मंगलवार, अप्रैल 20, 2010

ब्लॉगजगत की कुछ पोस्टें इधर-उधर से

हिन्दी ब्लॉगिंग पर लिखे जितने भी लेख मैंने देखे उनकी जब मैं याद करना शुरू करता हूं तो मुझे सबसे पहले याद आता है अनूप सेठी जी के लेख का यह अंश:
यहां गद्य गतिमान है। गैर लेखकों का गद्य। यह हिन्दी के लिए कम गर्व की बात नहीं है। जहां साहित्य के पाठक काफूर की तरह हो गए हैं, लेखक ही लेखक को और संपादक ही संपादक की फिरकी लेने में लगा है, वहां इन पढ़े-लिखे नौजवानों का गद्य लिखने में हाथ आजमाना कम आह्लादकारी नहीं है। वह भी मस्त मौला, निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कुराता, हंसता, खिलखिलाता जीवन से सराबोर गद्य। देशज और अंतर्राष्ट्रीय। लोकल और ग्लोबल। यह गद्य खुद ही खुद का विकास कर रहा है, प्रौद्योगिकी को भी संवार रहा है। यह हिन्दी का नया चैप्टर है।

पांच साल से ऊपर हो गये इस लेख को पढ़े हुये लेकिन यह गतिमान गद्य वाली बात अक्सर याद आती है। मस्तमौला, निर्बंध। इतने दिनों में अनूप सेठी की बात कभी गलत नहीं लगी। यह जरूर हुआ कि ब्लॉगर आये, लिखा और लिखना कम करते रहे। जितने लोगों ने लिखना कम किया उससे अधिक नये लोग आ गये मैदान में। लोगों का लिखना बन्द हुआ लेकिन गद्य गतिमान बना रहा। बात अनूप सेठीजी ने गद्य की कही थी लेकिन यह बात ब्लॉग जगत की समग्र अभिव्यक्ति पर लागू होती है।

यह बात कल अजित गुप्ता जी के लेख क्या ब्लॉग जगत चुक गया है के संदर्भ में याद आई। मेरी समझ में ब्लॉग जगत में लोगों ने एक से एक बेहतरीन लेख और अन्य चीजें लिखीं हैं। लेकिन हमारा बांचने का संकलक निर्भर अंदाज ऐसा होता जाता है कि कई बार हम लोगों के बेहतरीन लिखा पढ़ नहीं पाते। उन तक पहुंच नहीं पाते।

अभी ज्यादातर लोग फ़ीड रीडर या संकलक से देखकर पढ़ते हैं। मैं भी चर्चा के लिये संकलक से ही सामग्री का चयन करता हूं लेकिन पढ़ने के लिये अपने जो पसंदीदा लिखने वाले हैं उनका लिखा हुआ सारा कुछ पढ़ने का प्रयास करता हूं। आलम यह है कि पसंदीदा लिखने वाले बढ़ते जा रहे हैं और बांचने के लिये समय की कमी होती जा रही है।

इसी क्रम में मैंने इस इतवार को डॉ.मनोज मिश्र के ब्लॉग की शुरुआत से लेकर आजतक की सारी सामग्री पढ़ डाली। बीच में कहीं छोड़ने का मन नहीं हुआ। मनोज का ब्लॉग पढ़ना मेरे मन में तब से उधार था जब से मैंने उनके ब्लॉग पर जौनपुर के किस्से देखे थे। उनके ब्लॉग पर जौनपुर की यह फोटो मेरे मन में बसी हुई है।

सोचकर मुझे खुद ताज्जुब होता है कि ब्लॉगजगत में जहां पोस्टों की उम्र एक-दो दिन, हफ़्ते-दो हफ़्ते मानी जाती है वहां कोई पोस्ट ऐसी बस जाये मन में कि साल भर बाद उसके लेखक की सारी पोस्टें पढते हुये उसको खोजा और मिलने पर टिपियाया जाये:
ये वाला फोटो ही मेरे मन में बसा है। नदी बीच पुल और शीर्षक’ए पार जौनपुर ओ पार जौनपुर’!

मैं अगर आपके ब्लॉग का पता भूल जाऊं तो याद करने के लिये गूगल से यही लिंक खोजूंगा-
एपार जौनपुर - ओपार जौनपुर ......


इसी तरह पिछले पांच सालों में ब्लॉग जगत के पढ़े न जाने कितने लेख/कवितायें अक्सर याद आते हैं। हर किसी में को याद करने का कोई न कोई सूत्र वाक्य है जिससे मैं उनको खोजकर दुबारा/तिबारा और फ़िर दुबारा/तिबारा पढ़ता हूं।

ऐसे ही कुछ लेख/कवितायें/चर्चायें और अन्य भी बहुत कुछ जो मुझे याद आते हैं वो उन सूत्र वाक्यों के साथ आपको बताता हूं देखियेगा?


  1. कुछ लोग मौसम की तरह चिपचिपे होते हैं: निधि

  2. ज़ेब में साप्ताहिक हिन्दुस्तान का एक बड़ा पन्ना मोड़कर रखता, जिसे बिछा कर कोनों को पैर के अंगूठे से दबाकर मुर्गा बन जाता, और झुका हुआ पढ़ता रहता ।: डा.अमर कुमार

  3. अगले जनम मोहे बेटवा न कीजो... :समीरलाल

  4. गुरुजी का चेहरा तेज युक्त मानो अपने सबसे घटिया लेख़ पर सौ टिप्पणिया लेके बैठे हो...:कुश

  5. दीवाली के दिन मां मेरे लिए दीयाबरनी खरीदती। मिट्टी की बनी बहुत ही सुंदर लड़की जिसके सिर पर तीन दीए होते। रात में तेल भरकर उन दीयों को जलाते। मां उसे अपनी बहू की तरह ट्रीट करती,ऐसे में कोई उसे छू भी देता तो मार हो जाती। लड़कियों से प्यार करने की आदत वहीं से पड़ी। :विनीत कुमार

  6. शुक्ला जी हॉस्टल के तमाम नाकाम प्रेमियों के लिए उम्मीद की एक साडे पॉँच फूटी लौ बन के उभरे ओर एक घटना ने इस लौ को ओर जगमगा दिया ..... :डा.अनुराग आर्य

  7. हमारे वीर बालक ने अभी तक हमको बाई-बाई करना नहीं छोड़ा था सो हम भी फिर से बाई कर ही रहे थे कि अवतरण एक धड़ाम की आवाज के साथ हो गया. हमें पीछे से आदर्श तरीके से शास्त्र- सम्मत विधि से ठोंक दिया गया था. :इंद्र अवस्थी

  8. बचपन का अधकटा पेंसिल सबसे कीमती था । :प्रेम पीयूष

  9. कुछ गीत बन रहे हैं, मेरे मन की उलझनों में।
    कुछ साज़ बज रहे हैं, मेरे मन की सरगमों मे॥
    :सारिका सक्सेना

  10. सबसे बुरा दिन वह होगा
    जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
    सूरज भेज देगा
    ‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
    यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा
    : प्रियंकर

  11. लड़कियाँ
    आँसूओं की तरह होती हैं
    बसी रहती हैं पलकों में
    जरा सा कुछ हुआ नही की छलक पड़ती हैं
    सड़कों पर दौड़ती जिन्दगी होती हैं
    वो शायद घर से बाहर नही निकले तो
    बेरंगी हो जाये हैं दुनियाँ
    या रंग ही गुम हो जाये
    लड़कियाँ,
    अपने आप में
    एक मुक्कमिल जहाँ होती हैं
    :मुकेश कुमार तिवारी


ओह बड़ा मुश्किल है सारी पसंदीदा पोस्टों को एक ही पोस्ट में बताना। न जाने कितने लेख/कवितायें और न जाने क्या-क्या हैं। सुबह से इनको ही पढ़ते दिन हो गया। चर्चा तो रह ही गयी। खैर वह फ़िर कभी सही।

मेरी पसंद


तीस सेन्टीमीटर था बम का व्यास
और इसका प्रभाव पड़ता था सात मीटर तक
चार लोग मारे गए, ग्यारह घायल हुए
इनके चारों तरफ़ एक और बड़ा घेरा है - दर्द और समय का
दो हस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए
लेकिन वह जवान औरत जिसे दफ़नाया गया शहर में
वह रहनेवाली थी सौ किलोमीटर से आगे कहीं की
वह बना देती है घेरे को और बड़ा
और वह अकेला शख़्स जो समुन्दर पार किसी
देश के सुदूर किनारों पर
उसकी मृत्यु का शोक कर रहा था -
समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में

और अनाथ बच्चों के उस रुदन का तो मैं
ज़िक्र तक नहीं करूंगा
जो पहुंचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक
और उससे भी आगे
और जो एक घेरा बनाता है बिना अन्त
और बिना ईश्वर का.
येहूदा आमीखाई

और अंत में


फ़िलहाल इतना ही। और बहुत सारी सामग्री है हिन्दी ब्लॉग जगत में जिसको मैं बार-बार पढ़ना चाहता हूं। उसके बारे में चर्चा करना चाहता हूं। यहां जो मैंने बताई वह तो हिमखंड की नोक भी नहीं है। बहुत कूड़ा है यहां लेकिन बहुत सारा कंचन भी तो है यहां जो बांचना है। अभी तो शुरुआत है जी।

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44 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर चर्चा ! कुछ फ्लाश्बैक भी जरुरी है.. ताकि नए पाठक रिकाल कर सकें... शुक्रिया... कुछ पोस्ट मैंने नहीं पढ़ी हैं... उसे पढूंगा...

    येहूदा आमिखाई की कविता लाजवाब है... इसपर अनुनाद वाले शिरीष कुमार मौर्या जी ने भी काम किया है और कुछ दिन पहले निशांत ने ताहम पर भी इनकी कविता डाली थी जिसका जिक्र डॉ. अनुराग ने अपनी चर्चा में किया था... ताहम का लिंक दे रहा हूँ

    http://taaham.blogspot.com/2010/03/blog-post_12.html

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  2. बहुत कुछ कह गई आज की चर्चा.

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  3. यह वह पुल है जिस पर से गुजरे बिना मैं अपने गाँव नहीं पहुँच सकता ( दूसरा पुल बना है पर वह घूम कर जाना पड़ता है) ।

    मेरे लिये यह पुल 'पैसेज ऑफ नॉस्टॉल्जिया' है। जल्द ही इस पुल पर से चौबीस अप्रैल की सुबह गुजरूंगा....उस वक्त एक पल के लिये तो यह पोस्ट जरूर याद आ जाएगी :)

    आज की चर्चा से और डॉ गुप्ता जी की बात से पता चलता है कि पुरानी पोस्टों का क्या महत्व है। मैं तो कभी कभी पुरानों पर विचरण करता हूँ।

    नये के चक्कर में पुराने को भूलाना अक्लमंदी नहीं है और तब तो और नहीं भूलना चाहिये जब ब्लॉगजगत में रोज बे सिर पैर के धर्म- फर्म, हत्त तेरे की धत्त तेरे की चल रहा हो।

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  4. आप का इस तरह फ्लेश बेक में जाना हम पाठकों के लिए फ़ायदेमंद है.
    आभार

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  5. 'आयाम 'पर उनका लेख देखा किस तारीख का लिखा है? कोई ज़िक्र नहीं है.
    वहाँ लिखी ये बातें गौर करने वाली हैं....की ५७ ब्लोगों के समय भी हालात कैसे थे...और अब कैसे -
    कितना अंतर आया और क्यों?-

    *इस निर्देशिका में ५७ चिट्ठों के ब्यौरे मिलते हैं.
    *भाषाई मान-मनौव्वल भी शुरू हो रहा है। समझदार हैं इसलिए सिर फुटौव्वल से बच रहे हैं।
    *इस तरह की मित्र भावना, वसुधैव कुटुंबकम् की गूंज तकरीबन हर चिट्ठे में मौजूद है।

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  6. @ अल्पना वर्माजी, अनूप सेठीजी का यह लेख वागर्थ पत्रिका के जनवरी,2005 के अंक में छपा था।

    मित्र भावना तो अवश्य रही बहुत दिनों तक। या कहें अबे-तबे वाला माहौल इत्ता नहीं था शुरु के दिनों में। सवाल-जबाब पहले भी होते थे लेकिन नहले पर दहला मारने और नीचा दिखाने की प्रवृत्ति शायद इत्ती नहीं थी शुरुआती दिनों में। मुझे याद है कि मैंने एक लेख लिखा था हैरी का जादू बनाम हामिद का चिमटा इस पर ई-स्वामी ने प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि ईदगाह अपराध बोध की कहानी है। इस पर मैं फ़िर लेख लिखा था ईदगाह अपराध बोध की नहीं जीवन बोध की कहानी है अपने इन लेखों को मैं सबसे अच्छे लेखों में मानता हूं। इसी समय बहुत सारे लेख लिखे गये अमरीकी जीवन के बहाने प्रवासी जीवन पर और अनुगूंज के बहाने विभिन्न मुद्दों पर।

    समय के साथ परिदृश्य बदलता गया है और आज की स्थिति में हम पहुंचे हैं। लेखन और व्यवहार में बहुआयामी बदलाव हुये हैं। बहुत अच्छा लेखन करने वाले बहुत लोग जुड़े हैं तो बहुत खराब व्यवहार करने वाले लोग भी शामिल भी हुये हैं।

    कभी इसके बारे में अपनी राय भी लिखेंगे।

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  7. बढिया चर्चा. जौनपुर का पुल तो बहुत सुन्दर है.

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  8. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  9. और ठीक इसी तर्ज़ पर मैं इस चर्चा को दुबारा तिबारा पढना चाहूँगा.. सबसे पहले तो अनूप सेठी जी के शब्दों की तारीफ करना चाहूँगा.. जो बात अन्दर ही अन्दर हम सब जानते थे वो कितनी सहजता से कही है उन्होंने.. उनकी बात से अक्षरश सहमत.. अजित गुप्ता जी का सोचना एक हद तक सही है.. मैंने कुछ महीने पहले ही ब्लोग्वानी पढना बंद कर दिया.. इसमें गलती ब्लोग्वानी की नहीं पर यहाँ पर आये लेख कई बार मन को क्षुब्ध कर जाते है..

    हालाँकि अच्छा पढना अभी भी जारी है.. और ये काम हमारा फीड रीडर बखूबी करता है..


    आपने अच्छे लिंक्स जुटाए है..गुरुवर अमर कुमार जी की तो सारी ही पोस्ट बुकमार्क करने लायक है.. उनकी टिपण्णी बैंक वाली पोस्ट तो ब्लॉगजगत में होने वाले टिपण्णी वायदा व्यापार पर करारा व्यंग्य है.. और "अभी टैम नहीं है शिव भाई" में उन्होंने मर्यादित रहते हुए मन की बात भी कही है.. जबकि आजकल लोग नए नए आई डी बनाकर गाली गलौज करते है..

    समीर जी का 'बेटवा कीजो' और एक ज़िन्दगी की लाईन्स वाली पोस्ट हमें बहुत प्रिय है.. और खासकर उनके विल्स कार्ड वाले पोस्ट्स.. पर अब समीर जी को पढना हो नहीं पाता या यु कहे मन ही नहीं करता.. कभी वजह भी खोजेंगे..

    और आप यकीन नहीं मानेंगे.. आज सुबह ही अनुराग जी की शुक्ला जी वाली पोस्ट पढ़ी.. मूड फ्रेश हो गया... शुक्ला जी का एक किरदार ही बन गया माईंड में..

    मुकेश जी की कविता तो शानदार है.. और आमिखाई वाली पहले भी पढ़ी है कई बार.. कुल मिलाकर आज की चर्चा में आपने 'एक्स फैक्टर' जोड़ दिया..

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  10. सहज ही बढ़ रही है ब्लॉग-धारा ! नाक भौं क्या सिकोड़ना ! इतना व्यापक दायरा किस
    माध्यम ने दिया है लेखकों और पाठकों को ? .. यहाँ किसी की कोई ठाकुर-सुहाती नहीं
    है .. ग्रुप-बाजी है , पर वह कहाँ नहीं होती और यहाँ की ग्रुप-बाजी किसको 'राजा' / 'भिखारी'
    बना दे रही है .. सो सब नैसर्गिक सा ही लगता है ब्लॉग में .. ज्यादा शिकायत वालों से ही
    मुझे अब यह शिकायत होने लगी है कि उनमें व्यक्तिगत 'कुफुत' का भाव ज्यादा
    है जो इस सहजता को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं .. किस शनिदेव के कटोरे में रोकेंगे ब्लॉग
    के वैविध्य-रस को ? .. असंभव को लेकर इतने भृकुटी-चंपास क्यों हो रहे हैं .. जो जैसे चल
    रहा है , चलने दें .. यही स्वाभाविक है !
    .
    यह पोस्ट कई मायनों में संग्रहणीय है , आभार !

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  11. ज्यादा शिकायत वालों से ही
    मुझे अब यह शिकायत होने लगी है



    कितनी सही बात कही है अमरेन्द्र जी आपने..

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  12. सुखद चर्चा
    मार्मिक कविता के साथ

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  13. हमारी उपस्थिति भी दर्ज कर ली जाय. :)

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  14. यह चर्चा बहुत विशेष लगी पुल और प्रियंकर जी की कविता के कारण.

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  15. आपका ब्लॉग बहुत अच्छा है. आशा है हमारे चर्चा स्तम्भ से आपका हौसला बढेगा.

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  16. सही मायनों में संग्रहणीय पोस्ट है. झूठ नहीं बोलूँगा कि सभी लिंक पढ़ के आ रहा हूँ... कुछ तो पढ़े हुए हैं लेकिन बुकमार्क कर रहा हूँ... जल्दी ही पढता हूँ...

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  17. हम कुछ प्रतिक्रियाओं से क्षुब्ध हैं। अनूप सेठी जी का लेख पूरा पढ़ना चाहेगें। आप ने सही कहा उनका कहा एक एक शब्द ब्लोगजगत पर खरा उतरता है।

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  18. बहुत बढ़िया लिंक्स दिये हैं... जरूर पढ़ेंगे..

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  19. सुबह सुबह देखा था इसे..
    अनूप सेठी जी ने सच मे बहुत सही बात कही थी.. और दी हुयी पोस्ट्स मे से कुछ पोस्ट्स पढी भी.. मूड फ़्रेश हो गया था..

    येहूदा आमीखाई की कविताये कुछ दिन पहले ’ताहम’ ब्लाग से ही पढी थी.. वैसे अच्छा रहेगा कि हफ़्ते मे एक दिन अगर आप ऐसे ही फ़्लैशबैक मे जा सके तो.. पुराने लोगो को पढने का एक अलग ही मज़ा है.. उस समय का काफ़ी कुछ जानने को मिलता है.. फ़िर लोग तो आते जाते रहते है.. कुछ अच्छा छोड जाते है तो कुछ बुरा..

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  21. aisi behatreen charcha kam hi padhne ko milti hain.. Dr Amar Kumar ji ne sahi kaha hai.

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  22. आपने फिर आज मेरे ब्लॉग का जिक्र किया ,बहुत धन्यवाद.
    आप जैसे व्यस्त और वरिष्ठ ब्लागर से मेरी सभी पोस्टों पर एक साथ साधुवाद प्राप्त करना किसी गौरव से कम नहीं है.

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  23. आहा गुरुवर.. बड़े दिनों बाद आप अपने अंदाज़ में टिपण्णी करते पकडे गए.. अल्लाह कसम आपने तबियत हरी कर दी..
    अब ये मिजाज़ बनाये रखियेगा..

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  24. सूरी जी की टिप्पणियां हटाना नहीं चाहिये थीं, कम से कम लोगों को पता चलता कि मतभेदों के चलते कुछ लोग किस तरह की भाषा का प्रयोग करते हैं...

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  38. बहुत सुंदर और विस्त्रत चर्चा .... अच्छे लिंक दिए हैं आपने ....

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  39. कड़वा कड़वा थू, मीठा मीठा हप्प !
    मॉडरेशन की इस दोहरी नीति के विरोध में
    मैंनें स्वस्थ मन से दी गयी अपनी सभी टिप्पणियाँ प्रतीकात्मक रूप में हटा ली हैं ।
    बल्कि चिट्ठाचर्चा पर अब तक की गयी टिप्पणियों को हटा लेना ही श्रेयस्कर रहेगा ।
    काहे करूँ ऋँगार, जब पिया मोर आँधर
    मला माफ़ कर
    मी तुझ्यासाठी सकल सुखाँची कामना करतो, अनूप श्रीमान ।

    पुनः
    मेरे साथ कुछ भी गोपनीय नहीं है,
    यदि कोई चाहे तो ryt2amar@gmail.com पर मेल करके यह टिप्पणी ऋँखला प्राप्त कर सकता है ।
    अनन्त शुभकामनायें ।

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  40. ब्‍लॉग में अच्‍छे लेखों की कमी नहीं है, बस उसके नजर से चूक जाने का खतरा बना रहता है।

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  41. वाह ! आज आपकी ग़ैरमौजी चर्चा पढ़कर भी उतना ही आनंद आया. ब्लाग़्ज पढ़ना एक बात है पर उन्हें यूं याद भी रखना (!)...मैं तो बस ईष्या ही कर सकता हूं.

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  42. एक बेहद जरूरी और रोचक चर्चा छेड़ी थी आपने...खासकर हमारे जैसे नौसिखियों के लिये तो सर्दी की रात मे अलाव को घेर के बैठ कर टकटकी लगा कर ’सुनने’ वाली चीज थी.मगर शिकायत यही रही कि सस्ते मे निपटा दिया..ट्रेलर दिखा कर छोड़ दिया..अब ब्लॉगिंग जब इतनी विस्तृत होती जा रही है..और कंटेंट सुरसा के मुँह की तरह बढ़ते जा रहे हैं..सो ऐसे मे नये रंगरूटों को पुरानी गठरियाँ खखोह कर भला-बुरा, रोचक-प्रेरक आदि-आदि ढूँढना आसान नही रह गया..और हमें वक्त बस चपरासी की पगार जितना मिलता है..मगर पुराना पढ़ने की आस भी रहती है..सो ’बड़े-बूढों’ से उम्मीद रहती है कि कुछ उलट-पलट करेंगे..आखिर इलाहाबाद/कानपुर मे डुबकी लगाने वालों को भी पता चले कि ऋषिकेश मे गंगा का पानी कैसा निर्मल था या नही..सो क्यों न पुरानी पोस्टों पे कुछ नियमित बात चलती रहे..बड़ी बढिया बात होगी..

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