उदय प्रकाशजी दो महीने पहले हिंदी कथा साहित्य के महान कथाकार जैनेंद्र जी का घर देखने गये। वहां जाने और घर खोजने की तथा इस दौरान अपने मन के भाव उन्होंने अपनी पोस्ट में लिखे हैं। घर के आसपास उनके बारे में लोग जानते भी नहीं कि यहां कभी जैनेंन्द्रजी रहते थे। वे लिखते हैं:
आप भी उसी सीधे-सादे, गरीब आदमी का घर देखिए, जो हिंदी का, प्रेमचंद के अलावा दूसरा महान कथाकार था, जिसको महात्मा गांधी भी पढ़ते थे और दोनों के बीच पत्र-व्यवहार होता था, जिसने असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया था और देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था, जिसने हिंदी गद्य को आधुनिक रूप दिया था, जिसे प्रेमचंद ने ‘हिंदी का गोर्की’ कहा था और जिसके हाथों को अपने हाथों मे थामे हुए, उसकी गोद में अंतिम सांस ली थी।
टी-20 विश्वकप में भारत के हार जाने के कई कारण खोजे जायेंगे। कोई कि्सी की बल्लेबाजी को कोसेगा कोई किसी की गेंदबाजी या कप्तानी को भी। लेकिन बिक्रम प्रताप सिंह ने खुलासा किया है कि तो गोलू के बाथरूम जाने से हार गया भारत :
भारतीय टीम ट्वंटी 20 विश्व कप से बाहर हुई तो इसके सबसे बड़े कारणों में धोनी की घटिया बल्लेबाजी, फील्डरों के खराब प्रदर्शन के साथ-साथ गोलू का भारतीय पारी के दौरान बाथरूम जाना भी रहा। क्या कहा आपने, ये गोलू कौन है ----, गोलू को नहीं जानते ----। गोलू 12 साल का वह बालक है जो भारतीय पारी के दौरान अगर बाथरूम गया तो विकेट गिरने की संभावना कफी बढ़ जाती है।
शिवकुमारमिश्र ने कल अपने लेखन में निरापद लेखन का नमूना पेश किया!:
निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापदनाम न बताने की शर्त के आग्रह के साथ एक अनाम आलोचक ने इस कविता की व्याख्या करते हुये कहा:
निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद
उपभोक्तावादी समाज में सब जगह अपना कब्जा करने की मानसिकता की भावना इस कविता से मुखरित होती है। निरापद लेखन लिखकर-लिखकर उपजाऊ जमीन घेर ली गयी। बाद में इसका मनमाफ़िक उपयोग किया जायेगा।
कविता में अनुप्रास अलंकार और यमक अलंकार की छटा दर्शनीय है। निरापद लेखन की बार-बार आवृत्ति से इसमें अद्भुत अनुप्रास अलंकार दिखता है। हर निरापद लेखन का अर्थ अलग होने के कारण इसमें यमक अलंकार है।
कविता पर अपने विचार व्यक्त करते हुये ज्ञानजी ने लिखा:
भद्रजन, आप इस जगत को अपने विचार, लेखन, सर्जनात्मकता, गम्भीरता, सटायर या गम्भीर-सटायर से निरापद करें।
टिप्पणी/प्रतिटिप्पणी:
टिप्पणी:ड्रामेबाजी से मतलब मेरा यह है किसी आतंकवादी को सजा न मिले तो प्रभावित लोग क्या अपनी जान दे देते हैं? न जाने क्या फ़ैसला करवाया तुमने मालिनी से। उठ नहीं रहे इसलिये यह कयास मैं लगा रहा हूं कि शायद मालिनी ने जीवनलीला समाप्त कर ली! जिंदगी क्या इस तरह जीते हैं लोग! बहुत भावुक और अपरिपक्व बात है इस तरह की बातें सोचना और उनको ग्लैमराइज करना। शायद मेरी बात बुरी लगे लेकिन मुझे जो समझ आया वह लिख रहा हूं! अनूप शुक्ल
प्रतिटिप्पणी:राजनीतिक लाभ-हानि के चशमें से देखनें वाले या कानून की बदबूदार भूलभुलइया में पक्ष-विपक्ष के हित साधनें में सिद्धस्त हो चुके महनीय लोगों के व्यवहार के अभ्यस्थों को मालिनी का निर्णय भावुक अपरिपक्व या ड्रामाई लग सकता है/लगना ही चाहिये।
सीमा पर शत्रू सेना से मुकाबला करनें वाला जवान भावुक न हो तो देश के लिए जान नहीं दे सकता। देश और देश की जनता के प्रति कर्तव्य की यह भावना ही है जो भावुक संवेदानाओं को उस ऊँचाई तक ले जाती हैं जहाँ गर्भवती पत्नीं, बूढ़ा बाप, नन्हीं सी बेटी या वत्सल माँ की आर्त चीत्कार भी उसे प्राणोत्सर्ग से नहीं रोक पाती।
सैनिक की जवान विधवा जब एकाउन्ट रेगुलराइज करानें बैक जाती है या डेथ सर्टिफेकेट के लिए पालिका जाती है या उत्तराधिकारिता का सर्टिफेकट बनवानें कचहरी जाती है या सामर्थ्यवान अयाचित मुहल्ले के रहवासी, जिस नजर से उसे देखते हैं क्या हम नहीं जानते? जवान बेटे की मौत से जर्जरित बूढ़ा ससुर तो मानों माल की गठरी ताक्नें वाला कुत्ता होकर रह जाता है जो हर आनें जानें वाले पर भौंकता रहता है।
समाज के पहेरुओं-खैरख्वाहों की हवस भरी हरकतॊं, अदाओं-निगाहों से अहिर्निश मरनें से एक बार में ही मर जाना क्यॊं बुरा है? समाज जैसा सम्मान देता है उसका जीवंत प्रमाण क्या सम्माननीय अच्युतानंदन के डायलाग और संवेदना प्रकट करनें की एक्टिंग नहीं थी। क्या कोई संवेदनशील व्यक्ति उसे भूल पायेगा?
दर अस्ल अपनें घरों, आफिसों, कहवाघरों, सत्ता के सुरक्षित गलियारों में चाय या स्काच की चुस्की लगाते हुए, विदेशी पैसे से एन०जी०ओ० चलाते हुए जब हम मानवाधिकारों, पड़ोसी से मैत्री संबन्ध या फिर देश कहाँ जारहा है कि तथाकथित बौद्धिक चर्चाऎं कर रहे होते हैं तो हमें होश भी नहीं होता है कि सीमा पर या फिर अंबिका पुर में दुश्मन या नकस्ल या माओवादी की गोली से कितनें जवान मर रहे है या ऎसे मरनें वाले के परिवार वाले कैसे जिन्दा ही मरे जैसा जीवन जीनें के लिए मजबूर किये जा रहे हैं। सत्ताशीर्ष पर विराजमान एक नेता नें तो पत्रकारॊं से चिढ़्कर तो यहाँ तक कह दिया था कि तो क्या हुआ they are paid for & it's a part of job! मतलब मानवाधिकर तो छोड़िये जिन्दा रहनें का मूल अधिकार भी मानों चंद पैसे में खरीद लिया जाता है। वस्तुतः हम हिपोक्रेट ही नहीं कृतघ्न भी हैं। सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’
और अंत में
गज़ल मुझसे रुठी है.. :कहती है जाओ उसी मुंहझौंसी अतुकांत, बेबहर कविता के पास
--जाना ही पड़ेगा..जब आप जैसे अपने साथ छोड़ गये तो रास्ता भी क्या है. :)
हमारा कहना कि अब हमारा मुंह न खुलवाओ! हम ऐसे ही भरे बैठे हैं! केवल मुस्कराने से बात हल्की नहीं हो जाती भाई! एक लाईना के बहाने हमारे साथ छोड़ जाने की बात कहते हुये मौज लेना सही नहीं है! कम से कम चिट्ठाचर्चा के मंच पर तो है ही। वुधवार की चर्चा कभी आप किया करते थे। न जाने कितनी बार आपसे नियमित चर्चा करने का अनुरोध किया लेकिन आप हर बार आस्वासन के कम्पट खिलाकर नयी-नयी तरह से व्यस्त हो जाते रहे। जय हो! :)
शिव और ज्ञान से ऊपर तो कुछ होता ही नहीं
जवाब देंहटाएंहैं शायद इसीलिये आप की चर्चा का सेण्टर पॉइंट
हमेशा वहीं होता हैं वही से दुनिया शुरू और
ख़तम होती हैं चर्चा की
माफी मांग लेता हूँ इसे खुले मंच से.. :) अब मुस्कराने से चल जायेगा क्या?
जवाब देंहटाएंटिपण्णी प्रति टिपण्णी में इस विषय को देखना सुखद रहा.. मुझे सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ जी की टिपण्णी बिलकुल सटीक लगी.. उन्होंने वो सबकुछ कहा दिया जो मैं कहानी मैं नहीं कहा पाया.. वैसे मैं कहता भी तो शायद अनूप जी को ड्रामेबाजी का अंश और अधिक लग सकता था.. :)
जवाब देंहटाएंसमीरलालजी, माफ़ी मांगने से बिल्कुल नहीं चलेगा। माफ़ी हमारे स्टाक में नहीं न हम उसके लिये अधिकृत हैं। मुस्कराते हुये माफ़ी मांगना जले पर नमक छिड़कना है। आप नियमित चर्चा करने के अपने दिये हुये वायदे को पूरा करने के लिये कमर कसें और चर्चा का नारियल दुबारा फ़ोडिये।
जवाब देंहटाएंरचनाजी, इस चर्चा में शुरुआत उदयप्रकाश की पोस्ट से हुई, फ़िर विक्रम सिंह की पोस्ट बाद में कुश की पोस्ट का टिप्पणी/प्रतिटिप्पणी के रूप जिक्र हुआ। इसके बाद समीरलाल और मीनाक्षीजी का भी जिक्र हुआ। चर्चा न शिव/ज्ञान से शुरू हुई न वहां खतम हुई। यह आपकी अपनी नजर है कि आपको वही दिखा। कल की चर्चा में भी शिव/ज्ञानजी का जिक्र केन्द्र में नहीं रहा | इसके पहले भी चर्चा में शिव/ज्ञानजी की पोस्टों का जिक्र प्रमुखता से नहीं हुआ। मैं चर्चा उन्हीं पोस्टों की तो करूंगा जिनको मैं पढूंगा और जो मुझे समझ में आयेंगी। आप इस बात पर भी विचार करिये कि आपको आज की चर्चा में कई अन्य लोगों के अलावा शिव/ज्ञान जी ही क्यों खटके? एक पाठक के नाते आपकी हर टिप्पणी का स्वागत है लेकिन लेकिन एक चर्चाकार के नाते मुझे भी पूछने का हक है कि किन-किन पोस्ट की चर्चा करें यह कौन तय करेगा? जिस पोस्ट को मैं पढ़ ही नहीं पाया उसकी चर्चा मैं कैसे करूंगा?
कुश सुमन्तजी की टिप्पणी सटीक लगी इसीलिये इसे यहां पोस्ट करना जरूरी लगा। ड्रामेबाजी शब्द कुछ ज्यादा कड़ा और गैरजरूरी लगा था मुझे इसीलिये फ़िर उसको स्पष्ट करने का प्रयास करना पड़ा। आम जिंदगी में इस तरह की घटना होने पर किसी के प्रति इस तरह की बात करना घटियापन है और कृत्घनता भी जैसा कि सुमन्त जी ने लिखा। लेकिन एक लेखक के रूप में कुश से हमारी और कुछ अपेक्षायें भी हैं इसीलिये यह टिप्पणी की। वियोग/दुख/पीड़ा/अलगाव को ग्लैमराइज करके फ़ार्मूला लेखन हम लोग बहुत करते हैं लोगों के लिखे कई लेख एक से लगते हैं। क्लोन सरीखे! इस बारे में शायद कभी कोई सक्षम व्यक्ति लिख सके।
जवाब देंहटाएंक्या ब्लोगिंग केवल साहित्य आधारित ही होगी
जवाब देंहटाएंऔर उन्ही की चर्चा होगी . आप सही हैं की आप
जो पढ़ सकते हैं / पाते हैं उसी की चर्चा करते हैं
पिछले कुछ दिनों मे हिंदी ब्लॉगर बलात्कार
के विषय पर निरंतर अपना नजरिया
दे रहे हैं , क्या एक चर्चा कार की नज़रिये से
आप को उन ब्लोग्स को भी देखना चाहिये
like dr kumarendra and albela khatri
और शिव और ज्ञान का नाम ना लूँ तो आप की
अपनी टिपण्णी पर प्रतिक्रिया कैसे पाती .
आप एक ऐसे मंच पर लिख रहे हैं जहाँ निरंतर
पाठक आते हैं तो क्या सामाजिक मुद्दों
पर खुल कर लोग बात करे आप नहीं चाहेगे
सोचते है किस पर लिखे ....धोनी की बदलती बटिंग शैली पे... या अपने धोबी की फोटो लेकर कोई पहेली बना कर डाल दे के पहचान कौन ?. .या शायनी आहूजा की पत्नी की प्रेस कांफ्रेंस पे.. या मेरठ शहर में कारोबार में मजहब के इस्तेमाल पे .....या मिलावटी दूध पे.या अपनी कोई किताब उठाकर फलां कीडे काटने के इलाज़ पे लिखे ...फोटो समेत .इतने कीडे है की महीनो एक पोस्ट रोज बनेगी.....या कल देर रात देखी पिक्चर पे लिखे ...या सड़क पे जा रहे उस आदमी के बारे में जिसने लंगूर किराये पे देने का धंधा अपनाया है शहर को बन्दर से मुक्ति दिलाने के लिए .फोटो समेत.......
जवाब देंहटाएंकुल मिलकर सब अपनी अपनी कथा के वाचक है ....'टोपिक ऑफ़ टूनाईट ' ढूंढते ....तो मसला ये किसी हिंदी लेखक ने कभी कहा था ...की कुछ ऐसा जुगाड़ हो की सामने वाला किस मूड से बैठा है ..तो इस देश में पिस ओर हार्मोनी बरकरार रहे ...मिसाल के तौर पे कोई पडोसी से भीड़ आया है ओर ज़माने को जानकारी नहीं...जमाना एक कांफ्रेंस का इनविटेशन देने आया है की 'स्वछ सामाज की शुरुआत पड़ोस से '....तो यहाँ भी किसका कौन सा मूड आ जाए कुछ पता नहीं कंप्यूटर के उस पार .....
तो लब्बे लुआब क्या रहा....सिर्फ इतना किसी एक का महान लेखन दूसरे के लिए निरापद हो सकता है जी....सबका मूड काहे को तय करते हो......
संक्षिप्त होते हुए भी अच्छी चर्चा है। हाँ, डॉ. अनुराग भी अब विषय तलाशने लगे क्या। उन के लेखन से अधिक तो बीच में रिक्त छूटे स्थान प्राणवान होते हैं।
जवाब देंहटाएंअनूप जी मैं बहुत संवेदनशील व्यक्ति हूँ और अब उम्र के ५८ वें वर्ष में सुधरना भी नहीं चाहता। जब मुझसे कोई कहता है कि be practical तो मुझे लगता है कि जैसे यह संकेत दिया जारहा है कि सिद्धान्त किनारे रख भ्रष्ट हो जाओ, या don't be panicy तो मुझे लगता है कि मानो कहा जारहा है कि संवेदनाहीन हो जाओ। ऎसे कई और मैक्सिम गढ़े गये है। यह सब मित्र ही कहते हैं और शायद ठीक ही कहते होंगे। इस पर भी इस प्रकार की दृष्टि को मै अपना आदर्श नहीं बना पाया।
जवाब देंहटाएंकिसी के एक शेर की पंक्ति थी ‘लेखनी औजार है यदि सॄजन करे/ लेखनी हथियार है यदि विध्वंश करे’। कुछ सीमा तक यह ठीक है किन्तु मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाया। संभवतः हजारी प्रसाद जी नें नागर जी से एक बार कहा था कि ‘लिखो ऎसा जो दिखायी दे’। मुझे यह अधिक आकर्षक लगता है। कल कुश जी नें वैसा ही कुछ किया था। कुश जी के ब्लाग को मैं पढ़ता पहले भी रहा हूँ किन्तु टिप्पड़ी संभवतः पहली बार ही की।
लिखना-लिखाना मेरा स्वाभाविक कर्म नहीं है किन्तु कभी-कभी सुन पढ़कर प्रतिक्रिया अवश्य होती है तो लिखनें की चेष्टा करता हूँ। अल्हड़ टिप्पड़ियों से थोड़ा आहत हुआ तो लिखमारा। मेरी टिप्पड़ी उस कहानी से जुड़े वृहत सामाजिक परिवेश को दृष्टि में रखकर थी फिर भी अनूप जी या किसी को अनुचित लगी हो तो मै क्षमाप्रार्थी हूँ।
निरापद में भरपूर
जवाब देंहटाएंपर नहीं दिखा दूर
पद या पद्य क्यों
मेरी आंख दोषी।
तब तक आप मजे करिये।
जवाब देंहटाएंलिखिये, लिखाइये! मौज मनाइये! मस्त रहिये!
आजकल कुछ लोगों को इन दो लाइन में घोर विरोधाभास नजर आ रहा है
वीनस केसरी
मेरी टिप्पड़ी उस कहानी से जुड़े वृहत सामाजिक परिवेश को दृष्टि में रखकर थी फिर भी अनूप जी या किसी को अनुचित लगी हो तो मै क्षमाप्रार्थी हूँ। सुमन्त मिश्र’कात्यायन’
जवाब देंहटाएंसुमन्तजी, आपकी टिप्पणी किसी भी तरह अनुचित नहीं लगी। बल्कि टिप्पणी उचित लगी इसीलिये यहां चर्चा में सबके पढ़ने के लिये पेश किया। अनुचित जो लगा वह आपका क्षमाप्रार्थना करना। अगर चर्चा में माडरेटर लगा होता तो मैं बिना क्षमाप्रार्थी शब्द को माडरेट किये इसे प्रकाशित न करता। :)
निरापद टिप्पणी -कल की चर्चा शिवकुमार मिश्रजी कल की चर्चा शिवकुमार मिश्रजी कल की चर्चा शिवकुमार मिश्रजी कल की चर्चा शिवकुमार मिश्रजी कल की चर्चा शिवकुमार मिश्रजी कल की चर्चा शिवकुमार मिश्रजी ......:)
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअनूप जी आपने हमें इलाहाबाद के कार्यशाला में अस्सी नब्बे पूरे सौ की कहानी सुनाई थी
जवाब देंहटाएंआज जब मैंने गिनना शुरू किया की मैं कितने ब्लॉग का अनुसरण कर रहा हूँ तो वो कहानी याद आ गई
क्योकि संख्या पूरी १०७ है :)
सोचा आपसे बता कर मौज ली जाये पता नहीं ले पाया या नहीं :) बतायेगे तो कृपा होगी :)
वीनस केसरी
जवाब देंहटाएंसँचार तकनीशियनों के क्रूर उपेक्षा स्वरूप कल निट्ठला नेटच्युत रहा ।
आज नेटासीन होते ही बेहतर सँवाद स्थापित कायम करने में सक्षम एक अच्छी चर्चा पढ़ने को भेंटायी ।
कहने को कुछ बचा ही नहीं हैं, सब लोग काफ़ी कुछ कह चुके हैं ।
आज तो यहाँ साधुवाद फैलाने का बनता है, पर..
चर्चा तो लगता है कि अपना बिस्तर समेट चुकी,
नवी चर्चा बस आने को ही है, शायद ?
अनूप जी, आपकी टिपण्णी मेरे लिए उतनी ही मत्वपूर्ण है जितनी सुमन्त जी की.. पाठक को पूरा अधिकार होता है किसी भी लेख से सहमत या असहमत होने का.. और आपकी बेबाक टिपण्णी का मैं स्वागत भी करता हूँ.. यकीन मानिए मुझे बहुत ख़ुशी होती है जब मुझे इस तरह की टिप्पणिया मिलती है.. इन्ही की वजह से मैं सीखता जा रहा हूँ.. आशा है भविष्य में भी यु ही आपका मार्गदर्शन मिलता रहेगा..
जवाब देंहटाएंआपने क्लोनिंग के विषय में सक्षम लोगो से सुझाव मांगे है.. पता नहीं मैं सक्षम हूँ या नहीं पर अपनी बात कहना चाहता हु
क्लोनिंग की बात करे तो मैं नहीं जानता आप किस सन्दर्भ में कह रहे है.. पर आपने अपने ब्लॉग पर लिखा है "हम तो जबरिया लिखबे..हमार कोई का करऊ.." आप जबरदस्ती लिखेंगे जैसा आप चाहे.. तो दुसरो को भी इस बात की इजाजत तो मिलनी ही चाहिए.. आप इस विषय पर सक्षम व्यक्ति का लेख चाहते है.. किसी भी व्यक्ति के लेखन पर कोई भी सो कॉल्ड सक्षम व्यक्ति पंचायत नहीं बैठा सकता.. वियोग/दुख/पीड़ा/अलगाव के विषय में शायद आपने ज्यादा लेख पढ़े है.. शायद इसलिए भी कि आप कई सालो से ब्लोग्स पढ़ रहे है.. आपको ऐसे कई लेख मिले होंगे.. पर जो लोग नए है उनका क्या? हो सकता है कुछ लोगो को ये लेख अच्छे लगते है..या कुछ लोगो के लिए ये बिलकुल नए हो? हर पाठक की अपनी पसंद होती है.. और हर लेखक की भी.. आपके लेख में हमेशा हास्य का टच होता है.. परन्तु सबको हास्य व्यंग के लेख पसंद नहीं इसका मतलब ये नहीं कि आप लोगो की पसंद अनुसार लिखे.. जरुरी ये है कि लोग अपनी पसंद के अनुसार पढ़े..
यदि आपको दुःख वियोग की पोस्ट पसंद नहीं तो आप नहीं पढ़े, पर ऐसे लेखन पर कोई माप दंड बैठाने की बात ना करे.. मुझे याद है ज्ञान जी भी इस विषय पर लिख चुके है.. उन्होंने भीगी पलके नाम से ब्लॉग बनाकर दुःख और पीडा वाले विषयों पर लिखने की बात की थी.. शायद उन्हें भी इस तरह का लेखन पसंद नहीं.. एक दो दिन पहले ही उन्होंने कहा था गौरेया पर गीत लिखना पसंद नहीं.. ये उनकी पसंद नापसंद है.. इसका ये अर्थ नहीं कि गौरेया पर गीत लिखने वाले लोगो को लिखना छोड़ देना चाहिए.. समीर लाल जी को रचना और ताऊ द्वारा पहेलिया पूछना ठीक नहीं लगता.. रचना को रामप्यारी और गोलू पांडे के बारे में चर्चा करना ठीक नहीं लगता.. अनुराग जी को धोनी के बालो के बारे में लिखना ठीक नहीं लगता.. द्विवेदी जी को अरुण जी का वकीलों के बारे लिखना अच्छा नहीं लगता.. कुछ दिन पहले लोगो को कंचन जी की कहानी का अंत पसंद नहीं आया था... तो क्या किया जाए ? किसकी पसंद को ध्यान में रखकर लिखा जाए.. ? आगे जारी है
क्या दो लोगो का पसंदीदा विषय एक नहीं हो सकता ? क्या दो लोगो की शैली एक जैसी नहीं हो सकती? कई सालो तक मुझे लगा कि फिल्म 'मेरे अपने' हृषिकेश मुखर्जी ने बनायीं है.. छोटी सी बात भी मुझे उनकी ही फिल्म लगी.. बाद में पता चला कि वो क्रमश:गुलज़ार साहब और बासु दा ने बनायीं थी... मुझे खट्टा मीठा,गोलमाल, छोटी सी बात, आनंद, अंगूर, परिचय, खूबसूरत जैसी फिल्मे एक ही जोनर की लगती है.. पर आप भी जानते है कि इनके निर्देशक अलग अलग है.. मुझे गुलजार साहब और प्रसून जोशी के लिखे गीतों में खास फर्क नज़र नहीं आता.. मैंने आप पर और शिव कुमार मिश्र जी पर परसाई जी का गहरा प्रभाव देखा है.. इसका ये अर्थ है कि आप क्लोनिंग करते है? चिट्ठा चर्चा में जैसी एक लाईना आपकी होती है उसी स्तर की शिव कुमार मिश्र जी की भी होती है क्या इसे भी मैं क्लोनिंग कहू?
जवाब देंहटाएंहमें यहाँ पर एक दुसरे को प्रोत्साहित करते हुए आगे बढ़ना है ना की अपनी पसंद के विषयों पर लोगो से पोस्ट लिखवाना.. मैं हमेशा कहता हूँ कि पूजा नज़मो के मामले में बहुत अच्छा लिखती है.. पर मेरी तरह वो भी शिकार हो गयी है यहाँ पर चल रही सो कॉल्ड पाठक पसंद परंपरा की.. यहाँ तक की अनुराग जी ने नज्मे लिखना बंद कर दिया है.. हम लोग क्या कर रहे है.. अपनी पसंद से लिख रहे है या हमको पढने वालो की ?
मैंने कॉफी विद कुश में लोगो से इंटरव्यू लिए.. अभी ताऊ भी यही कर रहे है क्या इसे क्लोनिंग कहा जाए ? मैंने ज्ञान चतुर्वेदी जी से प्रभावित होंकर ब्लोगाश्रम नामक पोस्ट की सीरिज लिखी थी अभी कुछ दिन पहले मुझे किसी ने ताऊ द्वारा वैसी ही पोस्ट लिखे जाने का लिंक दिया पर क्या उसे क्लोनिंग कहा जाये? हो सकता है उन्हें भी ये विषय और ये शैली पसंद आई हो.. जिस तरह मुझे पसंद आई थी.. लेखक की शैली उसकी अपनी सोच से बनती है.. टिप्पणिया पाने के लिए मैं दुःख, वियोग या पीडा पर नहीं लिखता.. यदि टिप्पणिया पाना ही मेरा मकसद होता तो मैं रोज़ की एक पोस्ट लिख रहा होता.. मैं मन से लिखने में यकीन करता हूँ.. जो मुझे पसंद होता है वो लिखता हूँ.. यही ब्लोगिंग की ताकत है... ऑर यही शायद ब्लोगिंग की वो विशेषता है जो लोगो को आकर्षित करती है.. कि कम से कम यहाँ हम वो लिख सकते है जो हम लिखना चाहते है..
सम्बंधित विषय पर जो मेरे विचार थे बस वही लिखे है.. बात सिर्फ यही ख़त्म नहीं होती कहना बहुत कुछ है पर इतना समय नहीं है.. देखते है कौन कौन इस विषय पर अपनी बात रखता है..
कुश के लेखन की सेण्टीमेण्टालिटी परेशान करती है। अपनी परिस्थितियां ही विकट हैं कि यह झेलना कष्टप्रद होता है।
जवाब देंहटाएंचिट्ठा-चर्चा या टिप्पणी-चरचा?
जवाब देंहटाएंदिल्चस्प बहस किंतु
सन्दर्भों से कुछ कटा कटा समझने की कुश अररर कोशिश कर रहा हूँ !
जवाब देंहटाएं