विकट गर्मी का मौसम चल रहा है। हर तरफ़ पारा उचकता जा रहा है। बकौल संजीत:
दिन में बाहर भटको तो हवाएं जैसे जला डालना चाह रही हो, धूप जैसे पिघला देना चाहता हो और सूरज तो मानों अपनी तपिश की प्रचंडता दिखाने पर उतर आया हो।यह फोटो भी संजीत के ब्लॉग से ली गयी है।
लेकिन कुछ लोग हैं जो यह भीषण गर्मी भी एंज्वाय करते हैं। देखिये गिरीश बिल्लौरे कह रहे हैं उफ़्फ़ शरद कोकास भीषण गर्मी को भी एन्जोय करते है ? और दूसरी तरफ़ बवाल जी गर्मी के पीछे पर्यावरण असंतुलन का हाथ बता रहे हैं। बातचीत सुनिये और देखिये क्या कहते हैं संस्कारधानी के महारथी पर्यावरण और दूसरे मुद्दों पर।
सतीश पंचम ने परसों मुंबईया जीवन का शब्द कोलाज पेश किया। शीर्षक ही देखिये
सड़क....बैनर....देखो गधा मू........टन्न्....कच्चा आम...औरत का मन....शर्तिया....खट्टा......एक 'मन्नाद'.... वहां सवाल यही है कि
धार मारने वाले का फोर्स उतने उपर क्यों नहीं जाता..अगली पोस्ट में मंत्री महोदय के इस्तीफ़े के बाद ड्राईवर से बातचीत देखिये। शीर्षक देखिये इस्तिफित मंत्री करूर और उनके ड्राईवर के बीच की एक्सक्लूसिव बातचीत - सर, चिंता नको... महान कवि और समाज सुधारक श्री गोविंदा जी का कहना था कि खाओ, खुजाओ और बत्ती बुझाओ। चिंता नको सर। इस्तीफ़े के बाद ड्राइवर और मंत्रीजी से हुई वार्ता के अश:-
अरे मैं उसके लिये नहीं रोकवा रहा हूँ, दरअसल सामने कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं। जानना चाहता हूँ कि कहीं कुछ अवैध तो नहीं हो रहा।
- सर जाने दिजिए, अवैध-फवैध के चक्कर में पड़ेंगे तो बेबात के जूते पड़ेंगे और आजकल तो जूते भी क्लासिक वाले होते हैं, बेभाव के पड़ते हैं और स्वभाव से मिलते-जुलते हैं।
- अच्छा, यानि अगर मैं उनके खेल में कुछ पूछताछ करने जाउंगा तो वह लोग मुझे चलता-फिरता कर देंगे।
- सर, ये बच्चे आईपीएल वाले नहीं हैं जो कि आपसे सीधे सीधे भिड़ जांय, वह तो गल्ली क्रिकेटर हैं जो कि सीधे न भिड़कर इनडायरेक्टली भिड़ते हैं । कार के शीशे तोड़ने में और टायर से हवा निकलवाने में ये उस्ताद होते हैं।
- अच्छा, तो यहीं कैटल क्लास हैं शायद.....
और इस बातचीत का अंत होता है इस ट्विटरिया संवाद से-
Cattle Class is the ‘Class of the people’, who hate the ‘class’ people. यहां ऊपर का फोटो सतीश पंचम जी के ब्लॉग से है। इसका परिचय देते हुये वे लिखते हैं-पिछले साल मैंने यह तस्वीरें खींची थी। मेरे ही गाँव के कुछ बच्चे हैं जो गन्ने के खेत में रखवाली करने के साथ उन गन्नों पर हाथ भी साफ कर रहे थे, वह तो ठहरे बच्चे...पर उनका क्या जो हमारे कर्णधार हैं!
दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ़ के जवान नक्सली हमले में मारे गये। सारे देश में इस हिंसा के खिलाफ़ आक्रोश है। कुछ लोग इस मसले पर अलग राय रखते हैं और नक्सली हमले और हत्याओं को बोया पेड़ बबूल का आम कहां से होय जैसी घटना बताते हैं। अभय तिवारी ने इस मौके पर पूंजीवाद-माओवाद पर अपने नोट्स लिखे और अपनी सोच बताई। तीन भागों में लिखे इन नोट्स के बहाने अपनी बात कही:
मैं यह ब्लौग इसलिए लिखता हूँ कि मैं इस लिखाई के ज़रिये अपने बारे में, लोगों और दुनिया के बारे में अपनी समझ को साफ़ कर सकूँ। किन्ही बनी-बनाई समझदारियों और सूत्रों का समर्थन और मंज़ूरी देने के लिए नहीं लिखता।
अपने आप से हुई इस बातचीत में जो उन्होंने लिखा उसके कुछ अंश देखिये:
योरोप और अमरीका में पूँजीवाद के विकास में जिस तरह से पृथ्वी के संसाधनो का दोहन हुआ है अगर उसी दर से संसाधनो का दोहन भारत और चीन और उसके बाद अफ़्रीका के देशों के भी विकास के लिए हो तो पृथ्वी की वर्तमान सूरत को बचाए रख पाना लगभग असम्भव माना जा रहा है। यह बाज़ार सर्वव्यापी है। आदिवासी इलाक़ो को भी ये अपने घेरे में लेकर उनकी सम्पदा को रिसोर्स और उन आदिवासियों को उपभोक्ता बना देना चाहता है। यह एक दोहरे शोषण की नीति है। और आदिवासी अपने आदिकालिक जीवन की रक्षा करने के लिए पूरे जी-जान से लड़ रहे हैं। ये लोग उग्र हैं क्योंकि इनका विश्वास समझौते में नहीं, संघर्ष में है। इसी बात को खींचकर ये भी कहा जा सकता है कि ये लोग रोमांच की तलाश में वो नौजवान हैं जो अपनी लड़ाई नहीं खोज सके, इसलिए दूसरों की लड़ाई में भाग लेने आ गए। आज देश में इतना बड़ा सर्वहारा वर्ग पैदा हो चुका है, लेकिन उनको कोई ख़बर नहीं। डॉक्टर, पत्रकार, लेखक, अभिनेता, और गीतकार, संगीतकार, गायक सभी वेज लेबर में तब्दील हो चुके हैं। न तो उनके पास उत्पादन के औज़ार है और न ही उत्पाद के साथ कोई रिश्ता। वे वास्तविक और सच्चे तौर पर अपनी रचना और उत्पाद से विलगित हैं। लेकिन माओवादी ही नहीं, भारत की कोई कम्यूनिस्ट पार्टी उन्हे सर्वहारा नहीं मानती। पूँजीवाद किसी से लड़ना नहीं चाहता। वो बाज़ार को, वस्तुओं को, सुविधाओं को दूर-दूर तक फैलाना चाहता है। और इस के लिए वह सबसे सरल रास्ता पकड़ता है। भ्रष्टाचार आसान राह है, ईमानदारी बड़ी कठिन है। ईमानदारी अड़ियल है, बेलोच है, भ्रष्टाचार बड़ा लचीला है। माओवादी आन्दोलन के साथ समस्या ये नहीं है कि वे आदिवासियों के मुद्दे उठा रहे हैं, और पूँजीवाद की मुख़ालफ़त कर रहे हैं। सरकार को सबसे अख़रने वाली बात ये है कि वे राज्य को चुनौती दे रहे हैं। वे एक समान्तर सत्ता बन कर उभर रहे हैं। इस दुनिया का जितना नुक़्सान सच्चे और आदर्शवादी लोगों ने किया है उतना किसी ने नहीं किया। अरुंधति कितनी सुन्दर है और कितना अच्छा बोलती हैं! भाषा और भावों पर उनका कैसा एकाधिकार है! उनके चेहरे पर उच्च नैतिक बोध की एक आध्यात्मिक चमक है। अपने मधुर स्वर में वे जो बोलती हैं, लगता है कोई देवी बोल रही है। उन के जैसी कोई दूसरी स्त्री सामाजिक जीवन में नहीं है। मैं लगभग उनसे प्रेम करता हूँ और उनकी हर बात से सहमत होना चाहता हूँ। लेकिन मेरे भीतर प्रेम की, रूमान की नदी सूख चुकी है। काश मैं उन पर आँख मूँद कर भरोसा कर सकता; मेरा शुष्क विवेक, मेरे रुक्ष तर्क मुझे उस देवी से उलझा रहे हैं, मेरा ईश्वर मुझे क्षमा करे! सर्वहारा वर्ग के पक्ष से विकास करने वाली व्यवस्थाओं का रेकार्ड बहुत रक्तरंजित रहा है। और मज़े की बात ये है कि सत्तर साल तक सोवियत संघ में समाजवाद रहने के बाद जब वहां लोकतंत्र आया तो ऐसा नहीं था कि वहाँ वर्ग विभेद बिला चुके थे? वे समाज में मौजूद बने रहे, भले ही सुप्तावस्था में? ये विचित्र बात कैसे सम्भव हुई? इसका क्या अर्थ है? तो इतना सब प्रपंच किसलिए, जब मनुष्य के मिज़ाज में जब कोई परिवर्तन आना ही नहीं है? माइन का विरोध करने वालों ने पूरे जंगल को लैंडमाइनो से भर दिया है। ये जंगल की, पर्यावरण की रक्षा हो रही है या उसे युद्ध के उन्माद में एक दूसरे अफ़्ग़ानिस्तान में बदला जा रहा है?
इसी क्रम में पढिये चंदू भाई की बकलमखुद। कल उन्होंने लोहियाजी के बारे में अपने संस्मरण लिखे:
लोहिया की सबसे बड़ी सीमा मुझे यह जान पड़ती है कि उनमें अपनी सीमाओं के बारे में जानने की इच्छा, या क्षमता, या शायद दोनों नगण्य थी। वे बराबर मानते रहे कि पिछड़ी जातियों के किसान और उनके बीच से आए नौजवान देश की तकदीर बदल देंगे। लेकिन उनके सामने राजनीतिक लोकाचार का कोई मानक, कोई कसौटी रखने का प्रयास उन्होंने कभी नहीं किया। उनके लगभग सारे लेफ्टिनेंट घनघोर अवसरवादी निकले। सालोंसाल गैरकांग्रेसवाद के नारे लगाने के बाद चुपचाप कांग्रेस में चले जाने से उन्होंने कोई गुरेज नहीं किया। संयोगवश विपक्षी राजनीति में बने भी रहे तो सत्ता मिलते ही वंशवाद से लेकर भ्रष्टाचार तक किसी भी मामले में कांग्रेसियों से जरा भी पीछे साबित नहीं हुए।
शून्य की महत्ता किसी से छिपी नहीं है। लेकिन एक अध्यापक उसे किस नजरिये से देखता है देखिये शेफ़ाली पाण्डेय के शून्य के साथ प्रयोग :
शून्य की खोज करने के लिए हम भारतीय अपनी पीठ भले ही ठोक लें, लेकिन शून्य में से अंक निकालने की कला सरकारी स्कूल के मास्टरों ने ही ईजाद की है, जिसके लिए दुनिया को हमारा एहसानमंद होना चाहिए | शून्य से बिना कोई सबूत छोड़े हुए आसानी से हम रिज़ल्ट की आवश्यकतानुसार 6 , 8 , 9 बना ले जाते हैं शून्य का सदैव जोड़े के रूप में होना यही दर्शाता है कि अंकों को जोड़े के रूप में लिखने की इस प्रणाली प्रणाली का आविष्कार भी गणितज्ञों ने हम मास्टरों की सुविधा के लिए किया होगा ताकि हम बिना सबूत छोड़े शून्य से 88 से लेकर 99 तक बना लें जाएं |
“ए बाबा, ( हमारे यहाँ ब्राह्मणों को बाबा कहते हैं) काहे भभकत हउआ फुटही ललटेन मतिन. इ कुल तोहरे साथ न जाई चलत की बेरिया” (फूटी हुई लालटेन की तरह भभक क्यों रहे हो? ये सब संसार छोड़ते समय तुम्हारे साथ नहीं जायेगा). भैय्या एक क्षण के लिये अवाक रह गये, फिर बड़बड़ाते हुये घर के भीतर चले गये…कौन बोल सकता है भला इसके आगे ???
इसका पूरा किस्सा यहां बांचिये।
मुकेश तिवारी लिखते हैं:
मुझे,
यह भ्रम अक्सर होता है कि
कोई मेरे दरवाजे पर
दे रहा है दस्तक
या कभी रात यह भी महसूस होता है कि
पुकारा है किसी ने मेरा नाम लेकर
या
कोई मेरा पीछा कर रहा है
बड़ी देर से
मुझे सुनायी देती हैं
अन्जानी आहटें रह रहकर
या
किसी मोड़ पर
ठिठक जाते हैं कदम मुड़ने से पहले
लगता है कोई मेरी ताक में बैठा है छिपकर
पृथ्वी पर जीवन कैसे आया - एक लेख और एक नज़्म बजरिये शरद कोकास
शैतान बेमौत ही मर गया....: जलवे हैं इन्सान की हैवानियत के।
अलविदा तो नहीं कह रहा लेकिन...खुशदीप : अब जिम्मेदार हो गये
मेरी पसन्द
कभी वो मुस्कुराते हैं ,कभी वो रूठ जाते हैं
बड़े ज़ालिम महबूब हैं तसव्वुर लूट जाते हैं
नज़र जो मुन्तजिर होती हम भी लौट आते घर
परिंदों के घरौंदों से , घर क्यूँ टूट जाते हैं.... ?
लगाये जो शजर हमने बाग़ ही सूख जाते हैं
जहाँ हमने मुहब्बत की शहर वो छूट जाते हैं
जफ़ा देखी वफ़ा देखी जहाँ की हर अदा देखी
छुपा चहरे नकाबों में , हया वो लूट जाते हैं
वो कश्ती हूँ बिखरती जो रही बेबस हवाओं से
बहाना था वगरना दिल कहाँ यूँ टूट जाते हैं
अक्सर मुस्कुरा कर जो सदायें मुझको देते हैं
इशारों ही इशारों में , दिलों को लूट जाते हैं
बड़े नाज़ुक से लम्हे थे जब वो सामने आये
जुबां खामोश रहती है तअश्शुक़ फूट जाते हैं
गुमां न कर इतना अपने इन नादान ख्यालों पे
लहरें जो साथ न दें तो सागर भी टूट जाते हैं
कभी मत्ले पे होती वाह कभी मक्ता लुभाता है
अस'आर तेरे यूँ 'हीर' दिलों को लूट जाते हैं ।!!
हरकीरत’हीर’
और अंत में
फ़िलहाल इतना ही। आपका सप्ताह मजेदार शुरू हो। चलते-चलते स्व.रमानाथ अवस्थी के गीत की पंक्तियां पढ़वा रहा हूं:
आज इस वक्त आप हैं,हम हैं
कल कहां होंगे कह नहीं सकते।
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
वक्त मुश्किल है कुछ सरल बनिये
प्यास पथरा गई तरल बनिये।
जिसको पीने से कृष्ण मिलता हो,
आप मीरा का वह गरल बनिये।
जिसको जो होना है वही होगा,
जो भी होगा वही सही होगा।
किसलिये होते हो उदास यहाँ,
जो नहीं होना है नहीं होगा।।
आपने चाहा हम चले आये,
आप कह देंगे हम लौट जायेंगे।
एक दिन होगा हम नहीं होंगे,
आप चाहेंगे हम न आयेंगे॥
इस गीत को सुनने का मन हो स्व.रमानाथ अवस्थीजी की आवाज में तो इधर सुनिये।
पोस्टिंग विवरण: सुबह साढ़े छह बजे से शुरू होकर आठ बजकर पच्चीस मिनट पर पोस्टित। रमानाथ अवस्थीजी की कवितायें और गिरीश बिल्लौरे-बवाल संवाद सुनते हुये- दो कप चाय के साथ।
इस बार का आपकी पसन्द विशेष पसन्द आया. रमानाथ अवस्थी की रचना के लिए आभारी हूँ. शेष शुभ.
जवाब देंहटाएंविचार और मौसम दोनों में काफी गर्मी है:)
जवाब देंहटाएंअभय तिवारी के विचारों से अबगत हुआ।
अच्छा संयोजन
आपके केप्सन फोटोज पर आ रहे हैं, कृपया इन्हें दुरस्त कर लें।
जवाब देंहटाएंबहुत मेहनत से की गयी सुंदर चर्चा .. बहुत सारे महत्वपूर्ण लिंक्स के लिए आभार !!
जवाब देंहटाएंbahut sundar charcha.
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंGood..
यानि nice से 1% कम,
चूँकि अपुन की औकात इतनी ही है ।
shukriya.
जवाब देंहटाएंabhay tiwari ji ke khud se is bat batcheet se mujh jaise logo ko bahut kuchh jan ne samajhne ka mauka mila hai
आपने चाहा हम चले आये,
जवाब देंहटाएंआप कह देंगे हम लौट जायेंगे।
एक दिन होगा हम नहीं होंगे,
आप चाहेंगे हम न आयेंगे॥
सुन्दर चिट्ठाचर्चा. अवस्थी जी के गीत के लिये, एक बार फिर आभार. आपकी पसंद कुछ बदली-बदली सी नज़र आती है. वैसे गज़ल अच्छी है.
अभयजी तो बहुत अच्छी श्रृंखला लिख रहे हैं.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंहम nice कहते हैं और आप रूठ जाते हैं
जवाब देंहटाएंफिर nice से १% कम से भी काम चलाते हैं..
हा हा हा ...
ठीक बा....
हाँ नहीं तो..!!
अब सब नाइस के पीछे लगे हैं एक दम गलत बात अदा जी सभी को बधाई अनूप जी का आभार
जवाब देंहटाएंमजे से बांची है चर्चा.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद. :)
बेहतर...
जवाब देंहटाएंआभार...
बस एक शब्द -बेहतरीन.
जवाब देंहटाएंसर जी,
जवाब देंहटाएंइतनी व्यस्तताओं के बीच आप चर्चा के लिए जो मेहनत करते हैं उसको शत शत नमन हैं। लाजवाब। काश कभी आपको चर्चा करते देखने का सौभाग्य हमें प्राप्त हो।
इस ब्लाग चर्चा में शामिल सभी पोस्ट हद उम्दा हैं। सभी को देखा और पूरा पढ़े बिना हट नहीं सका।
जवाब देंहटाएं--सार्थक ब्लाग चर्चा के लिए आभार।
सर्थक चर्चा।
जवाब देंहटाएंचिट्ठाचर्चा वाकई मेहनत मांगती है यह यहां साफ झलक रहा है।
जवाब देंहटाएंपोस्टों के मंतव्य, दृष्टिकोण को पिन प्वाईंट करते हुए उनके मूलभाव को प्रस्तुत करती हुई यह बहुत उम्दा चर्चा लगी।
सुंदर संकलन से युक्त चर्चा के लिए बधाई और धन्यवाद
जवाब देंहटाएंIts tooooo good .............
जवाब देंहटाएंmujhe aapki pasand bahut achchi lagi ........