गुजराती भाषी कविगण यदि कविता हिन्दी में लिखेंगे तो क्या होगा? बारीश आएगी, और वे अकेले भीग लेंगे. भाई लोग (और बहना,), भाषा, व्याकरण और वर्तनी को मारो गोली – उसे साहित्य की किताबों में दर्ज रहने दो – ब्लॉग को ब्लॉग रहने दो, ब्लॉगिंग जिंदाबाद कहो और गुजराती-हिन्दी में बारीश में भीगने का मज़ा लो -
कितने मौसम गुज़र गये बारीश के,
तुम्हारे बीना..
ये बार भी थोडा भीग लेंगे वापस,
तुम्हारे बीना ..
लोग समजेंगे नहीं हमारी दिल की तड़प को...
बिताता क्या है मेरे साथ ,तुम्हारे बीना..
बारिश में ना भीगेगा ये जिस्म सिर्फ मेरा..
पर रो लेगा वापस ये दिल भी तुम्हारे बीना...
यदा कदा कोई विचार ऐसा टपक पड़ता है कि दिल से निकलता है – भई वाह! ये तो हमारा भी कहना है :
आकाश के विस्तार को पाना है
मुझे बतखों के स्कूल में नही जाना है
मुझे संग चाहिए उड़ने वाले पंछी का
जो उड़ना सिखादे
मेरे अंदर का आन्जनेय जगादे
मुझे जामवंत जैसे गुरु की तलाश है
जो बस मेरे संभावनाओं पर सोचने पर करे मजबूर
दे दे वो विश्वास की उड़ सकूँ पंख पसार सुदूर ....
काश मैं भी बतखों के स्कूल में भर्ती नहीं कराया गया होता... पर, इस जीवन सूत्र के बारे में आपका क्या कहना है -
वृद्धावस्था
उस आयु को कहते हैं
अब किसी
खूबसूरत लड़की को देख कर
मन में
आशायें नहीं
यादें जगती हैं....
अब, यादें तो बहुत कुछ जगाती हैं. एक कहावत पढ़ी थी – आवश्यकता आविष्कार की जननी है –
दुनिया में जितनी खोजे हुई है, आविष्कार हुए है, निर्माण हुए है सभी मनुष्य की आवश्यकता के अनुसार ही बने है। जब मनुष्य को किसी प्रकार की आवश्यकता महसूस होती है तो स्वतः आविष्कार की प्रक्रिया चलने लगती है। आज के इस युग में जब हमें किसी वस्तु की जरूरत होती है तो हम उसे बाजार से जाकर ले लेते है , उसी प्रकार किसी सेवा की जरुरत होती है तो किसी न किसी प्रकार पूरी हो जाती है।
हुँह, रही होगी कभी आवश्यकता आविष्कार की जननी. आजकल तो मार्केटिंग आविष्कार की जननी हो गई है. नया प्रोडक्ट आविष्कार करो, धुँआधार मार्केटिंग करो और देखते ही देखते जनता को महाआवश्यक लगने लगेगा!
पर, अब आप मुझे यह कहने न लगियेगा कि तुम ये क्या लिखते हो?
मेरे शब्दों ने मुझे नई पहचान दी या मेरे दर्द ने कहना जरा मुश्किल है लेकिन तुम कहो मैं तुमसे पूछना चाहता हूं तुम्हारा दर्द कितना गहरा है कितनी गहराई में डूबे हैं तुम्हारे शब्द,अपने ही शब्द इन कोरे पन्नो पर भरते हुए क्या तुम तन्हा होते हो?क्या उसी तन्हाई में तुम्हारी आत्मा जीवित होती है जो जानती है सच्चाई को,सच्चाई जीवन की, सच्चाई मृत्यु की,सच्चाई सुख,सच्चाई दुःख की, "बिना दर्द के कलम नही उठती होगी तुम्हारी बहुत भारी जो है सच्चाई में बहुत बजन होता है....
वैसे, ये बात सही है. लिखने में बहुत दर्द होता है. खासकर चिट्ठाचर्चा लिखने में. क्या लिखें क्या छोड़ें, क्या जोड़ें क्या घटाएं में ही घंटों बर्बाद हो जाते हैं, और अकसर कमाल की या बढ़िया पोस्टें छूट जाती हैं. अच्छा हुआ ये नाच रहे कंकाल नहीं छूट पाए निगाहों से –
नाच रहे कंकाल, घूमते काले-पीले प्रेत यहाँ ।
अमृतत्व के लिए भटकते हैं ज़हरीले प्रेत यहाँ ।
बरसों से बाधित-पीड़ित हैं इस बस्ती के लोग, सुनो !
है कोई जो मन्त्र-विद्ध कर ले या कीले प्रेत यहाँ ?
भुतहा खंडहरों पर होता निष्कंटक शासन इनका
नहीं बदलने देते कुछ भी बड़े हठीले प्रेत यहाँ ।
हाँ, मगर ये जानकारी आपकी नजरों से नहीं छूटनी चाहिए –
किसी भी ब्लॉगर का सपना होता है कि अधिक से अधिक लोग उसे पढे और उसे सराहें। यह सराहना ब्लॉगर का हौसला बढाती है, उसे संतुष्टि प्रदान करती है। लेकिन अब ब्लॉग सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं रहा। अब वह विभिन्न तयशुदा उददेश्यों के लिए भी उपयोग में लाया जा रहा है और इसकी पहुंच पत्र पत्रिकाओं से होती हुई रेडियो तक जा पहुंची है। जी हॉं, अब रेडियो में भी ब्लॉग का जिक्र होने लगा है....
और अंत में –
एक आवारा कुत्ता भटकता हुआ एक मकान पर पहुँचा और मकान मालिक से आश्रय की मांग की. चंद मजेदार सवाल-जवाब कुत्ता और मकान मालिक के बीच कुछ इस तरह हुए –
‘हूं, मुझे तुम्हें आश्रय देने में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन एक शर्त पर.
तुम्हें दिन के उजाले में घर आए हर मेहमान का स्वागत करना होगा?’
‘चोर-डकैत और हत्यारों का भी?’
‘चोर-डकैत तो वे दुनिया और कानून की नजर में होंगे. हमारे लिए तो वे
हमारे ग्राहक और अन्नदाता हैं.’ कुत्ता कुछ समझ न पाया तो पूछा, ‘फिर
मैं भौंकूंगा किसपर? बिना भौंके तो मेरा खाना तक नहीं पचता.’
‘इस घर में पुलिस वाले भी आते हैं और जज भी.’ उनके ऊपर तुम
जितना चाहे भौंक सकते हो.’ कुत्ता राजी हो गया. इससे पहले जिस
मालिक के घर भी गया, प्रत्येक ने पुलिस पर भौंकने को मना करते थे.
पहली बार कोई मिला जो पुलिस से भी ताकतवर दिखता है. यहां रहकर
वह अपना वर्षों का गुबार निकाल सकता है....
कुत्ते को आश्रय मिला या नहीं ये जानने का पागलपन आप नहीं करेंगे?
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टीप : कुछ पाठकों की फ़ीड संबंधी शिकायत है कि उन्हें चिट्ठाचर्चा की फ़ीड सही नहीं मिल रही. फ़ीडबर्नर की फ़ीड में कुछ समस्या है. पाठकों से आग्रह है कि वे अपनी कड़ी सही कर लें और डिफ़ॉल्ट ब्लॉगर की फ़ीड सब्सक्राइब करें. पता है –
http://chitthacharcha.blogspot.com/feeds/posts/default?alt=rss
बाजू पट्टी में दिए गए फ़ीड की कड़ी में भी सुधार कर दिया गया है.
-- कड़ियाँ - साभार चिट्ठाजगत.इन
भीगे भी तो कैसे बारीश के बिना।
जवाब देंहटाएंमस्त चर्चा।
बड़ी शानदार चर्चा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएं"जब हमें किसी वस्तु की जरूरत होती है तो हम उसे बाजार से जाकर ले लेते है "
जवाब देंहटाएंहाँ जी, गालिब साहब ने भी फ़रमाया था- ले आएंगे बाज़ार से जाकर दिलो-जाँ और....:-)
भीगी भीगी चर्चा.. मस्त..
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुंदर चर्चा!
जवाब देंहटाएंथोडी छोटी जरूर लगी पर अच्छी चर्चा रही...
जवाब देंहटाएंvaah bhai
जवाब देंहटाएंmaza aa gaya
तुम्हारे बीना वाले मौसम बहुत पसंद आये .......
जवाब देंहटाएंफीड की कड़ी को सही कर लिया, आभार.
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा में लिंक चिट्ठाजगत से दिए गए ऐसा क्यों ?
जवाब देंहटाएंफीड के बारे सुगम और विस्तृत जानकारी कहाँ से मिल सकती है ?
वीनस केसरी
वीनस जी,
जवाब देंहटाएंफ़ीड की जानकारी यहां है -
http://raviratlami.blogspot.com/2007/10/blog-post.html
रहा सवाल लिंक चिट्ठाजगत से दिए गए ऐसा क्यों - तो मैं आमतौर पर चिट्ठे चिट्ठाजगत की फीड से पढ़ता हूं. वहीं लिंक उपलब्ध भी होते हैं. अतः शॉर्टकट के रूप में लिंक वहीं से उठाया गया है.