सोमवार, मई 03, 2010

...भ्रम टूटने के लिये अभिशप्त होते हैं

अपने देश में मा्ननीय न्यायाधीश महोदयो द्वारा समाज के प्रभावशाली वर्ग को फ़टकारते रहने का रिवाज है। उनकी समझाइश के दायरे में राजनेता, नौ्करशाह , मास्टर,पढ़वैया बच्चे वगैरह आते हैं। नये मनोनीत माननीय मुख्य न्यायाधीश महोदय ने समझाइश का दायरा बढ़ाकर न्यायधीशों को भी इसमें शामिल कर लिया है और कहा है-
नेताओं की नैतिकता पर टिप्पणी करने वाले न्यायाधीशों को नैतिक आचरण के मामले में खुद मजबूत होना चाहिए।

मुख्यन्यायाधीश महोदय ने बड़ी अच्छी बात कही है और शुरआत नैतिकता की नसीहत से की है। वैसे जब भी नैतिकता की बात चलती है मुझे रागदरबारी के गयादीन की बतायी नैतिकता की परिभाषा याद आती है:
लोग चुप रहे। फ़िर गयादीन ने कुछ हरकत दिखायी। उनकी निगाह एक कोने की ओर चली गयी। वहां लकड़ी की एक टूटी-फ़ूटी चौकी पड़ी थी। उसकी ओर उंगली उठाकर गयादीन ने कहां,"नैतिकता, समझ लो कि यही चौकी है। एक कोने में पड़ी है। सभा-सोसायटी के वक्त इस पर चादर बिछा दी जाती है। तब बड़ी बढ़िया दिखती है। इस पर चढ़कर लेक्चर फ़टकार दिया जाता है। यह उसी के लिए है।"

आपने हि्न्दी साहित्य का इतिहास पढ़ते समय कुछ काल पढ़े होंगे- वीरगाथा काल, भक्ति काल, रीतिकाल,आधुनिक काल! एक और काल के बारे में जानलीजिये रंगनाथ सिंह से! वह काल है समर्पण काल!!

अनिल रघुराज ज्ञान को धंधा बनाने की बात कहते हुये पहले तो जानकारी देते है:
देश को आगे बढ़ाने की जो भी बारीक नीतियां हैं, उन पर सोचने और उन्हें बनाने का काम वे करते हैं जो अंग्रेजी में ही सोचते हैं, अंग्रेजी में ही बोलते हैं। हम हिंदी वाले उनका अनुसरण करते हैं। हम उद्यमशीलता में किसी से कम नहीं। देश के किसी भी कोने में जाकर छोटा-मोटा धंधा शुरू कर देते हैं। लेकिन इन धंधों का वास्ता शारीरिक मेहनत से ज्यादा और बुद्धि से कम होता है। जो पढ़-लिख लेते हैं वे भागकर नौकरियों की शरण में चले जाते हैं और माहौल में ढलने की कोशिश में पूरे अंग्रेज बन जाते हैं।

मतलब साफ़ है धंधे के लिये अभी तक सोचने का काम अंग्रेजी जानने वाले करते हैं। आगे भी सुनिये कि अनिल भाई क्या कहते हैं:
ऐसे में हमारे मानस में एक रीतापन बनता चला जा रहा है। हम पिछलग्गू बने रहने को अभिशप्त हो गए हैं। हम एक के आगे लगकर उसको दस, सौ और लाख तक बना देते हैं, लेकिन खुद हमारी स्थिति जीरो की, शून्य की बनी रहती है।

आगे वो उदाहरण देते हैं देखिये :
दूसरी तरफ, अंग्रेजी में हो ये रहा है कि जरा-सी उपयोगी सूचनाओं का लेकर कोई कंपनी खडा कर देता है। साल भर के अंदर तीन-चार करोड़ कमाने लगता है। हम हैं कि ठेला-खोंमचा ही लगाते रह जाते हैं।


इसके बाद अनिल रघुराज ने काम की बात कही
मैंने भी हिंदी में अर्थकाम इसी मकसद से शुरू किया है कि 42 करोड़ से ज्यादा आबादी वाला हमारा हिंदी समाज अपने आर्थिक व वित्तीय फैसले खुद ले सके। वह वित्तीय रूप से इतना साक्षर हो जाए कि उसे जबरदस्ती किसी गुरू घंटाल की जरूरत न पड़े। लेकिन मुश्किल यही है कि यह अभी तक कल्याण का काम ही बना हुआ है, धंधा नहीं बन पाया है। और, धंधा नहीं बन पाया तो इसे जारी रखना मुश्किल हो जाएगा। कोशिश जारी है और भरोसा भी है कि अर्थकाम एक न एक दिन करोड़ों हिंदी भाषाभाषी लोगों की जरूरत पूरा करने लगेगा और समाज भी खुलेहाथ इसे स्वीकार करेगा। बस, आपसे गुजारिश यही है कि इसे कानोंकान औरों तक पहुंचाते जाएं। बाकी तो हम संभाल ही लेंगे।

यह लेख बांचा पता नहीं कित्ते लोगों ने है लेकिन प्रतिक्रिया अभी तक एक भी नहीं आई है। आप करियेगा!
इसई क्रम में बताते चलें कि हमसे कुछ लोगों ने पूछा था कि हिन्दिनी मे शादी.काम के विज्ञापन के कित्ते पैसे मिलते हैं! हमें पता ही नहीं था। कल ई-स्वामी ने बताया कि महीने भर में इत्ते पैसे आ गये कि आराम से एक छोटी-मोटी ब्लॉगर मीट में दस-पन्द्रह लोगों की एक बार की चाय का जुगाड़ हो सकता है। लेकिन आगे के लिये वो भी नहीं! निकाल दिये शादी.काम के वि्ज्ञापन!


लेकिन शादी.काम ही थोड़ी है सब कुछ भाई! अपने जी.के.अवधियाजी ने भी मैट्रिमॉनी कम कम्युनिटी साइट बनाई है और सबका सहयोग मांगा है। आप यह मैट्रिमोनी साइट बंधन देखिये और अवधियाजी का सहयोग करिये।

दो दिन पहले मई दिवस था। मई दिवस के नाम एक नारा तय है-दुनिया के मजदूरों एक हो! काजल कुमार इसी नारे की आड़ में अपनी पीड़ा कह रहे हैं इस कार्टून में! काजल कुमार का यह कार्टून तो घरेलू टाइप का है। शोषक और शोषित की छवि उनकी पुरानी-सुरानी टाइप की है। शोषक आजकल इत्ते साफ़ पता चलने वाले नहीं होते न ही इत्ते विषम अनुपात वाले। आजकल के शोषक इत्ते स्मार्ट,क्यूट टाइप के होते हैं कि लोगों को शोषण करवाने में ही मजा आता है। ऊपर देखिये अनिल रघुराज की पोस्ट!



अच्छा अब जब कार्टून की बात चली तो देखते चलिये इरफ़ान का भी कार्टून! उनका शीर्षकै है कार्टून केवल हंसाते ही नहीं,...ऐसे भी होते हैं!! यह अपने सुरक्षा बलों के साधन संपन्नता की कहानी है। एक के पास हथियार नही था दूसरे की बुलेट प्रूफ़ जैकेट धोखा दे गई! घपला-घोटाला बड़ी खराब चीजें होती हैं। असल में आधी-अधूरी चीजें हमेशा खतरनाक होती हैं। अब जैसे बुलेट-प्रूफ़ जैकेट की बात करिये। इसमें जो घोटाले हुये होंगे उसमें हो सकते है खरीद में पैसा इधर-उधर हुआ हो! हो सकता है बनवाई में पैसा इधर-उधर हआ हो! लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि जब खरीद में पैसा इधर-उधर हो गया तो क्वालिटी में काहे मारा-पीटी हो! लेकिन भैया एक बार जब मामला शुरू होता है तो सब महाजनो येन गत: स: पन्था का अनुसरण करते हैं। आखिर परम्परा भी तो कोई चीज होती है। क्या पता बुलेट प्रूफ़ जैकेट का जांच करने वाली मशीन भी गड़बड़ हो!

ब्लॉगिंग आत्मस्वीकार के तमाम मौके मुहैया कराती है। मनोज कुमार बेचैन आत्मा की पोस्ट पर देखिये कहने लगे-
अचानक इस बात का एहसास हुआ कि ब्लाग में संवेदना बिखेरते-बिखेरते खुद कितना संवेदनहीन हो चुका हूँ !

उधर ज्ञानजी भी कल आत्मसाक्षात्कार कर लिये
वैसे भी यह देख रहा हूं कि इण्टरनेट पर निर्भरता से व्यक्तित्व एक पक्षीय होता जाता है। आपके बुकमार्क या फीडरीडर से वह गायब होने लगता है जो आपकी विचारधारा से मेल नहीं खाता। आप बहुत ज्यादा वही होने लगते हैं जो आप हैं।
ज्ञानजी की इस पोस्ट पर गिरिजेश राव का नजर नहीं पड़ी शायद वर्ना वे कहते ज्ञानजी टेलीवीजन नहीं टेलीविजन!

लेकिन कल तो गिरिजेश राव खतना मतलब शिशु का परिच्छेदन के बारे में जानकारी दे रहे थे और द्विवेदी जी की पोस्ट पर कह रहे थे-मेरी कविता के इशारे को स्पष्ट करने के लिए धन्यवाद। अब इस पोस्ट को देखिये कि उनकी कविता किधर है! वैसे द्विवेदीजी ने कह के धर दिया है-
हम जानते हैं कि भ्रम हमेशा नहीं बने रहते, दुनिया के सभी भ्रम एक दिन टूटे हैं। यह भ्रम भी एक दिन टूटेगा।


अब बताओ अगर इसी समय हमें कहने का मन करे कि भ्रम टूटने के लिये अभिशप्त होते हैं तो क्या करें! कह दे?

परसाई जी ने यौवन क्या है बताते हुये लिखा था-
यौवन नवीन भाव, नवीन विचार ग्रहण करने की तात्परता का नाम है; यौवन साहस, उत्साह, निर्भयता और खतरे-भरी जिन्दगी का नाम हैं,; यौवन लीक से बच निकलने की इच्छा का नाम है।
इस नजरिये से देखा जाये तो ज्ञानजी युवा ब्लॉगर कहलायेंगे। नित नये प्रयोग करने का उत्साह ५४ साल की उम्र में भी धक्काड़े से जारी है। उनका उत्साह केवल तकनीकी क्षेत्र में ही नहीं वरन अन्य क्षेत्रों में भी दर्शनीय है। अब तो वे टिप्पणियों में मौज भी लेने लगे हैं और की-बोर्ड के फ़जल से बहुत कम समय में अच्छा-खासा मजाक करने लगे हैं। अब कल ही देखिये उन्होंने कित्ता मौजियल कमेंट कर डाला इस इज्जतवाली पोस्ट पर:
लाला पांड़े की बहुत इज्जत करते हैं। पांड़े सुकुल की करते है। सुकुल मिसिर की। मिसिर दुबे की। दूबे झा की।
इज्जत से गन्न्हा गया है ब्लॉगजगत!


ज्ञानजी सच में बहुत मजेदार कमेंट करते हैं। खाली-पीली टिप्पणियां नहीं करते! पोस्ट में वैल्यू एडीशन भी करके डाल देते हैं।

आज के ब्लॉगर



पंकज उपध्याय को मैं काफ़ी दिन से पढ़ रहा था। छोटी-छोटी कविताओं और छोटे-छोटे लेखों के माध्यम से। पहले रोज के रोज पढ़ते थे। लेकिन बढ़ते बढ़ते ब्लॉगों के साथ सबको रोज पढ़ना संभव नहीं हो पाता। इसलिये मैंने अब अपने पसंदीदा ब्लॉगरों को शुरू से आखिर तक पढ़ने का तरीका अपनाया है। दो हफ़्ते पहले इतवार को मनोज मिश्र को पढ़ा। इस बार पंकज की सारी पोस्टें शुरू से आखिरी तक पढ़ीं। बहुत मजेदार रहा उनको पढ़ना। उनकी पहली पोस्ट की इन लाइनों ने मुझे उनका मुरीद बनाया
वो मुझे कहती थी की "पंकज! ये लहरें हमारी बातें सुनाने के लिए आती हैं न?"
"नही! ये सारे जहाँ से खूबसूरत इन पैरों में लिपटने आती हैं और इस ज़न्नत में मिल जाती हैं।"
वो मुझे धक्का देकर गिरा देती और खिलखिलाते हुए कहती
"धत! बेवकूफ"


पंकज को शायद पहली बार मैंने दिसम्बर 2008 में पढ़ा था और उनका जिक्र करते हुये लिखा था:इस कविता से पता चलता है कि आज की पीढ़ी कित्ती धैर्यवान है:
उसकी बिंदी के तो हिलने का
मैं इंतज़ार करता था, की कब वो
हल्का सा हिले और मैं बोलूँ
की "रुको! बिंदी ठीक करने दो"।

पंकज की पोस्टें पढ़ते हुये मैंने देखा कि इस बात का जिक्र उन्होंने अपनी एक पोस्ट में किया था। लेकिन इस बार जब मैंने यही कविता पढ़ी तो मुझे ये पंक्तियां सबसे अच्छी लगीं:
वो कितना रोयी थी, जब
मैंने उसे अपनी पहली कविता
सुनाई थी, बोलती थी "तुम मुझसे
कितना प्यार करते हो, बेवकूफ!!"
और मैं सिर्फ़ उसके
आँसू गिनता रहा था।


लेकिन आप इस सब से झांसे में मत आइये। अपनी मर्जी से पंकज उपाध्याय को पढिये और देखिये कितने शेड्स हैं इस युवा, मूडी, संवेदनशील खुद को लेटलतीफ़ मानने वाले ब्लॉगर के। पूजा , मनीषा, रंजना (रंजू) इनके शुरुआती प्रशंसकों में थे। बाद में वीनस केसरी की सलाह की चपेट में आकर गजल स्कूल में दाखिल हो गये और लिखने भी लगे। हाल फ़िलहाल ये डा.अनुराग के इत्ते प्रशंसक हो गये कि उनकी पोस्ट का शीर्षक ही अपने यहां सटा लिया। ख्वाहिशें इनकी ऐसी है कि हर ख्वाहिश पर दम निकलने की बात शायद ऐसी ही ख्वाहिशों को देखकर निकली होगी।

बहरहाल हमारी महीनों की एक ख्वाहिश थी वो कल पूरी कर ली मैंने! कल सौ के करीब पोस्टें पढ़ लीं पंकज की और सबमें टिपियाये भी -ताकि सनद रहे।

और सागर की टिप्पणी में की जिस बात का जिक्र है वह शायद यह है:
और समुद्र की हर लहर मुझसे बीयर की एक घूँट मांगने आती थी… मै एक बूँद दे देता था और वो चली जाती थी जाकर वो बाकी लहरो को बताती थी और फ़िर सब एक एक करके मेरे पास आती थी।

आप भी पढिये कभी पंकज उपाध्याय को। अच्छा लगेगा- आपको , पंकज को और हमको भी।

और अंत में


फ़िलहाल इतना ही। आपका सप्ताह मजेदार बीते। शुभकामनायें! नीचे देखिये विवेक रस्तोगी के ब्लॉग पोस्ट से ये चित्र:

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26 टिप्‍पणियां:

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  2. हमई मुँहन ते बोल नाय फूटत लला
    हर नर्मदेश्वर सदा सहाय
    घणे राम राम राम चोखे कृष्ण कृष्ण कृष्ण
    भक्तवत्सल बजरंगी बालक, चर्चाभक्तन के सुधि लीयन आय गये

    अपणे विवेक का सँभरा देखि कै, हमई मुँहन ते बोल नाय फूटत लला
    तीन से तीन पन्द्रह हुई गये की-बोर्डिया पर अँगुरिया जाम गये लला
    टिप्पणि का लिखैं, वरिष्ठन का गरिष्ठ अब हज़म नाहिं होत है लला
    विश्वामित्र मेनका कूँ ललचाय औ' क्लिष्ट पर भड़कत कनिष्ठ हैं लला

    रायबरेली में रहें, डॉक्टर अमर कुमार ।
    रायबरेली में रहें, डॉक्टर अमर कुमार ।
    खरे खरों की लिस्ट में, इनका नाम शुमार ॥
    इनका नाम शुमार, जटिल सच्चे लोगन में ।
    जिव्हा पर भी वही बात रहती जो मन में ॥
    विवेक सिंह यों कहें, लिखें ये उलझा धागा ।
    जो सुलझाने चला, हारकर पानी माँगा ॥

    और अब..एप्रूवल की टाँग ते, लटके अमर कुमार ।
    एप्रूवल की टाँग ते, लटके अमर कुमार ।
    एप्रूवल को देखकर, इनको चढ़त बुखार ॥
    इनको चढ़त बुखार, टिप्पणी का इंजेक्शन ।
    एप्रूवल हट जाय, कह रहे कब से सज्जन ?
    विवेक सिंह यों कहें, सुझावों का स्वागत हो ।
    किन्तु जबरदस्ती मनवाने पर लानत हो ॥

    ई अमर कुमार चर्चा तो बिना ऍप्रूवल पढ़ लीहिन,
    लटकै का टैम नहीं है, सोचत हैं अब टिप्पणी का करें..,बाबा जी का घँटा ?

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  3. ज्ञानदत्त जी ने दांव मार लिया ... वैसे कुछ दिनों या महीनो बाद हम भी आत्मसाक्षात्कार करने वाले हैं...
    पंकज की कुछ रोमांटिक पोस्ट पढ़ कर सीटी मारने का दिल कर रहा है... एक पोस्ट में उसने समंदर किनारे बिअर पीने का बड़ा जीवंत वर्णन किया है.

    बहुत भारी ब्लंडर मिस्टेक हो गया था जल्दबाजी में ... सबसे माफ़ी... विशेष कर ज्ञान जी से... माफ़ करें सर

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  4. pankaj ka blog mere pasandeeda blogs me se hai ..zindagi ke kafi kareeb baith kar uska chehra dekhte hain wo bhi apni man chahi shaql me.. us blog par ki gayi ye charcha kaafi pasand aayi .. :)

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  5. छुट्टियों में बहुत कुछ छूट गया पढने से ..इस चर्चा में काफी अच्छे लिंक्स मिले अब जाकर पढ़ती हूँ ..शुक्रिया.

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  6. विवेक रस्तोगी जी के ब्लाग से चित्र आर्कुट का 'आक्थू' वास्तव में ही बहुत अच्छा लगा. यह मैं पहले नहीं देख पाया था. आभार.

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  7. shukriya Vivekji,cartoon ki achchhi vyakhya ki aapne.

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  8. पंकज कम लिखने वालों में से हैं, पर अच्छा लिखते हैं. मेरा उनसे ज़ल्दी ही परिचय हुआ है, पर लगता है कि पुरानी दोस्ती है. रोमैंटिक पोस्ट तो गजब लिखते हैं, सागर सही कह रहे हैं कि सीटी मारने को जी चाहता है. बाकी लिंक भी अच्छे हैं, कुछ तो पढ़ी हुयी पोस्टे हैं, और कुछ को पढ़ना है.

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  9. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  10. बिना फोटो के भी चर्चा अच्छी है।
    वैसे फोटो होना चाहिए या नहीं इस पर यदि मत लिया जाए तो मेरा मत है कि होना चाहिए, थोड़ा और अच्छा दिखता है।

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  11. @ मनोज कुमार, शिशु का परिच्छेदन गिरिजेश राव की पोस्ट से जस का तस लिया गया है। वे थे हैं और रहेंगे। शीर्षक भले बदल दें आपके कहने पर। फोटो ज्यादा नही दिये बस काम भर के दिये। आगे भी देते रहेंगे। हमें भी लगता है कि अगर ब्लॉगर को एतराज नहीं है तो फोटो लगने चाहिये।

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  12. पंकज उपाध्याय ऑफिस में फीड रीडर से आपकी चर्चा बाँच रहा था की अपनी फोटो देखकर ठिठक गया :) सबसे पहले एक बहुत बड़ा धन्यवाद इतनी इज्ज़त देने के लिये.. कल आपके ही ब्लॉग पर 'इज्ज़त' का फलसफा पढ़ा था :) और ज्ञान जी की टिपण्णी भी पढ़ी थी.. वैसे ऐसी ही एक लाइन आपने अपनी एक पुरानी पोस्ट में लिखी है.. शायद 'ज्ञान जी मोर्निंग ब्लागर है' वाली पोस्ट में

    मुझे आपकी वो चर्चा याद है जब पहली बार मेरा ब्लॉग चर्चा में शामिल किया गया था.. :) बड़ी प्यारी टिप्पणिया थीं जैसे
    "वाह वाह बहुत सार्थक चर्चा , और हाँ वो बिंदी हिली क्या ??????" - सीमा गुप्ता
    "मज़ा आ गया चर्चा पढ़ कर.....और हाँ मैं भी सीमा जी की तरह जानना चाहता हूँ की बिंदी हिली की नही?" - अमित
    "अगर बेसब्र होना भर इस पीढ़ी का होना सिद्ध करता हो तो हम भी पूछेंगे कि काहे बिंदी के हिलने पर हलकान हुए जा रहे हो।और हॉं सलाह दी जाए कि फेविकोल ब्रांड बिंदी लगाना बंद करें...हलकी गोंद वाली लगाएं बचुआ की ऑंखें पथराई जा रही हैं।" - मसिजीवी
    "बिंदी ने धोखा दे दिया. हिली नहीं. खैर, ऐसे समय में धैर्य रखने की ज़रूरत है. आज नहीं तो कल हिलेगी. बस देखते रहना है. इनिशीयली न भी हिले...एडवांटेज न भी मिले तो कोई बात नहीं. देखते रहना है. ऊबना नहीं है.... ऊब गए तो डूब गए." - शिव जी

    बड़े मज़े आये थे ये सब पढ़कर :)

    हिन्दी ब्लागजगत ने मुझे काफी कुछ दिया है... कुछ बहुत ही अच्छे दोस्त, कुछ नए आदर्श और थोड़ी बहुत 'इज्ज़त' :).. मैं शायद थोडा बहुत और ओपेन भी हुआ हूँ ... छोडिये यहाँ भी सेंटिया रहा हूँ .. :)

    हालांकि डोट काम बूम तो अभी नहीं है लेकिन हमें 'अर्थकाम' और 'बंधन' जैसे इनीशिएटिव्स को बढ़ावा देना चाहिए... ऐसी साइट्स ही हिन्दी को आगे ले जायेंगी.. थ्री क्लैप्स फॉर दीज गाईज़...

    पंकज उपाध्याय की मेल से प्राप्त टिप्पणी

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  13. इंतजार पूरा हुआ। बहुत दिनों से अनूप शुक्ल की चर्चा का इंतजार था।

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  14. @यौवन नवीन भाव, नवीन विचार ग्रहण करने की तात्परता का नाम है; यौवन साहस,
    उत्साह, निर्भयता और खतरे-भरी जिन्दगी का नाम हैं,; यौवन लीक से बच निकलने
    की इच्छा का नाम है।
    ----------- परसाई जी ने यौवन की मूल्यपरक परिभाषा की है , काल परक नहीं , यह लिखते
    समय परसाई जी अवश्य बूढ़े रहे होंगे --- :)
    ............ उपयोगी लिंक ,,
    पंकज भाई को पढ़ना दिल-फ़ेंक लेखन को पढ़ना है ठीक सागर भाई को पढने जैसा ..
    इन लोगों के यहाँ टीपने के लिए दिल को की-बोर्ड पर छितराना पड़ता है ! सबके पास हिम्मत कहाँ !

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  15. बहुत बढिया चर्चा. लिंक्स तो हमेशा ही अच्छे मिलते हैं आपकी चर्चा में.

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  16. लोगों को समझना चाहिए कि चरित्र प्रमाणपत्र छ: महीने ही वैलिड रहता है ।

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  17. बेहतर...
    हमेशा की तरह कुछ जरूरी लिंक मिले...

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  18. आख़िरी चित्र देख कर मजा आ गया :)

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  19. ओह पंकज साहब को बस कल से ही पढ़ना शुरू किया और आज आपने भी रेकमेंडेशन लेटर दे दिया..उत्तम चर्चा..अर्थकाम पर मै भी चक्कर लगा कर आता हूँ..मगर सबसे मारक रहा इरफ़ान सा’ब का कार्टून..कितना प्रभावी और तीखा!...वैसे विवेक साहब वाला भी बहुत मस्त चित्र है..अब गब्बर को रिक्वेस्ट भेजना है..अगर गैंग मे कोई वैकेंसी हो तो..शायद आपका रिकमेंडेशन काम आये :-)

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  20. यों पक्तियों में पंकज की सरलता जानना भला लगा, पर उस से भी बढ़कर मेल द्वारा प्रेषित टिप्पणी में उस किलक को महसूस करना... जो हौले-से मन को छू जाए ....

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  21. @अपूर्व....@सागर.@दर्शन.......गर उस उम्र के एक चेहरे है ..जो मुझे बेहद अज़ीज़ है ..........तो ...@पंकज दूसरे .......कुछ कुछ फ्लेश बेक से.....
    ..

    ये भी साल ज़मा कर लो....

    अकबर का लौटा रखा है शीशे की अलमारी में
    सुना है चेतक घोड़े की एक लगाम
    जैमल सिंह पर जिस बन्दूक से अकबर ने
    दागी दी गोली .....रखी है
    शिवाजी के हाथ का कब्ज़ा
    त्यागराज की चौकी जिस पर बैठ के रोज
    रियाज करता था वो
    थुं चन के लोहे की कलम है
    ओर खडायु तुलसी दास की
    खिलजी की पगड़ी का कुल्ला ....

    जिन में जान थी उन सब का देहांत हुआ
    जो चीज़े बेजान थी ...अब तक जिंदा है -----

    ...........गुलज़ार......सिर्फ गुलज़ार.........

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  22. यह पोस्टलेखक के द्वारा निकाल दी गई है. :-)

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  23. पंकज जी का लिखा बहुत पहले से पढ़ रही हूँ .बहुत पसंद आता है उनका लिखा ..बहुत दिनों बाद चर्चा पढ़ी अच्छा लगा ..

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