मंगलवार, जुलाई 07, 2009

गुरु का एहसान न जाइ कहा

नमस्कार ! चिट्ठा चर्चा में आपका हार्दिक स्वागत है ।


आज गुरु पूर्णिमा है । सभी गुरुओं और विद्वजनों को प्रणाम करते हुए आज गुरु पूर्णिमा के अवसर पर हम प्रारम्भ करते हैं तरही मुशायरा ! कहीं आप मुशायरे में हमारे घर आने के लिए तैयार तो नहीं होने लगे । अगर ऐसा है तो आपसे निवेदन है कि पहले लिंक पकड़कर पूरी बात समझ लें तब आगे की कार्यवाही करें !


आप क्या सोचे हम गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर कुछ नहीं कर सकते ? आखिर हमारे भी गुरु हैं हम बिना गुरु के थोड़े ही हैं । और रही बात तरही मुशायरे की तो हमारे गुरु अकेले ही काफ़ी हैं । मुशायरे में किसी को आने की जरूरत ही नहीं । विश्वास न हो तो गुरु जी की तरही कविताएं पढ़कर आइये ये रहे लिकं :


गुरु पूर्णिमा के अवसर पर सभी चेले सक्रिय हो उठे हैं । गुरुओं की चाँदी है । बड़ा महत्व दिया जा रहा है । डॉ। आशुतोष शुक्ल गुरु पूर्णिमा के मायने.. बताते हुए कहते हैं :


आज गुरु पूर्णिमा है भारत के प्राचीन इतिहास से आज तक गुरु को नमन करने का एक खास दिन। आज जब सारे रिश्ते समाप्त से होते जा रहे हैं तो इस रिश्ते में भी कितनी
गर्माहट बनी रहेगी यह कह पाना बहुत ही मुश्किल है ? ऐसा नहीं है की आज के समय में
अच्छी परम्परा निभाने वाले शिक्षक नहीं रहे पर समय की मार ने गुरु शिष्य के बीच में
भी ऐसी दीवार खड़ी कर दी है जो चाह कर भी नहीं हटाई जा सकती है। विश्वास का संकट
होता जा रहा है ? एक समय था जब गुरुजन अभावों को झेलते हुए अपना जीवन काट दिया करते थे पर आज उनको भी सम्मानजनक आर्थिक स्थिति मिल चुकी है । शिष्यों में भी अब वह बात नहीं रही पहले जो समर्पण हुआ करता था वह आज नहीं बचा हुआ है।

इस पर टिप्पणी करते हुए श्यामल सुमन कहते हैं :

नए जमाने के एकलव्य कहलाए जाने के दावेदारों में से एक रविकांत पाण्डेय इस पावन अवसर पर अपने ब्लॉग पर लिखते हैं :

गुरूपूर्णिमा के बारे में कुछ भी लिखना सिर्फ़ अपनी अज्ञानता प्रकट करना होगा क्योंकि लिखने बैठे तो फ़िर इतनी बातें हैं जो कभी समाप्त न हो। एक अनगढ़ पत्थर को तराश कर सुंदर मूर्त्ति में बदले की कला गुरूजन में निहित होती है। ऐसे में सिवाय कृतज्ञता के भाव के और क्या किया जा सकता है? वैसे तो मैं प्रत्यक्षतः श्री पंकज सुबीर जी से नहीं मिला हूं पर जबसे उनके संपर्क में आया हूं, तुलसी के इस कथन में मेरा भरोसा बढ़ गया है- जब द्रवै दीन-दयालु राघव, साधु संगति पाइए।

अमिताभ श्रीवास्तव लिखते हैं :

------------------------------------

" जिनके चरणों मे झुका ये शीश है

पिता ही मेरे गुरु, मेरे ईश हैं,

है ये सौभाग्य मेरा कि मेरे

कदम-कदम उनके आशीष हैं॥ "

-----------------------------------


अब और अधिक देर गुरु के पास रुके तो कहीं पढ़ाने न लगें ! इसलिए चुपके से निकल लेते हैं और चलते हैं । रवि रतलामी के ब्लॉग पर जो नेपाल से भ्रष्टाचार मिटाने की अचूक दवा लेकर आये थे पर भारत आते आते यह फ़ेल होती नज़र आने लगी । लिखते हैं :


इससे जोरदार, इससे शानदार और इससे नया-नायाब विचार और क्या हो सकता है भला? न रहेगा बांस न बनेगी बांसुरी और न फिर कोई इसे बजा पाएगा! भ्रष्टाचार रोकने के लिए बिना जेब की पतलून पहन कर काम पर आने का आदेश दिया गया है। बात भले ही नेपाल की हो रही हो, पर किसी दिन भारत में, और फिर सारे संसार में ये बात लागू होने में देर नहीं लगेगी। ये पक्का समझें।

आगे वे इस नियम की धज्जियाँ भी उड़ा देते हैं :


चलिए, पुरुष कर्मचारी पर तो यह नियम लागू कर सकते हैं कि वो बिना जेब की कमीज-पतलून पहन कर आए। पर, यदि कर्मचारी महिला हुई तो? बहुत सी महिलाएँ अपना माल-मत्ता रुपया-पैसा अपनी चोली में उंड़स कर रखती हैं। तो क्या उन पर बिना चोली के वस्त्र
पहन कर आने का नियम बनाया जाएगा? चलिए, ये विचार तो एक्स्ट्रीम हो सकता है, मगर उन पर बिना हैंड-बैग लिए काम पर आने का नियम तो बनाया ही जा सकता है। अब भले ही हो पाउडर लिप्स्टिक्स बनाने वाली कंपनियों - पॉड्स, निविया, रेवलॉन वालों की ऐसी
की तैसी। वैसे, इस नियम को बनाने वालों को बिना जिप की पतलून पहनने का नियम बनाने का विचार क्यों नहीं आया यह आश्चर्य का विषय है। समाज में भ्रष्टाचार के
अलावा और भी तो अपराध होते हैं।

भ्रष्टाचार से निकलिए और चलते हैं बजट की ओर । बजट से राजीव को शिकायत है और पिताजी से भी । कहते हैं :


जब से होश संभाला है, बजट को बहुत गौर से देखता हूं। बचपन में पिता जी बजट देख कर प्लान बनाते कि फलां चीज सस्ती हो गई है, अब ख़रीदा जा सकता है। मां को हिदायत देते, तेल मंहगी हो गई है, थोड़ा संभल कर खर्च करो। शाम में यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसरों का घर पर मजमा लगता। पिताजी उनके साथ राजकोषीय घाटा, आयात-निर्यात, “पैसा कहां से आया, कहां गया” जैसे गुढ़ विषयों पर बहस करते। मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ता। थोड़ा बड़ा हुआ, आर्थिक विषयों पर समझ बढ़ी, तो मैं भी उस बहस में हिस्सा लेने लगा। लेकिन बजट घोषणाओं का मेरे व्यक्तिगत स्वास्थय पर कोई असर नहीं हुआ। ये भी सोचता था, कि पिताजी बजट को लेकर इतने उत्साहित क्यूं रहते हैं।

बज़ट की एक व्याख्या देखिए :


एक धोबी था वो बहुत सारे कपड़े लेकर बहुत दूर धोबी घाट पर अपने गधे को लेकर जाया करता था और जब कभी गधा चले में आना-कानी करता था तो धोबी गधे के सामने एक लाठी से बाँध कर एक गाजर लटका दिया करता था गधे को ये लगता था की बस दो कदम चल कर उसे वो गाजर मिल जायेगी और वो उस गाजर को पाने के लिए कदम बढ़ाना शुरू कर दिया करता था लेकिन गधा कितना भी चले वो गाजर उस से दूर ही रहती थी और कल वित मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी आम जानता के सामने एक गाजर लटका दी मै मुर्ख अज्ञानी यही सोच रहा था की शायद इस बजट से गधे ( जनता ) और गाजर ( विकास ) के बिच का अंतर खत्म होगा ।

अब यह भी देख लीजिए सुलझे लेखक की उलझी पोस्ट भी आज बज़ट पर ही है शायद :


अँय ? अखिल भारतीय फ़िनेन्स मेनेस्टर प्रोणोब दा ने दू मीनिट में शोबका चिरीआ उरा
दीया अब तो मरे भूखन भाय, तेखनोई गोलमगोल कोरता था, गेहूँ सेरे एक रुपिया तीन
झुठलाय दिया,

अब बात एक और सुलझे लेखक शास्त्री जी की । शास्त्री जी किताब लिखने की तैयारी कर रहे हैं । और ई-स्वामी भला क्या कर रहे हैं ? बड़ा लम्बा चौड़ा भाषण लिखे हैं जी । जिसकी न तो लम्बाई और न ही चौड़ाई इस तुच्छ चर्चा में समा सकती है । फ़िर भी एक झलक दिखाए बिना रहा नहीं जा रहा हमसे । देखिए :

“जिस देश के बेरोजगार लौंडों को लुगाई नहीं मिल रही, उस देश में रईस महिलाओं द्वारा अपने कुत्तों के लिये पार्टनर ढूंढने के विज्ञापन छपवाए जा रहे हैं – अजी उसे गली में खुल्ला छोड दीजिए!”
एक ही डायलाग में कितने ढेर? बाहर से देखने पर इस परिस्थिती और प्रतिक्रिया के कुछ महीन मायने बनते हैं:
१. बिना खर्च एक झटके में सारे वेरोजगार लौंडों का कुत्ताकरण हो गया.
२. मैडम, अब समझ में आया देश के सारे बेरोजगार लौंडे सडकों पर क्यों भटक रहे हैं?
३। मैडम, अगर आपको अपने कुत्ते की यौन आवश्यकताओं का खयाल है तो मानवीयता के नाते मानवों का नंबर इससे पहले आता है – आपस्वयं इस बारे में कुछमदद नहीं कर रही हैं, अलबत्ता उन्हें जला रही हैं? हाऊ डिस्पिकेबली डिस्टेस्टफ़ुल!

वैसे कोई जरूरी तो नहीं कि सब लिखा हुआ सुस्वाद ही हो । अत: सम्प्रति गे वार्ता: श्रुयन्ताम । हमें पता था आप यही कहेंगे कि, " हमें तो पता ही नहीं 'गे' होता क्या है । बड़े चालू बनते हो जी आप । पर अनिल यादव भी कम चालू नहीं जिन्होंने बताया है कि "गे" को हिंदी में क्या कहते हैं । इस लेख पर टिपियाते हुए महेन कहते हैं :

भई अपन लोग तो "नवाब" और "नवाबी शौक" कहकर काम चला लेते हैं।

आदरणीय रचना जी ने भी 'गे' की चर्चा अपनी पोस्ट में की है । पर जरा घुमा फ़िराकर ।

बदलती परिभाषाये

कल: अविवाहित महिला / सिंगल महिला : असामाजिक , कुलटा, चरित्रहीन , दूसरी औरत । आज: अविवाहित महिला / सिंगल महिला गे ।

इस पर डा.राष्ट्रप्रेमी पूछते हैं :

गे क्या ?

लो कल्लो बात । नाम राष्ट्रप्रेमी और पूछते हैं "गे क्या ?" इन्हें कौन राष्ट्रप्रेमी मान लेगा ? यह सब नारी ब्लॉग पर जाकर देख सकते हैं । लो नारी से मुझे एक और पोस्ट याद आ गई । अनुज खरे लिखते हैं नारी धर्म उर्फ संदेह परमोधर्म: । आगे इन्होंने बताया है :

देश की प्रत्येक नारी को अपने पति पर संदेह करना ही चाहिए। उसके हर ज्ञात-अज्ञात कारण पर संदेह रखना ही चाहिए। संदेह करने के हर कारण पर संदेह करना चाहिए। जहां संदेह करने का कारण न भी हो वहां भी संदेह करना चाहिए। घरेलू कामों में रत रहकर भी निरंतर संदेह की माला फेरते रहना चाहिए। संदेह करना नारी का आभूषण है। बिंदी है। कानों के टाप्स हैं। हाथों का कंगन हैं। न जाने क्या-क्या है। ज्ञानी कह भी गए हैं कि नारी की संपूर्णता उसके संदेह करने के गुण पर ही निर्भर है। जिस भी नारी में संदेह करने का गुण नहीं होता, उसे तो वास्तविक अर्थो में नारी कहलाने का हक ही नहीं है। संदेह करना नारी का मौलिक अधिकार है। बुनियादी हक है। पारिवारिक जीवन में सारे इंकलाब इसी गुण के कारण आते हैं ।

जो लोग समलैंगिकता और सभ्यता-संस्कृति के दोराहे पर खड़े हैं उनके लिए खुशखबरी है । अंशुमाली रस्तोगी ने बताया है कि समलैंगिकता के दायरे में नहीं आते सभ्यता-संस्कृति के बंधन !

आज सागर नाहर का जन्मदिन है । मिठाई मँगवाकर बिल उनके पास भिजवा देना ! या सुरेश शर्मा जी के पास भी भिजवा सकते हैं । उनकी शादी की सालगिरह जो है जी !

चलते-चलते : आज पढ़िये सवैया :

अभिवादन पाठक लोगन को कछु देर भई हम माँगत माफ़ी ।

अति जायज आपका क्रोध है जी कछु और करो इतना नहिं काफ़ी ॥

गुरु पूनम आज गुरू हैं कहाँ ? अब आसिरवाद जरूरत भारी ।

हँसने पर रोक लगावत हैं कछु रोनी सी सूरत के नर नारी ॥

हम कोशिश ही क्यों करें विरथा गुरु का एहसान न जाइ कहा ।

पर धीरू की बात न पूछिए जी इनका इतिहास न ठीक रहा ॥

अति सोच विचार बसेरा चुना बस यूँ ही न ज्ञान कहावत हैं ।

जब घेरत है अवसाद इन्हें तब गंगा की ओर ही धावत हैं ॥

अब लाल समीर इमोशन नीर ज्यों मौका मिले टपकावत हैं ।

रब जाने ये भावुक हैं इतने कि हमें बस यूँ ही बनावत हैं ॥

Post Comment

Post Comment

21 टिप्‍पणियां:

  1. पूरे फुर्सत से हुई है चिट्ठा चर्चा .. ढेर सारे महत्‍वपूर्ण लिंक मिल गए .. धन्‍यवाद ।

    जवाब देंहटाएं

  2. जित देखो तित गुरु कि गुरुअन की ठेलमठाल
    चलैं बगटुट इनके फेर पड़े चेला भये गुरुघँटाल
    इन नयनसुख की आँख गुरुपूनो की चाँद चौंधियाये है
    गुरुघँटाल अमावस्या की तिथि अपुन फिर हेर लाये हैं

    आँखें चौंधिआती चर्चा !

    जवाब देंहटाएं
  3. सभी गुरुजनों को प्रणाम। चर्चा बहुत अच्छी रही।

    जवाब देंहटाएं
  4. अच्छी चर्चा..

    सागर जी को घर जा कर शुभकामनाऐं दे आये.. एक बार पुःन शुभकामनाऐं..

    जवाब देंहटाएं
  5. रब जाने ये भावुक हैं इतने कि हमें बस यूँ ही बनावत हैं

    -बोल्ड वाला हिस्सा ही सही मान कर चलो. फूल को खुशबू फैलाने से कब कौन रोक सका है भई...बहुत सही चर्चा. बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  6. वाह! मान गए ‘गुरू’:)
    "प्रणब मुखर्जी ने भी आम जानता के सामने एक गाजर लटका दी"
    भैया, अब तो गाजर का र कब का गुल हो गया:)
    >" हमें तो पता ही नहीं 'गे' होता क्या है "
    -- केवल मात्राओं का अंतर है ए और ऊ का:)

    जवाब देंहटाएं
  7. हमारे शहर के सागर नाहर जी को जन्म दिन की बधाई...देर से ही सही॥

    जवाब देंहटाएं
  8. आवत जो देर भई सो भई, कछु बात नहीं क्यों मांगत माफी
    सब बैठि के बाट निहारत हैं, तुम आइ गए एतना ही है काफी
    गुरु-आसिरबाद का कौन ज़रुरत, आज पड़ी शिष्यन को भला
    बस वाट लगा गुरु की तुम हँसो, हम देखत हैं तुम्हरी ई कला
    गुरु के एहसान की बात किये, गुरुवन की बस बैंड बजावत हैं
    मन ही मन बैठि विवेक हँसे, सब आइ इहाँ टिपियावत हैं
    तुम रोज हँसों हा-हा, ही-ही, किसकी कूबत है जो रोक सके
    नर हो या हो नारि हटे रस्ते से, है कौन यहाँ तो टोक सके

    स्माईली, स्माईली, स्माईली, स्माईली........:-)

    चर्चा बहुत सुन्दर है. लेकिन ई तरही कविता का लिंक काहे दिए? ऊ सब तो पुराणी पोस्ट है.

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत ही सामयिक चर्चा. इसके लिये साधुवाद!!

    विद्यालयीन जीवन में हमारी तो प्रार्थना ही गुरुर्ब्रह्मा से चालू होती थी.

    सस्नेह -- शास्त्री

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
    http://www.Sarathi.info

    जवाब देंहटाएं
  10. तुम रोज हँसों हा-हा, ही-ही, किसकी कूबत है जो रोक सके
    नर हो या हो नारि हटे रस्ते से, है कौन यहाँ तो टोक सके

    हंसी हंसी मे कह गये सत्यवचन शिव मिसिर

    जवाब देंहटाएं
  11. हम तो समझे थे कि सत्यवचन सिर्फ़ और सिर्फ़ रोकर ही कहे जा सकते हैं :)

    जवाब देंहटाएं
  12. विवेकजी
    चर्चा करना अब कोई आपसे सिखे।
    सुन्दर!!!!!!!

    आभार/मगलभावानाओ सहित
    हे प्रभु यह तेरापन्थ
    मुम्बई टाईगर

    जवाब देंहटाएं
  13. दिनाक ९-७-०९ की चर्चा के इंतज़ार में
    वीनस केसरी

    जवाब देंहटाएं
  14. एक बेहतरीन चर्चा विवेक भाई...

    जवाब देंहटाएं
  15. कोई चिट्ठा-चर्चा के फीड के लिये कुछ नहीं कर रहा क्या?

    रवि जी?

    शुक्ल जी??

    जवाब देंहटाएं

चिट्ठा चर्चा हिन्दी चिट्ठामंडल का अपना मंच है। कृपया अपनी प्रतिक्रिया देते समय इसका मान रखें। असभ्य भाषा व व्यक्तिगत आक्षेप करने वाली टिप्पणियाँ हटा दी जायेंगी।

नोट- चर्चा में अक्सर स्पैम टिप्पणियों की अधिकता से मोडरेशन लगाया जा सकता है और टिपण्णी प्रकशित होने में विलम्ब भी हो सकता है।

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.

Google Analytics Alternative