गुरुवार, जून 18, 2009

कुश की टिप्पणी और हमारी प्रतिटिप्पणी

कल की चर्चा में कुश की पोस्ट के संदर्भ में मेरी टिप्प्णी थी:
कुश सुमन्तजी की टिप्पणी सटीक लगी इसीलिये इसे यहां पोस्ट करना जरूरी लगा। ड्रामेबाजी शब्द कुछ ज्यादा कड़ा और गैरजरूरी लगा था मुझे इसीलिये फ़िर उसको स्पष्ट करने का प्रयास करना पड़ा। आम जिंदगी में इस तरह की घटना होने पर किसी के प्रति इस तरह की बात करना घटियापन है और कृत्घनता भी जैसा कि सुमन्त जी ने लिखा। लेकिन एक लेखक के रूप में कुश से हमारी और कुछ अपेक्षायें भी हैं इसीलिये यह टिप्पणी की। वियोग/दुख/पीड़ा/अलगाव को ग्लैमराइज करके फ़ार्मूला लेखन हम लोग बहुत करते हैं लोगों के लिखे कई लेख एक से लगते हैं। क्लोन सरीखे ! इस बारे में शायद कभी कोई सक्षम व्यक्ति लिख सके।


इस पर कुश ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। कुश की प्रतिक्रिया लम्बी है। दो भागों में । सो उस पर पैरा दर पैरा अपने विचार व्यक्त कर रहा हूं:
अनूप जी, आपकी टिपण्णी मेरे लिए उतनी ही मत्वपूर्ण है जितनी सुमन्त जी की.. पाठक को पूरा अधिकार होता है किसी भी लेख से सहमत या असहमत होने का.. और आपकी बेबाक टिपण्णी का मैं स्वागत भी करता हूँ.. यकीन मानिए मुझे बहुत ख़ुशी होती है जब मुझे इस तरह की टिप्पणिया मिलती है.. इन्ही की वजह से मैं सीखता जा रहा हूँ.. आशा है भविष्य में भी यु ही आपका मार्गदर्शन मिलता रहेगा..


हमारी बेबाक टिप्पणी का स्वागत करने का शुक्रिया। तुम्हारे संदर्भ में यह आश्चर्य भले न हो फ़िर भी सुखद तो है ही। क्योंकि आमतौर पर अपने ब्लागजगत में बेबाक टिप्पणी को सहजता से नहीं ले पाते। बेबाक टिप्पणी अगर विपरीत टिप्पणी होती है तो लोग और असहज होते हैं। बहुत विनम्र लिखने वाले भी साथी भी बेबाक टिप्पणी करने वाले को पूरी विनम्रता से मुंहतोड़ जबाब देने को व्यग्र रहते हैं।

आपने क्लोनिंग के विषय में सक्षम लोगो से सुझाव मांगे है.. पता नहीं मैं सक्षम हूँ या नहीं पर अपनी बात कहना चाहता हूं


हां मैंने लिखा था - इस बारे में शायद कभी कोई सक्षम व्यक्ति लिख सके। तुमने लिखा- अच्छा किया।
क्लोनिंग की बात करे तो मैं नहीं जानता आप किस सन्दर्भ में कह रहे है.. पर आपने अपने ब्लॉग पर लिखा है "हम तो जबरिया लिखबे..हमार कोई का करऊ.." आप जबरदस्ती लिखेंगे जैसा आप चाहे.. तो दुसरो को भी इस बात की इजाजत तो मिलनी ही चाहिए.. आप इस विषय पर सक्षम व्यक्ति का लेख चाहते है.. किसी भी व्यक्ति के लेखन पर कोई भी सो कॉल्ड सक्षम व्यक्ति पंचायत नहीं बैठा सकता.. वियोग/दुख/पीड़ा/अलगाव के विषय में शायद आपने ज्यादा लेख पढ़े है.. शायद इसलिए भी कि आप कई सालो से ब्लोग्स पढ़ रहे है.. आपको ऐसे कई लेख मिले होंगे.. पर जो लोग नए है उनका क्या? हो सकता है कुछ लोगो को ये लेख अच्छे लगते है..या कुछ लोगो के लिए ये बिलकुल नए हो? हर पाठक की अपनी पसंद होती है.. और हर लेखक की भी.. आपके लेख में हमेशा हास्य का टच होता है.. परन्तु सबको हास्य व्यंग के लेख पसंद नहीं इसका मतलब ये नहीं कि आप लोगो की पसंद अनुसार लिखे.. जरुरी ये है कि लोग अपनी पसंद के अनुसार पढ़े..


क्लोनिंग की बात मैं जिस संदर्भ में कह रहा हूं वह क्लोन सरीखेलिखने के पहले लिखी- वियोग/दुख/पीड़ा/अलगाव को ग्लैमराइज करके फ़ार्मूला लेखन हम लोग बहुत करते हैं लोगों के लिखे कई लेख एक से लगते हैं। फ़ार्मूला लेखन का मतलब भी साफ़ कर दूं। वियोग/दुख/पीड़ा/अलगाव का चित्रण करते हुये ज्यादातर लेखन एक फ़ार्मूले के अनुसार किया हुआ लगता है। खासकर कवितायें इकहरी/सपाट सी लिखी जाती हैं। शायद इसे मेरी संवेदनहीनता समझा जाये लेकिन जब इस तरह की कवितायें/लेख पढ़ता हूं तो मुक्तिबोध की पंक्तियां याद आती हैं- दुखों के दागों को तमगों सा पहना। वह चाहे खुद के माध्यम से हो या अपने पात्रों के माध्यम से।

हरेक लिखने वाले का अधिकार है कि वह जैसा चाहे और जैसा बन पड़े वैसा लिखे। मैं या कोई अन्य इस पर पाठक की हैसियत से अपनी राय ही व्यक्त करते हैं। एक तो मैं सो काल्ड सक्षम व्यक्ति नहीं मानता अपने को। न ही पंचायत बैठाने का मेरा अधिकार है। किसी नये ब्लागर के ब्लाग पर वह चाहे जैसा लिखे खराब या अच्छा मैं कभी इस तरह की बेबाक टिप्पणी नहीं करता। कुछ ही ब्लाग ऐसे हैं जिन पर मैं बेबाक टिप्पणी करने में नहीं हिचकता। उनमें से एक ब्लाग तुम्हारा भी है और मेरी समझ में तुम नये ब्लागर नहीं हो। पाठ्क को अपनी पसंद के लेख पढ़ने का और लेखक को लिखने का पूरा अधिकार है। इसको मैं रोकने वाला कोई नहीं। मैंने अपनी बात कही अपनी समझ के अनुसार। उससे सहमत या असहमत होना लिखने वाले का अधिकार है। वैसे भी लोकतंत्र/बहुमत के सिद्धांत के अनुसार मेरी टिप्पणी का १-३७ के हिसाब से कोई मायने रहता।

मेरे लेख बहुत चाहे वे हास्य-व्यंग्य के हों या ऐसे ही, बहुत लोगों को पसंद नहीं आते। सच तो यह है कि अपने अधिकतर लेख मुझे खुद नहीं पसंद हैं। अपने गुरू जी और अपने भाई से जुड़े लेख को छोड़कर कोई लेख ऐसा मुझे नहीं मिला अपना जिसको पढ़कर कुछ न कुछ कमी न दिखती हो। इन लेखों के साथ भी ऐसा शायद इसलिये लगता है कि इनको पढ़ते हुये मैं भावुक हो जाता हूं और आलोचनात्मक नजरिये से इनको देख नहीं पाता। लोगों की पसंद के अनुसार लिखने/पढ़ने की किसी को कोई पाबंदी नहीं है लेकिन यह सहज होता है कि लोग वैसा लिखने को उत्सुक होते हैं जैसा लोग पसंद करते हैं। संदर्भ के लिये बताऊं कि समीरलाल जी के लिये सुबीरजी ने एक बार लिखा था कि उनको हास्य-व्यंग्यनुमा लेखन छोड़कर कवितायें लिखना चाहिये लेकिन मुझे समीरजी की कवितायें उनके लेखों के मुकाबले बिल्कुल अच्छी नहीं लगतीं। अब यह अपनी-अपनी पसंद की बात है। लेकिन समीरजी की कवितायें बहुत से लोगों को पसंद हैं तो लोगों को उनको पसंद करने का हक है और मुझे उनके लेखों के मुकाबले कम या न पसंद करने का। ऐसे ही मेरे हास्य-व्यंग्य के लेख भी लोगों को पसंद नहीं आते तो यह उनका अधिकार है। इसमें कोई अनहोनी नहीं है।
यदि आपको दुःख वियोग की पोस्ट पसंद नहीं तो आप नहीं पढ़े, पर ऐसे लेखन पर कोई माप दंड बैठाने की बात ना करे.. मुझे याद है ज्ञान जी भी इस विषय पर लिख चुके है.. उन्होंने भीगी पलके नाम से ब्लॉग बनाकर दुःख और पीडा वाले विषयों पर लिखने की बात की थी.. शायद उन्हें भी इस तरह का लेखन पसंद नहीं.. एक दो दिन पहले ही उन्होंने कहा था गौरेया पर गीत लिखना पसंद नहीं.. ये उनकी पसंद नापसंद है.. इसका ये अर्थ नहीं कि गौरेया पर गीत लिखने वाले लोगो को लिखना छोड़ देना चाहिए.. समीर लाल जी को रचना और ताऊ द्वारा पहेलिया पूछना ठीक नहीं लगता.. रचना को रामप्यारी और गोलू पांडे के बारे में चर्चा करना ठीक नहीं लगता.. अनुराग जी को धोनी के बालो के बारे में लिखना ठीक नहीं लगता.. द्विवेदी जी को अरुण जी का वकीलों के बारे लिखना अच्छा नहीं लगता.. कुछ दिन पहले लोगो को कंचन जी की कहानी का अंत पसंद नहीं आया था... तो क्या किया जाए ? किसकी पसंद को ध्यान में रखकर लिखा जाए.. ?

मैं मापदंड बैठाने की बात नहीं कर रहा। मेरा मतलब यह था और है भी कि कोई सक्षम व्यक्ति इस पर कुछ सार्थक लिख सके।यदि आपको दु:ख वियोग की पोस्ट पसंद नहीं तो आप नहीं पढ़ें मेरी समझ में यह कहना ठीक नहीं है तुम्हारा। इस वाक्य में छिपा हुआ संदेश भी है जिसका स्वाद अच्छा नहीं है । जब तक पूरी पोस्ट पढ़ी नहीं जायेगी तब तक उसमें क्या है कैसे समझ में आयेगा। पाठक की पसंद के अधिकार के तहत लोग अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। अब यह लेखक पर है कि वह कैसे उसको लेता है।

क्या दो लोगो का पसंदीदा विषय एक नहीं हो सकता ? क्या दो लोगो की शैली एक जैसी नहीं हो सकती? कई सालो तक मुझे लगा कि फिल्म 'मेरे अपने' हृषिकेश मुखर्जी ने बनायीं है.. छोटी सी बात भी मुझे उनकी ही फिल्म लगी.. बाद में पता चला कि वो क्रमश:गुलज़ार साहब और बासु दा ने बनायीं थी... मुझे खट्टा मीठा,गोलमाल, छोटी सी बात, आनंद, अंगूर, परिचय, खूबसूरत जैसी फिल्मे एक ही जोनर की लगती है.. पर आप भी जानते है कि इनके निर्देशक अलग अलग है.. मुझे गुलजार साहब और प्रसून जोशी के लिखे गीतों में खास फर्क नज़र नहीं आता.. मैंने आप पर और शिव कुमार मिश्र जी पर परसाई जी का गहरा प्रभाव देखा है.. इसका ये अर्थ है कि आप क्लोनिंग करते है? चिट्ठा चर्चा में जैसी एक लाईना आपकी होती है उसी स्तर की शिव कुमार मिश्र जी की भी होती है क्या इसे भी मैं क्लोनिंग कहू?

सिनेमा के बारे में मेरी कोई समझ नहीं है इसलिये इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता। परसाईजी का प्रभाव कित्ता है यह तो नहीं कह सकता मैं लेकिन अगर मेरी हर पोस्ट एक जैसी दिखती है पाठक को। हर एक पोस्ट को पढ़कर वह पहले का रिपीटीशन लगती है तो उसको दोहराव या क्लोनिंग कहना चाहिये। बतानी चाहिये और उसके बारे में आलोचना करनी चाहिये कि एक ही बात बार-बार दोहरा के टाइम बरबाद कर रहे हो। चिट्ठाचर्चा में एक लाईना तो लिखने वाले के पोस्ट के टाइटिल पर निर्भर करती है। हमारी एक लाईना को शिवकुमार मिश्र का क्लोन कहा जाये तो मुझे तो कोई एतराज नहीं होगा। शिवबाबू का भी कह सकते हैं कि उनको भी कोई ज्यादा एतराज नहीं होगा। हां लेकिन इसमें एक खतरा है कि फ़िर जिन पोस्टों की चर्चा होगी उनके टाइटिल पर भी क्लोनिंग कहलाने का खतरा बढ़ जायेगा।


हमें यहाँ पर एक दुसरे को प्रोत्साहित करते हुए आगे बढ़ना है ना की अपनी पसंद के विषयों पर लोगो से पोस्ट लिखवाना.. मैं हमेशा कहता हूँ कि पूजा नज़मो के मामले में बहुत अच्छा लिखती है.. पर मेरी तरह वो भी शिकार हो गयी है यहाँ पर चल रही सो कॉल्ड पाठक पसंद परंपरा की.. यहाँ तक की अनुराग जी ने नज्मे लिखना बंद कर दिया है.. हम लोग क्या कर रहे है.. अपनी पसंद से लिख रहे है या हमको पढने वालो की ?

इस बारे में पहले भी बहुत लिख चुका। दोहराव का कोई फ़ायदा नहीं। लेकिन यह सच है लेखक/पाठक का आपस में प्रभाव कुछ न कुछ जरूर पड़ता है। जिस तरह का लेखन ज्यादा पसंद किया जाता है उस तरह का लेखन ज्यादा होने के खतरेज्यादा बढ़ जाते हैं। मेरे चिठेरा-चिठेरी सीरीज के लेख लोगों ने पर्याप्त पसंद किये। लेकिन कुछ दोस्तों ने शिकायत भी की मैं क्या टपोरी भाषा लिख रहा हूं। उनकी सलाह के खिलाफ़ मेरे पास बहुत से तर्क हैं। उर्मिल कुमार थपलियाल साप्ताहिक लिखते हैं उस अंदाज में। मैं उसे जारी रख सकता हूं क्योंकि वह मेरी प्रकृति के अनुरूप भी है। लेकिन अपने दोस्त की सलाह (दबाब नहीं) मुझे वैसा लिखने से रोकती है। लेखक/पाठक का एक दूसरे पर कुछ न कुछ असर तो होता ही है।

मैंने कॉफी विद कुश में लोगो से इंटरव्यू लिए.. अभी ताऊ भी यही कर रहे है क्या इसे क्लोनिंग कहा जाए ? मैंने ज्ञान चतुर्वेदी जी से प्रभावित होंकर ब्लोगाश्रम नामक पोस्ट की सीरिज लिखी थी अभी कुछ दिन पहले मुझे किसी ने ताऊ द्वारा वैसी ही पोस्ट लिखे जाने का लिंक दिया पर क्या उसे क्लोनिंग कहा जाये? हो सकता है उन्हें भी ये विषय और ये शैली पसंद आई हो.. जिस तरह मुझे पसंद आई थी.. लेखक की शैली उसकी अपनी सोच से बनती है.. टिप्पणिया पाने के लिए मैं दुःख, वियोग या पीडा पर नहीं लिखता.. यदि टिप्पणिया पाना ही मेरा मकसद होता तो मैं रोज़ की एक पोस्ट लिख रहा होता.. मैं मन से लिखने में यकीन करता हूँ.. जो मुझे पसंद होता है वो लिखता हूँ.. यही ब्लोगिंग की ताकत है... ऑर यही शायद ब्लोगिंग की वो विशेषता है जो लोगो को आकर्षित करती है.. कि कम से कम यहाँ हम वो लिख सकते है जो हम लिखना चाहते है..

फ़िर दोहराव होगा विस्तार में। काफ़ी विद कुश, ताऊ का इंटरव्यू में हर बार नये व्यक्ति का परिचय होता है इसलिये सब लेख एक से नहीं लगते। काफ़ी विद कुश ईद का चांद हो गया और ताऊ जी हफ़्ते-हफ़्ते इंटरव्यू देते हैं। उनके सवाल रेंज एक जैसी है लेकिन नये-नये लोगों के बारे में जानने की उत्सुकता रहती है। ब्लागाश्रम वाली पोस्टें भी क्लोनिंग नहीं हैं क्योंकि उनको अब खुद तुम भी नहीं लिख रहे। मैं टिप्पणी के लिये नहीं लिखता/मन से लिखता हूं। इन बातों का कोई मतलब नहीं है। मन से लिखने के लिये न मैं कोई रोकने वाला होता हूं न कोई और।
सम्बंधित विषय पर जो मेरे विचार थे बस वही लिखे है.. बात सिर्फ यही ख़त्म नहीं होती कहना बहुत कुछ है पर इतना समय नहीं है.. देखते है कौन कौन इस विषय पर अपनी बात रखता है..

ऐसे विषयों पर आमतौर पर बहुत कम लोग राय व्यक्त करते हैं। मैंने तुम्हारी टिप्पणी का जबाब देना जरूरी समझा इसलिये यह सब लिख दिया। अब इतना बहुत!

और अंत में

हालांकि कुश की टिप्पणी में आगे भी मार्गदर्शन की आकांक्षा व्यक्त की गयी है और मैं मानता भी हूं कि ऐसा है भी लेकिन इस टिप्पणी से ध्वनित यह होता है कि जैसा लेखक लिख रहा है अगर वह पसंद है तो पढ़ लो। लेखक ने जिस अंदाज में लिखा है उससे अलग अंदाज में लिखने की उससे आशा मत करो। उसको बताओ मत कि इस लेख में यह बात खटकने वाली है। लेखक अपनी मन से लिखता है उस पर अपनी पसंद थोपने की जबरदस्ती करने की कोशिश न करें। अगर किसी के लेखन में कोई अलग संभावना दिखती है तो उसको बताकर भटकाने का पाप नहीं करना चाहिये।

यह मेरे अपने लिये भी एक सीख है कि चलते-फ़िरते शब्द अपनी पोस्ट में अपने लिये भले लिखे जायें लेकिन प्रतिक्रयायें बहुत संयत शब्दों में औपचारिक सी भाषा में की जानी चाहिये। कुश की पोस्ट के लिये ड्रामेबाजी और दोहराव वाली बात के लिये क्लोन सरीखा कहना मुझे अपनी गलती लग रही है। लेकिन अब जो हो गयी सो हो गयी। इतना तो झेलना ही होगा साथी होने के नाते। अनायास मुझे अविनाश का अपनी डायरी में प्रमोद जी के हवाले से(?) लिखा वाक्य याद आ रहा है- फुरसतिया को वाक्‍य बनाना नहीं आता :)

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12 टिप्‍पणियां:

  1. अपनी बेबाक टिप्पडी के चलते अभी कुछ दिन से मैं भी यही सब अनुभव कर रहा हूँ
    मगर झूट की तारीफ़ करना भी कहाँ तक सही है, मैं भी भावनाओं ने नहीं बह पता.

    चलिए इसी बहाने ये विषय भी उठा की टिप्पडी पोस्ट लिखने वाले के मन की हो,
    पोस्ट चाहे पढने वाले के मन हो या नहीं

    वीनस केसरी

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  2. श्रीमान, मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ ।
    यह पोस्ट पढ़ने के बाद टिप्पणी न देकर, कुश को एक मेल करने का मन बनाया ।
    फिर ठहर गया, काहे कि अभी हाल में एक स्नेहात्मक मेल पर प्रचारात्मक प्रतिक्रिया से ब्लागजगत गुजर चुका है ।
    लेखन के निरापद रखे जाने की बहस, निरा-भद्द होकर दम तोड़ गयी । बैठे मूड़ हिलाने से बेहतर तो था कि, जो सुमिरै हनुमँत और टीप ही तो दिया । सँदर्भित पोस्ट पर मैंनें कुछ ऎसी ही टिप्पणी दी है,
    " भई कुश, ऎसे पलायनवादी अँत की आशा न थी ।
    सो, पोस्ट को पढ़ते समय की सँवेदना, मालिनी के अँतिम निष्कर्ष ने क़ाफ़ूर कर दिया ।
    तुम चाहते तो उसे रोक सकते थे । अच्छा न लगा, सो लिख दिया ।
    तुम जान ही चुके होगे कि आजकल मेरी टिप्पणियों की टैगलाइन क्या है ? "

    इस तरह मैंने एक अन्य विकल्प भी होने का आभास उन्हें दिया ताकि वह विचार कर कभी एक नयी दिशा तलाश सकें । यदि कथा में बदलाव ही कर बैठते, तो मुझे दुःख होता फिर भी मलाल था, कि अपने चहेते को इस तरह न लिखता तो भी चल सकता था, लौट कर टिप्पणी हटाने गया तो पाया कि कतार में लगे अनूप भाई भी कुछ ऎसा ही टीप गये हैं । मुझे बल मिला, जब पीछे खड़े फ़ुरसतिया, तो डर काहे का ! अतः टिपिया वहीं पड़ी रहने दी ।
    अभी रात्रि-गश्त पर निकलते ही, कुश जी की टिप्पणी से दुआ-सलाम हो गयी । पेज बन्द करते न करते, यह प्रतिटिप्पणी भी प्रकट होती भयी । टिप्पणी-प्रतिटिप्पणी से बेहतर होता कि स्पष्ट किया जाता कि, ऎसे मुद्दों पर कथाकार की दिशा क्या हो ? भले ही वह चर्चाकार की व्यक्तिगत सोच हो, और.. आपसे यही अपेक्षित भी रहा करता है । पर, सवलिया काटि दिहौ तऊन ठीक, तनिक हल तो सुझाओ.. आखिर फेल कबै तक होत रहबै ?
    मेरी समझ में कथाकार का दायित्व बनता है कि उसे भान रहे कि वह भविष्य के प्रति भी जवाबदेह है । उसे वर्तमान के सच के साथ साथ समाज को भविष्य की आशा भी देनी चाहिये । पाठक को अपने लेखन के सैलाब में बहा ले जाने का सुख ही अलग है, पर आँसुओं के सैलाब और भावना के सैलाब का सँगम यदि आशानगरी में हो, तो क्या बुरा है ?
    आख़िर मुझे स्लमडाग क्यों बुरा लगा, अतिवाद के चलते ? नहीं, बल्कि अतिवाद के बाजारीकरण की सोच के चलते । यह यथार्थ के नाम की कुटिल मारकेटिंग थी ।
    सुमँत जी की टिप्पड़ी में " जो देखा, सो लिखा " अपनी जगह पर है, क्योंकि पँडित हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी के सामयिक सत्य इतने भयावह नहीं थे, जितनी की हमारी आपकी दिनचर्या में मिलने वाले ख़बरों में शुमार हैं । आदमी असँवेदनशील भले न हो, पर इतना चोटिहल हो चुका है, कि कमीज के बटन बन्द करते करते वह सहजता से "... 13 मरे 3 घायल " खबर पर उचटती दृष्टि डाल अपना नाश्ता निगलने लग पड़ता है, यदि अधिक असहज हुआ तो एकाध भद्दी गाली देकर निवृत हो लेता है या आफ़िस के रास्ते में लड़कियों को ताक कर सँतोष करता है कि, चलो कहीं तो खिलखिलाहट ज़िन्दा है । घिरते जाते इस अँधेरे में रोशनी के किरणों की एक रेख आने भर की जगह बचाये रखो, भाई !
    ऎसे असँपृक्त समाज में लगातार भयावह अँत वाली कथायें, वो क्या कहवे हैं कि, " लास्ट नेल इन कफ़ीन " हाँ वही साबित होते हैं, जी ।
    आतँकवाद की त्रासदी से उपजी इस कथा का अँत एक दुविधापूर्ण स्थिति में छोड़ा जा सकता था । क्योंकि हमसब इसी दुविधा को जी रहे हैं, बल्कि समग्र विश्व का नेतृत्व भी इस दुविधा को जीवित रखने में ही अपना लाभ निहार रहा है । पर, यही कोई अँत तो नहीं ?

    वैसे कुश को कानपुर आमँत्रित करिये, घुमाइये फिराइये और जब वह सामान्य बोलचाल में " अमाँ अब नौटँकी न पेलो " जैसा प्यारभरा उलाहना सुनेंगे तो ड्रामेबाजी का भी ठीक मतलब पकड़ लेंगे । वैसे भाई, अब आप भी अपनी भाषा पर लगाम दीजिये । कभी कभार ज्ञानजी की घुट्टी भी पिया करिये, याकि हमेशा उनकी चाय ही पीते रहेंगे ।

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  3. बहुत कुछ टिप्पणी प्रति टिप्पणी हो गयी है कुश की इस पटकथा पर -जी हाँ वे कथा न लिख कर सीधे पटकथा ही लिख मारते हैं -उनकी हथौटी हो गयी है यह ! मैंने पहले भी उन्हें सहेजा है ! पर रचनाकार को यह पूरी स्वछंदता होनी ही चाहिए कि वह अपनी कहानी का अंत कैसे करे ! अनीता जी का मानस सनातनी भारतीय मानस ही है ,मेरी ही तरह जिसे सुखान्त की चाह होती है ! और यहीं रचना की सोद्येश्यता का सवाल भी उठ खडा होता है ! भारतीय मनीषा सदैव आशावादिता का संबल लिए रही है -मुझे सबसे चौकाने वाली टिप्पणी आदरणीय सुमंत जी की लगी है जो भारतीयता के पुरजोर समर्थक होते हुए भी समाज की समांतर सच्चायियों से इतने क्षुब्ध दीखते हैं कि कुश की कहानी के औचित्य सिद्ध करने के लिए सामजिक विद्रूपों का एक हौलनाक मंजर बयां कर जाते हैं -अनूप जी सदैव से ही बहुत वस्तुनिष्ठ सोच वाले रहे हैं लिहाजा उन्हें यह कथा ड्रामेबाजी ही लगती है -पर नाटकीयता तो कहानी की एक मूल शर्त ही है और कुश इसमें निष्णात हो चुके हैं ! अमर जी भी और ज्ञान जी ने भी टोका है !
    भाई कुश एक बड़े भाई की बात मानोगे -इस कहानी को ज़रा सुखान्त बना के तो देखो ! शायद तुम्हारी सूखी आँखों के पोरों में भागीरथी उमड़ आयें ! और हमारे भी !
    मगर यह भागीरथ काम है ! और तुम्हारे लिए चुनौती भी ! देखते हैं !

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. डॉक्टर साहब की टिप्पणी अपने आप में एक पूरी पोस्ट है. टिप्पणी में व्यक्त उनके विचार ब्लॉग-लेखन और ब्लॉग-लेखक को हमेशा रास्ता दिखाते रहेंगे.

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  6. डॉक्टर साहब की टिप्पणी अपने आप में एक पूरी पोस्ट है. टिप्पणी में व्यक्त उनके विचार ब्लॉग-लेखन और ब्लॉग-लेखक को हमेशा रास्ता दिखाते रहेंगे.

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  7. "वियोग/दुख/पीड़ा/अलगाव का चित्रण करते हुये ज्यादातर लेखन एक फ़ार्मूले के अनुसार किया हुआ लगता है।"
    अरे, वही ना, जिसे गिल्सिरिन लेखन कहेंगे:-)

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  8. "लेकिन प्रतिक्रयायें बहुत संयत शब्दों में औपचारिक सी भाषा में की जानी चाहिये।" ‘सच बोल मगर तोल मोल कर बोल’:)

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  9. कल ही किसी ब्लॉग पे कविता का हुंकारा भरने वाले किसी महाशय का लेख पढ़ रहा था . कहते है .स्पष्टवादिता अगर विनम्रता से संतुलित न हो तो अपना अर्थ खो देती है....वहां भी कुछ ऐसा ही प्रतीत हुआ...हमारे यहाँ त्वरित प्रतिक्रियाओं की आदत सी है .. पर जब कुछ दिन पहले किसी चिटठा चर्चा में सुजाता जी ने अभिव्यक्ति में पंक्चर पर एक अच्छा लेख लिखा था की शायद इस मंच पर कोई सार्थक बहस खड़ी हो .....पर समझदार लोग फिर तटस्थता का झंडा लिए किनारे हो गये ....तटस्थता के अपने पुरूस्कार है .....शायद इस बहाने निरामश लेखन पर बहस हो जाती ...पर ..हमारी ये मांग भी नाजायज है की पूरा ब्लॉग जगत उसी मुद्दे पर बहस करे या लिखे जिससे हम आहत महसूस करते है ......
    मेरे निजी ब्लॉग पे मेरी स्वंतत्रता है की मै जो चाहे लिखूं ....पर किसी सार्वजनिक सामूहिक ब्लॉग पे मेरी जिम्मेदारी शायद बढ़ जाती है ....वहां मेरी निजता को अपना विस्तार करना होगा .........
    माना की शायद ब्लॉग जगत में कविता का स्तर वैसा न हो जैसा अपेक्षित है पर ..कविता को कोई समाज कैसे खारिज कर सकता है ..कोई भी विधा .कोई भी अभिव्यक्ति महज़ इसलिए खारिज नहीं की जा सकती क्यूंकि हम उससे असहज है....निराला ओर मुक्तिबोध ने लम्बी कविताएं लिख कर वैचारिक बहसों का मार्ग मजबूत किया है .......
    स्लमडोग मुझे भी एक सतही अति प्रचारीत फिल्म लगी थी......पर शायद कुछ लोगो को बेहद पसंद आई हो उसमे क्रान्ति दिखो हो ..किसी एक घटना से एक ही समय से गुजरते हुए यदि तीन लोग उस घटना की व्याख्या करेगे तो तीनो व्यख्याये ,तीनो व्रतान्त भिन्न - भिन्न होगे .तीनो के अपने अपने पूर्व अनुभव ....जीवन को देखने की दृष्टि ...ओर उस घटना के उन पर पड़े अलग असर के कारण के कारण ....ओर इसी घटना को बाहर से देखने वाला व्यक्ति इसकी व्याख्या अलग करेगा.....जाहिर है सबका अपना दृष्टिकोण है...चीजो को देखने का नजरिया.... खुद अपने भीतर ही देखिये ...बीस की उम्र में मेरा अलग था .तीस की उम्र में अलग....ओर अब पांच साल बाद अलग...हरेक उम्र का एक अलग आसमान होता है ....तो क्या विचारो की उम्र लम्बी नहीं होती ...
    प्रशंसा से किसी को भी जीता जा सकता है .ओर आलोचना से किसी को भी हारा ...कितने लोग है यहाँ जिन्हें प्रशंसा अच्छी नहीं लगती ?आज से एक साल पहले ब्लॉग जगत की जानी -मानी मेरी एक महिला मित्र ने निजी बात चीत में मुझसे कहा था की वे मेरा लेख पढ़ती है टिप्पणी नहीं करती ...पढना ज्यादा महत्वपूर्ण है ...अलबत्ता उनके टिप्पणी बक्से को मैंने कभी बंद नहीं पाया ....ऐसे विरोधाभास भरे पड़े है ...
    प्रमोद जी को देखता हूँ ...की लगातार सक्रिय है .अपनी मन मर्जी की लिखते है ..बिना किसी की परवाह किये हुए ....सच कहूँ तो असल ब्लॉग लेखन वही है ....

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  10. इन महत्वपूर्ण टिप्पणियों के बाद मेरे लिये कुछ नहीं बचता यहाँ । धन्यवाद ।

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  11. लगता है हिमांशु को फ़ालो करना ही ठीक रहेगा।

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  12. @डा० अनुराग जी, हजारी प्रसाद जी का आशय इतना था कि शब्दों का ऎसा भावात्मक संसार रचो कि रचे हुये दृश्यों में पाठक उसी लोक, उसी काल, उसी मानसिकता में चला जाये। उसे लगे कि वह उस दृश्य का एक पात्र है। जो देखा सो लिखा यह मैने नहीं कहा।यह आधुनिक पत्रकारिता का नारा है जो सबकी खबर दे और सबकी खबर ले कि बात करता है किन्तु अपनीं ही खबर नहीं रखता है।

    @डा० अर्विन्द जी, यह ठीक है कि भारतीय संस्कृति आत्महत्या को गर्हित कर्म मानती है और उसका किसी भी परिस्थिति में समर्थन नहीं करती। किन्तु अपनें चारों ओर देखनें पर कथनी और करनी में विरोधाभाष नहीं दिखता? बहुत सारी बाते हैं जिसके लिए कई पोस्टें लिखी जासकती हैं। अपने शहर वाराणासी को ही देखिये, क्या सब कुछ ठीक है? नहीं। यह पूरे देश की हालत है। प्रसंग आतंकवाद का था उस कहानी में- उसी के सन्दर्भ से यह प्रश्न उठना चाहिये कि क्या ३६५ दिन युद्ध की स्थिति बनीं रहनीं चाहिये? क्या रोज पुलिस और सेना के जवान मरते रहनें देनें चाहिये? क्यों हम एक बार युद्ध नही कर १०-२० साल के लिए शांति नहीं लासकते? क्या हो रहा है लालगढ़ मे? नक्सलवाद-माओवाद का पौधा किसनें लगाया था? आपके बगल में राबर्ट्सगंज तक यह जहर पहुँच चुका है।

    साहित्यकार का कार्य है समाज के हित की सोंचना। स हितकरः इति साहित्यः यही परिभाषा दी गई है। प्रशंसा से इतराना नहीं चाहिये और न ही नित नये वितण्ड़ा खड़े करनें चाहिये। प्रशंसा से उर्जस्वित हो अधिक सार्थक ,जीवंत, प्रेरक लिखा जाए, उसे ही उचित कहा जाएगा।

    जवाब देंहटाएं

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