कल एक बहुत ही अफ़सोसजनक दुर्घटना में छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ़ के 75 से ज्यादा जवानों को 1000 से अधिक नक्सलवादियों ने घेर कर मार दिया। बहुत क्रूर और दुर्भाग्यपूर्ण कृत्य! पता नहीं इस काम को अंजाम देने वाले नक्सलपंथी कैसे इसको सही ठहराते हैं कि वे ऐसे कौन से बेहतर समाज के निर्माण में लगे हैं जिसके लिये इत्ते बेकसूर मारे गये। आम जनता को मार-मूर के कौन सी बेहतरी लायेंगे लोग समाज में? सीआरपीएफ़ के जो जवान मारे गये उनके परिवार वालों को कैसे समझ में आयेगा कि उनके घरवालों की हत्यायें समाज का भला चाहने वाले लोगों ने की। ये नक्सलवादी कैसे समाज का भला चाहता हैं जिसमें सीआरपीएफ़ के जवान शामिल नहीं हैं।
इस दुखद घटना से पूरा देश स्तब्ध है। गृहमंत्री अवाक हैं , स्तब्ध हैं। उन्होंने कहा कि कहीं भयंकर चूक हुई है। कई पोस्टें इस विषय पर आईं!
लहूलुहान छतीसगढ़ में राजीव कुमार लिखते हैं:
सरकार बैठक, समीक्षा और महज बयानबाजी कर अपनी जिम्मेवारियों से नहीं बच सकती। आखिर क्या वजह है कि नक्सली इतनी बड़ी संख्या में योजनाबद्ध तरिके से चक्रव्यूह रचते हैं और जवान उसमें आसानी से फंस जाते हैं। सरकार की खूफियां एंजेसियों और सुरक्षा व्यवस्था में जुटे लोगों को आईपीएल और सानिया-शोएब की शादी से शायद फुर्सत न मिल रही हो, तभी तो एक हजार नक्सली नाक के नीचे देश की सबसे बड़ी वारदात को अंजाम देकर बच जाते हैं और नेताओं को शहीदों के शव पर सियासत का एक और सुनहरा मौका मिल जाता है।
पंकज अवधिया की प्रतिक्रिया है-चिदम्बरम या रमन किस पर मढा जाए ८० मौतों का दोष?
तरकश ने घटना का संक्षिप्त ब्यौरा देते हुये लिखा:
नक्सली अत्याधुनिक हथियारों से लैस हैं और उनकी संख्या भी 1000 से अधिक है. उनसे लोहा ले रहे जवानों की संख्या 100-120 से अधिक नही है. ये सभी जवान सीआरपीएफ कैंपों में राशन पहुंचाने के लिए जा रहे थे.
यह मुठभेड जहाँ चल रही है वह घना जंगल है और इसलिए मदद पहुँचाने मे भी दिक्कत आ रही है.
केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि, "छत्तीसगढ़ पुलिस और अर्धसैनिक बलों ने मिलकर माओवादियों के ख़िलाफ़ साझा अभियान तैयार किया था. लेकिन मुझे लगता है कि रणनीति में चूक हो गई और वे माओवादियों के जाल में फँस गए.
मरने वालों की संख्या बहुत ज़्यादा है. ये नक्सलियों की क्रूरता दर्शाता है. मुझे इस घटना से काफी दुख हुआ है."
पंकजझा का कहना है-आँख से आंसू नहीं शोले निकलने चाहिए अपने लेख में इस घटना के बारे में अपनी बात की शुरुआत करते हुये उन्होंने लिखा:
एक बार अपनी गाड़ी के नीचे एक गिलहरी के दब कर मर जाने के बाद नेहरू की प्रतिक्रिया थी कि इस जैसा फुर्तीला जानवर इसलिए मृत्यु को प्राप्त हुआ क्योंकि वह ऐन गाडी के सामने आ जाने पर तय ही नहीं कर पाया कि उसको आखिर जाना किधर है. आज छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा जिले के मुकराना के घने जंगलों में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल की 80 सदस्यीय 62 वीं बटालियन पर नक्सलियों द्वारा किये गए सबसे बड़े हमले में देश को अपने दर्ज़नों जवानों से हाथ धोना पड़ा है .तो अपने जांबाजों की शहादत एवं सरकारों की भूमिका पर वही कहानी याद आ रही है. वास्तव में आज के लोकतंत्र के कर्णधार-गण ऐसी ही गिलहरी हो गए हैं जिनको पता ही नहीं है कि आखिर जाना किधर है.
इस समस्या से निपटने की बात की तरफ़ इशारा करते हुये पंकज ने लिखा:
जिन-जिन लोगों को यह लगता हो कि आतंकवाद का खात्मा बन्दूक से नहीं हो सकता उनके लिए हालिया श्रीलंका का या उससे पहले पंजाब के उदाहरण पर गौर करना चाहिए. अगर लिट्टे के खिलाफ श्रीलंका की सरकार भी बात-चीत का राग ही अलापती रहती तो पीढ़ियों तक ऐसे ही असुरक्षित रहता वह देश भी. या अगर इंदिरा गांधी ने स्वर्ण-मंदिर में सेना न भेजी होती, पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह अपनी जान की कीमत पर भी अगर आतंकियों को कुचलने हेतु दृढप्रतिज्ञ नहीं होते तो शायद वह सरहदी राज्य आज भारत का हिस्सा ही नहीं रह गया होता. तो अब यह समय आ गया है कि देश नक्सल मामले को लोकतंत्र के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखें. बिना किसी भी तरह के दवाव में आये इसको कुचलने और केवल कुचलने की नीति पर ही कायम रहें.
पुण्यप्रसून बाजपेयी ने आदिवासियों/माओवादियों के काम करने का अंदाज का विवरण देते हुये एक भुक्तभोगी के अनुभव पेश किये।
कुछ दिन पहले ही अभयतिवारी ने एक सवाल के जबाब में नक्लसबाड़ी आंदोलन के बारे में अपनी राय जाहिर की थी:
सपने देखना बुरा नहीं है लेकिन अपने सपने पर इस क़दर यक़ीन करने लगना कि वास्तविकता दिखनी ही बंद हो जाय, ये ज़िद मुझे समझ नहीं आती। हाँ, इस तरह की रूमानियत कभी थी मुझमे, लेकिन मैंने उस से अब तौबा कर ली है। नक्सलबाड़ी भी एक तरह की रूमानियत थी, क्या हश्र हुआ उसका, कलकत्ते के हज़ारों नौजवान उसकी भेंट चढ़ गए।
अब कुछ लोग ऐसे भी होंगे जो मेरी इस बात का अर्थ यह निकाल लेंगे कि कलकत्ता पुलिस के समर्थन में अपनी आवाज़ मिला रहा हूँ, वो तो ग़लत हैं ही लेकिन वो भी ग़लत हैं जो यह सोचेंगे कि मैं चारु मजुमदार पर उन नौजवानों की मौत का कोई इल्ज़ाम नहीं धरता। निश्चित ही चारु बाबू भी ज़िम्मेदार है।
इस जगह अपनी सोच को स्पष्ट करते हुये अभय ने लिखा था:
आप मुझे निराशावादी, पराजित सोच रखनी वाला के मध्यमवर्गीय कूपमण्डूक मान सकते हैं, लेकिन मै इस तरह होने वाले खूनख़राबे के पक्ष में नहीं हूँ। कुछ लोग आदर्शों के आगे जान की क़ीमत कुछ नहीं मानते, मैं उस मत का अनुमोदन नहीं करता। जीवित रहना आदमी का सर्वोच्च लक्ष्य है, हालांइ उसमें लक्ष्य जैसा कुछ है नहीं। लक्ष्य या आदर्श एक काल्पनिक क्षितिज है जबकि जीवन सतत शाश्वत वर्त्मान।
अरुंधती राय की दंतेवाड़ा की जिस रपट के आधार पर अभय तिवारी ने ऊपर अपनी बात कही वह रपट देखिये जिसका शीर्षक है:पढ़िए अरुंधति कोः बंदूक की नली से निकलता ग्राम स्वराज
संजीतत्रिपाठी ने सवाल किया:कहां है, डॉ विनायक सेन से लेकर मेधा पाटकर और मानवाधिकार के नाम का रोना रोने वाले/वाली रूदालियां? और कहां है नक्सलवाद की रुमानियत में डूबी अरुंधती रॉय साहिबा?
यह सवाल उन्होंने बज पर किया था और उस पर आई प्रतिक्रियायें उन्होंने अपने ब्लॉग पर पोस्ट की! देखियेगा।
इसी क्रम में देखिये नक्सली कार्यकर्ता रहे चंद्रभूषण का आत्मकथ्य-मंडल-कमंडल की राजनीति । पोस्ट में आयी प्रतिक्रियाओं पर अपनी बात साफ़ करते हुये उन्होंने लिखा:-
आखिर कब तक हम चीजों के बारे में दर्जा दो के स्तर की आसान राय बनाकर जीते रहेंगे।एनोनिमस, आपकी जानकारी गलत है। मैं जो भी कह रहा हूं, पार्टी के आधिकारिक फैसलों के आधार पर कह रहा हूं। दरअसल, मंडल अनुशंसाएं लागू होने के कुछ ही समय बाद 40, मीनाबाग में वीपी सिंह और विनोद मिश्र के बीच एक बैठक भी हुई थी, जिसमें वीपी ने वीएम से मंडल के पक्ष में साथ-साथ सड़कों पर उतर कर आंदोलन का नेतृत्व करने की अपील की थी। लेकिन वीएम का मानना था कि इससे पिछड़ों के बीच मौजूद वर्ग विभेद ढक जाएंगे और विभाजन का स्वरूप कुछ इस तरह का बनेगा कि सामाजिक न्याय के ज्यादा व्यापक सवाल पृष्ठभूमि में चले जाएंगे। इससे पार्टी को नुकसान हुआ, लेकिन इससे यह अर्थ कतई नहीं निकाला जा सकता कि सीपीआई एमएल मंडल आयोग अनुशंसाओं की विरोधी है, या कभी थी।
-अरविंद जी, सवाल राजनीति में गति होने या न होने का नहीं है। न ही यहां मंदिर यात्राओं के पक्ष या विपक्ष में कोई माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है। जिस व्यर्थ के वितंडा ने देश के पंद्रह साल बर्बाद कर दिए, यहां कोशिश उसका पोस्टमॉर्टम करने की है। ये बातें मेरी निजी जिंदगी से जुड़ी हैं और मेरे जैसे लाखों आम लोगों का जीना-मरना इनसे प्रभावित हुआ है। वक्त गुजर गया है तो कम से कम अब तो हम इन मामलों को इनकी जटिलता में देखना शुरू करें।
नफ़रत की राजनीति पर अपनी बात एक कविता के माध्यम से कही चंद्रभूषण जी ने।
जिन-जिन चीजों को हम चाहते थे
जो लोग भी हमारे अजीज थे
उन्हीं पर ओवरकोट की तरह
हमारी नफरत टंगने लगी थी
लेकिन हर चीज का वक्त होता है
रूई में रखा ग्रेनेड भी सील जाता है
रोज साफ होने वाली बंदूक का घोड़ा भी
गोली पर टक करके रह जाता है एक रोज
तुम जान भी नहीं पाते
और नफरत तुम्हारी एक सुबह
बदहवासी में बदल गई होती है
परेड पर निकले फौजी के जूते में
चुभी लंबी साबुत धारदार कील
एक निश्चित ताल के साथ तुम
गुस्से से फनफना रहे होते हो
और लोग तुम्हें देख कर हंस रहे होते हैं
कल की चर्चा पर आई डा.अमर और डा.अनुराग की टिप्पणियां भी देखिये!
मेरी पसंद
तुमने कहा मारो
और मैं
मारने लगा
तुम चक्र सुदरशन लिये बैठे ही रहे
और मैं हारने लगा!
माना कि तुम मेरे योग और क्षेम का
भरपूर वहन करोगे
लेकिन ऐसा परलोक सुधारकर
मैं क्या पाऊंगा
मैं तो तुम्हारे इस बेहूदा संसार में
हारा हुआ ही कहलाऊंगा!
तुम्हें नहीं मालूम
कि जब आमने सामने खड़ी कर दी जाती हैं
सेनायें
तो योग और क्षेम नापने का तराजू
सिर्फ़ एक होता है
कि कौन हुआ धराशयी
और कौन है
जिसकी पताका ऊपर फ़हरायी।
योग और क्षेम के
ये पारलौकिक कवच
मुझे मत पहनाओ
अगर हिम्मत है
तो खुलकर सामने आओ
और जैसे मेरी जिन्दगी सामने लगी है
वैसे ही तुम भी लगाओ।
डा.कन्हैयालाल नंदन
और अंत में
फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर की। आपको मंगलकामनायें!
चर्चा विवरण:सुबह सात बजकर दस मिनट पर शुरू करके आठबजकर पच्चीस मिनट पर पोस्ट की गयी यह चर्चा। बीच में दो चाय, तीन एस.एम.एम. और हरिप्रसाद शर्माजी से आनलाइन गुफ़्तगू में कुछ संदेशों का आदान-प्रदान!
ये चर्चा यहा इसलिये बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गयी है क्योकि इसमे नक्सली हिन्सा पर हम्भीर ब्लोग लेखन को एक सामूहिक मन्च दिया है. साधुवाद.
जवाब देंहटाएंएक बहुत ही अफ़सोसजनक दुर्घटना |
जवाब देंहटाएंबहुत अफ़सोस का दिन है आज. शमशाद इलाही अंसारी की कविता "जवाब दो कामरेड" से कुछ पंक्तिया:
जवाब देंहटाएंतुम्हे यह कैसे दिखायी नहीं पडा़ कामरेड!
कि यह कथित नव-मानव ही
सत्तर साल के बाद भी,
लेनिन की मूर्ती उखाड़ फ़ेंकेगा
तुम्ही तो
हंगरी, चेकोस्लोवाकिया
और अफ़ग़ानिस्तान में
लहु-लुहान रूसी फ़ौजी दख़ल-अंदाज़ी को
जाएज़ बताते थे।
लेकिन, इस जन- उबाल ने
मेरी आँखों से अब
तुम्हारी कहानियों की
पट्टियाँ उखा़ड़ दी हैं।
तुम भी तो यहाँ बंगाल में
पिछ्ले चौदह सालों में
क्या दे पाये हो आवाम को?
अब मैं तुम्हारी हर हरकत और लफ़्फ़ाज़ी पर
कडी़ निगाह रखूंगा।
अपनी पैनी दृष्टि से
देखूंगा तुम्हारे आर-पार।
अब तुम पहले की भाँति
प्रश्न करने वालों को
सी०आई०ए० का एजेंट नहीं कह सकते।
इस नव-मानव से जन्मे
प्रश्नों का उत्तर
तुम्हे खोजना होगा कामरेड !
बेहद सटीक चर्चा .
जवाब देंहटाएंअब अति हो गई है इस हिंसा की ..कौन करवा रहा है और कौन कर रहा है, लाशो का ढेर लगा कर क्या कुछ पाया जा सकता है
कल से मन व्यथित है ...शायद गाँधी जी की जरूरत फिर से है ..हिसा से कुछ नहीं हासिल होने वाला
इसी विषय से कुछ पंक्तिया मेरे मन से भी निकली
http://sonal-rastogi.blogspot.com/2010/04/blog-post_1343.html
आज का विषय इतना दर्दनाक है कि दिमाग़ विचारशून्य सा हो रहा है ,ये भी तो दहशत्गर्दी ही है ,अनूप जी के विचारों से मैं पूर्णतया सहमत हूं,मुझे तो लगता है कि अगर यही होता रहा तो बाहर के किसी दुश्मन को कुछ भी किए बिना सफलता मिलती रहेगी,और हम अपनों के लिए,अपने प्यारों के लिए बस रोते रहेंगे ,मुझे अपना एक शेर याद आता है जो चेतावनी है उन के लिये----------
जवाब देंहटाएंख़ूं भरी लाशें अगर फ़तह हैं नज़रों में तेरी
फिर तो इस फ़तह का ताबूत बना कर रखना
जवाब देंहटाएंउन टिप्पणियों का सँज्ञान लेने का धन्यवाद, अनूप जी ।
आप द्वारा लिंकित पोस्ट पर न जाते हुये, मेरी अपनी बात..
टेलीविज़न पर्दे पर इसका ब्रेकिंग न्यूज़ बन कर आना
और तत्पश्चात हाकिमों के भावविहीन मुखड़ों से ऎसे
बयान आक्रोशित करते हैं ।
अब मैं इन ख़बरों पर व्यथित नहीं हो पाता, मानो कि
व्यथित होते रहने की चेतना जैसे सँज्ञाशून्य हो गयी हो !
एक आक्रोश उभरता है, इतिहास के इस काले दौर के
साक्षी बने रहने की ललक में अभी दिसम्बर में ही तो
मैं इन हल्कों का दौरा करके आया हूँ । क्या वज़ह है,
कि यह निरीह आदिवासी दिल्ली को आतँक के पर्याय
के रूप में देखते हैं ? नतीज़न वह नक्सली सिरफिरों
की पनाह में ही अपनी सलामती देखते हैं..... क्यों ?
केन्द्र और राज्य के देवरानी ज़िठानी तकरार में इनको
अवाँछितों की तरह सतही तौर पर डील किया जा रहा है,
इनको गँभीरता से कभी नहीं लिया गया । अपने को
विश्व के प्रखर लोकतँत्र की अगुआई करने वाली माउथपीस
यदि अपने नागरिकों का मुँह बन्दूक के बल पर चुप करा
रही हैं... तो कुटिल पड़ोसियों को भला शह क्यों न मिलेगी ?
लाइट मूड एनालिसिस तो इनको हम डाक्टरों से भी बदतर
ठहराती है, जो वाइरल बुखार को मियादी या कहिये कि एक
बेमियादी बुखार में तब्दील होते जाने देती है, ताकि वह एक
बिन्दु पर सुविधापूर्वक यह घोषित कर सके कि यह मर्ज़ तो
लाइलाज़ है । है, ना ?
इससे अच्छी चर्चा मैने आज तक नही पढी।इस चर्चा ने देश की सबसे ज्वलंत समस्या को सामने रखा है,और इस समस्या से झुलसते छत्तीसगढ का निवासी मैं छत्तीसगढिया आपाका आभारी हूं।
जवाब देंहटाएंसुबह सी शुरुआत चर्चा से... बेहतरीन चर्चा... जागरूक पाठक... चर्चा का सिलसिला ख़तम नहीं हुआ है... कल डॉ. अनुराग और अमर जी के कमेन्ट वाकई महत्वपूर्ण हैं... सुबह अखबार पढ़कर हिल गया... यकायक शौर्य फिल्म के संवाद याद आने लगे "हम शहर वाले हैं, हमें हर रोज सुबह सड़कें और नालियाँ साफ़ चाहिए" ... इस देश में बोस बाजी बहुत है... और अहम् का अकड़... थोथा चना बाजे घना वाली स्थिति है... बिलकुल ऐसा ही है... मेरे चाचा फौज में थे.. सोमालिया का गृहयुद्ध देखा और झेला है, श्रीलंका में लड़े, हमारा परिवार जानता है की कारगिल के दौरान हम पर क्या बीती... मेरे पिता जी हर दिन शाम को दानापुर कैंट से शहीदों की लिस्ट कलेजा थम कर देखते थे... जो ७० जवान मारे गए हैं वो किसपर फक्र कर रहे होंगे ख़ुफ़िया एजेंसी पर या देश को लेकर जान गवाने भर की जूनून पर ??????
जवाब देंहटाएंस्मार्ट इंडियन भाई साहब ने बड़ी सार्थक कविता लगायी है... शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंमेरे दुख की चर्चा, हुई तो.
जवाब देंहटाएंab kya kare ye to sirf demag ka fatoor h unke jo sochte hain ki aisa karke ek acha samaj kayam ho sakega
जवाब देंहटाएंmansik vikriti ke sikar hain ye log
ghrina aati h mujhe in jaise kameeno pe
खून-खराबा बहुत गलत चीज होती है. मैं तो इसे टी.वी पर देखकर भी डर जाती हूँ.
जवाब देंहटाएं_________________________
'पाखी की दुनिया' में जरुर देखें-'पाखी की हैवलॉक द्वीप यात्रा' और हाँ आपके कमेंट के बिना तो मेरी यात्रा अधूरी ही कही जाएगी !!
क्या बेकार की बात करते हो, गरीब लोगों ने जिनके पास मंहगे हथीयार है ने यह काम किया है. वे अशिक्षित है क्योंकि उन्होने कल्याण के लिए स्कूल उड़ा दिये थे. वहाँ विकास नहीं हुआ है क्योंकि उन्होने कल्याण के लिए सड़कें व रेल ट्रैक उड़ा दिये है. वहाँ सरकार पहुँच नहीं पाती. हे! अरूणधती मार्का रूदालियों मैं तुम्हारे साथ हूँ. नष्ट कर देंगे, स्कूल, सड़कें, कारखाने सब नष्ट कर देंगे. फिर देखो कैसे गरीबी नहीं हटती है.
जवाब देंहटाएं***
धिक्कार है! धिक्कार है! धिक्कार है!
संजय बेंगाणी से सहमत। इतने मंहगे और आधुनिक हथियार इन तक पहुंच जाती हैं लेकिन रोटी नहीं! बात जरा गले उतरती नहीं। ये गरीबों की लड़ाई नहीं बड़ा षड़यंत्र है देशद्रोहियों का।
जवाब देंहटाएंचंद्रभूषण जी की कविता बेजोड़ है ..मुंह पर थप्पड़ सा मारती है .....ओर अभय जी ने मेरे मन की बात कह दी है .......अब चीज़े बदल रही है .......
जवाब देंहटाएंकोई भी वाद आदर्श ओर नैतिकता के झंडे तले शुरू होता है ....फिर गुजरते वक़्त के साथ .सत्ता ओर ताक़त का स्वाद जीभ से लगते ही ...भटकने लगता है .लोग इस्तेमाल होते है ....कोई भी सरकार बुरी नहीं होती .उसको चलाने वाले लोग बुरे होते है ....जो हम आप जैसे लोग है .....तो बदलाव की कहाँ जरुरत है .....उसे लाने के लिए एक नया सामान्तर सिस्टम खड़ा करना जो गुजरते वक़्त के साथ इसी इन्फेक्शन का शिकार होने वाला है .खतरे को ओर बढा देना है ....अक्सर बुद्दिजीवी मार्क्सवाद को सपोर्ट करते है इसकी विचारधारा के तहत....पर बाद में मुद्दे ओर विचार हाइजेक हो जाते है...ओर इस रूप में सामने आते है .....
हम किस से लड़ रहे हैं, अपने ही घर में अपने ही लालों की बलि चढ़ा रहे हैं. हर बड़ी घटना के बाद यही होता है की खुफिया सूत्रों ने पहले ही आगाह किया था की ऐसी घटना होने की संभावना है और घटना के बाद खुलासा होता है. फिर हम चेतावनी को क्या प्रयोग के तौर पर लेते रहते हैं. सरकार और राजनेता नहीं मरते सिर्फ अफसोस जाहिर करते हैं.
जवाब देंहटाएंअपनी जान देने के बाद
ये जवान
ये भी तो नहीं जानते
की इनके अपनों के लिए
ये देश और धरती
जिसके लिए वे शहीद हुए हैं
क्या देगी ?
कैसे जियेंगे वे?
कब तक उनका नाम ,
ये सरकार याद रखेगी .
एक दिन
सब भूल जायेंगे.
बच्चे और पत्नी
दौड़ते रहेंगे
दौड़ते रहेंगे
सिर्फ रोटी और कपड़े के लिए
सरकार से कुछ पाने के लिए
और सरकार सिर्फ
कागजों में देकर
कर्तव्यो की इति श्री करके
और बलि का इन्तजार करती है.
हम अपने ही लहू को बहाकर क्रांतिकारी कहला रहे हैं, ये नक्सली और माओवादी देश की शान और गरिमा में सेंध लग रहे हैं. इनके लिए फिर किसी को इंदिरा गाँधी बननाहोगा.
अफसोसनाक घटना.
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत ज़रूरी चर्चा. नक्सलियों के विध्वंसक हमले अब जानलेवा हो गये हैं. और इतनी जानें!!! घटना के बारे में सोच कर ही सिहर जाती हूं.
जवाब देंहटाएंनक्सली और बेहतर समाज! दिख तो रहा है किस समाज के रचना करना चाहते हैं वे. संजय जी ने अच्छे बिन्दुओं को छुआ है. और संजीव जी, ये दुख तो हम सब का है.
अभयजी की बात बहुत सही है... ! पसंद आई.
जवाब देंहटाएंइतने बेगुनाह जवानों का खून पीकर नक्सलियों ने गरीबों का पता नहीं कौन सा कल्याण कर लिया। धिक्कार है इन नक्सलियों और इनके रहनुमाओं को।
जवाब देंहटाएंमै इस तरह होने वाले खूनख़राबे के पक्ष में नहीं हूँ
जवाब देंहटाएंतो क्या फर्क पड़ा करने वालों को?
बहुत ही अफ़सोस जनक,वैसे ज्ञान जी भी सही कह रहे हैं.
जवाब देंहटाएंसचमुच मन इतना हताश निराश और व्यथित है कि बुद्धि काम नहीं कर रही...
जवाब देंहटाएंसरकार और नक्सलवादीयों के पेंच और खेल में आम जन और जवान पिसे जा रहे हैं और इसका अंत कहीं नहीं दिख रहा...
अंत करेगा भी कौन...जो राजनेता नक्सलियों की सहायता से वोट और सीट जुगाड़ते हैं और राज्य के धन का बन्दर बाँट करते हैं ,वे भला क्यों चाहेंगे कि नक्सलियों का खात्मा हो...
आँखों से नींद उड़ गयी है कि सौ से अधिक उन युवकों के घर पर कैसी कहर टूटी है..कितनों के मांग का सिन्दूर उजड़ा होगा,कितनो के सर से बाप का साया उठा होगा,कितनो के घर के चूल्हे बुझे होंगे....
ये राजनेता तथा नक्सलियों की रक्त पिपासा और कितनो का रक्त पान कर बुझेगी,कौन कहे...
ये बहुत ही दर्दनाक स्थिति है. एक देश के नौजवान अपने ही कुछ भटके हुये देशवासियों के विरुद्ध लड़ने जाते हैं और उन्हीं के द्वारा घेरकर मार दिये जाते हैं. ये एक-दूसरे को जानते भी नहीं...ये दोस्त भी नहीं और दुश्मन भी नहीं. न ही कोई जातिगत दुश्मनी, न प्रजातीय दुश्मनी...फिर भी लड़ते हैं एक-दूसरे से और मारे जाते हैं...दूर बैठकर हमारे देश के कर्णधार पहले उन्हें लड़वाते हैं, फिर खुद ही कहते हैं कि भूल हो गई और हम...? ...क्या हम सिर्फ़ अफ़सोस जाहिर कर सकते हैं?
जवाब देंहटाएंजिन एक हज़ार लोगों ने नक्सलपंथ की रूमानियत के फेर में पड़कर गरीब नौजवानों को मारा है, किसके कहने पर किया ये सब?...कैसे बुद्धिजीवी हैं वो...जो मासूमों की लाश पर अपनी क्रान्ति करना चाहते हैं? क्यों नहीं देश की सांसदों पर हमला करके इन्हीं को खत्म कर देते?
इन लोगों ने मिलकर जिन सौ लोगों को मारा है, वे सभी निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के लाड़ले थे, बड़े घरों और यहाँ तक कि मध्यमवर्गीय परिवारों के भी लड़के सी.आर.पी.एफ़. में भर्ती होने नहीं जाते...वे लोग जाते हैं, जिन्हें मेहनत करने से डर नहीं लगता और जिनके माँ-बाप उन्हें डॉक्टरी और इन्जीनियरी नहीं पढ़ा सकते...वे रोटी के लिये जाते हैं लड़कर मरने...शहीद होने...पता नहीं इन लोगों को मारकर कैसा समाज बनाना चाहते हैं नक्सली...?
उधर वालों को कोई और बहका रहा है. इधर नौजवानों को देश के नीति-निर्माता बलि का बकरा बनाये हुये हैं...मर रहा है गरीब आदमी...चाहे वो सी.आर.पी.एफ़. का जवान हो या नक्सली.
mukti said:
जवाब देंहटाएंमर रहा है गरीब आदमी...चाहे वो सी.आर.पी.एफ़. का जवान हो या नक्सली.
नक्सली आतंकवादी या फिर आतंकवादिओं का कोई सा भी गिरोह गरीब नहीं है. हथियारों, नशों से लेकर इंसानों तक की अंतर्राष्ट्रीय तस्करी में लिप्त हैं ये हत्यारे गिरोह. खरबों डॉलर का धंधा है इनका.
आपकी पसंद लाजवाब है।
जवाब देंहटाएंभावभीनी चर्चा अनूपजी
जवाब देंहटाएंबेहद सटीक चर्चा.
जवाब देंहटाएंमारक चर्चा.
बेंगानी जी से सहमत.
क्या कहें, बस मौन ही रहने दें, लेकिन यह मौन ही तो ले डूबता है !!