भर करती है। आपसी समझ और तालमेल के महत्वपूर्ण मानते हुये कीर्ति राणा लिखते हैं:
काम बड़ा हो या छोटा सिर्फ बोलते रहने से ही हो जाए तो सारे लोग घरों में रट्टू तोते ही न पाल लें! कोई भी काम को लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए सामूहिक सहयोग जरूरी होता है और यह टीम वर्क से ही सम्भव होता है।
मेरी पसंद
बच्चों को फूल बहुत पसंद हैं
वे उन्हें छू लेना चाहते हैं
वे उनकी ख़ुशबू के आसपास तैरना चाहते हैं
उन्हें तितलियां भी बहुत पसंद हैं
बच्चों को उनके नाम-वाम में
कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं होती
वे तो चुपके से कुछ फूल तोड़ लेना चाहते हैं
और उन्हें अपने जादुई पिटारे में
समेटे गए और भी कई ताम-झाम के साथ
सुरक्षित रख लेना चाहते हैं
वे फूलों को सहेजना चाहते हैं
वे चाहते हैं
कि जब भी खोले अपना जादुई पिटारा
वही रंग-बिरंगा नाज़ुक अहसास
उन्हें अपनी उंगलियों के पोरों के
आसपास महसूस हो
वे इत्ती जोर से साँस खींचें
कि वही बेलौस ख़ुशबू
उनके रोम-रोम में समा जाए
रवि कुमार
ईमानदारी से... पूरी चर्चा नहीं पढ़ी. बस आपकी पसंद पढ़ी. अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंइस चर्चा पर एक टिप्पणी तो बनती ही है,
लेकिन इसका टाइमस्टैम्प मुझे निशाचर अपराधी की लाइन में खड़ा कर देगा !
क्या करें, भला आदमी दिखते रहने की मज़बूरी जो है !
पहली ही पंक्ति बता गई कि चर्चा में अनूपशुक्ल हैं।
जवाब देंहटाएंअच्छी चर्चा ,अलग अंदाज..
जवाब देंहटाएंद्विवेदी जी-आप भी ना :)-
जवाब देंहटाएंकोहरे की मोटी चादर लपेटे ठण्डी सड़क पर रेंगती गाड़ी से रात को डेढ़ बजे लखनऊ से इलाहाबाद पहुँचा हूँ। ठंड से ऐंठी अंगुलियों ने काम करने से मना कर दिया है। फिर भी ऑफिस खुला है तो आना ही पड़ा। काम धाम है नहीं इसलिए यहाँ हाजिरी लगा जाता हूँ।
जवाब देंहटाएंआपकी चर्चा इश्टाइल के क्या कहने?
jandar,shandar,damdar.narayan narayan
जवाब देंहटाएंकोहरे का झल्लाना....वाह. कमाल के शब्द चित्र गढते हैं आप. बढिया चर्चा.
जवाब देंहटाएंकोहरा रोज का रोज और कोहरीला होता जा रहा है !
जवाब देंहटाएंपर कोहरे का चर्चा पर असर नहीं देख रहा है ?
बाकी आज आपकी पसंद ने सारी चर्चा का स्नेह चुरा लिया है !
कोहरा झल्ला गया
जवाब देंहटाएंऔर
सब जगह छा गया...
वाकई खू़बसूरत कविता पंक्तियां हैं....
आपके ब्लाग पर अपना ब्लाग कैसे जोड़े-http://gazalkbahane.blogspot.com/
जवाब देंहटाएं