रविवार, जनवरी 03, 2010

ज्ञानविमुख हिन्दी का चिट्ठाकार…

आज सुबह सवेरे जबर्दस्त मानसिक हलचल मची और विचार आया -

“और मुझे लग रहा है कि चिठ्ठाचर्चा कुछ समय से जो घर्षण उत्पन्न कर रहा है, उसे देखते हुये उसे तात्कालिक रूप से गाड़ दिया जाना चाहिये। साथ साथ; भांति भांति की चिठ्ठाचर्चायें न हिन्दी की सेवा कर रही हैं न हिन्दी ब्लॉगरी की।”

और, आज का चिट्ठाचर्चा समझिए कि मुर्दाघर में जाने वाला ही था कि जगदीश्वर चतुर्वेदी के पोस्ट पर नजर पड़ी. पोस्ट का शीर्षक है - ज्ञानविमुख हिन्दी का बुद्धिजीवी.

वैसे यह पोस्ट हिन्दी चिट्ठाकारों के लिए भी सटीक बैठता है. इस पोस्ट में जहाँ जहाँ हिन्दी बुद्धिजीवी लिखा है, वहाँ वहाँ हिन्दी चिट्ठाकार रख कर देख लें. एक बढ़िया, धांसू पैरोडी बनेगी. चलिए, आपके लिए यह काम हमीं कर देते हैं. तो, पेश है (जगदीश्वर चतुर्वेदी से क्षमायाचना सहित,) पैरोडी -

 

ज्ञानविमुख हिन्दी का चिट्ठाकार – (संक्षिप्त, संशोधित अंश)

किसी विद्वान ने लिखा है कि आधुनिक युग में ब्लॉग यश और अमरत्व प्राप्त करने का जरिया हैं। ऐसा उन्होंने ब्लॉग की ताक़त को देखते हुए लिखा था। लेकिन आधुनिक पल्लवग्राही चिट्ठाकार जो ब्लॉग देखे बिना ही ब्लॉग की निंदा आलोचना या प्रशंसा लिख- बोल देते हैं के लिए नियमत लिखना , ज्यादा लिखना , गंभीर लिखना -एक दोष है। गंभीर अकादमिक ब्लॉग लेखन के प्रति इधर बड़े पैमाने पर अरुचि बढ़ी है। सभा, संगोष्ठी, पुरस्कारों , आपसी थूथू-मैंमैं की राजनीति में फंसा हिन्दी का ब्लॉगर बेचारा लिखने के लिए समय कहां से निकाले. ये कोई बंगाल तो है नहीं कि चिट्ठाकार की कोई विशेष ठसक हो।

कई कारणों से हीनताग्रंथि से युक्त चिट्ठाकारों की एक बड़ी संख्या हिन्दी में पनपी है जो हिन्दी का खा-पीकर किसी भी तरह के वर्चस्व के आगे राह के रोड़े बन जाते हैं। यह सिर्फ हिन्दी में हो सकता है कि हिन्दी के चिट्ठाकार होकर भाव-भंगिमा में , विचार में हिन्दी से घृणा करें। जितने उत्साह से अंग्रेजीवालों की केवल हाव-भाव में नकल की जाती है, उनके साथ बैठने-उठने की तत्परता दिखाई जाती है , उतनी तत्परता किसी अन्य भारतीय भाषा के विद्वानों के लिए नहीं दिखाई जाती। यह सामाजिक उत्थान का ही नमूना समझिए।

चिट्ठाकार के लिए साहस बहुत बड़ी चीज है। साहस का केवल यही अर्थ नहीं है कि चीजों को भिन्न रूप में बताया जाए बल्कि साहस का अर्थ है पूरी तरह से समझौताहीन। चिट्ठाकार के लिए एटीट्यूट महत्वपूर्ण है। जो सोचता है उसे लागू करने का साहस हो।

दुर्भाग्य है कि हिन्दी के चिट्ठाकारों में अपने वर्ग की कुण्ठाएँ, चालाकियाँ, दोरंगापन और थोथी नैतिकता का दिखावा बहुत है। बातें चाहे क्रांति की करता हो , व्यक्तित्व दमन और कुण्ठा की साकार प्रतिमूर्ति होकर पहला पत्थर मारने का हक़ नहीं छोड़ता। प्रशंसा करने , उत्साहित करने का भाव तो वह कब का छोड़ चुका है। है तो केवल शाश्वत घृणा का भाव। पर मुक्तिबोध जिसे घृणा की हम्माली कहते हैं उसकी टेक तक न बची है।

और, चिट्ठाकारों में यह आदत होती है कि वे भक्त तैयार करते हैं। सारी लड़ाई ज्ञान के क्षेत्र से बाहर चली जाती है। क्या आपने ऐसे चिट्ठाकार हिन्दी के अलावा भी कहीं देखें हैं।

हिन्दी के चिट्ठाकार की बौद्धिक अपंगता के प्रधान कारण हैं-सत्य से घृणा और ज्ञानविमुखता। इनके कारण ही हिन्दी के इस अनूठे चिट्ठाकार की सामाजिक पोजिशनिंग हिन्दी क्षेत्र के अलावा कहीं नहीं है। दक्षिण भारतीय, बंगाली, उर्दू आदि तथा अन्य विषयों के चिट्ठाकार वैश्विक परिवेश में मिल जाएंगे लेकिन हिन्दी का चिट्ठाकार इस वैश्विक परिवेश में कहीं नहीं मिलेगा। क्योंकि उसके अंदर ज्ञानपिपासा नहीं है। ज्ञान के उत्पादन और पुनरूत्पादन से उसका अलगाव जबर्दस्त है। पिछले कई सालों में यह देखा गया है कि भारत के चिट्ठाकारों का वैश्विक तौर पर विस्तार हुआ है, उसकी अलग से पहचान बनी है। लेकिन कोई ऐसा चिट्ठाकार नहीं जिसकी विश्वस्तर पर इस तरह से नामचीन चिट्ठाकारों से तुलना की जा सके।

यह आश्चर्य की बात नहीं लगती कि बोलनेवाली इतनी बड़ी आबादी, सरकारी इमदाद, हिन्दुस्तान और विश्व में कई जगह पठन-पाठन की व्यवस्था होने के बावजूद यूरोप और अमरीका के देशों में हिन्दी के चिट्ठाकार की कोई पहचान नहीं बनी है। 

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24 टिप्‍पणियां:

  1. ज्ञानजी और जगदीश्वर चतुर्वेदीजी के बहाने आप अपनी बात ठेल गये। जय हो। ज्ञानजी ने अपने ब्लाग पर अभी तक कमेंट बंद किये हैं। जे अच्छी बात नईं है।
    ज्ञानजी ने जो लिखा है
    और मुझे लग रहा है कि चिठ्ठाचर्चा कुछ समय से जो घर्षण उत्पन्न कर रहा है, उसे देखते हुये उसे तात्कालिक रूप से गाड़ दिया जाना चाहिये।
    उस पर हम उनकी ब्लाग पोस्ट पर टिपियाते --- चलते रहने के लिये घर्षण बहुत आवश्यक चीज बताई गयी है। बाकी उनकी चिन्तायें जायज हैं।

    आपकी पैरोडी पर हम कुछ न कहेंगे। काहे से भोपाल में भी एक ठो हाईकोर्ट है जी।

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  2. अच्छा भोजन परोसा है जी।
    खुश्बू से ही पेट भर गया!

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  3. हम तो बच्चे है . बडो से सीखते है यह जिम्मेदारी बडो की है हमे क्या सिखाये . जय हो जय जय जय जय हो

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  4. वाह!वाह! क्या लेख है, धासू है धाऽऽसू क्याऽ धासू सच है? भाई हिंदी जगत में दो कमियाँ देखने को मिलती है 1. हिंदी भाषा के लिए जो काम कर रहे हैं, वे पूरी लगन से हिंदी की सेवा नहीं कर रहे हैं. इसका मूल कारण यह है कि अधिका लोग हीन भावना से ग्रसित हैं शायद उनके अंदर जूझने की क्षमता नहीं है.
    2. तकनीकी विकास में हिंदी पीछे होने के कारण इसके सच्चे प्रेमियों का जोश ठंडा पड़ जाता है.

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  5. आदरणीय महोदय,
    आज की चर्चा वर्तमान में प्रासँगिक तो है, पर यह विश्वास रखें कि भविष्य में इसकी प्रासँगिकता गौण हो जायेगी ।
    ज्ञान जी की पोस्ट सुबह ही बाँच लिया था.. उनकी पोस्ट पर टिप्प्णी देने से मैं वैसे भी बचता हूँ । पर.. आज की साहसिक एवँ ईमानदार अभिव्यक्ति पर, खुद ही किवाड़ बँद कर लेना एक निताँत असाहसिक आभिजात्य है ।
    आपके जरिये जगदीश्वर जी की पोस्ट पढ़ पाया, इसका धन्यवाद । उनकी चिन्तायें ज़ायज़ हैं, बशर्ते उन्होंने ऎसा अपने को चिन्तित दिखलाने मात्र के लिये न लिखा हो । चिन्तित दिखना एक चिरयुवा फ़ैशन है ।
    रही चिट्ठाचर्चा को गाड़ देने की बात.. तो आज जगदीश्वर जी पोस्ट तक पाठकों को पहुँचाना क्या इस मँच की उपलब्धि नहीं है ?
    मँथन की लहरों से घबड़ा कर, समुद्र को पाट देना कौन सा उपाय है ? फिर तो भविष्य में कभी अमृत मिलने की आशा भी जाती रहेगी ।
    इस चर्चा में आपकी मार बहुत महीन है, इस प्रकार के थर्ड-पार्टी एक्सप्रेशन का मैं कायल हुआ..
    सादर अभिनँदन !

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  6. @ डा. अमर कुमार - असाहसिक अभिजात्य का प्रकरण इस लिये कि जो बाण तानना चाहें, अपने ब्लॉग पर तानें और चाहें तो हमें लिंकित कर दें।
    बाकी रविरतलामी में जो यहां उद्धृत किया है वह तो अंश का भी अंश है। असली बात तो जो है सो ब्लॉग पर ही है।

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  7. दूसरा पैरा पढ़ें:
    बाकी रविरतलामी ने जो यहां उद्धृत किया है वह तो अंश का भी अंश है। असली बात तो जो है सो ब्लॉग पर ही है।

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  8. अमर जी से सहमत .. किसी भी सार्वजनिक मंच को विवादों के कारन बंद करने का फैसला किसी प्रकार सही नही ठहराया जा सकता है. ब्लॉगवाणी बंद हुई थी तब भी मैंने ऐसा ही कहा था. जो लोग आरोप लगा रहे हैं उनका खुद हिंदी अथवा ब्लोगिंग में कितना योगदान है यह देखा जाना चाहिए. जिसने खुद कुछ किया हो वह दूसरों की कमियां निकाले तब अच्छा लगता है.

    इतना ही कहना था.

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  9. सुन्दर चर्चा! हिन्दी ब्लोग के भविष्यो को लेकर अब मै निश्चित हू.

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  10. ब्लॉग एक व्यक्तिगत डाइरी हैं जिस को हम सार्वजानिक करते हैं कभी कभी हम केवल अपने लिये ही लिखते हैं और कमेन्ट बंद कर देते हैं शायद आज मानसिक हलचल पर यही हुआ पर ये मूल अधिकार हैं ब्लॉग मालिक का

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  11. झगडने में कम से कम एक संभावना फिर भी होती है , जब तक कि यह संवादहीनता तक न पहुँच जाए । संवादहीनता सबसे खराब है । अभिव्‍यक्‍त न होने से मन के विचार नष्‍ट नहीं हो जाते । इस तरह नहीं तो उस तरह , यहॉं नहीं तो वहॉं निकलना ही है किसी न किसी तरह ।

    ब्‍लॉगिंग की महिमा इसी में है कि यहॉं कोई नेता या साहित्‍यकार नहीं बन सकता कि एक जन बोले और बाकी सब सुनें या कोई अपने संपादक होने का लाभ उठाए । यहॉं सब एक ही दरी पर बैठकर बतिया रहे हैं ।

    हिंदी ब्‍लॉगिंग की हर तरह की हलचलों को बखूबी पेश करने में चिट्ठा चर्चा की प्रासंगिकता में निरंतर वृद्धि हो रही है ।

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  12. एक बात रह गई..मैंने अमर जी से सहमती चिठ्ठाचर्चा के मामले में जताई है..ज्ञान जी अथवा किसी और का टिप्पणी की सुविधा देना - न देना उसके व्यक्तिगत अधिकार की श्रेणी में आता है.

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  13. जगदीश्वर चतुर्वेदी के पोस्ट?जगदीश्वर चतुर्वेदी से क्षमायाचना?
    जबकी सब कुछ लिखा-धराया सुधा सिंह का है।एक नारी का है।ये मूल अधिकार हैं नारी का कि उसका नाम बताया जाये।आभार तक नहीं है वहां।संविधान में सबको बराबरी का हक है।जिस लेख की पैरोडी बनी वह मूल रूप में यहाँ है
    http://sudha2636yahoocom.blogspot.com/2010/01/blog-post.html
    वैसे रवि जी ने पैरोडी बहुत धारदार बनायी है :-)

    रचना सहित अन्य नारी को इन लिक्स पर भी अपनी नजर डालनी चाइये

    http://sudha2636yahoocom.blogspot.com/2009/12/blog-post_17.html

    http://sudha2636yahoocom.blogspot.com/2009/12/blog-post_06.html

    http://sudha2636yahoocom.blogspot.com/2009/12/blog-post.html

    http://sudha2636yahoocom.blogspot.com/2009/09/blog-post.html

    http://sudha2636yahoocom.blogspot.com/2009/08/blog-post.html

    http://sudha2636yahoocom.blogspot.com/2009/07/blog-post_8805.html

    http://sudha2636yahoocom.blogspot.com/2009/07/blog-post_10.html

    http://sudha2636yahoocom.blogspot.com/2010/01/blog-post_2905.html

    उम्मीद है रचना मुझे धन्यवाद नही कहेगी और ना ही सुधा सिंह को नारी में शामिल होने का निमन्त्रण देंगि :-)

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  14. जबरदस्त आलेख है सुधा जी का। इसकी पैरोडी भी शानदार बन गयी है। इसका मतलब यह है कि हिन्दी ब्लॉगर हिन्दी बुद्धिजीवी के समतुल्य खड़ा हो चुका है। वाह, क्या बात है!

    इस बौद्धिक चर्चा के लिए रवि जी को शुक्रिया।

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  15. कुछ बातें जेहन में कौंध गयी हैं -
    मूल लेख सुधा सिंह का है जो शायद जगदीश्वर जी की शोध स्टुडेंट हैं ...
    रवि जी ने दूसरे की थाली से हलुआ उड़ा अपनी थाली सजा ली है निश्चय ही साहित्य के गुण अवगुण ब्लॉगर भी सीख ही रहा है .
    लेकिन स्रोत उधृत कर देने और पैरोडी की ढाल से किसी "साहित्य की चोरी "(प्लैजिआरिज्म ) के आरोप से बचा लिए हैं अपने को.
    ज्ञानदत्त जी का अपने ब्लॉग पर संवाद का आप्शन रखना या न रखना उनका मौलिक विशेषाधिकार है .
    मगर यह नौबत आई क्यों? केवल इसलिए ही कि जिम्मेदार, बौद्धिक व्यक्ति का निरंतर डरपोक बनकर तटस्थ होते जाना -राजनीति में इस वृत्ति ने कितना कहर ढा दिया है -केवल क्रिमिनल्स बचे हैं वहां -अब बुद्धिजीवियों ,श्रेष्ठ जनों की निःसंगता, निस्प्रिह्ता और उसी अनुपात में मूर्खों की उद्धतता ने ही ब्लागजगत में यह धमाल मचा रखा है ! इस शुतुरमुर्गी रुख से क्या हासिल होगा ? ज्ञानदत्त जी (अब सीनियर को कुछ कहने की गुस्ताखी कैसे हो ?} हों या डॉ अमर कुमार(जो अक्सर अब अंतिम दृश्य पर प्रगट होते हैं खलीफाई अंदाज में -मुआफी डाग्डर..इसे ही नववर्ष की शुभ कामना (गुड ओमेन, धीठी! समझी जाये!सादर ) या फिर समीर लाल(अब ये तो सखा है, क्या कहें इन्हें !) अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते.

    .....और हाँ , यह सही है जिस दुकान पर गुणवत्ता और पेशे की इमानदारी नहीं बरती जायेगी वह बंद ही हो जायेगी एक दिन ...कोई चाहे या न चाहे .......

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  16. "....और मुझे लग रहा है कि चिठ्ठाचर्चा कुछ समय से जो घर्षण उत्पन्न कर रहा है, उसे देखते हुये उसे तात्कालिक रूप से गाड़ दिया जाना चाहिये। साथ साथ; भांति भांति की चिठ्ठाचर्चायें न हिन्दी की सेवा कर रही हैं न हिन्दी ब्लॉगरी की।....."

    अरे अनूप भाई (फुरसतिया जी)
    आपको सुझाव मिला है और मेरे जैसे हिन्दी-संस्कृत की घास छीलते-छीलते हुए बूढ़े-तोते को चुनौती दी है भ्राता ज्ञानदत्त पाण्डेय जी ने।
    बताओ तो सही कब से "चिट्ठा-चर्चा" बन्द कर रहे हो।
    भ्राता ज्ञानदत्त पाण्डेय जी तो टिप्पणी का द्वार ही बन्द किये बैठे हैं।
    चुनौतीपूर्ण पोस्ट लगाई थी तो कायरता का परिचय क्यों दिया?

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  17. वैसे तो हिन्दी ब्लागिंग की वर्तमान दशा दुर्दशा को देखते हुए ज्ञानदत्त जी ने जो भी चिन्ता जाहिर की...उससे तो कोई भी बुद्धिसम्पन, हिन्दी हिताकांक्षी व्यक्ति असहमत हो ही नहीं सकता किन्तु उनका ये कहना कि भान्ती भान्ती की चिट्ठाचर्चाएं न तो हिन्दी की सेवा कर रही हैं और न ही हिन्दी ब्लागिंग की---इस कथन से सहमत होना थोडा मुश्किल है।
    ये माना कि अभी अन्य चर्चा मंचों में चिट्ठा चर्चा मंच जैसी गंभीरता, परिपक्वता नहीं दिखाई पडती किन्तु वो लोग भी अपने अपने ढंग से हिन्दी की सेवा तो कर ही रहे हैं....नियमित रूप से चर्चा करते देर सवेर उनमें में वो परिपक्वता आ ही जाएगी। उनके प्रयासों, उनके योगदान को नकार देना मैं तो गलत मानता हूँ।

    ज्ञानदत जी की उस पोस्ट पर टिप्पणी की सुविधा न होने के कारण ही हमें ये टिप्पणी यहाँ करनी पड रही है।

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  18. "दुर्भाग्य है कि हिन्दी के चिट्ठाकारों में अपने वर्ग की कुण्ठाएँ, चालाकियाँ, दोरंगापन और थोथी नैतिकता का दिखावा बहुत है। "

    क्या हम भी इस केटेगरी में आते हैं :(

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  19. आप सब महापुरुसो के बीच, मेरी ये छोटे मुह बडी बात होगी.. लेकिन आप सब लोग जो ज्ञानदत जी को यहा बोल रहे है, अपने अपने मन्च का उपयोग करे और रही बात टिप्प्णी की..आपको नही लगता कि कभी कभी टिप्प्णिया वास्तविक टापिक का मुह ही मोड देती है, शायद ज्ञानदत जी आज सिर्फ़ अपनी बात कहना चाहते थे और उसका उन्हे पूरा हक है.. और आपके भी कुछ हक है, उनका सदुपयोग करे..

    बाकी आपलोग जो कर रहे है, उससे यही सिद्ध होता है कि ज्ञानदत जी डन्के की चोट पर अपनी बात कह गये और आप लोगो को अपने अपने मन्च छोड कर यहा वहा टिप्प्णी करने के लिये दौड्ना पड रहा है...

    और रही बात ’ज्ञान’ की - आज आपके ब्लाग पर पहली बार गया था, बहुत तकलीफ़ हुई आपका ’Link Collection' देखकर..आप तो काफ़ी समझदार मालूम देते है, तकनीक मे भी काफ़ी आगे है। सारे लिन्क अपने ब्लाग पर उद्धित करके आपने कुछ गलत ही परिचय दिया है...

    आपका अनुज,

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  20. ज्ञान जी ने कहा और भद्रजन बुरा भी मान बैठे। अमाँ कुछ ग़ौर भी फ़रमा लिया होता जी उनकी बातों पर।

    मयंक जी की इस बात से तो नहीं के---
    "चुनौतीपूर्ण पोस्ट लगाई थी तो कायरता का परिचय क्यों दिया?"

    मगर वत्स जी की इस बात के---
    "ज्ञानदत जी की उस पोस्ट पर टिप्पणी की सुविधा न होने के कारण ही हमें ये टिप्पणी यहाँ करनी पड रही है।"
    से तो हम भी सहमत हैं।
    सच में हमारा ब्लॉगजगत कुछ अजीब स्थिति को प्राप्त हो गया जिसके लिए किसी शायर का यही शेर लाज़िम मालूम होता है के---

    तंग आ चुके हैं लोग मुसलसल (लगातार) सुकून से
    आलमपनाह शहर में अब क़त्लेआम हो

    आदरणीय ज्ञानजी की बात नावाजिब नहीं है। हम सबको कुछ तो सोचना ही चाहिए।

    जवाब देंहटाएं

चिट्ठा चर्चा हिन्दी चिट्ठामंडल का अपना मंच है। कृपया अपनी प्रतिक्रिया देते समय इसका मान रखें। असभ्य भाषा व व्यक्तिगत आक्षेप करने वाली टिप्पणियाँ हटा दी जायेंगी।

नोट- चर्चा में अक्सर स्पैम टिप्पणियों की अधिकता से मोडरेशन लगाया जा सकता है और टिपण्णी प्रकशित होने में विलम्ब भी हो सकता है।

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