जी हां बुरी लत ही है यह! ब्लॉगिंग। कई बार सोचा कि छोड़ दूँ। इस उठा-पटक, खेमेबाज़ी और तू-तू मैं-मैं, से मुक्ति तो मिलेगी .. पर कहां छोड़ पाया। लगा हुआ हूँ, ठीक उसी तरह से जैसे एक नशेड़ी हरबार छोड़ने की क़सम खा कर पहले से ज़्यादा नशा लेने लगता है।
अब देखिए न इस नशे की हालत में मैं यह कहना ही भूल गया, सॉरी …
नमस्कार मित्रों! मैं मनोज कुमार एक बार फिर चिट्ठा चर्चा के साथ हाज़िर हूँ।
हां ये हुई न बात। न दुआ, न सलाम, बस शुरु हो गये थे। अब नशेड़ियों के साथ तो ऐसा ही होता है। अब आप भी सोच ही रहे होंगे कि ये आज मुझे क्या हो गया है और मैं ये क्या अंट-शंट बक रहा हूँ। क्या करूँ, इस नशे की हालत में एक कड़ुवे सच का सामना जो हो गया।
भाई श्याम कोरी ’उदय’ कड़ुवा सच लिखते हैं। कुछ दिनों पहले उन्हें कड़ुवे सच लिखने पर धमकी भी मिली थी। आज वो एक विचारणीय प्रश्न लेकर आये हैं। पूछते हैं क्या चिटठा चर्चाएं अंदरुनी विवादों को जन्म दे रही हैं ? कहते हैं
आज की वस्तविकता को दर्शाता ये लेख बहुत ही सुंदर है। शीर्षक से ही एक ब्लॉगर की चिंता/आक्रोश की गहराई का एह्सास होता है। चर्चाकारों को आपकी चिंता पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। मेरा तो मानना है कि चर्चा में मूल्य-निर्धारण होना चाहिए, मूल्यांकन होना चाहिए। आपके क्या विचार हैं? |
अब जब आप कड़वा-कड़वा खा लें तो अपच तो होगा ही। अपच मानें तबियत में गड़बड़ी। जब तबियत गड़बड़ हो जाए तो डाक्टर की सलाह लेनी पड़ती है। अब देखिए डाक्टर क्या सलाह दे रहें हैं।
डॉ टी एस दराल की डयगनोसिस मानें तो हम सब एक भयंकर नशा का शिकार हैं। जी हां। ब्लॉगिंग के नशे का! डाक्टर हैं तो सलाह भी देंगे ही। कहते हैं सावधान हो जाइये। यह नशा बहुत प्यारा है , लेकिन जब प्यार ही जान का दुश्मन बन जाये तो प्यार में कुर्बान होना न कोई बहादुरी है , न समझदारी। ब्लोगिंग अभिव्यक्ति के मरीजों के लिए एक दवा है। लेकिन दवा है तो सही डोज़ भी होना अत्यंत आवश्यक है । यदि कम रहे तो असर पूरा नहीं आएगा --यदि ज्यादा हो गई तो साइड इफेक्ट्स आने लाजिमी हैं। टोक्सिक डोज़ में तो कुछ भी हो सकता है । सप्ताह में एक या दो पोस्ट लिखिए --बाकी के दिन दूसरों को पढ़िए । मतलब प्यार बांटिये , प्यार पाइये ।ठीक ही कह रहे हैं डाक्टर साहेब! नशेड़ी तो बन ही गया हूँ। अब देखिए न सब काम धाम छोड़कर इस चिट्ठा चर्चा में लगा हुआ हूँ। हां पिछले सतरह घंटे से ढ़ेर सारे चिट्ठों पर जाकर प्यार बांट रहा हूँ और मुझे पता नहीं इस प्यार के बांटने के एवज़ में प्यार पाता हूँ या नहीं पर आपकी बात गिरह में बांध लिया है कि “प्यार बांटिये , प्यार पाइये ।” |
अब नशे में हूँ तो पता नहीं कब उल्टा-पुल्टा हो जाए। और जब कोई उल्टा-पुल्टा करने लगे तो बस समझिए की शामत ही आ गई। यक़ीं नहीं होता तो यह देखिए … यहां क्या हुआ है?
किसी भी सुविधा का उपयोग मनुष्य अपने मूलभूत स्वभाव के अनुसार करता है। जब भी कोई नई खोज या आविष्कार होता है तो लोग अपनी प्रकृति के अनुसार उसके उपयोग ढूँढ लेते हैं। जेबकतरा शेविंग ब्लैड जेब काटने के लिए, आत्महत्या का प्रयास करने वाला कलाई कि नसें काटने, हत्यारा गला काटने के लिए व विद्यार्थी पैंसिल छीलने के लिए कर लेते हैं।एक ब्लॉग लेखक की गिरफ्तारी की जनकारी देते हुए ये बता रहीं हैं घुघूती बासूती जी। वाकया ऐसा है कि एक व्यक्ति अपने ब्लॉग का प्रयोग ग्लोबल इन्डियन फाउन्डेशन नामक संस्था की बदनामी के लिए करता था। ग्लोबल इन्डियन फाउन्डेशन ग्लोबल इन्डियन इन्टरनेशनल स्कूल चलाती है। इसके सिंगापुर स्कूल में अभियुक्त काम करता था। वहाँ से कुछ गड़बड़ियों के कारण उसे निकाल दिया गया था अतः वह ग्लोबल इन्डियन इन्टरनेशनल स्कूल पेरेन्ट्स फोरम फोर ए बैटर GIIS नामक ब्लॉग चला रहा था जिसमें संस्था के बोर्ड के सदस्यों के बारे में अपमानजनक बातें कही जाती थीं। इस ब्लॉग के सिंगापुर निवासी को मॉडरेटर को पहले पकड़ा गया। फिर उसके द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर अब भारत में रहकर काम करने वाले अभियुक्त को पकड़ा गया।अच्छी जानकारी। बुरे काम का बुरा नतीजा..! सावधानी में ही समझदारी है!! |
लेकिन कब तक ये उल्टा-पुल्टा करता रहूँगा। ना-ना, इस नशे से छुटकारा पाना ही होगा। अपने में बदलाव लाना ही होगा। पर कैसे? ये ब्लॉगिंग कौन सी बला है? अरे! मेरे मन में ये कौन सी मनसिक हलचल चल रही है? मनसिक हलचल …. कोई तो ज्ञान दे … हां ज्ञान की बातें तो यहीं है …
ब्लॉगिंग सामाजिकता संवर्धन का औजार है। दूसरों के साथ जुड़ने का अन्तिम लक्ष्य मूल्यों पर आर्धारित नेतृत्व विकास है। ये विचार हैं श्री ज्ञान दत्त पांण्डेय जी के। उन्होंने अत्मविवेचना कर यह पाया है कि ब्लॉगिंग ने उनमें कुछ बदलाव किया है और वह यह है कि एक बेहद अंतर्मुखी नौकरशाह से कुछ ओपनिंग अप हुई है। आगे उन्होंने कुछ ग्राफ आदि के द्वारा एक सैद्धांतिक व्याख्या देने की कोशिश की है जिस पर मेरे जैसे मोटे भेजे वाले एक ब्लॉगर का कहना है कि बहुत गहरी बातें है। अपने मोटे भेजे में कम ही घुस पाती है। ब्लोगिंग से फायदा तो हुआ है पर क्या और कितना यह बता पाना मुश्किल है! ऐसा सब के सथ नहीं हुआ है। कुछ को यह रोचक, ज्ञान कक्षा लगा तो कुछ को बहुत गहन आत्म चिन्तन! पर जो भी हो प्रस्तुतीकरण का तरीका भी बहुत अच्छा है। अंत मॆ उन्हों ने एक प्रश्न एक घटना के माध्यम से रखा है :
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इतने गहन ज्ञान का मुझपर क्या हुआ असर ये बाद में बताऊँगा, पहले इन पर जो हुआ असर वो देखिए …
इस वाकया (रिटायर्ड विदेश सेवा के अधिकारी वाला) को पढकर तो लगता है कि पंकज मिश्रा ज़्यादा समझदार निकले। उन्होंने बताया है कि
अगर आपको इसमें कुछ साहस नजर आया हो तो उन्हें बधाई दे और हां एक बात और उन्हें भी टिप्पणी दे और उनके बॉस श्री दीपक जी के ब्लॉग - यहाँ पर जाकर टिप्पणी अवश्य करे ! |
अरे बाप रे बाप! बहुत गुर हैं ब्लॉगिंग के। मुझे तो क-ख-ग भी इसका नहीं आता। शुरु से सीखना होगा। शुरु से याद आया कुछ साल पहले कादंबिनी में पढ़ा था (तब मैं ब्लॉगिंग के क्षेत्र में नहीं घुसा था) कि ये महोदय हिन्दी ब्लॉगिंग के शुरु के दिनों के कर्णधारों में से एक हैं। और आजकल बड़े फ़ुरसत में हैं। तो इनसे अच्छा सिखानेवाला और कौन होगा! जब इनके पास (ब्लॉग पर) पहुंचा तो देखा महाशय क-ख-ग से भी पीछे अ-आ-इ-ई से ही बात शुरु कर रहे हैं।
आइए इ और ई द्वारा बेहद मनमोहक शब्दो के सफ़र पर आपको लिए चलते हैं। इस यात्रा के दौरान आपको ऐसा लगेगा कि आप वर्णमाला की किसी ऐसे क्लास में बैठे हैं जहां शब्द-ज्ञान सिर्फ इसलिए नहीं कराया जा रहा कि इसे सीखने के बाद आप लाटसाहब बन जाए बल्कि इसलिए कि इसे सीखने के बाद बारीक से बारीक गतिविधियों को आपस में साझा कर सकें। मानवीय भावनाओं को समझ सकें और फिर उसे संवेदनशील तरीके से व्यक्त कर सके। फुरसतिया जी पिछ्ले कई दिनों से यह बतकही/कहा-सुनी देख रहे हैं! ’छोटी ई’ और ’ बड़ी ई’ आपस में लगातार एक-दूसरे से बतिया/बहसिया रही हैं। तर्क-वितर्क कर रही हैं। लगी पड़ी हैं एक-दूसरे को औकात दिखाने पर। पर इस बतकही/कहा-सुनी के अंत का विवेचन तो वाकई ‘मानीखेज’ है .. सिर्फ लालित्य ही नहीं दृष्टि भी।
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पर मेरा सीखने का नशा उतर ही नहीं रहा। क्या यह नशा जानलेवा तो नहीं साबित होगा? जी हां नशा जानलेवा “भी” … … नहीं-नहीं “ही” होता है। देखिए यहां।
सिगरेट पीने वाले इसे अवश्य देखें। आपसे कुछ कहती है ये तस्वीर। इनकी बातें सुनें। |
आज पता नहीं किसका मुंह देख कर उठा जो कुछ सीखने को नहीं मिल रहा। सारा दिन ही खराब जयेगा क्या? अगर पहले से मालूम होता कि आज का दिन ऐसा जाने वाला है तो इस काम को हाथ में नहीं लेता। ज़रा पंडित जी से मिलें शायद वे ही इसका कोई हल निकाल दें।
हम कितने भी मॉडर्न ख़्याल वाले क्यों न हों मन में कहीं न कहीं यह जानने की इच्छा रहती ही है कि आज दिन कैसा बीतेगा? अगर पहले ही पता चल जाए कि हमारा आज का दिन कैसा बीतेगा तो हम कुछ सतर्कता तो बरत ही सकते हैं। या अनुकूल अवसर का लाभ उठा सकते हैं। इसका समाधान लेकर आए हैं पं डी.के.शर्मा “वत्स”। हालांकि इस पोस्ट को लिखने में उन्हें अत्यधिक संकोच का अनुभव हो रहा है और इसके पीछे के कारण को भी वे जानते हैं , और आप भी समझते हैं, लेकिन जो सामने है तो फिर उसे तो झुठलाया भी नहीं जा सकता। इसलिए वे कहते हैं कि आप स्वयं आजमा कर देखिए और फिर बिना किसी संकोच के अवश्य बताईयेगा कि परिणाम क्या निकला? पर इसे चर्चा में शामिल करने में मुझे संकोच बिलकुल भी नहीं हो रहा है क्योंकि यदि कोई व्यक्ति एक सिद्धांत प्रतिपादित कर रहा है तो उसकी परख में हमें योगदान देना चाहिए और निकले परिणामों से उन्हें अवगत भी कराना चाहिए।
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परीक्षण और प्रयोग तो होते रहते हैं। उसमें सफलता असफलता लगी रहती है। महत्वपूर्ण यह है कि अपका उद्देश्य क्या था और आपने उससे क्या सबक सीखा। असफलता में ही सफलता के बीज होते हैं। इसलिए हम ये नहीं कहेंगे कि स्पेस को भेदने में भारत असफल हो गया है। हिन्दुस्तान भले ही 15 अप्रैल को स्पेस में बादशाहत हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया, लेकिन इससे देशवासी जरा भी निराश नहीं है। क्योंकि देशवासियों को पता है कि इसरो में काबिल वैज्ञानिक हैं और एक-न-एक दिन इस दिशा में भारत को सफलता जरूर मिलेगी। 15 अप्रैल का दिन इसलिए भी याद किया जाएगा क्योंकि पिछले 18 सालों से जीएसएलवी डी-3 प्रोजेक्ट पर काम करने वाले वैज्ञानिकों को प्रोजेक्ट के असफल होने पर जरा भी निराशा नहीं हुई बल्कि उन्होंने तुरंत ये घोषणा कर दी कि अगले साल तक फिर जीएसएलवी डी-3 का प्रक्षेपण किया जाएगा। जनदुनिया पर एक बहुत ही सूचनाप्रद आलेख आप अवश्य पढ़ें। यह रचना हमें नवचेतना प्रदान करती है और नकारात्मक सोच से दूर सकारात्मक सोच के क़रीब ले जाती है। |
नवचेतना हमें हमारे चिंतकों, मनीषियों, संतों, महत्माओं की वाणियों से मिलती है। ऐसे ही एक सिलसिला है सूफ़ी चिंतन का।
सूफी चिंतन वस्तुतः उस अन्तःकीलित सत्य का उदघाटन है जिसमें जीवात्मा और परमात्मा की अंतरंगता के अनेक रहस्य गुम्फित हैं .सूफियों ने सामान्य रूप से ऐसे रहस्यों का स्रोत नबीश्री हज़रत मुहम्मद और हज़रत अली के व्यक्तित्त्व में निहित उस ज्ञान मंदाकिनी को स्वीकार किया है जिसका परिचय सामान्य व्यक्तियों को नहीं है .किन्तु सूफ़ियों का एक वर्ग ऐसा भी है जो इन रहस्यों को सीधे परमात्मा से प्राप्त करने का पक्षधर है। एक तथ्यपरक आलेख प्रारंभिक सूफी चिंतन और हज़रत हसन बसरी के द्वारा प्रो. शैलेश ज़ैदी, प्रोफेसर एवं पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष तथा डीन, फैकल्टी आफ आर्ट्स, मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ, युग-विमर्श पर बता रहें है कि जो मान्यता हज़रत हसन बसरी और हज़रत राबिआ बसरी को मिली वो प्रारंभिक सूफ़ियों में किसी के हिस्से में नहीं आयी। यह एक संग्रहणीय आलेख है। अवश्य पढ़ें। |
इस तरह के चिंतन मनन से मन और आत्मा पवित्र और शुद्ध होते हैं। फिर हमारे विचार। हां हमें विचार से शुद्धतावादी होना चाहिए।
एक बड़ा ही सधा हुआ आलेख प्रस्तुत करते हुए श्री अजित वाडडनेरकर जी कहते हैं हिन्दी के शुद्धतावादी हमेशा भ्रम का शिकार रहे हैं। वे हिन्दी में बैसाखी शब्द के इस्तेमाल के खिलाफ हैं। उनका मानना है कि विकलांगों को सहारा देने वाली छड़ी बैसाखी कहलाती है इसलिए बैसाखी पर्व को वैशाखी लिखना सही है। मैं इसे दुराग्रह मानता हूं।
क्या हम हिन्दीवालों की समझ इतनी विकलांग है कि इन दोनों बैसाखियों में फर्क न कर सके?
फ़र्क़ अगर आपको जानना है तो आपको शब्दों के सफ़र पर जाना चाहिए। जहां अजित जी आपको समझाएंगे कि “हिन्दी की कई बोलियां हैं और साहित्य व पत्रकारिता के क्षेत्र में इन्हीं विशाल क्षेत्रों से लोग आते हैं जहां एक ही शब्द के अलग अलग उच्चारण होते हैं। जनपदीय बोली या लोकशैली का प्रयोग जहां साहित्य को समृद्ध बनाता है वहीं अखबारों को एक मानक भाषा अपनानी ही पड़ती है क्योंकि वे भी क्षेत्रीय होते हैं। मगर बैसाखी को वैशाखी लिखना मानकीकरण का उदाहरण नहीं बल्कि शुद्धता का दुराग्रह है।”इसके साथ एक और जानकारी है। इस प्रकार
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वैसे अगर शुद्ध हिन्दी में गद्य लिखा जए तो उसे पढ़ना बड़ा कठिन और समझना दुरूह हो जाता है। लेकिन कुछ आलेख या रचनाएं काफ़ी सरस, सरल और रोचक होती हैं।
जलेबीनुमा गद्य पढ़ना यूं ही बहुत मुश्किल है और उसे समझना, मुझ जैसे ज़हिल आदमी के लिए और भी दूभर है। पर समीर भाई (लाल) का गद्य बड़ा सीधा-सादा और काफ़ी सधा होता है। जो वो बताना चहते हैं एकदम से समझ में आ जाती है। हाल ही में गुज़रे एक वाकये से अपनी बात वे शुरु करते हैं जब उनके घर के सामने का बच्चा उन्हें उनकी पत्नी का पिता समझ लेता है। और इस उद्बोधन पर उनकी पत्नी दिल खोलकर हंसती हैं। साथ ही वे एक पुराना वाकया याद करते हैं जब एक बच्ची ने समीर जी को डैडी कह दिया और उनकी पत्नी उस पड़ोसन से मुंह फुला कर ऐसा बैठी कि फिर दोनों में बात ही नहीं हुई। दोनों घटनाओं से निष्कर्ष निकलते हुए वो कहते हैं कि
लेखकों से मुखातिब होते हुए सलाह देते हैं कि
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ऊपर के आलेख में बच्चों का बड़ा रोचक ज़िक्र आया है। बच्चे तो मन के सच्चे होते हैं। उनके ऊपर कई मुहावरे और कहावतें भी काफ़ी प्रचलित हैं एक लोकोक्ति कहीं या कभी आपने भी सुना ही होगा
बाप मरा अँधियारे में, बेटा पॉवर हाउस ।
जब प्रवीण जी के लैपटॉप महोदय कायाकल्प करा के लौटे और उनकी लैप पर स्कूल से लौटे बच्चे की तरह आकर विराजित हुये तो यही उद्गार उनके मुँह से निकल पड़े। यह बेटा जो पॉवरहाउस है वह कम्प्यूटर की चौथी पीढ़ी है। जहाँ इनके पुरखे हिलने से पहले ही थक जाते थे ये महोदय आज जहान जोतने की क्षमता रखते हैं। यही तो है लैपटॉप का लीप-फॉरवार्ड!
इनका यह आलेख (पोस्ट) पढते वक़्त मेरे मन में यह आया कि एक मेरा लैपटॉप है जो दूरदर्शन पर आने वाले धीमी गति के समाचार की तरह खुलता है और घोंघे की तरह चलता है.. घोंघा बसंत! फिर मन को सांत्वना देता हूँ कि हमारा कंप्यूटर तो सरकारी स्कूल में पढा छात्र है जो आगे की शिक्षा भी सरकारी विश्वविद्यालय से प्राप्त करता है और सरकारी नौकरी में लग जाता है। एक उनका है जो कॉन्वेंट में पढ़ा, आई.आई.एम. तरह की संस्था से डिग्री लेकर विदेश चला गया सॉफ़्टवेयर टाइप विषय का ज्ञान प्राप्त करने और फिर लग गया किसी मल्टी नेशनल में। धराधर्र … फर्र-फर्र काम करता है, काम आता है। एक मेरा निठल्ला, नालायक! काम का न काज का! सौ मन अनाज का!!
वहीं नरेश सिंह राठौड जी का मामला अलग है। कहते हैं
“समय बहुत बदला है पांडे जी! २५ साल पहले जब पहली बार कम्प्यूटर के दर्शन स्कूल में हुए थे तब उसे उच्च तापमान व धुल गर्द से बचाने का पूरा इंतजाम स्कूल वालों ने किया था, चप्पल भी १०० मीटर दूर खोलनी पड़ती थी!! लेकिन आज हालात बदल गए है। हमारा कम्प्यूटर १४ घंटे राजस्थान का उच्च तापमान (४८ डिग्री ) सहने में सक्षम है बिना किसी कूलर या एसी के! क्यों कि इसे बिसलरी के पानी वाली आदत नहीं डाली है!!!”
निशांत मिश्र कुछ नई जानकारी देते फ़र्माते हैं
“चाँद पर मनुष्य को ले जाने वाले अपोलो यानों में आज के पौकेट कैलकुलेटर से भी कम तकनीकी क्षमता थी। डुअल कोर के बाद अब क्वाड कोर और औक्ट कोर की चर्चा गर्म है। हार्ड डिस्क भी टेराबाइट्स में आने लगी हैं। और भी देखिये क्या-क्या देखना बाकी है अभी! कोई आश्चर्य नहीं यदि अगले बीस-तीस सालों में मष्तिष्क में ही ये बाईट-शाईट फिट होने लगेंगी!! तब मैं आपसे ब्लूटूथ में मन ही मन चर्चाऊँगा…. और आप क्या करेंगे?”
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वेल! इस हाई-फाई तकनीकी आवश्यकता के बीच में यदि हम यह कहें कि हमारे देश के ट्रेडिशनल सोसाइटी और इक्नॉमी में ये लेटेस्ट मॉडर्न टेकनॉल्जी कितनी सही, कितनी ज़रूरी है, बेरोज़गारी बढ़ाएगी या कमाएगी, तो लगेगा कि मैं सार्थक बहस नहीं कर रहा हूँ! पर यहां पर मुझे धीरू सिंह की पंक्तियां उद्धृत करने का मन कर रहा है,
“मै जो लिख रहा हू वह कोई नही पढेगा क्योकि इसमे पढने के बाद आनंद की अनुभूति नहीं होगी। शायद इसीलिए ब्लॉग पर महंगाई ,गरीबी ,भूख को कभी महत्त्व नहीं मिलता।”
अपने-अपने विषय हैं अपना-अपना मत। आगे कहते हैं,
“हम खुश है कारो की रिकार्ड तोड़ विक्री देख कर! हम खुश है दौड़ती हुई मेट्रो देखकर!! हम खुश है ऊँची ऊँची बिल्डिंगे देखकर!!! हमें चिंता है कामनवेल्थ गेम शुरू होने तक स्टेडियम तैयार हो जायेंगे कि नहीं, हमें चिंता है ब्याज की दरे ऊपर नीचे होने की, …हमें चिंता है गर्मियों में एयर कंडीशन्ड चलाने के लिए बिज़ली भरपूर मिलेगी या नहीं!! लेकिन हम बेखबर है उस आग से जो चिंगारी के रूप में सुलग रही है। वह है गरीबी ,बेकारी ,भुखमरी। सिर्फ ३० % की चमक दमक ७०% के अंधेरो को काफी दिन तक ढक नहीं पायेगी।”
हो सकता है ये सब बेकार की बातें हों, लेकिन पढ़ तो सकते है ना!
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इस विषय पर ध्यान देने लायक गगन शर्मा जी का एक पोस्ट है। बताते हैं कि भुखमरी से निजात पाने का रास्ता बिहार सरकार ने ढ़ूंढ़ निकाला है। अब लोगों को चूहे का मांस खाने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। जल्दी ही सड़क छाप ढाबों पर चूहे के मांस से बनने वाले उत्पाद, जैसे रैट टेल पास्ता, रैट कीमा, रैट बर्गर इत्यादी मिलना शुरु हो जायेंगे। एक सर्वेक्षण से पता चला है कि देश में आठ अरब चूहे हैं और उनकी प्रजनन क्षमता अद्भुत है, सो सप्लाई की कोई कमी नहीं रहेगी। |
इस भूखमरी की बहस को आगे बढ़ाते हैं। भूख मरे या ना मरे बहस तो ज़ारी रहनी चाहिए, तभी तो हल निकलेगा। ऐड़ी-चोटी पर उपदेश सक्सेना बता रहे हैं कि
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हर चीज़ का अपना अर्थशास्त्र होता है। भूख का भी है। पर उस पर आगे बढ़ने से पहले ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ द्वारा प्रस्तुत तस्लीम पर शिरिष खरे द्वारा उठाया गया एक प्रश्न आपके सामने रख रहा हूँ
जी नहीं! भूख की रफ़्तार के आगे ये सारे सेक्टर बहुत पीछे हैं। अपने इस विचार को वे आंकड़ों द्वारा सच साबित करते हैं।
भूख का यह अर्थशास्त्र न केवल हमारे सामाजिक ढ़ाचे के सामने एक बड़ी चुनौती है, बल्कि मानवता के लिए भी एक गंभीर खतरा है।
भूख की विपदा तो देश के कई बड़े इलाकों को खाती जा रही है। वैसे भी युद्ध और प्राकृतिक आपदाएं तो थोड़े समय के लिए आती हैं और जाती हैं, मगर भूख तो हमेशा तबाही मचाने वाली परेशानी है। इसलिए यह ज्यादा खतरनाक है। मगर सरकार है कि इतने बड़े खतरे के खिलाफ पर्याप्त मदद मुहैया कराने में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है।
इस जानकारीपरक आलेख में विषय को गहराई में जाकर देखा गया है और इसकी गंभीरता और चिंता को आगे बढ़या गया है।
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भूखमरी से भी खतरनाक चीज़ है मंहगाई। यह किसी को नहीं बख्शती। पर एक कवि सम्मेलन ऐसा भी सजा हुआ है जहां मंहगाई का महिमामंडन किया जा रहा है। आइए आपको लिये चलता हूँ। मनोज द्विवेदी जी बता रहे हैं कि जैसे ही मंच से चरण कमल बंदौं हरिराई, आंख खुली तो पाई मंहगाई गाया गया पूरे हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट फैल गई। सभी श्रोतागण मंहगाई के गुणगान से गौरवान्वित हो रहे थे। कारण बी बड़ा ही स्पष्ट है कि यही तो एक सदाबहार मुद्दा है जिसपर कलम भर घिसने से घर का चूल्हा-चौका विधिवत कार्य करने लगता है। आज की वस्तविकता को दर्शाता ये लेख बहुत ही सुंदर है।
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बहुत बात की देश की समस्यायों की। अब एक बेहद भावपूर्ण ग़ज़ल से आपकॊ रू-ब-रू कराऊँ। डा. कविता किरण की ग़ज़ल के कुछ शे’र देखिए और पूरी पढ़िए उनके ब्लॉग पर। वो ग़ज़ल आपको सुनानी है
अश्क कैसे गिरा दूँ पलकों से मेरे महबूब की निशानी है
हमने लिखा नहीं किताबों में अपना जो भी है मुंह ज़बानी है | अदा जी की ग़ज़लें तो होती ही हैं अच्छी जो दिल के साथ-साथ दिमाग़ में भी जगह बनाती है। वो जो दौड़ते से रस्ते हैं, ठहर जायेंगे तब सोचेंगे लोग कि वो किधर जायेंगे ये गाँव ये बस्ती अब उजड़ जायेंगे
पहुँचे हैं कगार पर,पर आस है बाकी
उम्मीद के हंगामों में शामिल है 'अदा' नज़र भर देख लो हम निखर जायेंगे |
डा. डंडा लखनवी ने उन लोगों जो वतन को लूट के मौज़-मस्ती कर रहें हैं की खूब मार-कुटाई की है। जी हां! उनके अंदाज़ अपने हैं! निराला! सबसे अलग! सबसे ज़ुदा! कर रहे थे मौज मस्ती जो वतन को लूट के। रख दिया कुछ नौजवानों ने उन्हें कल कूट के।
सिर छिपाने की जगह सच्चाई को मिलतीनहीं सैकडों शार्गिद पीछे चल रहे हैं झूट के।।
शाम से चैनल उसे हीरो बनाने पे तुले, अपनी बीवी से झगड़ते अब नहीं वो भूल के-
भाषा की सर्जनात्मकता के लिए विभिन्न बिम्बों का उत्तम प्रयोग, इनकी लेखनी की विशेषता है। लेखन में व्यंग्य के तत्वों की मौजूदगी से विद्रोह के तेवर और मुखर हो गए हैं। इस रचना में विचार के क्षण ही नहीं मनोरंजन और फुलझड़ियों का ज़ायका भी मिलता है। | आखर कलश पर एक रचनाकार की कई रचनाएं पेश करने के क्रम में इस बार प्रस्तुत किया गया है मोहम्मद इरशाद की पांच ग़ज़लें। उनकी इन ग़ज़लों में विचार, अभिव्यक्ति शैली-शिल्प और संप्रेषण के अनेक नूतन क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं। जो मुझसे मिले इंसाँ उसे मेरा कर दे हर हाल में करते हैं जो शुक्र अदा तेरा ‘इरशाद’ को भी मौला तू बस ऐसा ही कर दे
२. आदमी खुद से मिला हो तो गजल होती है खुद से शिकवा-गिला हो तो गजल होती है देखो ‘इरशाद’ जरा गौर से सुनना उसको गुनगुनाती सी हवा हो तो गजल होती है
३. कुछ लोग जी रहे हैं वहमो-गुमान में वो सोचते हैं हम ही हैं बस इस जहान में अब देखते हैं उसका निशाना बनेगा कौन बाकी है तीर आखरी उनकी कमान में
४. हर पल की तुम बात न पूछो कैसे गुजरी रात न पूछो बाहर सब-कुछ सूखा-सूखा अन्दर की बरसात न पूछो
५. रखते थे इत्तेफाक जब उनके बयाँ से हम अब क्या कहें बताईये अपनी जबाँ से हम तुम दो कदम चले कि बस लडखडा गए गुजरे हैं सौ-सौ बार ऐसे इम्तिहाँ से हम |
एक ग़ज़ल जो मेरी लिखी हुई है ..फिर भी मेरी नहीं है कह रहे हैं स्वप्निल कुमार 'आतिश' ।
हम सियारों की तरह हैं , और हैं रंगे हुए |
आज का सबसे ज़्यादा पसंदीदा |
चिट्ठा जगत पर दिख रहे सबसे अधिक टिप्पणियों के आधार पर ... आज का सबसे अच्छा चिट्ठा है पाखी की दुनिया पर ब्लागोत्सव -2010 की कला दीर्घा में पाखी की अभिव्यक्ति । कहती है“आज का दिन खुशियों भरा दिन है। पहली बार ब्लॉग की दुनिया से जुड़े लोग ब्लागोत्सव मना रहे हैं। जब पहली बार मैंने इस उत्सव के बारे में सुना था तो बड़ी उदास हुई थी की हम बच्चों के लिए वहां कुछ नहीं है। फिर मैंने इसके मुख्य संयोजक रवीन्द्र प्रभात अंकल जी को लिखा कि- हम बच्चे इसमें अपनी ड्राइंग या कुछ भेज सकते हैं कि नहीं। जवाब में रवीन्द्र अंकल ने बताया कि अक्षिता जी! क्षमा कीजिएगा बच्चों के लिए तो मैने सोचा ही नही जबकि बिना बच्चों के कोई भी अनुष्ठान पूरा ही नही होता, इसलिए आप और आपसे जुड़े हुए समस्त बच्चों को इसमें शामिल होने हेतु मेरा विनम्र निवेदन है...देखा कितने प्यारे अंकल हैं रवीन्द्र जी। हम बच्चों का कित्ता ख्याल रखते हैं। अले भाई, जब बच्चे नहीं रहेंगे तो उत्सव कैसे पूरा होगा।”बहुत सुन्दर पाखी बिटिया! आपकी चर्चा हर तरफ हो..आप खूब प्रगति करो!! पाखी को ढेर सारा प्यार व आशीष कि आप यूँ ही उन्नति के पथ पर अग्रसर हों!!! |
मेरी पसंद
लिखो यहां वहां पर विनीता यशस्वी की प्रस्तुति है आज की मेरी पसंद
बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ,
याद आती है चौका बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ।
बान की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोयी-आधी जागी
थकी दुपहरी जैसी माँ।
चिड़ियों की चहकार में गूंजे
राधा-मोहन, अली-अली
मुर्गे की आवाज़ से खुलती
घर की कुण्डी जैसी माँ।
बीबी, बेटी, बहन, पड़ोसन
थोड़ी-थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ
बांट के अपना चेहरा माथ
आंखें जाने कहाँ गयी
फटे पुराने इक एलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ
- निदा फाज़ली
चलते-चलते |
ब्लॉगिंग करना एक नशा है और यह नशा सर चढ़कर बोलता है। छोड़ने की कई बार सोचा पर
मैं उसको छोड़ न पाया बुरी लतों की तरह वह मेरे साथ है बचपन की आदतों की तरह मुझे संभालने वाला कहां से आएगा मैं गिर रहा हूं पुरानी इमारतों की तरह। --- मुनव्वर राना |
भूल-चूक माफ़! नमस्ते! अगले हफ़्ते फिर मिलेंगे।
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जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति.शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंशानदार चिटठा चर्चा ...अच्छे लिंक्स मिले ...आभार ...!!
जवाब देंहटाएंबहुत मेहनत से की है आपने चर्चा साफ़ परिलक्षित है....देखने में भी बहुत सुन्दर लगा सबकुछ....और सबसे बड़ी बात हर तरह की पोस्ट शामिल की गयी है...
जवाब देंहटाएंनिःसंदेह आप बधाई के पात्र हैं....
बेहतरीन चर्चा ! उपयोगी लिंक्स ! आभार ।
जवाब देंहटाएंशानदार चिटठा चर्चा ...अच्छे लिंक्स मिले ...आभार ...!!
जवाब देंहटाएंसुन्दर। बहुत खूब! मेहनत से की गयी चर्चा। विडो लाइव राइटर का इस्तेमाल सीखने और करने की बधाई!
जवाब देंहटाएंशानदार चिटठा चर्चा ..
जवाब देंहटाएंएक सारगर्भित और अच्छी चर्चा.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चा....बधाई
जवाब देंहटाएंbahut khub rahi aaj kki chitta charcha
जवाब देंहटाएंshekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com
जवाब देंहटाएंबहुआयामी चरित्र लिये हुये एक उत्तम चर्चा ।
काफ़ी मेहनत की है आपने.. काफ़ी कुछ पढा भी है और एक बहुत अच्छी चर्चा उभरकर आयी है...
जवाब देंहटाएंchittha charcha me shamil karne ke liye bahut bahut dhanybad...behtarin sankalan kiya hai apne..
जवाब देंहटाएं@ अनूप शुक्ल
जवाब देंहटाएंआपने कई बार प्रोत्साहित किया इसे इस्तेमाल करने के लिये। फाइनली अब आ ही गया।
मेहनत तो दिख रही है... बढ़िया बातें निकाल कर लाये है.. सभी लिंक पर तो जाना संभव नहीं है पर कुछ पर तो जा ही सकता हूँ...
जवाब देंहटाएंकई रंग हैं... कई स्वाद हैं...
शुक्र है चार दिन बाद ही सही पर एक विस्तृत चर्चा...
सुन्दर व दिलचस्प चर्चा. पाखी बिटिया की चर्चा के लिए विशेष आभार.
जवाब देंहटाएंvery nice and useful post ............
जवाब देंहटाएंमनोज जी, चर्चा तो काफी व्यापक एवं रोचक है. ..बधाई.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब, पाखी की अभिव्यक्ति तो सभी को खूब पसंद आई. अब तो पाखी को और मन से कोई काम करना चाहिए.
जवाब देंहटाएंमनोज अंकल जी...
जवाब देंहटाएंआपको धन्यवाद कि आपने मेरी पोस्ट की यहाँ चर्चा ' आज का सबसे ज्यादा पसंदीदा ' के तहत की. अपना स्नेह एवं आशीष बनाये रखियेगा.
सभी लोग चर्चा अच्छी कह रहे हैं पर ये विरोध में वोटिंग कौन करवा रहा है, क्या फ़िर कोई गुटबाजी उभर रही है ।
जवाब देंहटाएंबेहद सुरूचिपूर्ण एवं सारगर्भित चर्चा!!!
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया संकलन तैयार किया आपने...चर्चा में इस नाचीज की पोस्ट को स्थान देने के लिए आपका दिल से आभारी हूँ!!
बहुत सुंदर चर्चा लगि मनोज जी, वेसे हर नशे का इलाज तो हमारे पास ही है, अब मै महीने मै सिर्फ़ १५ दिन ही ब्लांग पर आऊंगा
जवाब देंहटाएंवाह जी बहुत बढ़िया.
जवाब देंहटाएंkuch bahut hi achhi posts padhne ko mili... aap ka bahut bahut shuqriya ki aapne meri post ko yahaan shamil kiya..
जवाब देंहटाएंआजकल ये नशा हमें भी चढ़ा है वेशक दो दिनों से हम लगभग गायब हैं
जवाब देंहटाएंमनोज कुमार जी , आपका चिट्ठा चर्चा का अंदाज़ अच्छा लगा । विशेष कर लिंक के बाद अपने कमेंट्स बेहद दिलचस्प लगे । आपने बहुत अच्छे ब्लोग्स और पोस्ट्स प्रस्तुत किये हैं ।
जवाब देंहटाएंलेकिन मित्र --१७ घंटे !
१७ ना भी हों , लेकिन इतना समय ब्लोगिंग पर कोई सेवा निवृत अकेला रहने वाला करे तो बात समझ में आती है । लेकिन ऑफिस में ब्लोगिंग , या फिर अत्याधिक समय ब्लोग्स पर --ज्यादा अच्छी बात नहीं ।
वैसे ये बात धीरे धीरे सब की समझ में आ रही है ।
आभार एवम शुभकामनायें।
@डा. टी एस दराल
जवाब देंहटाएंइस बार कई लिंक्स अच्छे थे, जो मेरे मन को भाते थे, साथ ही बंगाल में पोएला बैसाख की छुट्टी थी इसलिए इतना समय दे पाया। वैसे आपकी सलाह अवश्य मानी जाएगी।
अच्छी विस्तृत और मेहनत से की गई चर्चा।
जवाब देंहटाएं1. बहुत मेहनत की है जी आपने! धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं2. डॉ टी एस दराल की डयगनोसिस सही लगती है!
चर्चा का अंदाज़ अच्छा लगा । बहुत मेहनत से की है आपने चर्चा |
जवाब देंहटाएंमनभावन चर्चा ! साज-सज्जा तो जैसे सोने पे सुहागा.... !! धन्यवाद !!!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद , काफ़ी लम्बे अरसे के बाद चिट्ठा चर्चा पर खुद को देखना स्कून मह्सूस करा रहा है .
जवाब देंहटाएंwaah... ise kahte hain kai soch kai lekh kai vichar aur kai kavitaon ke sangam se bana ek mahasagar... bas manthan kariye aur nikal lijiye bahut se amulya anmol vismaykaari ratn... sir... shukriya.. tahe dil se aabhari hoon aur sukrgujar hoon aapki itni mehnat ka...har ek heere ko tarash ke apne sabdon se use khoobsurat banane ka jo karya aapne kiya hai... man sach me prafullit ho gaya... bahut bahut dhanyawad aur aabhar...
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