माऊस मेरे कम्प्यूटर का लिन्कें क्लिक नहीं करता है
मन की तो ऐसी मर्जी है जो चाहे बस वह पढ़ता है
सिखलाओ तुम कैसे बनते पत्तागोभी के रसगुल्ले
कैसे करें निवेश और फिर कैसे बैठे रहें निठल्ले
राजनीति के दांवपेंच हों ,नक्षत्रों की टेढ़ी चालें
कहां हजम करती हैं चारा कागज़ पर चलती घुड़सालें
नहीं जानना हमको, हमको तो प्यारी अपनी जड़ता है
मन की तो ऐसी मर्जी है जो चाहे बस वह पढ़ता है
तो बस भैया अब हमारा भी माउस-मन अपने सारे पगहे तुड़ाकर बगटुट भाग लिया और पोस्ट-दर-पोस्ट बिचरने लगा-बिंदास। देखिये कौन-कौन गली गया श्याम!
आइये देखिये शुरुआतै में मिल गये मनोज कुमार। छह महीने में दो सौवीं पोस्ट ठेल रहे हैं। है न कमाल। ठेल खुद रहे हैं और दोष दे रहे हैं आपके उचित मार्गदर्शन और भरपूर सहयोग को! मानने लायक बात है ई भला। बहरहाल आइये देखिये वे क्या कहते हैं। मनोज बता रहे हैं कि आज के ही दिन मतलब 6 अप्रैल, 1930 को गांधी जी ने नमक का कानून तोड़ डाला था और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन एक निर्णायक मोड़ पर आकर खड़ा हो गया था। आगे वे बजरिये एक विद्वान लिखते हैं:
एक विद्वान ने कहा है कि गांधीवाद को छोड़ने का यह अच्छा नतीज़ा रहा कि आज देश में 72 खरबपति हैं। कारपोरेट जगत इस पर गर्व कर रहा है। लेकिन राष्ट्र शर्म मह्सूस कर रहा है कि 36 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं। गांधी जी ने हमें विभिन्न समस्याओं से जूझने के लिये कई रास्ते दिखलाए। उन्हीं में से एक था नमक क़ानून के प्रति ख़िलाफ़त।
अब गांधी जी ने तो सिखाया कानून तोड़ना लेकिन उनके बाद के लोग कानून तोड़ने का काम छोड़कर उसे हाथ में लिये टहलते रहे और कानून को खिलौना बना के धर दिया।
नीरज गोस्वामी जी गजल की किताबों के बारे में बताते रहते हैं। आज उन्होंने बताया मुहम्मद अल्वी जी की किताब" उजाड़ दरख्तों पे आशियाने" के बारे में । इसके चंद शेर आप वो फ़र्माइये जिसे शायर लोग मुलाहिजा कहते हैं:
हुई रात मैं अपने अन्दर गिरा
मिरी आँख से फिर समंदर गिरा
गिराना ही है तो मिरी बात सुन
मैं मस्जिद गिराऊँ तू मंदिर गिरा
ये शायरी है। कविता है। उपमा है। सोचिये आंख से समंदर गिरा दिया। अगर कहीं सच में ऐसा संभव होता तो कुछ आंखों से छटांक-छटांक भर समंदर अपनी सूखती नदियों में छान के गिरा देते और नदियां लबालब उफ़नती हुई बहने लगती। बहरहाल। देखिये आगे के कुछ और बेहतरीन शेर:
उदास है दिन हंसा के देखें
ज़रा उसे गुदगुदा के देखें
नया ही मंज़र दिखाई देगा
अगर ये मंज़र हटा के देखें
हमें भी आता है मुस्कुराना
मगर किसे मुस्कुरा के देखें
ये शेर पढ़कर लगा कि वाह! लिखते भले हमसे बहुत बढ़िया हैं लेकिन सोचते हमारे ही जैसा है। बहुत खूब बुजुर्गवार। नीरजजी की तारीफ़ हम ज्यादा नहीं करेंगे वर्ना वो बुरा मान जायेंगे। हमको वैसे ही बहुत खराब लग रहा है काहे से कि बहुत दिन से उनकी गजल पर पैरोडी नहीं बनाये हैं।
दर्पण शाह की इस पोस्ट को आराम से पढ़ने की जरूरत है। तसल्ली से। इसलिये कि कंचन इस पर टिपियाती हैं:
समझ नही आ रहा कि क्या कहूँ....!! बस सोच रही हूँ कि इतनी बुद्धि तुझे किसने दे दी ???
निर्झर नीर का कहना है:
क्या लिखा है ..कुछ समझ नहीं आया
हाँ एक बात है की आपकी हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी जो इतना सब लिखा है किसी चित्तोड़ के किले को जीतने से कम नहीं है ..आखिर टाइप तो करना पड़ता ही है कम-स-कम
अर्श ने तो दर्पण का जन्मप्रमाण पत्र ही मांग लिया:
कभी कभी सोचता हूँ के क्या वाकई तुम २५ या २६ या २७ के हो या इससे कहीं दुगना ...
बातों में जो तज़रबा दिखता है वो इस उम्र में कैसे हासिल हो सकता है...
अच्छा अब अपूर्व से भी सुन लीजिये वो क्या कहते हैं दर्पण की कारगुजारी पर:
फ़र्स्ट इम्प्रेशन: पोस्ट दम साध के पूरी पढ़नी पड़ती है, और ३ मिनट २२ सेकेंड्स मे फ़टाफ़ट खत्म करते हुए होठों पर दबी सी हँसी और कलेजे मे गहरी कसक छोड़ जाती है..अगले ३ दिन २२ घंटों को किसी उदासी के हवाले कर..!
आपकी लेखनी का एक और माइलस्टोन डियर..ब्लॉगजगत की बेहतरीन पोस्ट्स मे से एक..कलम का अद्भुत कमाल!..अब इसे अगले कुछ दिनों तक फ़ुरसत से मनसद पर बैठ कर मुँह मे पान की गिलौरियाँ दबा कर बिना नोक की पेंसिल से दाँत खोदते हुए बाँचा जायेगा!..जरा लस्सी-वस्सी का इंतजाम कर लें फिर आते हैं..तब तक एक लाइन पढ़ने के लिये ले जाते हैं..
थाउजेंड स्पेल्नडिड सन्स' और 'सारा आकाश' जैसी ना जाने कितनी किताबों की सारी मारें उसके आँखों में पानी भर जाती होंगी. और पति महाशय सोचते होंगे की मेरी मार से रो रही है. और मन ही मन अपने पुरुषत्व पे गौरवान्वित होते होंगे .
नई दुल्हन अपने बिछुड़े प्रेमी के बाहुपाश के लिए रो रही है या बाबुल के लिए कैसे पता चले?
बहुत दिन बाद आज रंजना जी को पढ़ा। देखिये उनका क्या कहना है:
बन रही है यह ज़िंदगी एक रास्ता भूलभुलैया सी
वो कहते हैं अब अपनी मंज़िल कहीं और तलाशिये
खत्म होने को है अब सब बातें प्यार की
अब कोई नया दर्द और नया शग़ल तलाशिये
लड्डूजी देखिये कित्ती काम की बात बताते हैं-नक़ल करके और रट्टा मार कर.... इंसान तो बने नहीं....कोई भगवान कैसे हो पायेगा...?
वैसे असल काम की बात तो कुमारेन्द्र की भी है। आपको विषय न सूझ रहे हों लिखने के तो देखिये इनकी पोस्ट विषय ही विषय देख तो लें!
ये वाला इतवार हमने बहुत कुछ पढ़ा। सबसे ज्यादा आराधना की पोस्टें। आराधना की सबसे ताजी पोस्ट की ये कविता देखिये तो जरा:
छोटे शहरों में
छोटी-छोटी बातें भी
बड़ी हो जाती हैं
महानगरों में,
बड़ी बातों पर भी
ध्यान नहीं देता कोई
इस कविता पर अरविन्द पांडेजी का कहना है:
आराधना तुम पोएट अच्छी हो ..तुम्हारी कविता पढने में मुझे बहुत रस आता है बजाय इसके की जो तुम क्लिष्ट विषयो पर लिखती रहती हो ..वहा पर भी तुम ठीक ही लिखती हो पर पता नहीं वो मुझे impressive नहीं लगता ..तुम्हारी पोएम्स पढो तो ज्यादा बाते मन में उभरती है बजाय तुम्हारा लेख पढ़ के ..
और अमरेन्द्र की एक पाठक के नाते समझाइस है कि वे क्षणिका से बेहतर है कि थोड़ी लम्बी कवितायेँ लिखें!
आराधना आजकल अपने अम्मा-पिताजी के बारे में संस्मरणात्मक लेख लिख रहे हैं। सहज-सरल और आत्मीय। अपनी मां के बारे में लिखे उनके लेख के इस अंश देखिये:
कहते हैं कि इन्सान जब जाता है तो अपने साथ कुछ नहीं ले जाता, पर अम्मा गईं तो अपने साथ सब कुछ ले गईं. वो अपनापन, जो हमारी फ़्राक पर काढ़ा करती थीं; वो सपने, जो वो कुरुई, पिटारी के साथ बुना करती थीं; वो प्यार की गर्मी, जो स्वेटर में डाल देती थीं; वो रिश्तों के ताने-बाने जो क्रोशिया के धागों से सजावट की झालरों में पिरो देती थीं, सब ले गईं अपने साथ और साथ ले गई वो हुनर, जो लोकसंस्कृति को संजोने के लिये एक पीढ़ी से दूसरी सीखती जाती है. लोकसंस्कृति ऐसे ही टुकड़ों-टुकड़ों में तिरोहित होती जा रही है, परलोक जाने वाली माँओं के साथ.इसको पढ़कर मन उदास हो गया। इसके बाद न जाने क्या-क्या सोचता रहा। आराधना की अपनी मां के बारे में लिखी कविता पढ़ते हुये फ़िराक गोरखपुरी की यह कविता ध्यान आई! इसमें बीस बरस के उस नौजवान के जज्बात हैं,जिसकी माँ उसी दिन मर गयी जिस दिन वह पैदा हुआ!
यह संयोग है कि फ़िराक साहब भी उसी युनिवर्सिटी से जुड़े रहे जहां आराधना ने भी पढा़ई की है।
अब लगे हाथ यह भी बताते चलें कि आराधना की पोस्टों का जिक्र करते समय हम बार-बार सोच रहे थे कि कहीं आराधना/अनुराधा की चूक न हो जाये। क्या पता हो ही गयी हो!
आराधाना के बाद मैंने इतवार को प्रशान्त के लेख पढ़े। इन लोगों के संस्मरण पढ़ते हुये मैं सोचता हूं कि मैं भी ऐसे सहज लेख लिख पाता। देखिये प्रशान्त अपने दो बजिया बैराग्य में क्या लिखते हैं:
एक दफ़े उनसे बात करते-करते उन्होंने कहा की मेरे बच्चे बेवकूफ हैं जो काबिलियत होते हुए भी I.A.S. नहीं बने.. मैंने आगे जोड़ा, नहीं पापाजी.. आपके बड़े बच्चे बेवकूफ होंगे, मैं तो नालायक हूँ.. उनका कहना था की सिर्फ मुझे ही पता है की मेरा छोटा बेटा क्या है और उसमे क्या करने की क्षमता है.. मैं सोचने लग गया था.. "हर माँ-बाप को अपने बच्चे पर इस तरह का अन्धविश्वास क्यों होता है? या फिर यह एक ऐसा विश्वास है जो बच्चों में कुछ भी कर गुजरने की ताकत दे देता है?"
मेरी पसंद
मरने में मरने वाला ही नहीं मरता
उसके साथ मरते हैं
बहुत सारे लोग
थोड़ा-थोड़ा!
जैसे रोशनी के साथ
मरता है थोड़ा अंधेरा।
जैसे बादल के साथ
मरता है थोड़ा आकाश।
जैसे जल के साथ
मरती है थोड़ी सी प्यास।
जैसे आंसुओं के साथ
मरती है थोड़ी से आग भी।
जैसे समुद्र के साथ
मरती है थोड़ी धरती।
जैसे शून्य के साथ
मरती है थोड़ी सी हवा।
उसी तरह
जीवन के साथ
थोड़ा-बहुत मृत्यु भी
मरती है।
इसीलिये मृत्य
जिजीविषा से
बहुत डरती है।
डा.कन्हैयालाल नंदन
और अंत में
फ़िलहाल इतना ही। सुबह छह बजकर सात मिनट पर चर्चा शुरू किये थे। सोचा था आठ बजकर सात मिनट पर पोस्ट कर देंगे। बीस मिनट ज्यादा हो गये। कम्प्यूटर शान्त डमरू बजाते हुये कई बार ठिठकते हुये चुप सा हो गया। बहरहाल अब कर दे रहे हैं- शान्त बजते डमरू के बीच की चर्चा। नीचे देख लीजिये आज के कार्टून!
हा हा हा ...
जवाब देंहटाएंकहते हैं ..
शक्कर खोर को शक्कर मिल ही जाता है...
बढ़िया रही चर्चा...
अच्छे ब्लाग की चर्चा पढ़ने को मिली। आपकी पसंद भी शानदार है।
जवाब देंहटाएं--आभार।
दर्पण की पोस्ट को समय चाहिए. .हम समझ गए थे इस लिए कल बुकमार्क कर लिए थे.. आराधना जी ने इस पोस्ट के बाद दो तीन पोस्ट लिखकर मिटाई भी है.. पता नहीं क्यों..! खैर पी डी का दो बजिया बैरागय बड़ा खतरनाक होता है.. और आपकी चर्चा उस से भी ज्यादा..
जवाब देंहटाएंहमारी चर्चा को चौबीस घंटे भी नहीं रहने दिया.. बड़े वो है आप!
@ चीनीखोर को चीनी मिल ही जाती है खाने के लिए ...
जवाब देंहटाएंमगर चीनी का स्वाद भला भी उसे ही लगता है जिसने तीखा खट्टा भी खाया हो ..
@
आज बहुत सारे अच्छे लिंक मिले ...
बहुत अछे लिंक्स मिले है आराम से पढूंगी ...अच्छी चर्चा के लिए आभार
जवाब देंहटाएंअच्छी रही चर्चा...और आपकी पसन्द भी
जवाब देंहटाएं@ कुश, अरे वो मैं एक वेबसाइट से जुड़ने की कोशिश कर रही थी. मिटाई गई पोस्ट टेस्ट पोस्ट थीं.
शुक्रिया जी बेहतरीन चर्चा
जवाब देंहटाएं120, 119, 118, 117, 116........
जवाब देंहटाएं.... 27, 26, 25, 24, 23,.....
....5, 4, 3, 2, 1, 0 !!
यह था श्री " कुश के मानसपुत्र कुशाग्र-चर्चा " की अल्पायु में कलवित हो जाने पर दो मिनट का मौन ! आगे .. टिप्पणी चालू आहे !
अहो अनूप, इतने शुक्ल-धवल कड़ियों को पाठकों के सम्मुख पकड़-पेश किया कि, हमारे मुख से अनायास ही निकल पड़ा.. " भाग्यशाली हैं आप कि इतने चतुर सुजान मूषक के स्वामी हैं, और धन्य है वह मूषक जो इतने निरपेक्ष भाव से उत्तम कड़ियों की ओर दौड़ पड़ता है । अहाहा, सत्य ही कहा है.. " शठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पारस परस कुधातु सुहाई ॥ "
आपके बड़प्पन को साधुवाद कि स्वयँ कोई श्रेय न लिया और " हमारा माउस-मन अपने सारे पगहे तुड़ाकर बगटुट भाग लिया और पोस्ट-दर-पोस्ट बिचरने लगा-बिंदास ।" लिख अपनी लघुता को प्रस्तुत करने के प्रयास को " गगन चढहिं रज पवन प्रसंगा " सिद्ध किया । ऎसी प्रतिभा अतुलनीय है, धन्य हुआ !
जाको कृपा पँगु गिरि लाँघे, भो फुरसतिये.. आप धन्य हो, आप धन्य हो, आप धन्य हो !
जवाब देंहटाएंत्रुटि परिशोधन :
उपरोक्त टिप्पणी में स्माइली वैकल्पिक है ।
सुधी पाठक स्वयँ चुनें !
aap ki pasand meri all time fav poem hai....!
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों के बाद आपने चर्चा की , अच्छी लगी. आपकी पसंद हमेशा की तरह बेहतरीन.
जवाब देंहटाएंसुन्दर चर्चा
जवाब देंहटाएंअच्छी चर्चा ..
जवाब देंहटाएंलगे हाँथ 'जुगनू' फिर पढ़ गया ..
कविता सुन्दर लगी ..
अमर-टीप भी रुची ..
आभार !
@ अनूप सर,
जवाब देंहटाएंएक गलती की तरफ ध्यान दिलाना चाहूँगा... गाँधी ने यह 1930 में कहा होगा ना की 1030 में जानता हूँ यह भूलवश हुई होगी पर ऐसे आंकड़े महत्वपूर्ण हैं इसलिए... शुक्रिया.
@ सागर सर,
जवाब देंहटाएंगलती ठीक कर ली। ध्यान दिलाने के लिये शुक्रिया। ईश्वर आपको आपकी एक ठो ताकत और दो ठो कमजोरी और प्रदान करे। :)
कुल जमा सौ साल भी पूरे नहीं हुए आज़ादी के .ओर देश के कई हिस्से हो चुके है ....ओर कई होने के कगार पर है .....मायावती ने शिक्षा के मौलिक अधिकार पर फिर नया ठीकरा फोड़ दिया है .लोकतंत्र का चौथा खम्बा .सानिया ओर शोएब के हेन्गोवर से अभी बाहर अगली किसी खबर तक नहीं आयेगा ....... .वैसे उसे एक खबर मिल गयी है ......सिर्फ खबर ..... .नक्सलियों ने सात सौ से ज्यादा जवानो को .लील लिया है .....मुझे नहीं मालूम के कौन सा नक्सलवाद है... जो अपने ही देश की जड़े खोखली कर रहा .सीआर पी ऍफ़ के उन जवानो के बीवी बच्चो के बारे में सोचता हूँ तो ......काश कोई ऐसा सिस्टम होता के इस देश के हर राजनेता को चुनाव में लड़ने के वास्ते परिवार के दो सदस्य बोर्डर या आर्मी में भेजने अनिवार्य होते .........बुद्धदेव दास सुन रहे है या .....वे भी किसी वाद के सहारे नीचे बैठे है .........कोई नैतिक जिम्मेवारी लेगा .....कोई इस समस्या से जूझने के लिए वाकई इसकी जड़ो में जायेगा या तुम्हारी.-मेरी गलती में उलझा रहेगा .......केंद्र-राज्य.........करो इंतज़ार दो चार मेडल का...शहीदों के किसी ओर के ड्राफ्ट किये कसीदे पढो......ऐसे घटिया लोगो के वास्ते शहीद होने का किसका मन होगा ?....
जवाब देंहटाएंडा.कन्हैयालाल नंदन जी की कविता और कार्टून बहुत बढ़िया हैं। आज लिंक कुछ कम लगे। फ़िर भी पर्याप्त जानकारी । धन्यवाद
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएं@ डा. अनुराग आर्य
ग़ुज़र गये वह ज़माने, जब " सत्ता बँदूक की नलियों से निकलती है " के नारे का डर दिखाया जाता था ।
अब यह दिखाया जा रहा है कि, " सत्ता बँदूक की गोलियों " के बल पर ही कायम रह पायेगी ।
मीडिया के ज़रिये इन्हें बहादुर ज़वानों के रूप में प्रचारित किया जायेगा ।
वस्तुतः यह मात्र सिंहासन के रक्षक बना कर रख दिये गये हैं,
इन शेर-दिल ज़वानों को बकरियों की तरह फिरँगियों ने भी प्रयोग किया,
अब नयी नस्ल के शासक कर रहे हैं.. फ़र्क इतना ही है ।
नीति वही है.. एक वाद पैदा करो, उसे उन्माद बन जाने दो,
फिर उसे ख़तरा बताते हुये इसे कुचलने का स्वाँग करो ।
लाइट ऑन, कैमरा ऑन, साइलेन्स ! ऎक्शन, रिकॉर्ड डॉयलॉग..
मँत्री जी : इसे अब और बरदाश्त नहीं किया जायेगा,
हम इसका मुँहतोड़ ज़वाब देंगे ( किसको ? )
समझौते के रास्ते खुले हैं ( किससे ? )
शाँति बहाल होगी ( क्या सच में ? )
किसको ? किससे ? क्या सच में ?.. यह कौन बोला जी ?
जी सरकार, प्रबुद्ध जनता ! तो इनको चुप कराओ ना..
अबे चौप्प, शाँताः लोकतँत्र-प्रहसन चालू आहे !
बेहतरीन चर्चा.....
जवाब देंहटाएं@डॉ अमर कुमार....आदरणीय गुरुवार अभी एक एक बहस देख कर हटा हूँ.....जिसका सार ये है के अगर प्रतिबद्ध होकर भी काम किया जाये.तो इस समस्या से निबटने में दस साल लगेगे...किसी भी राज्य में .नस्लवाद की जड़ का मूल कारण तो स्थानीय प्रशासन ओर नीतिया है ......
जवाब देंहटाएंपुनश्च.....भावावेश में सात सौ टाइप हो गया था.....जवानो की संख्या ७० है.....पर संख्या आदमियों की है....
अनूप जी सत्य ब्लॉग का लिंक गलत लगा है कृपया सही करें :)
जवाब देंहटाएंwww.kadvasaty.blogspot.com
शुक्रिया सत्य जी लिंक की गड़बड़ी बताने के लिये। उसे ठीक कर लिया गया।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंसुन्दर चर्चा । दर्पण भाई की रचना और उसकी कुछ टिप्पणियों का सार्थक उपयोग किया है आपने ! आपकी पसन्द भी लाजवाब है । आभार ।
जवाब देंहटाएं